वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 20 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 20
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
विंशः सर्गः (20)
(शार्दूल के कहने से रावण का शुक को दूत बनाकर सुग्रीव के पास संदेश भेजना, श्रीराम की कृपा से उसका संकट से छूटना और सुग्रीव का रावण के लिये उत्तर देना)
ततो निविष्टां ध्वजिनीं सुग्रीवेणाभिपालिताम्।
ददर्श राक्षसोऽभ्येत्य शार्दूलो नाम वीर्यवान्॥
चारो राक्षसराजस्य रावणस्य दुरात्मनः।
तां दृष्ट्वा सर्वतोऽव्यग्रां प्रतिगम्य स राक्षसः॥२॥
आविश्य लङ्कां वेगेन राजानमिदमब्रवीत्।
इसी बीच में दुरात्मा राक्षसराज रावण के गुप्तचर पराक्रमी राक्षस शार्दूल ने वहाँ आकर सागर-तटपर छावनी डाले पड़ी हुई सुग्रीवद्वारा सुरक्षित वानरी सेना को देखा। सब ओर शान्तभाव से स्थित हुई उस विशाल सेना को देखकर वह राक्षस लौट गया और जल्दी से लङ्कापुरी में जाकर राजा रावण से यों बोला — ॥ १-२ १/२॥
एष वै वानरौंघो लङ्कां समभिवर्तते॥३॥
अगाधश्चाप्रमेयश्च द्वितीय इव सागरः।
‘महाराज! लङ्काकी ओर वानरों और भालुओंका एक प्रवाह-सा बढ़ा चला आ रहा है। वह दूसरे समुद्रके समान अगाध और असीम है॥ ३ १/२॥
पुत्रौ दशरथस्येमौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥४॥
उत्तमौ रूपसम्पन्नौ सीतायाः पदमागतौ।
‘राजा दशरथ के ये पुत्र दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण बड़े ही रूपवान् और श्रेष्ठ वीर हैं। वे सीता का उद्धार करने के लिये आ रहे हैं। ४ १/२ ॥
एतौ सागरमासाद्य संनिविष्टौ महाद्युते॥५॥
बलं चाकाशमावृत्य सर्वतो दशयोजनम्।
तत्त्वभूतं महाराज क्षिप्रं वेदितुमर्हसि ॥६॥
‘महातेजस्वी महाराज! ये दोनों रघुवंशी बन्धु भी इस समय समुद्र-तटपर ही आकर ठहरे हुए हैं। वानरों की वह सेना सब ओर से दस योजनतक के खाली स्थान को घेरकर वहाँ ठहरी हुई है। यह बिलकुल ठीक बात है। आप शीघ्र ही इस विषय में विशेष जानकारी प्राप्त करें॥५-६॥
तव दूता महाराज क्षिप्रमर्हन्ति वेदितुम्।
उपप्रदानं सान्त्वं वा भेदो वात्र प्रयुज्यताम्॥७॥
‘राक्षससम्राट! आपके दूत शीघ्र सारी बातों का पता लगा लेने के योग्य हैं, अतः उन्हें भेजें। तत्पश्चात् जैसा उचित समझें, वैसा करें—चाहे उन्हें सीता को लौटा दें, चाहे सुग्रीव से मीठी-मीठी बातें करके उन्हें अपने पक्ष में मिला लें अथवा सुग्रीव और श्रीराम में फूट डलवा दें’॥७॥
शार्दूलस्य वचः श्रुत्वा रावणो राक्षसेश्वरः।
उवाच सहसा व्यग्रः सम्प्रधार्यार्थमात्मनः।
शुकं साधु तदा रक्षो वाक्यमर्थविदां वरम्॥८॥
शार्दूल की बात सुनकर राक्षसराज रावण सहसा व्यग्र हो उठा और अपने कर्तव्य का निश्चय करके अर्थवेत्ताओं में श्रेष्ठ शुक नामक राक्षस से यह उत्तम वचन बोला
