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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 12 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 12

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
द्वादशः सर्गः (12)

 (रावण का सीता के प्रति अपनी आसक्ति बताकर उनके हरण का प्रसंग बताना , कुम्भकर्ण का पहले तो उसे फटकारना, फिर समस्त शत्रुओं के वध का स्वयं ही भार उठाना)

स तां परिषदं कृत्स्नां समीक्ष्य समितिंजयः।
प्रचोदयामास तदा प्रहस्तं वाहिनीपतिम्॥१॥

शत्रुविजयी रावण ने उस सम्पूर्ण सभा की ओर दृष्टिपात करके सेनापति प्रहस्त को उस समय इस प्रकार आदेश दिया— ॥१॥

सेनापते यथा ते स्युः कृतविद्याश्चतुर्विधाः।
योधा नगररक्षायां तथा व्यादेष्टमर्हसि ॥२॥

‘सेनापते ! तुम सैनिकों को ऐसी आज्ञा दो, जिससे तुम्हारे अस्त्रविद्या में पारंगत रथी, घुड़सवार, हाथीसवार और पैदल योद्धा नगर की रक्षा में तत्पर रहें ॥२॥

स प्रहस्तः प्रणीतात्मा चिकीर्षन् राजशासनम्।
विनिक्षिपद बलं सर्वं बहिरन्तश्च मन्दिरे॥३॥

अपने मन को वश में रखने वाले प्रहस्त ने राजा के आदेश का पालन करने की इच्छा से सारी सेना को नगर के बाहर और भीतर यथायोग्य स्थानों पर नियुक्त कर दिया।

ततो विनिक्षिप्य बलं सर्वं नगरगुप्तये।
प्रहस्तः प्रमुखे राज्ञो निषसाद जगाद च॥४॥

नगर की रक्षा के लिये सारी सेना को तैनात करके प्रहस्त राजा रावण के सामने आ बैठा और इस प्रकार बोला- ॥४॥

विहितं बहिरन्तश्च बलं बलवतस्तव।
कुरुष्वाविमनाः क्षिप्रं यदभिप्रेतमस्ति ते॥५॥

‘राक्षसराज! आप महाबली महाराज की सेना को मैंने नगर के बाहर और भीतर यथास्थान नियुक्त कर दिया है। अब आप स्वस्थचित्त होकर शीघ्र ही अपने अभीष्ट कार्य का सम्पादन कीजिये’ ॥ ५ ॥

प्रहस्तस्य वचः श्रुत्वा राजा राज्यहितैषिणः।
सुखेप्सुः सुहृदां मध्ये व्याजहार स रावणः॥६॥

राज्य का हित चाहने वाले प्रहस्त की यह बात सुनकर अपने सुख की इच्छा रखने वाले रावण ने सुहृदों के बीच में यह बात कही— ॥६॥

प्रियाप्रिये सुखे दुःखे लाभालाभे हिताहिते।
धर्मकामार्थकृच्छेषु यूयमर्हथ वेदितुम्॥७॥

‘सभासदो! धर्म, अर्थ और कामविषयक संकट उपस्थित होने पर आपलोग प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख, लाभ-हानि और हिताहित का विचार करने में समर्थ हैं।

सर्वकृत्यानि युष्माभिः समारब्धानि सर्वदा।
मन्त्रकर्मनियुक्तानि न जातु विफलानि मे॥८॥

‘आपलोगों ने सदा परस्पर विचार करके जिन-जिन कार्यों का आरम्भ किया है, वे सब-के-सब मेरे लिये कभी निष्फल नहीं हुए हैं॥८॥

ससोमग्रहनक्षत्रैर्मरुद्भिरिव वासवः।
भवद्भिरहमत्यर्थं वृतः श्रियमवाप्नुयाम्॥९॥

‘जैसे चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्रोंसहित मरुद्गणों से घिरे हुए इन्द्र स्वर्ग की सम्पत्ति का उपभोग करते हैं, उसी भाँति आपलोगों से घिरा रहकर मैं भी लङ्का की रचुर राजलक्ष्मी का सुख भोगता रहूँ–यही मेरी अभिलाषा है॥९॥

