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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 17 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 17

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
सप्तदशः सर्गः (17)

(विभीषण का श्रीराम की शरण में आना और श्रीराम का अपने मन्त्रियों के साथ उन्हें आश्रय देने के विषय में विचार करना)

इत्युक्त्वा परुषं वाक्यं रावणं रावणानुजः।
आजगाम मुहूर्तेन यत्र रामः सलक्ष्मणः॥१॥

रावण से ऐसे कठोर वचन कहकर उसके छोटे भाई विभीषण दो ही घड़ी में उस स्थान पर आ गये, जहाँ लक्ष्मण-सहित श्रीराम विराजमान थे॥१॥

तं मेरुशिखराकारं दीप्तामिव शतहदाम्।
गगनस्थं महीस्थास्ते ददृशुर्वानराधिपाः॥२॥

विभीषण का शरीर सुमेरु पर्वत के शिखर के समान ऊँचा था। वे आकाश में चमकती हुई बिजली के समान जान पड़ते थे। पृथ्वी पर खड़े हुए वानरयूथपतियों ने उन्हें आकाश में स्थित देखा॥२॥

ते चाप्यनुचरास्तस्य चत्वारो भीमविक्रमाः।
तेऽपि वर्मायुधोपेता भूषणोत्तमभूषिताः॥३॥

उनके साथ जो चार अनुचर थे। वे भी बड़ा भयंकर पराक्रम प्रकट करने वाले थे। उन्होंने भी कवच धारण करके अस्त्र-शस्त्र ले रखे थे और वे सब-के-सब उत्तम आभूषणों से विभूषित थे॥३॥

स च मेघाचलप्रख्यो वज्रायुधसमप्रभः।
वरायुधधरो वीरो दिव्याभरणभूषितः॥४॥

वीर विभीषण भी मेघ और पर्वत के समान जान पड़ते थे। वज्रधारी इन्द्र के समान तेजस्वी, उत्तम आयुधधारी और दिव्य आभूषणों से अलंकृत थे॥ ४॥

तमात्मपञ्चमं दृष्ट्वा सुग्रीवो वानराधिपः।
वानरैः सह दुर्धर्षश्चिन्तयामास बुद्धिमान्॥५॥

उन चारों राक्षसों के साथ पाँचवें विभीषणको देखकर दुर्धर्ष एवं बुद्धिमान् वीर वानरराज सुग्रीव ने वानरों के साथ विचार किया।॥ ५॥

चिन्तयित्वा मुहूर्तं तु वानरांस्तानुवाच ह।
हनुमत्प्रमुखान् सर्वानिदं वचनमुत्तमम्॥६॥

थोड़ी देर  तक सोचकर उन्होंने हनुमान् आदि सब वानरों से यह उत्तम बात कही— ॥६॥

एष सर्वायुधोपेतश्चतुर्भिः सह राक्षसैः ।
राक्षसोभ्येति पश्यध्वमस्मान् हन्तुं न संशयः॥७॥

‘देखो, सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न यह राक्षस दूसरे चार निशाचरों के साथ आ रहा है। इसमें संदेह नहीं कि यह हमें मारने के लिये ही आता है’।७॥

सुग्रीवस्य वचः श्रुत्वा सर्वे ते वानरोत्तमाः।
सालानुद्यम्य शैलांश्च इदं वचनमब्रुवन्॥८॥

सुग्रीव की यह बात सुनकर वे सभी श्रेष्ठ वानर सालवृक्ष और पर्वत की शिलाएँ उठाकर इस प्रकार बोले- ॥८॥

शीघ्रं व्यादिश नो राजन् वधायैषां दुरात्मनाम्।
निपतन्ति हता यावद् धरण्यामल्पचेतनाः॥९॥

‘राजन् ! आप शीघ्र ही हमें इन दुरात्माओं के वध की आज्ञा दीजिये, जिससे ये मन्दमति निशाचर मरकर ही इस पृथ्वी पर गिरें’॥९॥

