वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 7 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 7
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
सप्तमः सर्गः (सर्ग7)
भगवान् विष्णु द्वारा राक्षसों का संहार और पलायन
नारायणगिरिं ते तु गर्जन्तो राक्षसाम्बुदाः।
अर्दयन्तोऽस्त्रवर्षेण वर्षेणेवाद्रिमम्बुदाः॥१॥
(अगस्त्यजी कहते हैं-रघुनन्दन!) जैसे बादल जल की वर्षा से किसी पर्वत को आप्लावित करते हैं, उसी प्रकार गर्जना करते हुए वे राक्षसरूपी मेघ अस्त्ररूपी जल की वर्षा से नारायणरूपी पर्वत को पीड़ित करने लगे॥१॥
श्यामावदातस्तैर्विष्णुर्नीलैर्नक्तंचरोत्तमैः।
वृतोऽञ्जनगिरीवायं वर्षमाणैः पयोधरैः॥२॥
भगवान् विष्णु का श्रीविग्रह उज्ज्वल श्यामवर्ण से सुशोभित था और अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए वे श्रेष्ठ निशाचर नीले रंग के दिखायी देते थे; इसलिये ऐसा जान पड़ता था, मानो अञ्जनगिरि को चारों
ओर से घेरकर मेघ उस पर जल की धारा बरसा रहे हों॥२॥
शलभा इव केदारं मशका इव पावकम्।
यथामृतघटं दंशा मकरा इव चार्णवम्॥३॥
तथा रक्षोधनुर्मुक्ता वज्रानिलमनोजवाः।
हरिं विशन्ति स्म शरा लोका इव विपर्यये॥४॥
जैसे टिड्डीदल धान आदि के खेतों में, पतिंगे आग में, डंक मारने वाली मक्खियाँ मधु से भरे हुए घड़े और मगर समुद्र में घुस जाते हैं, उसी प्रकार राक्षसों के धनुष से छूटे हुए वज्र, वायु तथा मन के समान वेगवाले बाण भगवान् विष्णु के शरीर में प्रवेश करके इस प्रकार लीन हो जाते थे, जैसे प्रलयकाल में समस्त लोक उन्हीं में प्रवेश कर जाते हैं। ३-४ ॥
स्यन्दनैः स्यन्दनगता गजैश्च गजमूर्धगाः।
अश्वारोहास्तथाश्वैश्च पादाताश्चाम्बरे स्थिताः॥
रथपर बैठे हुए योद्धा रथोंसहित, हाथीसवार हाथियों के साथ, घुड़सवार घोड़ोंसहित तथा पैदल पाँव-पयादे ही आकाश में खड़े थे॥५॥
राक्षसेन्द्रा गिरिनिभाः शरैः शक्त्यष्टितोमरैः।
निरुच्छ्वासं हरिं चक्रुः प्राणायामा इव द्विजम्॥
उन राक्षसराजों के शरीर पर्वत के समान विशाल थे। उन्होंने सब ओर से शक्ति, ऋष्टि, तोमर और बाणों की वर्षा करके भगवान् विष्णु का साँस लेना बंद कर दिया। ठीक उसी तरह, जैसे प्राणायाम द्विज के श्वास को रोक देते हैं॥६॥
निशाचरैस्ताड्यमानो मीनैरिव महोदधिः।
शामायम्य दुर्धर्षो राक्षसेभ्योऽसृजच्छरान्॥७॥
जैसे मछली महासागर पर प्रहार करे, उसी तरह वे निशाचर अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा श्रीहरि पर चोट करते थे। उस समय दुर्जय देवता भगवान् विष्णु ने अपने शाङ्ग-धनुष को खींचकर राक्षसों पर बाण बरसाना आरम्भ किया॥७॥
शरैः पूर्णायतोत्सृष्टैर्वज्रकल्पैर्मनोजवैः।
चिच्छेद विष्णुर्निशितैः शतशोऽथ सहस्रशः॥८॥
वे बाण धनुष को पूर्णरूप से खींचकर छोड़े गये थे; अतः वज्र के समान असह्य और मन के समान वेगवान् थे। उन पैने बाणों द्वारा भगवान् विष्णु ने सैकड़ों और हजारों निशाचरों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥८॥