अहं तु खलु सर्वान् वः समर्थयितुमुद्यतः।
कुम्भकर्णस्य तु स्वप्नान् नेममर्थमचोदयम्॥१०॥

‘मैंने जो काम किया है, उसे मैं पहले ही आप सबके सामने रखकर आपके द्वारा उसका समर्थन चाहता था, परंतु उस समय कुम्भकर्ण सोये हुए थे, इसलिये मैंने इसकी चर्चा नहीं चलायी॥१०॥

अयं हि सुप्तः षण्मासान् कुम्भकर्णो महाबलः।
सर्वशस्त्रभृतां मुख्यः स इदानीं समुत्थितः ॥११॥

‘समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाबली कुम्भकर्ण छः महीने से सो रहे थे। अभी इनकी नींद खुली है॥११॥

इयं च दण्डकारण्याद् रामस्य महिषी प्रिया।
रक्षोभिश्चरितोद्देशादानीता जनकात्मजा॥१२॥

मैं दण्डकारण्य से, जो राक्षसों के विचरने का स्थान है, राम की प्यारी रानी जनकदुलारी सीता को हर लाया हूँ॥१२॥

सा मे न शय्यामारोढुमिच्छत्यलसगामिनी।
त्रिषु लोकेषु चान्या मे न सीतासदृशी तथा॥१३॥

“किंतु वह मन्दगामिनी सीता मेरी शय्या पर आरूढ़ होना नहीं चाहती है। मेरी दृष्टि में तीनों लोकों के भीतर सीता के समान सुन्दरी दूसरी कोई स्त्री नहीं है॥ १३॥

तनुमध्या पृथुश्रोणी शरदिन्दुनिभानना।
हेमबिम्बनिभा सौम्या मायेव मयनिर्मिता॥१४॥

‘उसके शरीर का मध्यभाग अत्यन्त सूक्ष्म है, कटि के पीछे का भाग स्थूल है, मुख शरत्काल के चन्द्रमा को लज्जित करता है, वह सौम्य रूप और स्वभाववाली सीता सोने की बनी हुई प्रतिमा-सी जान पड़ती है। ऐसा लगता है, जैसे वह मयासुर की रची हुई कोई माया हो॥१४॥

सुलोहिततलौ श्लक्ष्णौ चरणौ सुप्रतिष्ठितौ।
दृष्ट्वा ताम्रनखौ तस्या दीप्यते मे शरीरजः॥१५॥

‘उसके चरणों के तलवे लाल रंग के हैं। दोनों पैर सुन्दर, चिकने और सुडौल हैं तथा उनके नख ताँबे जैसे लाल हैं। सीता के उन चरणों को देखकर मेरी कामाग्नि प्रज्वलित हो उठती है॥ १५ ॥

हुताग्नेरर्चिसंकाशामेनां सौरीमिव प्रभाम्।
उन्नसं विमलं वल्गु वदनं चारुलोचनम्॥१६॥
पश्यंस्तदवशस्तस्याः कामस्य वशमेयिवान्।

‘जिसमें घी की आहुति डाली गयी हो, उस अग्नि की लपट और सूर्य की प्रभा के समान इस तेजस्विनी सीता को देखकर तथा ऊँची नाक और विशाल नेत्रों से सुशोभित उसके निर्मल एवं मनोहर मुख का अवलोकन करके मैं अपने वश में नहीं रह गया हूँ। काम ने मुझे अपने अधीन कर लिया है॥१६

क्रोधहर्षसमानेन दुर्वर्णकरणेन च ॥१७॥
शोकसंतापनित्येन कामेन कलुषीकृतः।

‘जो क्रोध और हर्ष दोनों अवस्थाओं में समानरूप से बना रहता है, शरीर की कान्ति को फीकी कर देता है और शोक तथा संताप के समय भी कभी मन से दूर नहीं होता, उस काम ने मेरे हृदय को कलुषित (व्याकुल) कर दिया है॥ १७ १/२॥

सा तु संवत्सरं कालं मामयाचत भामिनी॥१८॥
प्रतीक्षमाणा भर्तारं राममायतलोचना।
तन्मया चारुनेत्रायाः प्रतिज्ञातं वचः शुभम्॥१९॥

