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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 1 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 1

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
प्रथमः सर्गः (1)

हनुमान जी की प्रशंसा करके श्रीराम का उन्हें हृदय से लगाना और समुद्र को पार करने के लिये चिन्तित होना

 

श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं यथावदभिभाषितम्।
रामः प्रीतिसमायुक्तो वाक्यमुत्तरमब्रवीत्॥१॥

हनुमान जी के द्वारा यथावत् रूप से कहे हुए इन वचनों को सुनकर भगवान् श्रीराम बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार उत्तम वचन बोले- ॥१॥

कृतं हनूमता कार्यं सुमहद् भुवि दुर्लभम्।
मनसापि यदन्येन न शक्यं धरणीतले॥२॥

‘हनुमान् ने बड़ा भारी कार्य किया है। भूतल पर ऐसा कार्य होना कठिन है। इस भूमण्डल में दूसरा कोई तो ऐसा कार्य करने की बात मनके द्वारा सोच भी नहीं सकता॥२॥

नहि तं परिपश्यामि यस्तरेत महोदधिम्।
अन्यत्र गरुडाद् वायोरन्यत्र च हनूमतः॥३॥

‘गरुड़, वायु और हनुमान् को छोड़कर दूसरे किसी को मैं ऐसा नहीं देखता, जो महासागर को लाँघ सके॥३॥

देवदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
अप्रधृष्यां पुरीं लङ्कां रावणेन सुरक्षिताम्॥४॥
प्रविष्टः सत्त्वमाश्रित्य जीवन को नाम निष्क्रमेत्।

‘देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, नाग और राक्षस इनमें से किसी के लिये भी जिस पर आक्रमण करना असम्भव है तथा जो रावण के द्वारा भलीभाँति सुरक्षित है, उस लङ्कापुरी में अपने बल के भरोसे प्रवेश करके कौन वहाँ से जीवित निकल सकता है ? ॥ ४ १/२॥

को विशेत् सुदुराधर्षां राक्षसैश्च सुरक्षिताम्॥
यो वीर्यबलसम्पन्नो न समः स्याद्धनूमतः।

‘जो हनुमान् के समान बल-पराक्रम से सम्पन्न न हो, ऐसा कौन पुरुष राक्षसों द्वारा सुरक्षित अत्यन्त दुर्जय लङ्का में प्रवेश कर सकता है॥ ५ १/२ ॥

भृत्यकार्यं हनुमता सुग्रीवस्य कृतं महत्।
एवं विधाय स्वबलं सदृशं विक्रमस्य च॥६॥

‘हनुमान् ने समुद्र-लङ्घन आदि कार्यों के द्वारा अपने पराक्रम के अनुरूप बल प्रकट करके एक सच्चे सेवक के योग्य सुग्रीव का बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न किया है॥६॥

यो हि भृत्यो नियुक्तः सन् भर्ना कर्मणि दुष्करे।
कुर्यात् तदनुरागेण तमाहुः पुरुषोत्तमम्॥७॥

‘जो सेवक स्वामी के द्वारा किसी दुष्कर कार्य में नियुक्त होने पर उसे पूरा करके तदनुरूप दूसरे कार्य को भी (यदि वह मुख्य कार्य का विरोधी न हो) सम्पन्न करता है, वह सेवकों में उत्तम कहा गया है।७॥

यो नियुक्तः परं कार्यं न कुर्यान्नृपतेः प्रियम्।
भृत्यो युक्तः समर्थश्च तमाहर्मध्यमं नरम्॥८॥

‘जो एक कार्य में नियुक्त होकर योग्यता और सामर्थ्य होने पर भी स्वामी के दूसरे प्रिय कार्य को नहीं करता (स्वामी ने जितना कहा है, उतना ही करके लौट आता है) वह मध्यम श्रेणी का सेवक बताया गया है।

नियुक्तो नृपतेः कार्यं न कुर्याद् यः समाहितः।
भृत्यो युक्तः समर्थश्च तमाहुः पुरुषाधमम्॥९॥

‘जो सेवक मालिक के किसी कार्य में नियुक्त होकर अपने में योग्यता और सामर्थ्य के होते हुए भी उसे सावधानी से पूरा नहीं करता, वह अधम कोटि का कहा गया है॥९॥

तन्नियोगे नियुक्तेन कृतं कृत्यं हनूमता।
न चात्मा लघुतां नीतः सुग्रीवश्चापि तोषितः॥१०॥