विद्राव्य शरवर्षेण वर्षं वायुरिवोत्थितम्।
पाञ्चजन्यं महाशङ्ख प्रदध्मौ पुरुषोत्तमः॥९॥
जैसे हवा उमड़ी हुई बदली एवं वर्षा को उड़ा देती है, उसी प्रकार अपनी बाणवर्षा से राक्षसों को भगाकर पुरुषोत्तम श्रीहरि ने अपने पाञ्चजन्य नामक महान् शङ्ख को बजाया॥९॥
सोऽम्बुजो हरिण ध्मातः सर्वप्राणेन शङ्खराट्।
ररास भीमनि दस्त्रैलोक्यं व्यथयन्निव॥१०॥
सम्पूर्ण प्राणशक्ति से श्रीहरि के द्वारा बजाया गया वह जलजनित शङ्खराज भयंकर आवाज से तीनों लोकों को व्यथित करता हुआ-सा गूंजने लगा॥ १० ॥
शङ्खराजरवः सोऽथ त्रासयामास राक्षसान्।
मृगराज इवारण्ये समदानिव कुञ्जरान्॥११॥
जैसे वन में दहाड़ता हुआ सिंह मतवाले हाथियों को भयभीत कर देता है, उसी प्रकार उस शङ्खराज की ध्वनि ने समस्त राक्षसों को भय और घबराहट में डाल दिया॥११॥
न शेकुरश्वाः संस्थातुं विमदाः कुञ्जराऽभवन्।
स्यन्दनेभ्यश्च्युता वीराः शङ्खरावितदुर्बलाः॥१२॥
वह शङ्खध्वनि सुनकर शक्ति और साहस से हीन हुए घोड़े युद्धभूमि में खड़े न रह सके, हाथियों के मद उतर गये और वीर सैनिक रथों से नीचे गिर पड़े। १२॥
शाईचापविनिर्मुक्ता वज्रतुल्याननाः शराः।
विदार्य तानि रक्षांसि सुपुङ्खा विविशुः क्षितिम्॥१३॥
सुन्दर पंखवाले उन बाणों के मुखभाग वज्र के समान कठोर थे। वे शार्ङ्गधनुष से छूटकर राक्षसों को विदीर्ण करते हुए पृथ्वी में घुस जाते थे॥ १३॥
भिद्यमानाः शरैः संख्ये नारायणकरच्युतैः।
निपेतू राक्षसा भूमौ शैला वज्रहता इव॥१४॥
संग्रामभूमि में भगवान् विष्णु के हाथ से छूटे हुए उन बाणों द्वारा छिन्न-भिन्न हुए निशाचर वज्र के मारे हुए पर्वतों की भाँति धराशायी होने लगे॥ १४ ॥
व्रणानि परगात्रेभ्यो विष्णुचक्रकृतानि हि।
असृक् क्षरन्ति धाराभिः स्वर्णधारा इवाचलाः॥१५॥
श्रीहरि के चक्र के आघात से शत्रुओं के शरीरों में जो घाव हो गये थे, उनसे उसी तरह रक्त की धारा बह रही थी, मानो पर्वतों से गेरुमिश्रित जल का झरना गिर रहा हो॥ १५॥
शङ्खराजरवश्चापि शार्ङ्गचापरवस्तथा।
राक्षसानां रवांश्चापि ग्रसते वैष्णवो रवः॥१६॥
शङ्खराज की ध्वनि, शार्ङ्गधनुष की टंकार तथा भगवान् विष्णु की गर्जना—इन सबके तुमुल नाद ने राक्षसों के कोलाहल को दबा दिया॥१६॥
तेषां शिरोधरान् धूताञ्छरध्वजधनूंषि च।
रथान् पताकास्तूणीरांश्चिच्छेद स हरिः शरैः॥१७॥
भगवान् ने राक्षसों के काँपते हुए मस्तकों, बाणों, ध्वजाओं, धनुषों, रथों, पताकाओं और तरकसों को अपने बाणों से काट डाला॥१७॥
सूर्यादिव करा घोरा वार्योघा इव सागरात्।
पर्वतादिव नागेन्द्रा धारौघा इव चाम्बुदात्॥१८॥
तथा शार्ङ्गविनिर्मुक्ताः शरा नारायणेरिताः।
निर्धावन्तीषवस्तूर्णं शतशोऽथ सहस्रशः॥१९॥
जैसे सूर्य से भयंकर किरणें, समुद्र से जल के प्रवाह, पर्वत से बड़े-बड़े सर्प और मेघ से जल की धाराएँ प्रकट होती हैं, उसी प्रकार भगवान् नारायण के चलाये और शार्ङ्गधनुष से छूटे हुए सैकड़ों और हजारों बाण तत्काल इधर-उधर दौड़ने लगे। १८-१९॥