‘विशाल नेत्रोंवाली माननीय सीता ने मुझसे एक वर्ष का समय माँगा है। इस बीच में वह अपने पति श्रीराम की प्रतीक्षा करेगी। मैंने मनोहर नेत्रोंवाली सीता के उस सुन्दर वचन को सुनकर उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली है* ॥ १८-१९॥
* यहाँ रावण ने सभासदों के सामने अपनी झूठी उदारता दिखाने के लिये सर्वथा असत्य कहा है। सीताजी ने कभी अपने मुँह से यह नहीं कहा था कि ‘मुझे एक वर्ष का समय दो यदि उतने दिनों तक श्रीराम नहीं आये तो मैं तुम्हारी हो जाऊँगी।’ सीता ने तो सदा तिरस्कारपूर्वक उसके जघन्य प्रस्ताव को ठकराया ही था। इसने स्वयं ही अपनी ओर से उन्हें एक वर्ष का अवसर दिया था। (देखिये अरण्यकाण्ड सर्ग ५६ श्लोक २४-२५)

श्रान्तोऽहं सततं कामाद् यातो हय इवाध्वनि।
कथं सागरमक्षोभ्यं तरिष्यन्ति वनौकसः॥२०॥
बहुसत्त्वझषाकीर्णं तौ वा दशरथात्मजौ।

‘जैसे बड़े मार्ग में चलते-चलते घोड़ा थक जाता है, उसी प्रकार मैं भी कामपीड़ा से थकावट का अनुभवकर रहा हूँ। वैसे तो मुझे शत्रुओं की ओर से कोई डर नहीं है; क्योंकि वे वनवासी वानर अथवा वे दोनों दशरथकुमार श्रीराम और लक्ष्मण असंख्य जल जन्तुओं तथा मत्स्यों से भरे हुए अलङ्घ्य महासागर को कैसे पार कर सकेंगे? ॥ २० १/२ ॥

अथवा कपिनैकेन कृतं नः कदनं महत्॥२१॥
दुर्जेयाः कार्यगतयो ब्रूत यस्य यथामति।
मानुषान्नो भयं नास्ति तथापि तु विमृश्यताम्॥२२॥

‘अथवा एक ही वानर ने आकर हमारे यहाँ महान् संहार मचा दिया था। इसलिये कार्यसिद्धि के उपायों को समझ लेना अत्यन्त कठिन है। अतः जिसको अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा उचित जान पड़े, वह वैसा ही बतावे। तुम सब लोग अपने विचार अवश्य व्यक्त करो। यद्यपि हमें मनुष्य से कोई भय नहीं है, तथापि तुम्हें विजय के उपाय पर विचार तो करना ही चाहिये॥ २१-२२॥

तदा देवासुरे युद्धे युष्माभिः सहितोऽजयम्।
ते मे भवन्तश्च तथा सुग्रीवप्रमुखान् हरीन्॥२३॥
परे पारे समुद्रस्य पुरस्कृत्य नृपात्मजौ।
सीतायाः पदवीं प्राप्य सम्प्राप्तौ वरुणालयम्॥२४॥

‘उन दिनों जब देवताओं और असुरों का युद्ध चल रहा था, उसमें आप सब लोगों की सहायता से ही मैंने विजय प्राप्त की थी। आज भी आप मेरे उसी प्रकार सहायक हैं। वे दोनों राजकुमार सीता का पता पाकर सुग्रीव आदि वानरों को साथ लिये समुद्र के उस तटतक पहुँच चुके हैं॥ २३-२४ ॥

अदेया च यथा सीता वध्यौ दशरथात्मजौ।
भवद्भिर्मन्त्र्यतां मन्त्रः सुनीतं चाभिधीयताम्॥२५॥

‘अब आपलोग आपस में सलाह कीजिये और कोई ऐसी सुन्दर नीति बताइये, जिससे सीता को लौटाना न पड़े तथा वे दोनों दशरथकुमार मारे जायँ।। २५ ॥

नहि शक्तिं प्रपश्यामि जगत्यन्यस्य कस्यचित्।
सागरं वानरैस्तीक़ निश्चयेन जयो मम॥२६॥