तेषां सम्भाषमाणानामन्योन्यं स विभीषणः।
उत्तरं तीरमासाद्य खस्थ एव व्यतिष्ठत ॥१०॥

आपस में वे इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि विभीषण समुद्र के उत्तर तट पर आकर आकाश में ही खड़े हो गये॥ १०॥

स उवाच महाप्राज्ञः स्वरेण महता महान्।
सुग्रीवं तांश्च सम्प्रेक्ष्य खस्थ एव विभीषणः॥११॥

महाबुद्धिमान् महापुरुष विभीषण ने आकाश में ही स्थित रहकर सुग्रीव तथा उन वानरों की ओर देखते हुए उच्च स्वर से कहा- ॥११॥

रावणो नाम दुर्वृत्तो राक्षसो राक्षसेश्वरः।
तस्याहमनजो भ्राता विभीषण इति श्रुतः॥१२॥

‘रावण नामका जो दुराचारी राक्षस निशाचरों का राजा है, उसीका मैं छोटा भाई हूँ। मेरा नाम विभीषण है।

तेन सीता जनस्थानाद् हृता हत्वा जटायुषम्।
रुद्धा च विवशा दीना राक्षसीभिः सुरक्षिता॥१३॥

‘रावण ने जटायु को मारकर जनस्थान से सीता का अपहरण किया था। उसीने दीन एवं असहाय सीता को रोक रखा है। इन दिनों सीता राक्षसियों के पहरे में रहती हैं।॥ १३॥

तमहं हेतुभिर्वाक्यैर्विविधैश्च न्यदर्शयम्।
साधु निर्यात्यतां सीता रामायेति पुनः पुनः॥१४॥

‘मैंने भाँति-भाँतिके युक्तिसंगत वचनोंद्वारा उसे बारंबार समझाया कि तुम श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें सीताको सादर लौटा दो—इसीमें भलाई है।॥ १४ ॥

स च न प्रतिजग्राह रावणः कालचोदितः।
उच्यमानं हितं वाक्यं विपरीत इवौषधम्॥१५॥

‘यद्यपि मैंने यह बात उसके हितके लिये ही कही थी तथापि काल से प्रेरित होने के कारण रावण ने मेरी बात नहीं मानी। ठीक उसी प्रकार, जैसे मरणासन्न पुरुष औषध नहीं लेता॥ १५॥

सोऽहं परुषितस्तेन दासवच्चावमानितः।
त्यक्त्वा पुत्रांश्च दारांश्च राघवं शरणं गतः॥१६॥

‘यही नहीं, उसने मुझे बहुत-सी कठोर बातें सुनायीं और दास की भाँति मेरा अपमान किया। इसलिये मैं अपने स्त्री-पुत्रों को वहीं छोड़कर श्रीरघुनाथजी की शरण में आया हूँ॥१६॥

निवेदयत मां क्षिप्रं राघवाय महात्मने।
सर्वलोकशरण्याय विभीषणमुपस्थितम्॥१७॥

‘वानरो! जो समस्त लोकों को शरण देने वाले हैं, उन महात्मा श्रीरामचन्द्रजी के पास जाकर शीघ्र मेरे आगमन की सूचना दो और उनसे कहो—’शरणार्थी विभीषण सेवा में उपस्थित हुआ है’ ॥ १७॥

एतत्तु वचनं श्रुत्वा सुग्रीवो लघुविक्रमः।
लक्ष्मणस्याग्रतो रामं संरब्धमिदमब्रवीत्॥१८॥

विभीषण की यह बात सुनकर शीघ्रगामी सुग्रीव ने तुरंत ही भगवान् श्रीराम के पास जाकर लक्ष्मण के सामने ही कुछ आवेश के साथ इस प्रकार कहा— ॥ १८॥

प्रविष्टः शत्रुसैन्यं हि प्राप्तः शत्रुरतर्कितः।
निहन्यादन्तरं लब्ध्वा उलूको वायसानिव॥१९॥

‘प्रभो! आज कोई वैरी, जो राक्षस होने के कारण पहले हमारे शत्रु रावण की सेना में सम्मिलित हुआ था, अब अकस्मात् हमारी सेना में प्रवेश पाने के लिये आ गया है। वह मौका पाकर हमें उसी तरह मार डालेगा, जैसे उल्लू कौओं का काम तमाम कर देता है॥ १९॥

मन्त्रे व्यूहे नये चारे युक्तो भवितुमर्हसि।
वानराणां च भद्रं ते परेषां च परंतप॥२०॥

‘शत्रुओं को संताप देनेवाले रघुनन्दन! अतः आपको अपने वानरसैनिकों पर अनुग्रह और शत्रुओंका निग्रह करनेके लिये कार्याकार्य के विचार, सेना की मोर्चेबंदी, नीतियुक्त उपायों के प्रयोग तथा गुप्तचरों की नियुक्ति आदि के विषय में सतत सावधान रहना चाहिये। ऐसा करने से ही आपका भला होगा। २०॥

अन्तर्धानगता ह्येते राक्षसाः कामरूपिणः।
शूराश्च निकृतिज्ञाश्च तेषां जातु न विश्वसेत्॥२१॥

‘ये राक्षसलोग मनमाना रूप धारण कर सकते हैं। इनमें अन्तर्धान होने की भी शक्ति होती है। शूरवीरऔर मायावी तो ये होते ही हैं। इसलिये इनका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये॥ २१॥

प्रणिधी राक्षसेन्द्रस्य रावणस्य भवेदयम्।
अनुप्रविश्य सोऽस्मासु भेदं कुर्यान्न संशयः॥२२॥

‘सम्भव है यह राक्षसराज रावण का कोई गुप्तचर हो। यदि ऐसा हुआ तो हमलोगों में घुसकर यह फूट पैदा कर देगा, इसमें संदेह नहीं॥ २२ ।।

अथ वा स्वयमेवैष छिद्रमासाद्य बुद्धिमान्।
अनुप्रविश्य विश्वस्ते कदाचित् प्रहरेदपि॥२३॥

‘अथवा यह बुद्धिमान् राक्षस छिद्र पाकर हमारी विश्वस्त सेना के भीतर घुसकर कभी स्वयं ही हमलोगों पर प्रहार कर बैठेगा, इस बात की भी सम्भावना है॥२३॥

मित्राटविबलं चैव मौलभृत्यबलं तथा।
सर्वमेतद् बलं ग्राह्यं वर्जयित्वा द्विषद्रलम्॥२४॥

‘मित्रों की, जंगली जातियों की तथा परम्परागत भृत्यों की जो सेनाएँ हैं, इन सबका संग्रह तो किया जा सकता है। किंतु जो शत्रुपक्ष से मिले हुए हों, ऐसे सैनिकों का संग्रह कदापि नहीं करना चाहिये॥ २४ ॥

प्रकृत्या राक्षसो ह्येष भ्रातामित्रस्य वै प्रभो।
आगतश्च रिपुः साक्षात् कथमस्मिंश्च विश्वसेत्॥ २५॥

‘प्रभो! यह स्वभाव से तो राक्षस है ही, अपने को शत्रु का भाई भी बता रहा है। इस दृष्टिसे यह साक्षात् हमारा शत्रु ही यहाँ आ पहुँचा है; फिर इस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है॥ २५ ॥

रावणस्यानुजो भ्राता विभीषण इति श्रुतः।
चतुर्भिः सह रक्षोभिर्भवन्तं शरणं गतः॥२६॥

‘रावण का छोटा भाई, जो विभीषण के नाम से प्रसिद्ध है, चार राक्षसों के साथ आपकी शरण में आया है॥२६॥

रावणेन प्रणीतं हि तमवेहि विभीषणम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये क्षमं क्षमवतां वर॥२७॥

‘आप उस विभीषण को रावण का भेजा हुआ ही समझें। उचित व्यापार करने वालों में श्रेष्ठ रघुनन्दन ! मैं तो उसको कैद कर लेना ही उचित समझता हूँ। २७॥