शरभेण यथा सिंहाः सिंहेन द्विरदा यथा।
द्विरदेन यथा व्याघ्रा व्याघ्रण दीपिनो यथा॥२०॥
दीपिनेव यथा श्वानः शुना मार्जारको यथा।
मार्जारेण यथा सर्पाः सर्पेण च यथाखवः॥२१॥
तथा ते राक्षसाः सर्वे विष्णुना प्रभविष्णुना।
द्रवन्ति द्राविताश्चान्ये शायिताश्च महीतले॥२२॥
जैसे शरभ से सिंह, सिंह से हाथी, हाथी से बाघ, बाघ से चीते, चीतेसे कुत्ते, कुत्ते से बिलाव, बिलाव से साँप और साँप से चूहे डरकर भागते हैं, उसी प्रकार वे सब राक्षस प्रभावशाली भगवान् विष्णु की मार खाकर भागने लगे। उनके भगाये हुए बहुत-से राक्षस धराशायी हो गये। २०-२२॥
राक्षसानां सहस्राणि निहत्य मधुसूदनः।
वारिजं पूरयामास तोयदं सुरराडिव॥२३॥
सहस्रों राक्षसों का वध करके भगवान् मधुसूदन ने अपने शङ्ख पाञ्चजन्य को उसी तरह गम्भीर ध्वनि से पूर्ण किया, जैसे देवराज इन्द्र मेघ को जल से भर देते
नारायणशरत्रस्तं शङ्खनादसुविह्वलम्।
ययौ लङ्कामभिमुखं प्रभग्नं राक्षसं बलम्॥२४॥
भगवान् नारायण के बाणों से भयभीत और शङ्खनाद से व्याकुल हुई राक्षस-सेना लङ्का की ओर भाग चली॥ २४॥
प्रभग्ने राक्षसबले नारायणशराहते।
सुमाली शरवर्षेण निववार रणे हरिम्॥ २५॥
नारायण के सायकों से आहत हुई राक्षससेना जब भागने लगी, तब सुमाली ने रणभूमि में बाणों की वर्षा करके उन श्रीहरि को आगे बढ़ने से रोका॥२५॥
स तु तं छादयामास नीहार इव भास्करम्।
राक्षसाः सत्त्वसम्पन्नाः पुनर्धेर्यं समादधुः ॥२६॥
जैसे कुहरा सूर्यदेव को ढक लेता है, उसी तरह सुमाली ने बाणों से भगवान् विष्णु को आच्छादित कर दिया। यह देख शक्तिशाली राक्षसों ने पुनः धैर्य धारण किया॥२६॥
अथ सोऽभ्यपतद् रोषाद् राक्षसो बलदर्पितः।
महानादं प्रकुर्वाणो राक्षसाञ्जीवयन्निव॥२७॥
उस बलाभिमानी निशाचर ने बड़े जोर से गर्जना करके राक्षसों में नूतन जीवन का संचार करते हुए-से रोषपूर्वक आक्रमण किया॥२७॥
उत्क्षिप्य लम्बाभरणं धुन्वन् करमिव द्विपः।
ररास राक्षसो हर्षात् सतडित्तोयदो यथा॥२८॥
जैसे हाथी सूंड़ को उठाकर हिलाता हो, उसी तरह लटकते हुए आभूषण से युक्त हाथ को ऊपर उठाकर हिलाता हुआ वह राक्षस विद्युत् सहित सजल जलधर के समान बड़े हर्ष से गर्जना करने लगा॥२८॥
सुमालेर्नर्दतस्तस्य शिरो ज्वलितकुण्डलम्।
चिच्छेद यन्तुरश्वाश्च भ्रान्तास्तस्य तु रक्षसः॥२९॥
तब भगवान् ने अपने बाणों द्वारा गर्जते हुए सुमाली के सारथि का जगमगाते हुए कुण्डलों से मण्डित मस्तक काट डाला। इससे उस राक्षस के घोड़े बेलगाम होकर चारों ओर चक्कर काटने लगे। २९॥
तैरश्वैर्धाम्यते भ्रान्तैः सुमाली राक्षसेश्वरः।
इन्द्रियाश्वैः परिभ्रान्तैधृतिहीनो यथा नरः॥३०॥
उन घोड़ों के चक्कर काटने से उनके साथ ही राक्षसराज सुमाली भी चक्कर काटने लगा। ठीक उसी तरह, जैसे अजितेन्द्रिय मनुष्य विषयों में भटकने वाली इन्द्रियों के साथ-साथ स्वयं भी भटकता फिरता है। ३०॥
ततो विष्णुं महाबाहुं प्रपतन्तं रणाजिरे।
हृते सुमालेरश्वैश्च रथे विष्णुरथं प्रति॥३१॥
माली चाभ्यद्रवद् युक्तः प्रगृह्य सशरं धनुः।