सुग्रीवं ब्रूहि गत्वाऽऽशु राजानं वचनान्मम।
यथासंदेशमक्लीबं श्लक्ष्णया परया गिरा॥९॥
‘दूत! तुम मेरे कहने से शीघ्र ही वानरराज सुग्रीव के पास जाओ और मधुर एवं उत्तम वाणी द्वारा निर्भीकतापूर्वक उनसे मेरा यह संदेश कहो— ॥९॥
त्वं वै महाराजकुलप्रसूतो महाबलश्चर्खरजःसुतश्च।
न कश्चनार्थस्तव नास्त्यनर्थस्तथापि मे भ्रातृसमो हरीश॥१०॥
वानरराज! आप वानरों के महाराज के कुल में उत्पन्न हुए हैं। आदरणीय ऋक्षरजा के पुत्र हैं और स्वयं भी बड़े बलवान् हैं। मैं आपको अपने भाई के समान समझता हूँ। यदि मुझसे आपका कोई लाभ नहीं हुआ है तो मेरे द्वारा आपकी कोई हानि भी नहीं हुई है॥ १०॥
अहं यद्यहरं भार्यां राजपुत्रस्य धीमतः।
किं तत्र तव सुग्रीव किष्किन्धां प्रति गम्यताम्॥
सुग्रीव! यदि मैं बुद्धिमान् राजपुत्र राम की स्त्री को हर लाया हूँ तो इसमें आपकी क्या हानि है? अतः आप किष्किन्धा को लौट जाइये॥११॥
नहीयं हरिभिर्लङ्का प्राप्तुं शक्या कथंचन।
देवैरपि सगन्धर्वैः किं पुनर्नरवानरैः॥१२॥
हमारी इस लङ्का में वानरलोग किसी तरह भी नहीं पहुँच सकते। यहाँ देवताओं और गन्धर्वो का भी प्रवेश होना असम्भव है; फिर मनुष्यों और वानरों की तो बात ही क्या है?”॥ १२॥
स तदा राक्षसेन्द्रेण संदिष्टो रजनीचरः।
शुको विहंगमो भूत्वा तूर्णमाप्लुत्य चाम्बरम्॥१३॥
राक्षसराज रावण के इस प्रकार संदेश देने पर उस समय निशाचर शुक तोता नामक पक्षी का रूप धारण करके तुरंत आकाश में उड़ चला॥१३॥
स गत्वा दूरमध्वानमुपर्युपरि सागरम्।
संस्थितो ह्यम्बरे वाक्यं सुग्रीवमिदमब्रवीत्॥१४॥
सर्वमुक्तं यथाऽऽदिष्टं रावणेन दुरात्मना।
समुद्र के ऊपर-ही-ऊपर बहुत दूर का रास्ता तय करके वह सुग्रीव के पास जा पहुँचा और आकाश में ही ठहरकर उसने दुरात्मा रावण की आज्ञा के अनुसार वे सारी बातें सुग्रीव से कहीं॥ १४ १/२ ॥
तत् प्रापयन्तं वचनं तूर्णमाप्लुत्य वानराः॥१५॥
प्रापद्यन्त तदा क्षिप्रं लोप्तुं हन्तुं च मुष्टिभिः।
जिस समय वह संदेश सुना रहा था, उसी समय वानर उछलकर तुरंत उसके पास जा पहुँचे। वे चाहते थे कि हम शीघ्र ही इसकी पाँखें नोच लें और इसे घूसों से ही मार डालें॥ १५ १/२ ॥
सर्वैः प्लवंगैः प्रसभं निगृहीतो निशाचरः॥१६॥
गगनाद् भूतले चाशु प्रतिगृह्यावतारितः।
इस निश्चय के साथ सारे वानरों ने उस निशाचर को बलपूर्वक पकड़ लिया और उसे कैद करके तुरंत आकाश से भूतल पर उतारा ॥ १६ १/२ ॥
वानरैः पीड्यमानस्तु शुको वचनमब्रवीत्॥१७॥
न दूतान् जन्ति काकुत्स्थ वार्यन्तां साधु वानराः।
यस्तु हित्वा मतं भर्तुः स्वमतं सम्प्रधारयेत्।
अनुक्तवादी दूतः सन् स दूतो वधमर्हति॥१८॥