‘वानरों के साथ समुद्र को पार करके यहाँ तक आने की शक्ति जगत् में राम के सिवा और किसी में नहीं देखता हूँ (किंतु राम और वानर यहाँ आकर भी मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते), अतः यह निश्चय है कि जीत मेरी ही होगी’ ॥ २६ ॥

तस्य कामपरीतस्य निशम्य परिदेवितम्।
कुम्भकर्णः प्रचुक्रोध वचनं चेदमब्रवीत्॥ २७॥

कामातुर रावण का यह खेदपूर्ण प्रलाप सुनकर कुम्भकर्ण को क्रोध आ गया और उसने इस प्रकार कहा- ॥२७॥

यदा तु रामस्य सलक्ष्मणस्य प्रसह्य सीता खलु सा इहाहृता।
सकृत् समीक्ष्यैव सुनिश्चितं तदा भजेत चित्तं यमुनेव यामुनम्॥२८॥

‘जब तुम लक्ष्मणसहित श्रीराम के आश्रम से एक बार स्वयं ही मनमाना विचार करके सीता को यहाँ बलपूर्वक हर लाये थे, उसी समय तुम्हारे चित्त को हमलोगों के साथ इस विषय में सुनिश्चित विचार कर लेना चाहिये था। ठीक उसी तरह जैसे यमुना जब पृथ्वी पर उतरने को उद्यत हुईं, तभी उन्होंने यमुनोत्री पर्वत के कुण्डविशेष को अपने जल से पूर्ण किया था (पृथ्वीपर उतर जाने के बाद उनका वेग जब समुद्र में जाकर शान्त हो गया, तब वे पुनः उस कुण्ड को नहीं भर सकतीं, उसी प्रकार तुमने भी जब विचार करने का अवसर था, तब तो हमारे साथ बैठकर विचार किया नहीं। अब अवसर बिताकर सारा काम बिगड़ जाने के बाद तुम विचार करने चले हो)॥ २८॥

सर्वमेतन्महाराज कृतमप्रतिमं तव।
विधीयेत सहास्माभिरादावेवास्य कर्मणः॥२९॥

‘महाराज! तुमने जो यह छलपूर्वक छिपकर परस्त्री-हरण आदि कार्य किया है, यह सब तुम्हारे लिये बहुत अनुचित है। इस पापकर्म को करने से पहले ही आपको हमारे साथ परामर्श कर लेना चाहिये था॥२९॥

न्यायेन राजकार्याणि यः करोति दशानन।
न स संतप्यते पश्चान्निश्चितार्थमतिर्नृपः॥३०॥

‘दशानन! जो राजा सब राजकार्य न्यायपूर्वक करता है, उसकी बुद्धि निश्चयपूर्ण होने के कारण उसे पीछे पछताना नहीं पड़ता है॥३०॥

अनुपायेन कर्माणि विपरीतानि यानि च।
क्रियमाणानि दुष्यन्ति हवींष्यप्रयतेष्विव॥३१॥

‘जो कर्म उचित उपाय का अवलम्बन किये बिना ही किये जाते हैं तथा जो लोक और शास्त्र के विपरीत होते हैं, वे पापकर्म उसी तरह दोष की प्राप्ति कराते हैं जैसे अपवित्र आभिचारिक यज्ञों में होमे गये हविष्य॥३१॥

यः पश्चात् पूर्वकार्याणि कर्माण्यभिचिकीर्षति।
पूर्वं चापरकार्याणि स न वेद नयानयौ॥३२॥

‘जो पहले करने योग्य कार्यों को पीछे करना चाहता है और पीछे करने योग्य काम पहले ही कर डालता है, वह नीति और अनीति को नहीं जानता॥ ३२॥

चपलस्य तु कृत्येषु प्रसमीक्ष्याधिकं बलम्।
छिद्रमन्ये प्रपद्यन्ते क्रौञ्चस्य खमिव द्विजाः॥३३॥

