वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 13 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 13
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
त्रयोदशः सर्गः (13)
(महापार्श्व का रावण को सीता पर बलात्कार के लिये उकसाना और रावण का शाप के कारण अपने को ऐसा करने में असमर्थ बताना तथा अपने पराक्रम के गीत गाना)
रावणं क्रुद्धमाज्ञाय महापावो महाबलः।
मुहूर्तमनुसंचिन्त्य प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥१॥
तब रावण को कुपित हुआ जान महाबली महापार्श्व ने दो घड़ी-तक कुछ सोच-विचार करने के बाद हाथ जोड़कर कहा- ॥१॥
यः खल्वपि वनं प्राप्य मृगव्यालनिषेवितम्।
न पिबेन्मधु सम्प्राप्य स नरो बालिशो भवेत्॥२॥
‘जो हिंसक पशुओं और साँसे भरे हुए दुर्गम वन में जाकर वहाँ पीने योग्य मधु पाकर भी उसे पीता नहीं है, वह पुरुष मूर्ख ही है॥२॥
ईश्वरस्येश्वरः कोऽस्ति तव शत्रुनिबर्हण।
रमस्व सह वैदेह्या शत्रूनाक्रम्य मूर्धसु॥३॥
‘शत्रुसूदन महाराज! आप तो स्वयं ही ईश्वर हैं। आपका ईश्वर कौन है? आप शत्रुओं के सिर पर पैर रखकर विदेहकुमारी सीता के साथ रमण कीजिये।३॥
बलात् कुक्कुटवृत्तेन प्रवर्तस्व महाबल।
आक्रम्याक्रम्य सीतां वै तां भुक्ष्व च रमस्व च॥४॥
‘महाबली वीर! आप कुक्कुटों के बर्ताव को अपनाकर सीता के साथ बलात्कार कीजिये। बारंबार आक्रमण करके उनके साथ रमण एवं उपभोग कीजिये॥४॥
लब्धकामस्य ते पश्चादागमिष्यति किं भयम्।
प्राप्तमप्राप्तकालं वा सर्वं प्रतिविधास्यसे॥५॥
‘जब आपका मनोरथ सफल हो जायगा, तब फिर आप पर कौन-सा भय आयेगा? यदि वर्तमान एवं भविष्यकाल में कोई भय आया भी तो उस समस्त भय का यथोचित प्रतीकार किया जायगा॥ ५॥
कुम्भकर्णः सहास्माभिरिन्द्रजिच्च महाबलः।
प्रतिषेधयितुं शक्तौ सवज्रमपि वज्रिणम्॥६॥
‘हमलोगोंके साथ यदि महाबली कुम्भकर्ण और इन्द्रजित् खड़े हो जायँ तो ये दोनों वज्रधारी इन्द्रको भी आगे बढ़नेसे रोक सकते हैं॥६॥
उपप्रदानं सान्त्वं वा भेदं वा कुशलैः कृतम्।
समतिक्रम्य दण्डेन सिद्धिमर्थेषु रोचये॥७॥
‘मैं तो नीतिनिपुण पुरुषों के द्वारा प्रयुक्त साम, दान और भेद को छोड़कर केवल दण्ड के द्वारा काम बना लेना ही अच्छा समझता हूँ॥ ७॥
इह प्राप्तान् वयं सर्वाञ्छJस्तव महाबल।
वशे शस्त्रप्रतापेन करिष्यामो न संशयः॥८॥
‘महाबली राक्षसराज! यहाँ आपके जो भी शत्रु आयेंगे, उन्हें हमलोग अपने शस्त्रों के प्रताप से वश में कर लेंगे, इसमें संशय नहीं है’॥८॥
एवमुक्तस्तदा राजा महापाइँन रावणः।
तस्य सम्पूजयन् वाक्यमिदं वचनमब्रवीत्॥९॥
महापार्श्वके ऐसा कहने पर उस समय लङ्का के राजा रावण ने उसके वचनों की प्रशंसा करते हुए इस प्रकार कहा- ॥९॥
महापार्श्व निबोध त्वं रहस्यं किंचिदात्मनः।
चिरवृत्तं तदाख्यास्ये यदवाप्तं पुरा मया॥१०॥
‘महापार्श्व! बहुत दिन हुए पूर्वकाल में एक गुप्त घटना घटित हुई थी—मुझे शाप प्राप्त हुआ था। अपने जीवन के उस गुप्त रहस्यको आज मैं बता रहा हूँ, उसे सुनो॥१०॥
पितामहस्य भवनं गच्छन्तीं पुञ्जिकस्थलाम्।
चञ्चर्यमाणामद्राक्षमाकाशेऽग्निशिखामिव॥
‘एक बार मैंने आकाश में अग्निशिखा के समान प्रकाशित होती हुई पुञ्जिकस्थला नाम की अप्सरा को देखा, जो पितामह ब्रह्माजी के भवन की ओर जा रही थी। वह अप्सरा मेरे भय से लुकती-छिपती आगे बढ़ रही थी॥
सा प्रसह्य मया भुक्ता कृता विवसना ततः।
स्वयम्भूभवनं प्राप्ता लोलिता नलिनी यथा॥१२॥
‘मैंने बलपूर्वक उसके वस्त्र उतार दिये और हठात् उसका उपभोग किया। इसके बाद वह ब्रह्माजी के भवन में गयी। उसकी दशा हाथी द्वारा मसलकर फेंकी हुई कमलिनीके समान हो रही थी॥ १२॥
तच्च तस्य तथा मन्ये ज्ञातमासीन्महात्मनः।
अथ संकुपितो वेधा मामिदं वाक्यमब्रवीत्॥१३॥
‘मैं समझता हूँ कि मेरे द्वारा उसकी जो दुर्दशा की गयी थी, वह पितामह ब्रह्माजी को ज्ञात हो गयी। इससे वे अत्यन्त कुपित हो उठे और मुझसे इस प्रकार बोले- ॥१३॥
अद्यप्रभृति यामन्यां बलान्नारी गमिष्यसि।
तदा ते शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशयः॥१४॥
‘आज से यदि तू किसी दूसरी नारी के साथ बलपूर्वक समागम करेगा तो तेरे मस्तक के सौ टुकड़े हो जायेंगे, इसमें संशय नहीं है’ ॥ १४ ॥
इत्यहं तस्य शापस्य भीतः प्रसभमेव ताम्।
नारोहये बलात् सीतां वैदेहीं शयने शुभे॥१५॥
‘इस तरह मैं ब्रह्माजी के शाप से भयभीत हूँ। इसीलिये अपनी शुभ-शय्यापर विदेहकुमारी सीता को हठात् एवं बलपूर्वक नहीं चढ़ाता हूँ॥ १५ ॥
सागरस्येव मे वेगो मारुतस्येव मे गतिः।
नैतद् दाशरथिर्वेद ह्यासादयति तेन माम्॥१६॥
‘मेरा वेग समुद्र के समान है और मेरी गति वायु के तुल्य है। इस बात को दशरथनन्दन राम नहीं जानते हैं, इसी से वे मुझ पर चढ़ाई करते हैं॥१६॥
को हि सिंहमिवासीनं सुप्तं गिरिगुहाशये।
क्रुद्धं मृत्युमिवासीनं प्रबोधयितुमिच्छति ॥१७॥
‘अन्यथा पर्वत की कन्दरा में सुखपूर्वक सोये हुए सिंह के समान तथा कुपित होकर बैठी हुई मृत्यु के तुल्य भयंकर मुझ रावण को कौन जगाना चाहेगा?॥१७॥
न मत्तो निर्गतान् बाणान् द्विजिह्वान् पन्नगानिव।
रामः पश्यति संग्रामे तेन मामभिगच्छति॥१८॥
‘मेरे धनुष से छूटे हुए दो जीभवाले सो के समान भयंकर बाणों को समराङ्गण में श्रीराम ने कभी देखा नहीं है, इसीलिये वे मुझ पर चढ़े आ रहे हैं ॥ १८॥
क्षिप्रं वज्रसमैर्बाणैः शतधा कार्मुकच्युतैः।
राममादीपयिष्यामि उल्काभिरिव कुञ्जरम्॥१९॥
‘मैं अपने धनुष से शीघ्रतापूर्वक छूटे हुए सैकड़ों वज्रसदृश बाणों द्वारा राम को उसी प्रकार जलाडालूँगा, जैसे लोग उल्काओं द्वारा हाथी को उसे भगाने के लिये जलाते हैं॥ १९॥
तच्चास्य बलमादास्ये बलेन महता वृतः।
उदितः सविता काले नक्षत्राणां प्रभामिव॥२०॥
‘जैसे प्रातःकाल उदित हुए सूर्यदेव नक्षत्रों की प्रभा को छीन लेते हैं, उसी प्रकार अपनी विशाल सेना से घिरा हुआ मैं उनकी उस वानर-सेना को आत्मसात् कर लूँगा॥ २०॥
न वासवेनापि सहस्रचक्षुषा युधास्मि शक्यो वरुणेन वा पुनः।
मया त्वियं बाहुबलेन निर्जिता पुरा पुरी वैश्रवणेन पालिता॥२१॥
युद्ध में तो हजार नेत्रोंवाले इन्द्र और वरुण भी मेरा सामना नहीं कर सकते। पूर्वकाल में कुबेर के द्वारा पालित हुई इस लङ्कापुरी को मैंने अपने बाहुबल से ही जीता था’ ॥ २१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे त्रयोदशः सर्गः॥१३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १३॥
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