इस प्रकार वानरों के पीड़ा देने पर शुक पुकार उठा —’रघुनन्दन! राजालोग दूतों का वध नहीं करते हैं, अतः आप इन वानरों को भलीभाँति रोकिये। जो स्वामी के अभिप्राय को छोड़कर अपना मत प्रकट करने लगता है, वह दूत बिना कही हुई बात कहने का अपराधी है; अतः वही वध के योग्य होता है’। १७-१८॥
शुकस्य वचनं रामः श्रुत्वा तु परिदेवितम्।
उवाच मावधिष्टेति नतः शाखामृगर्षभान्॥१९॥
शुक के वचन और विलाप को सुनकर भगवान् श्रीराम ने उसे पीटने वाले प्रमुख वानरों को पुकारकर कहा—’इसे मत मारो’ ॥ १९॥
स च पत्रलघुर्भूत्वा हरिभिर्दर्शितेऽभये।
अन्तरिक्षे स्थितो भूत्वा पुनर्वचनमब्रवीत्॥२०॥
उस समय तक शुक के पंखों का भार कुछ हलका हो गया था; (क्योंकि वानरों ने उन्हें नोंच डाला था) फिर उनके अभय देने पर शुक आकाश में खड़ा हो गया और पुनः बोला— ॥२०॥
सुग्रीव सत्त्वसम्पन्न महाबलपराक्रम।
किं मया खलु वक्तव्यो रावणो लोकरावणः॥२१॥
‘महान् बल और पराक्रम से युक्त शक्तिशाली सुग्रीव! समस्त लोकों को रुलाने वाले रावण को मुझे आपकी ओर से क्या उत्तर देना चाहिये’ ॥ २१॥
स एवमुक्तः प्लवगाधिपस्तदा प्लवंगमानामृषभो महाबलः।
उवाच वाक्यं रजनीचरस्य चारं शुकं शुद्धमदीनसत्त्वः ॥ २२॥
शुक के इस प्रकार पूछने पर उस समय कपिशिरोमणि महाबली उदारचेता वानरराज सुग्रीव ने उस निशाचर के दूतसे यह स्पष्ट एवं निश्छल बात कही— ॥ २२॥
न मेऽसि मित्रं न तथानुकम्प्यो न चोपकर्तासि न मे प्रियोऽसि।
अरिश्च रामस्य सहानुबन्धस्ततोऽसि वालीव वधार्ह वध्यः॥२३॥
‘(दूत! तुम रावण से इस प्रकार कहना—)वध के योग्य दशानन ! तुम न तो मेरे मित्र हो, न दया के पात्र हो, न मेरे उपकारी हो और न मेरे प्रिय व्यक्तियों में से ही कोई हो। भगवान् श्रीराम के शत्रु हो, इस कारण अपने सगे-सम्बन्धियोंसहित तुम वाली की भाँति ही मेरे लिये वध्य हो॥ २३॥
निहन्म्यहं त्वां ससुतं सबन्धुं सज्ञातिवर्गं रजनीचरेश।
लङ्कां च सर्वां महता बलेन सर्वैः करिष्यामि समेत्य भस्म॥२४॥
‘निशाचरराज! मैं पुत्र, बन्धु और कुटुम्बीजनोंसहित तुम्हारा संहार करूँगा और बड़ी भारी सेना के साथ आकर समस्त लङ्कापुरी को भस्म कर डालूँगा। २४॥
न मोक्ष्यसे रावण राघवस्य सुरैः सहेन्द्रैरपि मूढ गुप्तः।
अन्तर्हितः सूर्यपथं गतोऽपि तथैव पातालमनुप्रविष्टः।
गिरीशपादाम्बुजसंगतो वा हतोऽसि रामेण सहानुजस्त्वम्॥२५॥
‘मूर्ख रावण! यदि इन्द्र आदि समस्त देवता तुम्हारी रक्षा करें तो भी श्रीरघुनाथजी के हाथ से अब तुम जीवित नहीं छूट सकोगे। तुम अन्तर्धान हो जाओ, आकाश में चले जाओ, पाताल में घुस जाओ अथवा महादेवजी के चरणारविन्दों का आश्रय लो; फिर भी अपने भाइयोंसहित तुम अवश्य श्रीरामचन्द्रजी के हाथों से मारे जाओगे॥२५॥
तस्य ते त्रिषु लोकेषु न पिशाचं न राक्षसम्।
त्रातारं नानुपश्यामि न गन्धर्वं न चासुरम्॥२६॥
‘तीनों लोकों में मुझे कोई भी पिशाच, राक्षस, गन्धर्व या असुर ऐसा नहीं दिखायी देता, जो तुम्हारी रक्षा कर सके॥२६॥