‘हनुमान् ने स्वामी के एक कार्य में नियुक्त होकर उसके साथ ही दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्यों को भी पूरा किया, अपने गौरव में भी कमी नहीं आने दी—अपने आपको दूसरों की दृष्टि में छोटा नहीं बनने दिया और सुग्रीव को भी पूर्णतः संतुष्ट कर दिया॥ १० ॥

अहं च रघुवंशश्च लक्ष्मणश्च महाबलः।
वैदेह्या दर्शनेनाद्य धर्मतः परिरक्षिताः॥११॥

‘आज हनुमान ने विदेहनन्दिनी सीता का पता लगाकर उन्हें अपनी आँखों देखकर धर्म के अनुसार मेरी, समस्त रघुवंश की और महाबली लक्ष्मण की भी रक्षा की है॥ ११॥

इदं तु मम दीनस्य मनो भूयः प्रकर्षति।
यदिहास्य प्रियाख्यातुर्न कुर्मि सदृशं प्रियम्॥१२॥

‘आज मेरे पास पुरस्कार देने योग्य वस्तु का अभाव है, यह बात मेरे मन में बड़ी कसक पैदा कर रही है कि यहाँ जिसने मुझे ऐसा प्रिय संवाद सुनाया, उसका मैं कोई वैसा ही प्रिय कार्य नहीं कर पा रहा हूँ॥
१२॥

एष सर्वस्वभूतस्तु परिष्वङ्गो हनूमतः।
मया कालमिमं प्राप्य दत्तस्तस्य महात्मनः॥१३॥

‘इस समय इन महात्मा हनुमान् को मैं केवल अपना प्रगाढ़ आलिङ्गन प्रदान करता हूँ, क्योंकि यही मेरा सर्वस्व है’ ॥ १३॥

इत्युक्त्वा प्रीतिहृष्टाङ्गो रामस्तं परिषस्वजे।
हनूमन्तं कृतात्मानं कृतकार्यमुपागतम्॥१४॥

ऐसा कहते-कहते रघुनाथजी के अङ्ग-प्रत्यङ्ग प्रेम से पुलकित हो गये और उन्होंने अपनी आज्ञा के पालन में सफलता पाकर लौटे हुए पवित्रात्मा हनुमान जी को हृदय से लगा लिया॥ १४॥

ध्यात्वा पुनरुवाचेदं वचनं रघुसत्तमः।
हरीणामीश्वरस्यापि सुग्रीवस्योपशृण्वतः॥१५॥

फिर थोड़ी देर तक विचार करके रघुवंशशिरोमणि श्रीराम ने वानरराज सुग्रीव को सुनाकर यह बात कही — ॥ १५ ॥

सर्वथा सुकृतं तावत् सीतायाः परिमार्गणम्।
सागरं तु समासाद्य पुनर्नष्टं मनो मम॥१६॥

‘बन्धुओ! सीता की खोज का काम तो सुचारु रूप से सम्पन्न हो गया; किंतु समुद्र तक की दुस्तरता का विचार करके मेरे मन का उत्साह फिर नष्ट हो गया। १६॥

कथं नाम समुद्रस्य दुष्पारस्य महाम्भसः।
हरयो दक्षिणं पारं गमिष्यन्ति समागताः॥१७॥

‘महान् जलराशि से परिपूर्ण समुद्र को पार करना तो बड़ा ही कठिन काम है। यहाँ एकत्र हुए ये वानर समुद्र के दक्षिण तट पर कैसे पहुँचेंगे॥ १७ ॥

यद्यप्येष तु वृत्तान्तो वैदेह्या गदितो मम।
समुद्रपारगमने हरीणां किमिवोत्तरम्॥१८॥

‘मेरी सीता ने भी यही संदेह उठाया था, जिसका वृत्तान्त अभी-अभी मुझसे कहा गया है। इन वानरों के समुद्र के पार जाने के विषय में जो प्रश्न खड़ा हुआ है, उसका वास्तविक उत्तर क्या है?’ ॥ १८ ॥

इत्युक्त्वा शोकसम्भ्रान्तो रामः शत्रुनिबर्हणः।
हनूमन्तं महाबाहुस्ततो ध्यानमुपागमत्॥१९॥

हनुमान् जी से ऐसा कहकर शत्रुसूदन महाबाहु श्रीराम शोकाकुल होकर बड़ी चिन्ता में पड़ गये। १९॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे प्रथमः सर्गः॥१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें पहला सर्ग पूरा हुआ॥१॥


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