राक्षसो जिह्मया बुद्ध्या संदिष्टोऽयमिहागतः।
प्रहर्तुं मायया छन्नो विश्वस्ते त्वयि चानघ॥२८॥

‘निष्पाप श्रीराम! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यह राक्षस रावण के कहने से ही यहाँ आया है। इसकी बुद्धि में कुटिलता भरी है। यह माया से छिपा रहेगा तथा जब आप इसपर पूरा विश्वास करके इसकी ओर से निश्चिन्त हो जायेंगे, तब यह आपही पर चोट कर बैठेगा। इसी उद्देश्य से इसका यहाँ आना हुआ है॥ २८॥

वध्यतामेष तीव्रण दण्डेन सचिवैः सह।
रावणस्य नृशंसस्य भ्राता ह्येष विभीषणः॥२९॥

‘यह महाक्रूर रावण का भाई है, इसलिये इसे कठोर दण्ड देकर इसके मन्त्रियों सहित मार डालना चाहिये’ ॥ २९॥

एवमुक्त्वा तु तं रामं संरब्धो वाहिनीपतिः।
वाक्यज्ञो वाक्यकुशलं ततो मौनमुपागमत्॥३०॥

बातचीत की कला जानने वाले एवं रोष में भरे हुए सेनापति सुग्रीव प्रवचनकुशल श्रीराम से ऐसी बातें कहकर चुप हो गये॥ ३०॥

सुग्रीवस्य तु तद् वाक्यं श्रुत्वा रामो महाबलः।
समीपस्थानुवाचेदं हनुमत्प्रमुखान् कपीन्॥३१॥

सुग्रीव का वह वचन सुनकर महाबली श्रीराम अपने निकट बैठे हुए हनुमान् आदि वानरों से इस प्रकार बोले- ॥ ३१॥

यदुक्तं कपिराजेन रावणावरजं प्रति।
वाक्यं हेतुमदत्यर्थं भवद्भिरपि च श्रुतम्॥३२॥

‘वानरो! वानरराज सुग्रीव ने रावण के छोटे भाई विभीषण के विषय में जो अत्यन्त युक्तियुक्त बातें कही हैं, वे तुमलोगों ने भी सुनी हैं॥ ३२॥

सुहृदामर्थकृच्छ्रेषु युक्तं बुद्धिमता सदा।
समर्थेनोपसंदेष्टं शाश्वतीं भूतिमिच्छता॥३३॥

‘मित्रों की स्थायी उन्नति चाहने वाले बुद्धिमान् एवं समर्थ पुरुष को कर्तव्याकर्तव्य के विषय में संशय उपस्थित होने पर सदा ही अपनी सम्मति देनी चाहिये’ ॥ ३३॥

इत्येवं परिपृष्टास्ते स्वं स्वं मतमतन्द्रिताः।
सोपचारं तदा राममूचुः प्रियचिकीर्षवः॥३४॥

इस प्रकार सलाह पूछी जाने पर श्रीराम का प्रिय करने की इच्छा रखने वाले वे सब वानर आलस्य छोड़ उत्साहित हो सादर अपना-अपना मत प्रकट करने लगे- ॥ ३४॥

अज्ञातं नास्ति ते किंचित् त्रिषु लोकेषु राघव।
आत्मानं पूजयन् राम पृच्छस्यस्मान् सुहृत्तया॥

‘रघुनन्दन! तीनों लोकों में कोई ऐसी बात नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो, तथापि हम आपके अपने ही अङ्ग हैं, अतः आप मित्रभाव से हमारा सम्मान बढ़ाते हुए हमसे सलाह पूछते हैं ॥ ३५ ॥

त्वं हि सत्यव्रतः शूरो धार्मिको दृढविक्रमः।
परीक्ष्यकारी स्मृतिमान् निसृष्टात्मा सुहृत्सु च॥३६॥