‘शत्रुलोग अपने विपक्षी के बल को अपने से अधिक देखकर भी यदि वह हर काम में चपल (जल्दबाज) है तो उसका दमन करने के लिये उसी तरह उसके छिद्र ढूँढ़ते रहते हैं, जैसे पक्षी दुर्लङ्घय क्रौञ्च
पर्वत को लाँघकर आगे बढ़ने के लिये उसके (उस) । छिद्र का* आश्रय लेते हैं (जिसे कुमार कार्तिकेयने अपनी शक्ति का प्रहार करके बनाया था) ॥ ३३॥
कार्तिकेय ने अपनी शक्ति के द्वारा क्रौञ्चपर्वत को विदीर्ण करके उसमें छेद कर दिया था—यह प्रसंग महाभारत में आया है। (देखिये शल्यप० ४६। ८४)

त्वयेदं महदारब्धं कार्यमप्रतिचिन्तितम्।
दिष्ट्या त्वां नावधीद् रामो विषमिश्रमिवामिषम्॥३४॥

‘महाराज! तुमने भावी परिणाम का विचार किये बिना ही यह बहुत बड़ा दुष्कर्म आरम्भ किया है। जैसे विषमिश्रित भोजन खाने वाले के प्राण हर लेता है, उसी प्रकार श्रीरामचन्द्रजी तुम्हारा वध कर डालेंगे। उन्होंने अभी तक तुम्हें मार नहीं डाला, इसे अपने लिये सौभाग्य की बात समझो॥ ३४ ॥

तस्मात् त्वया समारब्धं कर्म ह्यप्रतिमं परैः।
अहं समीकरिष्यामि हत्वा शत्रूस्तवानघ॥ ३५॥

‘अनघ ! यद्यपि तुमने शत्रुओं के साथ अनुचित कर्म आरम्भ किया है, तथापि मैं तुम्हारे शत्रुओं का संहार करके सबको ठीक कर दूंगा॥ ३५॥

अहमुत्सादयिष्यामि शüस्तव निशाचर।
यदि शक्रविवस्वन्तौ यदि पावकमारुतौ।
तावहं योधयिष्यामि कुबेरवरुणावपि॥ ३६॥

‘निशाचर! तुम्हारे शत्रु यदि इन्द्र, सूर्य, अग्नि, वायु, कुबेर और वरुण भी हों तो मैं उनके साथ युद्ध करूँगा और तुम्हारे सभी शत्रुओं को उखाड़ फेंकूँगा॥ ३६॥

गिरिमात्रशरीरस्य महापरिघयोधिनः।
नर्दतस्तीक्ष्णदंष्टस्य बिभीयाद् वै पुरंदरः॥३७॥

‘मैं पर्वत के समान विशाल एवं तीखी दाढ़ों से युक्त शरीर धारण करके महान् परिघ हाथ में ले समरभूमि में जूझता हुआ जब गर्जना करूँगा, उस समय देवराज इन्द्र भी भयभीत हो जायँगे॥ ३७॥

पुनर्मां स द्वितीयेन शरेण निहनिष्यति।
ततोऽहं तस्य पास्यामि रुधिरं काममाश्वस॥३८॥

‘राम मुझे एक बाण से मारकर दूसरे बाण से मारने लगेंगे, उसी बीच में मैं उनका खून पी लूँगा। इसलिये तुम पूर्णतः निश्चिन्त हो जाओ॥ ३८॥

वधेन वै दाशरथेः सुखावहं जयं तवाहर्तुमहं यतिष्ये।
हत्वा च रामं सह लक्ष्मणेन खादामि सर्वान् हरियूथमुख्यान्॥३९॥

‘मैं दशरथनन्दन श्रीराम का वध करके तुम्हारे लिये सुखदायिनी विजय सुलभ कराने का प्रयत्न करूँगा। लक्ष्मणसहित राम को मारकर समस्त वानरयूथपतियों को खा जाऊँगा॥ ३९ ॥

रमस्व कामं पिब चायवारुणीं कुरुष्व कार्याणि हितानि विज्वरः।
मया तु रामे गमिते यमक्षयं चिराय सीता वशगा भविष्यति॥४०॥

‘तुम मौज से विहार करो। उत्तम वारुणी का पान करो और निश्चिन्त होकर अपने लिये हितकर कार्य करते रहो। मेरे द्वारा राम के यमलोक भेज दिये जाने पर सीता चिरकाल के लिये तुम्हारे अधीन हो जायगी’ ॥ ४०॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे द्वादशः सर्गः॥१२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१२॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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