जब घोड़े रणभूमि में सुमाली के रथ को इधर-उधर लेकर भागने लगे, तब माली नामक राक्षस ने युद्ध के लिये उद्यत हो धनुष लेकर गरुड़ की ओर धावा किया। राक्षसों पर टूटते हुए महाबाहु विष्णु पर आक्रमण किया॥ ३१ १/२ ।।
मालेर्धनुश्च्युता बाणाः कार्तस्वरविभूषिताः॥३२॥
विविशुहरिमासाद्य क्रौञ्चं पत्ररथा इव।
वज्र और बिजली के समान प्रकाशित होने वाले वे बाण माली के शरीर में घुसकर उसका रक्त पीने लगे, मानो सर्प अमृतरस का पान कर रहे हों॥ ३५ १/२॥
मालिनं विमुखं कृत्वा शङ्खचक्रगदाधरः॥ ३६॥
मालिमौलिं ध्वजं चापं वाजिनश्चाप्यपातयत्।
अन्त में माली को पीठ दिखाने के लिये विवश करके शङ्ख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान् श्रीहरि ने उस राक्षस के मुकुट, ध्वज और धनुष को काटकर घोड़ों को भी मार गिराया। ३६ १/२ ।।
विरथस्तु गदां गृह्य माली नक्तंचरोत्तमः॥ ३७॥
आपुप्लुवे गदापाणिनिर्यग्रादिव केसरी।
रथहीन हो जाने पर राक्षसप्रवर माली गदा हाथ में लेकर कूद पड़ा, मानो कोई सिंह पर्वत के शिखर से छलॉग मारकर नीचे आ गया हो। ३७ १/२॥
गदया गरुडेशानमीशानमिव चान्तकः॥ ३८॥
ललाटदेशेऽभ्यहनन् वज्रणेन्द्रो यथाचलम्।
जैसे यमराज ने भगवान् शिव पर गदा का और इन्द्र ने पर्वत पर वज्र का प्रहार किया हो, उसी तरह माली ने पक्षिराज गरुड़ के ललाट में अपनी गदा द्वारा गहरी चोट पहुँचायी॥
गदयाभिहतस्तेन मालिना गरुडो भृशम्॥३९॥
रणात् पराङ्मखं देवं कृतवान् वेदनातुरः।
माली की गदा से अत्यन्त आहत हुए गरुड़ वेदना से व्याकुल हो उठे। उन्होंने स्वयं युद्ध से विमुख होकर भगवान् विष्णु को भी विमुख-सा कर दिया॥ ३९ १/२॥
परामखो कृते देवे मालिना गरुडेन वै॥४०॥
उदतिष्ठन्महान् शब्दो रक्षसामभिनर्दताम्।
माली ने गरुड़ के साथ ही जब भगवान् विष्णु को भी युद्ध से विमुख-सा कर दिया, तब वहाँ जोर-जोर से गर्जते हुए राक्षसों का महान् शब्द गूंज उठा॥ ४० १/२॥
रक्षसां रुवतां रावं श्रुत्वा हरिहयानुजः॥४१॥
तिर्यगास्थाय संक्रुद्धः पक्षीशे भगवान् हरिः।
परामखोऽप्युत्ससर्ज मालेश्चक्रं जिघांसया॥४२॥
गर्जते हुए राक्षसों का वह सिंहनाद सुनकर इन्द्र के छोटे भाई भगवान् विष्णु अत्यन्त कुपित हो पक्षिराज की पीठ पर तिरछे होकर बैठ गये। (इससे वह राक्षस उन्हें दीखने लगा) उस समय पराङ्मुख माली को मारा गया देख सुमाली और माल्यवान् दोनों राक्षस शोक से व्याकुल हो सेनासहित लङ्का की ओर ही भागे॥
गरुडस्तु समाश्वस्तः संनिवृत्य यथा पुरा।
राक्षसान् द्रावयामास पक्षवातेन कोपितः॥४७॥
इतने ही में गरुड़ की पीड़ा कम हो गयी, वे पुनः सँभलकर लौटे और कुपित हो पूर्ववत् अपने पंखों की हवा से राक्षसों को खदेड़ने लगे॥४७॥ ।
चक्रकृत्तास्यकमला गदासंचूर्णितोरसः।
लाङ्गलग्लपितग्रीवा मुसलैर्भिन्नमस्तकाः॥४८॥
कितने ही राक्षसों के मुखकमल चक्र के प्रहार से कट गये। गदाओं के आघात से बहुतों के वक्षःस्थलचूर-चूर हो गये। हल के फाल से कितनों के गर्दनें उतर गयीं। मूसलों की मार से बहुतों के मस्तकों की धज्जियाँ उड़ गयीं।