‘आप सत्यव्रती, शूरवीर, धर्मात्मा, सुदृढ़ पराक्रमी, जाँच-बूझकर काम करने वाले, स्मरणशक्ति से सम्पन्न और मित्रों पर विश्वास करके उन्हीं के हाथों में अपने आपको सौंप देनेवाले हैं॥ ३६॥

तस्मादेकैकशस्तावद् ब्रुवन्तु सचिवास्तव।
हेतुतो मतिसम्पन्नाः समर्थाश्च पुनः पुनः॥३७॥

‘इसलिये आपके सभी बुद्धिमान् एवं सामर्थ्यशाली सचिव एक-एक करके बारी-बारी से अपने युक्तियुक्त विचार प्रकट करें’॥ ३७॥

इत्युक्ते राघवायाथ मतिमानङ्गदोऽग्रतः।
विभीषणपरीक्षार्थमुवाच वचनं हरिः॥ ३८॥

वानरों के ऐसा कहने पर सबसे पहले बुद्धिमान् वानर अङ्गद विभीषण की परीक्षा के लिये सुझाव देते हुए श्रीरघुनाथजी से बोले- ॥ ३८॥

शत्रोः सकाशात् सम्प्राप्तः सर्वथा तय॑ एव हि।
विश्वासनीयः सहसा न कर्तव्यो विभीषणः॥३९॥

‘भगवन्! विभीषण शत्रु के पास से आया है, इसलिये उस पर अभी शङ्का ही करनी चाहिये उसे सहसा विश्वासपात्र नहीं बना लेना चाहिये॥ ३९॥

छादयित्वाऽऽत्मभावं हि चरन्ति शठबुद्धयः।
प्रहरन्ति च रन्ध्रेषु सोऽनर्थः सुमहान् भवेत्॥४०॥

‘बहुत-से शठतापूर्ण विचार रखने वाले लोग अपने मनोभाव को छिपाकर विचरते रहते हैं और मौका पाते ही प्रहार कर बैठते हैं। इससे बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता है॥ ४०॥

अर्थानौँ विनिश्चित्य व्यवसायं भजेत ह।
गुणतः संग्रहं कुर्याद् दोषतस्तु विसर्जयेत्॥४१॥

‘अतः गुण-दोष का विचार करके पहले यह निश्चय कर लेना चाहिये कि इस व्यक्ति से अर्थ की प्राप्ति होगी या अनर्थ की (यह हित का साधन करेगा या अहितका)। यदि उसमें गुण हों तो उसे स्वीकार करे और यदि दोष दिखायी दें तो त्याग दे॥४१॥

यदि दोषो महांस्तस्मिंस्त्यज्यतामविशङ्कितम्।
गुणान् वापि बहून् ज्ञात्वा संग्रहः क्रियतां नृप।४२॥

‘महाराज! यदि उसमें महान दोष हो तो निःसंदेह उसका त्याग कर देना ही उचित है। गुणों की दृष्टि से यदि उसमें बहुत-से सद्गुणों के होने का पता लगे, तभी उस व्यक्ति को अपनाना चाहिये’॥ ४२ ॥

शरभस्त्वथ निश्चित्य सार्थं वचनमब्रवीत्।
क्षिप्रमस्मिन् नरव्याघ्र चारः प्रतिविधीयताम्॥४३॥

तदनन्तर शरभ ने सोच-विचारकर यह सार्थक बात कही-पुरुषसिंह ! इस विभीषण के ऊपर शीघ्र ही कोई गुप्तचर नियुक्त कर दिया जाय॥४३॥

प्रणिधाय हि चारेण यथावत् सूक्ष्मबुद्धिना।
परीक्ष्य च ततः कार्यो यथान्यायं परिग्रहः॥४४॥

‘सूक्ष्म बुद्धिवाले गुप्तचर को भेजकर उसके द्वारा यथावत् रूप से उसकी परीक्षा कर ली जाय। इसके बाद यथोचित रीति से उसका संग्रह करना चाहिये। ४४॥

जाम्बवांस्त्वथ सम्प्रेक्ष्य शास्त्रबुद्ध्या विचक्षणः।
वाक्यं विज्ञापयामास गुणवद् दोषवर्जितम्॥४५॥

इसके बाद परम चतुर जाम्बवान् ने शास्त्रीयबुद्धि से विचार करके ये गुणयुक्त दोषरहित वचन कहे- ॥

बद्धवैराच्च पापाच्च राक्षसेन्द्राद् विभीषणः।
अदेशकाले सम्प्राप्तः सर्वथा शंक्यतामयम्॥४६॥

‘राक्षसराज रावण बड़ा पापी है। उसने हमारे साथ वैर बाँध रखा है और यह विभीषण उसीके पास से आ रहा है। वास्तव में न तो इसके आने का यह समय है और न स्थान ही। इसलिये इसके विषय में सब प्रकार से सशङ्क ही रहना चाहिये’॥ ४६॥

ततो मैन्दस्तु सम्प्रेक्ष्य नयापनयकोविदः।
वाक्यं वचनसम्पन्नो बभाषे हेतुमत्तरम्॥४७॥

तदनन्तर नीति और अनीति के ज्ञाता तथा वाग्वैभव से सम्पन्न मैन्द ने सोच-विचारकर यह युक्तियुक्त उत्तम बात कही— ॥ ४७॥

अनुजो नाम तस्यैष रावणस्य विभीषणः।
पृच्छयतां मधुरेणायं शनैर्नरपतीश्वर ॥४८॥

‘महाराज! यह विभीषण रावण का छोटा भाई ही तो है, इसलिये इससे मधुर व्यवहार के साथ धीरे-धीरे सब बातें पूछनी चाहिये। ४८॥

भावमस्य तु विज्ञाय तत्त्वतस्तं करिष्यसि।
यदि दुष्टो न दुष्टो वा बुद्धिपूर्वं नरर्षभ॥४९॥

‘नरश्रेष्ठ! फिर इसके भाव को समझकर आप बुद्धिपूर्वक यह ठीक-ठीक निश्चय करें कि यह दुष्ट है या नहीं। उसके बाद जैसा उचित हो, वैसा करना चाहिये’॥

अथ संस्कारसम्पन्नो हनूमान् सचिवोत्तमः।
उवाच वचनं श्लक्ष्णमर्थवन्मधुरं लघु॥५०॥

तत्पश्चात् सचिवों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञानजनित संस्कार से युक्त हनुमान् जी ने ये श्रवणमधुर, सार्थक, सुन्दर और संक्षिप्त वचन कहे – ॥५०॥

न भवन्तं मतिश्रेष्ठं समर्थं वदतां वरम्।
अतिशाययितुं शक्तो बृहस्पतिरपि ब्रुवन्॥५१॥

‘प्रभो! आप बुद्धिमानों में उत्तम, सामर्थ्यशाली और वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं। यदि बृहस्पति भी भाषण दें तो वे अपने को आपसे बढ़कर वक्ता नहीं सिद्ध कर सकते॥५१॥

न वादान्नापि संघर्षान्नाधिक्यान्न च कामतः।
वक्ष्यामि वचनं राजन् यथार्थं राम गौरवात्॥५२॥

‘महाराज श्रीराम ! मैं जो कुछ निवेदन करूँगा, वह वाद-विवाद या तर्क, स्पर्धा, अधिक बुद्धिमत्ता के अभिमान अथवा किसी प्रकार की कामना से नहीं करूँगा। मैं तो कार्य की गुरुता पर दृष्टि रखकर जो यथार्थ समझूगा, वही बात कहूँगा॥ ५२॥

अर्थानर्थनिमित्तं हि यदुक्तं सचिवैस्तव।
तत्र दोषं प्रपश्यामि क्रिया नह्युपपद्यते॥५३॥

‘आपके मन्त्रियों ने जो अर्थ और अनर्थ के निर्णय के लिये गुण-दोष की परीक्षा करने का सुझाव दिया है, उसमें मुझे दोष दिखायी देता है; क्योंकि इस समय परीक्षा लेना कदापि सम्भव नहीं है॥५३॥

ऋते नियोगात् सामर्थ्यमवबोद्धुं न शक्यते।
सहसा विनियोगोऽपि दोषवान् प्रतिभाति मे॥५४॥

‘विभीषण आश्रय देने के योग्य हैं या नहीं इसका निर्णय उसे किसी काम में नियुक्त किये बिना नहीं होसकता और सहसा उसे किसी काम में लगा देना भी मुझे सदोष ही प्रतीत होता है॥ ५४॥

चारप्रणिहितं युक्तं यदुक्तं सचिवैस्तव।
अर्थस्यासम्भवात् तत्र कारणं नोपपद्यते॥५५॥

‘आपके मन्त्रियों ने जो गुप्तचर नियुक्त करने की बात कही है, उसका कोई प्रयोजन न होने से वैसा करने का कोई युक्तियुक्त कारण नहीं दिखायी देता। (जो दूर रहता हो और जिसका वृत्तान्त ज्ञात न हो,
उसी के लिये गुप्तचर की नियुक्ति की जाती है। जो सामने खड़ा है और स्पष्टरूप से अपना वृत्तान्त बता रहा है, उसके लिये गुप्तचर भेजने की क्या आवश्यकता है) ॥ ५५ ॥

अदेशकाले सम्प्राप्त इत्ययं यद् विभीषणः।
विवक्षा तत्र मेऽस्तीयं तां निबोध यथामति॥५६॥

‘इसके सिवा जो यह कहा गया है कि विभीषण का इस समय यहाँ आना देश-काल के अनुरूप नहीं है। उसके विषय में भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कुछ कहना चाहता हूँ। आप सुनें॥ ५६॥

एष देशश्च कालश्च भवतीह यथा तथा।
पुरुषात् पुरुषं प्राप्य तथा दोषगुणावपि॥५७॥
दौरात्म्यं रावणे दृष्ट्वा विक्रमं च तथा त्वयि।
युक्तमागमनं ह्यत्र सदृशं तस्य बुद्धितः॥५८॥

‘उसके यहाँ आने का यही उत्तम देश और काल है, यह बात जिस तरह सिद्ध होती है, वैसा बता रहा हूँ। विभीषण एक नीच पुरुष के पास से चलकर एक श्रेष्ठ पुरुष के पास आया है। उसने दोनों के दोषों और गुणों का भी विवेचन किया है। तत्पश्चात् रावण में दुष्टता और आप में पराक्रम देख वह रावण को छोड़कर आपके पास आ गया है। इसलिये उसका यहाँ आगमन सर्वथा उचित और उसकी उत्तम बुद्धि के अनुरूप है। ५७-५८॥

अज्ञातरूपैः पुरुषैः स राजन् पृच्छ्यतामिति।
यदुक्तमत्र मे प्रेक्षा काचिदस्ति समीक्षिता॥५९॥

‘राजन् ! किसी मन्त्री के द्वारा जो यह कहा गया है कि अपरिचित पुरुषों द्वारा इससे सारी बातें पूछी जायँ। उसके विषय में मेरा जाँच-बूझकर निश्चित किया हुआ विचार है, जिसे आपके सामने रखता हूँ॥ ५९॥

पृच्छ्यमानो विशङ्केत सहसा बुद्धिमान् वचः।
तत्र मित्रं प्रदुष्येत मिथ्या पृष्टं सुखागतम्॥६०॥

‘यदि कोई अपरिचित व्यक्ति यह पूछेगा कि तुम कौन हो, कहाँ से आये हो? किसलिये आये हो? इत्यादि, तब कोई बुद्धिमान् पुरुष सहसा उस पूछने वाले पर संदेह करने लगेगा और यदि उसे यह मालूम हो जायगा कि सब कुछ जानते हुए भी मुझसे झूठे ही पूछा जा रहा है, तब सुख के लिये आये हुए उस नवागत मित्र का हृदय कलुषित हो जायगा (इस प्रकार हमें एक मित्र के लाभ से वञ्चित होना पड़ेगा) ॥ ६०॥

अशक्यं सहसा राजन् भावो बोद्धं परस्य वै।
अन्तरेण स्वरैर्भिन्नै पुण्यं पश्यतां भृशम्॥६१॥

‘इसके सिवा महाराज! किसी दूसरे के म नकी बात को सहसा समझ लेना असम्भव है। बीच-बीच में स्वरभेद से आप अच्छी तरह यह निश्चय कर लें कि यह साधुभाव से आया है या असाधुभाव से॥६१॥

न त्वस्य ब्रुवतो जातु लक्ष्यते दुष्टभावता।
प्रसन्नं वदनं चापि तस्मान्मे नास्ति संशयः॥६२॥

इसकी बातचीत से भी कभी इसका दुर्भाव नहीं लक्षित होता। इसका मुख भी प्रसन्न है। इसलिये मेरे मन में इसके प्रति कोई संदेह नहीं है।। ६२॥

अशङ्कितमतिः स्वस्थो न शठः परिसर्पति।
न चास्य दुष्टवागस्ति तस्मान्मे नास्ति संशयः॥६३॥

‘दुष्ट पुरुष कभी निःशङ्क एवं स्वस्थचित्त होकर सामने नहीं आ सकता। इसके सिवा इसकी वाणी भी दोषयुक्त नहीं है। अतः मुझे इसके विषयमें कोई संदेह नहीं है।

आकारश्छाद्यमानोऽपि न शक्यो विनिगुहितुम्।
बलाद्धि विवृणोत्येव भावमन्तर्गतं नृणाम्॥६३॥

‘कोई अपने आकार को कितना ही क्यों न छिपाये, उसके भीतर का भाव कभी छिप नहीं सकता। बाहरका आकार पुरुषों के आन्तरिक भाव को बलात् प्रकट कर देता है॥ ६४॥

देशकालोपपन्नं च कार्यं कार्यविदां वर।
सफलं कुरुते क्षिप्रं प्रयोगेणाभिसंहितम्॥६५॥

‘कार्यवेत्ताओं में श्रेष्ठ रघुनन्दन! विभीषण का यहाँ आगमनरूप जो कार्य है, वह देश-काल के अनुरूप ही है। ऐसा कार्य यदि योग्य पुरुष के द्वारा सम्पादित हो तो अपने-आपको शीघ्र सफल बनाता है॥६५॥

उद्योगं तव सम्प्रेक्ष्य मिथ्यावृत्तं च रावणम्।
वालिनं च हतं श्रुत्वा सुग्रीवं चाभिषेचितम्॥६६॥
राज्यं प्रार्थयमानस्तु बुद्धिपूर्वमिहागतः।
एतावत् तु पुरस्कृत्य युज्यते तस्य संग्रहः॥६७॥

‘आपके उद्योग, रावण के मिथ्याचार, वाली के वध और सुग्रीव के राज्याभिषेक का समाचार जान-सुनकर राज्य पाने की इच्छा से यह समझ-बूझकर ही यहाँ आपके पास आया है (इसके मन में यह विश्वास है कि शरणागतवत्सल दयालु श्रीराम अवश्य ही मेरी रक्षा करेंगे और राज्य भी दे देंगे)। इन्हीं सब बातों को दृष्टि में रखकर विभीषण का संग्रह करना-उसे अपना लेना मुझे उचित जान पड़ता है॥ ६६-६७॥

यथाशक्ति मयोक्तं तु राक्षसस्यार्जवं प्रति।
प्रमाणं त्वं हि शेषस्य श्रुत्वा बुद्धिमतां वर॥६८॥

‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ रघुनाथ! इस प्रकार इस राक्षस की सरलता और निर्दोषता के विषय में मैंने यथाशक्ति निवेदन किया। इसे सुनकर आगे आप जैसा उचित समझें, वैसा करें’॥ ६८॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे सप्तदशः सर्गः॥१७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१७॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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