अवधीस्त्वं जरावृद्धं गृध्रराजं जटायुषम्।
किं नु ते रामसांनिध्ये सकाशे लक्ष्मणस्य च।
हृता सीता विशालाक्षी यां त्वं गृह्य न बुध्यसे॥२७॥
‘चिरकाल के बूढ़े गृध्रराज जटायु को तुमने क्यों मारा? यदि तुममें बड़ा बल था तो श्रीराम और लक्ष्मण के पास से तुमने विशाललोचना सीता का अपहरण क्यों नहीं किया? तुम सीताजी को ले जाकर अपने सिर पर आयी हुई विपत्ति को क्यों नहीं समझ रहे हो? ॥ २७॥
महाबलं महात्मानं दुराधर्षं सुरैरपि।
न बुध्यसे रघुश्रेष्ठं यस्ते प्राणान् हरिष्यति॥२८॥
‘रघुकुलतिलक श्रीराम महाबली, महात्मा और देवताओं के लिये भी दुर्जय हैं, किंतु तुम उन्हें अभी तक समझ नहीं सके। (तुमने छिपकर सीता का हरण किया है, परंतु) वे (सामने आकर) तुम्हारे प्राणों का अपहरण करेंगे’ ॥ २८॥
ततोऽब्रवीद् वालिसुतोऽप्यङ्गदो हरिसत्तमः।
नायं दूतो महाराज चारकः प्रतिभाति मे॥२९॥
तुलितं हि बलं सर्वमनेन तव तिष्ठता।
गृह्यतां मागमल्लङ्कामेतद्धि मम रोचते॥३०॥
तत्पश्चात् वानरशिरोमणि वालिकुमार अङ्गद ने कहा—’महाराज! मुझे तो यह दूत नहीं, कोई गुप्तचर प्रतीत होता है। इसने यहाँ खड़े-खड़े आपकी सारी सेना का माप-तौल कर लिया है—पूरा-पूरा अंदाजा लगा लिया है। अतः इसे पकड़ लिया जाय, लङ्का को न जाने पाये मुझे यही ठीक जान पड़ता है। २९-३०॥
ततो राज्ञा समादिष्टाः समुत्पत्य वलीमुखाः।
जगृहुश्च बबन्धुश्च विलपन्तमनाथवत्॥३१॥
फिर तो राजा सुग्रीव के आदेश से वानरों ने उछलकर उसे पकड़ लिया और बाँध दिया। वह बेचारा अनाथ की भाँति विलाप करता रहा ॥ ३१॥
शुकस्तु वानरैश्चण्डैस्तत्र तैः सम्प्रपीडितः।
व्याचुक्रोश महात्मानं रामं दशरथात्मजम्।
लुप्यते मे बलात् पक्षौ भिद्यते मे तथाक्षिणी॥३२॥
यां च रात्रिं मरिष्यामि जाये रात्रिं च यामहम्।
एतस्मिन्नन्तरे काले यन्मया ह्यशुभं कृतम्।
सर्वं तदुपपद्येथा जह्यां चेद् यदि जीवितम्॥३३॥
उन प्रचण्ड वानरों से पीड़ित हो शुक ने दशरथनन्दन महात्मा श्रीराम को बड़े जोर से पुकारा और कहा—’प्रभो! बलपूर्वक मेरी पाँखें नोची और आँखें फोड़ी जा रही हैं। यदि आज मैंने प्राणों का त्याग किया तो जिस रात में मेरा जन्म हुआ था और जिस रात को मैं मरूँगा, जन्म और मरण के इस मध्यवर्ती काल में, मैंने जो भी पाप किया है, वह सब आपको ही लगेगा’॥ ३२-३३॥
नाघातयत् तदा रामः श्रुत्वा तत्परिदेवितम्।
वानरानब्रवीद् रामो मुच्यतां दूत आगतः॥३४॥
उस समय उसका वह विलाप सुनकर श्रीराम ने उसका वध नहीं होने दिया। उन्होंने वानरों से कहा —’छोड़ दो। यह दूत होकर ही आया था’ ॥ ३४ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे विंशः सर्गः॥२०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२०॥
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