केचिच्चैवासिना छिन्नास्तथान्ये शरताडिताः।
निपेतुरम्बरात् तूर्णं राक्षसाः सागराम्भसि॥४९॥
तलवार का हाथ पड़ने से कितने ही राक्षस टुकड़े टुकड़े हो गये। बहुतेरे बाणों से पीड़ित हो तुरंत ही आकाश से समुद्र के जल में गिर पड़े॥ ४९॥
नारायणोऽपीषुवराशनीभिविदारयामास धनुर्विमुक्तैः।
नक्तंचरान् धूतविमुक्तकेशान् यथाशनीभिः सतडिन्महाभ्रः॥५०॥
भगवान् विष्णु भी अपने धनुष से छूटे हुए श्रेष्ठ बाणों और अशनियों द्वारा राक्षसों को विदीर्ण करने लगे। उस समय उन निशाचरों के खुले हुए केश हवा से उड़ रहे थे और पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर श्रीहरि विद्युन्माला-मण्डित महान् मेघ के समान सुशोभित हो रहे थे॥ ५० ॥
भिन्नातपत्रं पतमानशस्त्रं शरैरपध्वस्तविनीतवेषम्।
विनिःसृतान्त्रं भयलोलनेत्रं बलं तदुन्मत्ततरं बभूव॥५१॥
राक्षसों की वह सारी सेना अत्यन्त उन्मत्त-सी प्रतीत । होती थी बाणों से उसके छत्र कट गये थे, अस्त्रशस्त्र गिर गये थे, सौम्य वेष दूर हो गया था, आँतें बाहर निकल आयी थीं और सबके नेत्र भय से चञ्चल हो रहे थे।
सिंहार्दितानामिव कुञ्जराणां निशाचराणां सह कुञ्जराणाम्।
रवाश्च वेगाश्च समं बभूवुः पुराणसिंहेन विमर्दितानाम्॥५२॥
जैसे सिंहों द्वारा पीडित हुए हाथियों के चीत्कार और वेग एक साथ ही प्रकट होते हैं, उसी प्रकार उन पुराणप्रसिद्ध नृसिंहरूपधारी श्रीहरि के द्वारा रौंदे गये उन निशाचररूपी गजराजों के हाहाकार और वेग साथ-साथ प्रकट हो रहे थे।
ते वार्यमाणा हरिबाणजालैः स्वबाणजालानि समुत्सृजन्तः।
धावन्ति नक्तंचरकालमेघा वायुप्रणुन्ना इव कालमेघाः॥५३॥
भगवान् विष्णु के बाणसमूहों से आवृत हो अपने सायकों का परित्याग करके वे निशाचररूपी काले मेघ उसी प्रकार भागे जा रहे थे, जैसे हवा के उड़ाये हुए वर्षाकालीन मेघ आकाश में भागते देखे जाते हैं। ५३॥
चक्रप्रहारैर्विनिकृत्तशीर्षाः संचूर्णिताङ्गाश्च गदाप्रहारैः।
असिप्रहारैर्द्धिविधाविभिन्नाः पतन्ति शैला इव राक्षसेन्द्राः॥५४॥
चक्र के प्रहारों से राक्षसों के मस्तक कट गये थे, गदाओं की मार से उनके शरीर चूर-चूर हो रहे थे तथा तलवारों के आघात से उनके दो-दो टुकड़े हो गये थे। इस तरह वे राक्षसराज पर्वतों के समान धराशायी हो रहे थे।
विलम्बमानैर्मणिहारकुण्डलैनिशाचरैर्नीलबलाहकोपमैः।
निपात्यमानैर्ददृशे निरन्तरं निपात्यमानैरिव नीलपर्वतैः ॥५५॥
लटकते हुए मणिमय हारों और कुण्डलों के साथ गिराये जाते हुए नील मेघ-सदृश उन निशाचरों की लाशों से वह रणभूमि पट गयी थी। वहाँ धराशायी हुए वे राक्षस नीलपर्वतों के समान जान पड़ते थे। उनसे वहाँ का भूभाग इस तरह आच्छादित हो गया था कि कहीं तिल रखने की भी जगह नहीं दिखायी देती थी॥ ५५॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे सप्तमः सर्गः॥७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आपरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७॥