RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 2 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 2

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
द्वितीयः सर्गः (2)

(सुग्रीव का श्रीराम को उत्साह प्रदान)

करना तं तु शोकपरिघुनं रामं दशरथात्मजम्।
उवाच वचनं श्रीमान् सुग्रीवः शोकनाशनम्॥ १॥

इस प्रकार शोक से संतप्त हुए दशरथनन्दन श्रीराम से सुग्रीव ने उनके शोक का निवारण करने वाली बात कही— ॥१॥

किं त्वया तप्यते वीर यथान्यः प्राकृतस्तथा।
मैवं भूस्त्यज संतापं कृतघ्न इव सौहृदम्॥२॥

‘वीरवर! आप दूसरे साधारण मनुष्यों की भाँति क्यों संताप कर रहे हैं? आप इस तरह चिन्तित न हों। जैसे कृतघ्न पुरुष सौहार्द को त्याग देता है, उसी तरह आप भी इस संताप को छोड़ दें॥२॥

संतापस्य च ते स्थानं नहि पश्यामि राघव।
प्रवृत्तावुपलब्धायां ज्ञाते च निलये रिपोः॥३॥

‘रघुनन्दन! जब सीता का समाचार मिल गया और शत्रु के निवास-स्थान का पता लग गया, तब मुझे आपके इस दुःख और चिन्ता का कोई कारण नहीं दिखायी देता॥३॥

मतिमान् शास्त्रवित् प्राज्ञः पण्डितश्चासि राघव।
त्यजेमां प्राकृतां बुद्धिं कृतात्मेवार्थदूषिणीम्॥४॥

‘रघुकुलभूषण! आप बुद्धिमान्, शास्त्रों के ज्ञाता विचारकुशल और पण्डित हैं, अतः कृतात्मा पुरुष की भाँति इस अर्थदूषक प्राकृत बुद्धि का परित्याग कर दीजिये॥४॥

समुद्रं लवयित्वा तु महानक्रसमाकुलम्।
लङ्कामारोहयिष्यामो हनिष्यामश्च ते रिपुम्॥५॥

‘बड़े-बड़े नाकों से भरे हुए समुद्र को लाँघकर हम लोग लङ्का पर चढ़ाई करेंगे और आपके शत्रु को नष्ट कर डालेंगे॥५॥

निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः।
सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति॥६॥

‘जो पुरुष उत्साहशून्य, दीन और मन-ही-मन शोक से व्याकुल रहता है, उसके सारे काम बिगड़ जाते हैं और वह बड़ी विपत्ति में पड़ जाता है॥६॥

इमे शूराः समर्थाश्च सर्वतो हरियूथपाः।
त्वत्प्रियार्थं कृतोत्साहाः प्रवेष्टमपि पावकम्।
एषां हर्षेण जानामि तर्कश्चापि दृढो मम॥७॥

‘ये वानरयूथपति सब प्रकार से समर्थ एवं शूरवीर हैं। आपका प्रिय करने के लिये इनके मन में बड़ा उत्साह है। ये आपके लिये जलती आग में भी प्रवेश कर सकते हैं। समुद्र को लाँघने और रावण को मारने का प्रसंग चलने पर इनका मुँह प्रसन्नता से खिल जाता है। इनके इस हर्ष और उत्साह से ही मैं इस बात को जानता हूँ तथा इस विषय में मेरा अपना तर्क (निश्चय) भी सुदृढ़ है॥७॥

विक्रमेण समानेष्ये सीतां हत्वा यथा रिपुम्।
रावणं पापकर्माणं तथा त्वं कर्तुमर्हसि॥८॥

‘आप ऐसा कीजिये, जिससे हमलोग पराक्रमपूर्वक अपने शत्रु पापाचारी रावण का वध करके सीता को यहाँ ले आवें॥ ८॥

सेतुरत्र यथा बद्ध्येद् यथा पश्येम तां पुरीम्।
तस्य राक्षसराजस्य तथा त्वं कुरु राघव॥९॥

‘रघुनन्दन! आप ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे समुद्र पर सेतु बँध सके और हम उस राक्षसराज की लङ्कापुरी को देख सकें॥९॥

दृष्टा तां हि पुरीं लङ्गां त्रिकटशिखरे स्थिताम।
हतं च रावणं युद्धे दर्शनादवधारय॥१०॥

‘त्रिकूटपर्वत के शिखर पर बसी हुई लङ्कापुरी एक बार दीख जाय तो आप यह निश्चित समझिये कि युद्ध में रावण दिखायी दिया और मारा गया॥ १० ॥

अबद्ध्वा सागरे सेतुं घोरे च वरुणालये।
लङ्कां न मर्दितुं शक्या सेन्ट्रैरपि सुरासुरैः॥११॥

‘वरुण के निवासभूत घोर समुद्र पर पुल बाँधे बिना तो इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी लङ्का को पददलित नहीं कर सकते॥११॥

सेतुबन्धः समुद्रे च यावल्लङ्कासमीपतः।
सर्वं तीर्णं च मे सैन्यं जितमित्युपधारय।
इमे हि समरे वीरा हरयः कामरूपिणः॥१२॥

‘अतः जब लङ्काके निकटतक समुद्रपर पुल बँध जायगा, तब हमारी सारी सेना उस पार चली जायगी। फिर तो आप यही समझिये कि अपनी जीत हो गयी; क्योंकि इच्छानुसार रूप धारण करने वाले ये वानर युद्ध में बड़ी वीरता दिखानेवाले हैं॥ १२॥

तदलं विक्लवां बुद्धिं राजन् सर्वार्थनाशिनीम्।
पुरुषस्य हि लोकेऽस्मिन् शोकः शौर्यापकर्षणः॥१३॥

‘अतः राजन्! आप इस व्याकुल बुद्धि का आश्रय न लें-बुद्धि की इस व्याकुलता को त्याग दें; क्योंकि यह समस्त कार्यों को बिगाड़ देने वाली है और शोक इस जगत् में पुरुष के शौर्य को नष्ट कर देता है॥ १३॥

यत् तु कार्यं मनुष्येण शौटीर्यमवलम्ब्यताम्।
तदलंकरणायैव कर्तुर्भवति सत्वरम्॥१४॥

‘मनुष्य को जिसका आश्रय लेना चाहिये, उस शौर्य का ही वह अवलम्बन करे; क्योंकि वह कर्ता को शीघ्र ही अलंकृत कर देता है उसके अभीष्ट फल की सिद्धि करा देता है॥ १४॥

अस्मिन् काले महाप्राज्ञ सत्त्वमातिष्ठ तेजसा।
शूराणां हि मनुष्याणां त्वद्विधानां महात्मनाम्।
विनष्टे वा प्रणष्टे वा शोकः सर्वार्थनाशनः॥१५॥

‘अतः महाप्राज्ञ श्रीराम! आप इस समय तेज के साथ ही धैर्य का आश्रय लें। कोई वस्तु खो गयी हो या नष्ट हो गयी हो, उसके लिये आप-जैसे शूरवीर महात्मा पुरुषों को शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि शोक सब कामों को बिगाड़ देता है॥ १५ ॥

तत्त्वं बुद्धिमतां श्रेष्ठः सर्वशास्त्रार्थकोविदः।
मद्विधैः सचिवैः सार्धमरिं जेतुं समर्हसि॥१६॥

‘आप बुद्धिमानों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण शास्त्रों के मर्मज्ञ हैं। अतः हम-जैसे मन्त्रियों एवं सहायकोंके साथ रहकर अवश्य ही शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं॥ १६॥

नहि पश्याम्यहं कंचित् त्रिषु लोकेषु राघव।
गृहीतधनुषो यस्ते तिष्ठेदभिमुखो रणे॥१७॥

‘रघुनन्दन! मुझे तो तीनों लोकों में ऐसा कोई वीर नहीं दिखायी देता, जो रणभूमि में धनुष लेकर खड़े हुए आपके सामने ठहर सके॥१७॥

वानरेषु समासक्तं न ते कार्यं विपत्स्यते।
अचिराद् द्रक्ष्यसे सीतां तीसागरमक्षयम्॥१८॥

‘वानरों पर जिसका भार रखा गया है, आपका वह कार्य बिगड़ने नहीं पायेगा। आप शीघ्र ही इस अक्षय समुद्र को पार करके सीता का दर्शन करेंगे॥ १८ ॥

तदलं शोकमालम्ब्य क्रोधमालम्ब भूपते।
निश्चेष्टाः क्षत्रिया मन्दाः सर्वे चण्डस्य बिभ्यति॥१९॥

‘पृथ्वीनाथ! अपने हृदय में शोक को स्थान देना व्यर्थ है। इस समय तो आप शत्रुओं के प्रति क्रोध धारण कीजिये। जो क्षत्रिय मन्द (क्रोधशून्य) होते हैं, उनसे कोई चेष्टा नहीं बन पाती; परंतु जो शत्रु के प्रति आवश्यक रोष से भरा होता है, उससे सब डरते हैं। १९॥

लङ्घनार्थं च घोरस्य समुद्रस्य नदीपतेः।
सहास्माभिरिहोपेतः सूक्ष्मबुद्धिर्विचारय॥२०॥

‘नदियों के स्वामी घोर समुद्र को पार करने के लिये क्या उपाय किया जाय, इस विषय में आप हमारे साथ बैठकर विचार कीजिये; क्योंकि आपकी बुद्धि बड़ी सूक्ष्म है॥ २०॥

लक्षिते तत्र तैः सैन्यैर्जितमित्येव निश्चिनु।
सर्वं तीर्णं च मे सैन्यं जितमित्यवधार्यताम्॥२१॥

‘यदि हमारे सैनिक समुद्र को लाँघ गये तो यही निश्चय रखिये कि अपनी जीत अवश्य होगी। सारी सेना का समुद्र के उस पार पहुँच जाना ही अपनी विजय समझिये॥२१॥

इमे हि हरयः शूराः समरे कामरूपिणः।
तानरीन् विधमिष्यन्ति शिलापादपवृष्टिभिः॥२२॥

‘ये वानर संग्राम में बड़े शूरवीर हैं और इच्छानुसार रूप धारण कर सकते हैं। ये पत्थरों और पेड़ों की वर्षा करके ही उन शत्रुओं का संहार कर डालेंगे। २२॥

कथंचित् परिपश्यामि लङ्कितं वरुणालयम्।
हतमित्येव तं मन्ये युद्धे शत्रुनिबर्हण॥२३॥

‘शत्रुसूदन श्रीराम! यदि किसी प्रकार मैं इस वानर-सेना को समुद्र के उस पार पहुँची देख सकूँ तो मैं रावण को युद्ध में मरा हुआ ही समझता हूँ॥२३॥

किमुक्त्वा बहुधा चापि सर्वथा विजयी भवान्।
निमित्तानि च पश्यामि मनो मे सम्प्रहृष्यति॥२४॥

‘बहुत कहने से क्या लाभ! मेरा तो विश्वास है कि आप सर्वथा विजयी होंगे; क्योंकि मुझे ऐसे ही शकुन दिखायी देते हैं और मेरा हृदय भी हर्ष एवं उत्साह से भरा है’॥२४॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे द्वितीयः सर्गः॥२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में दूसरा सर्ग पूरा हुआ॥२॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 2 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 2

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: