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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 21 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 21

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
एकविंशः सर्गः (21)

(श्रीराम का समुद्र के तट पर कुशा बिछाकर तीन दिनों तक धरना देने पर भी समुद्र के दर्शन न देने से कुपित हो उसे बाण मारकर विक्षुब्ध कर देना)

ततः सागरवेलायां दर्भानास्तीर्य राघवः।
अञ्जलिं प्राङ्मखः कृत्वा प्रतिशिश्ये महोदधेः॥१॥

तदनन्तर श्रीरघुनाथजी समुद्र के तट पर कुशा बिछा महासागर के समक्ष हाथ जोड़ पूर्वाभिमुख हो वहाँ लेट गये॥१॥

बाहुं भुजङ्गभोगाभमुपधायारिसूदनः।
जातरूपमयैश्चैव भूषणैर्भूषितं पुरा॥२॥

उस समय शत्रुसूदन श्रीराम ने सर्प के शरीर की भाँति कोमल और वनवास के पहले सोने के बने हुए सुन्दर आभूषणों से सदा विभूषित रहने वाली अपनी एक (दाहिनी) बाँह को तकिया बना रखा था॥२॥

मणिकाञ्चनकेयूरमुक्ताप्रवरभूषणैः।
भुजैः परमनारीणामभिष्टमनेकधा॥३॥

अयोध्या में रहते समय मातृकोटि की अनेक उत्तम नारियाँ (धायें) मणि और सुवर्ण के बने हुए केयूरों तथा मोती के श्रेष्ठ आभूषणों से विभूषित अपने करकमलों द्वारा नहलाने-धुलाने आदि के समय अनेक बार श्रीराम के उस बाँह को सहलाती और दबाती थीं। ३॥

चन्दनागुरुभिश्चैव पुरस्तादभिसेवितम्।
बालसूर्यप्रकाशैश्च चन्दनैरुपशोभितम्॥४॥

पहले चन्दन और अगुरु से उस बाँह की सेवा होती थी। प्रातःकाल के सूर्य की-सी कान्तिवाले लाल चन्दन उसकी शोभा बढ़ाते थे॥ ४॥

शयने चोत्तमाङ्गेन सीतायाः शोभितं पुरा।
तक्षकस्येव सम्भोगं गङ्गाजलनिषेवितम्॥५॥

सीताहरण से पहले शयनकाल में सीता का सिर उस बाँह की शोभा बढ़ाता था और श्वेत शय्या पर स्थित एवं लाल चन्दन से चर्चित हुई वह बाँह गङ्गाजल में निवास करने वाले तक्षक के* शरीर की भाँति सुशोभित होती थी॥५॥

* तक्षकनाग का रंग लाल माना गया है। (देखिये महाभारत, आदिपर्व ४४ । २-३)

संयुगे युगसंकाशं शत्रूणां शोकवर्धनम्।
सुहृदां नन्दनं दीर्घ सागरान्तव्यपाश्रयम्॥६॥

युद्धस्थल में जूए के समान वह विशाल भुजा शत्रुओं का शोक बढ़ाने वाली और सुहृदों को दीर्घ काल तक आनन्दित करने वाली थी। समुद्रपर्यन्त अखण्ड भूमण्डल की रक्षा का भार उनकी उसी भुजा पर प्रतिष्ठित था॥६॥

अस्यता च पुनः सव्यं ज्याघातविहतत्वचम्।
दक्षिणो दक्षिणं बाहुं महापरिघसंनिभम्॥७॥
गोसहस्रप्रदातारं ह्युपधाय भुजं महत्।
अद्य मे तरणं वाथ मरणं सागरस्य वा॥८॥
इति रामो धृतिं कृत्वा महाबाहुर्महोदधिम्।
अधिशिष्ये च विधिवत् प्रयतो नियतो मुनिः॥९॥

बायीं ओर को बारंबार बाण चलाने के कारण प्रत्यञ्चा के आघात से जिसकी त्वचा पर रगड़ पड़ गयी थी, जो विशाल परिघ के समान सुदृढ़ एवं बलिष्ठ थी तथा जिसके द्वारा उन्होंने सहस्रों गौओं का दान किया था, उस विशाल दाहिनी भुजा का तकिया लगाकर उदारता आदि गुणों से युक्त महाबाहु श्रीराम ‘आज या तो मैं समुद्र के पार जाऊँगा या मेरे द्वारा समुद्र का संहार होगा’ ऐसा निश्चय करके मौन हो मन, वाणी और शरीर को संयम में रखकर महासागर को अनुकूल करने के उद्देश्य से विधिपूर्वक धरना देते हुए उस कुशासन पर सो गये॥७–९॥

तस्य रामस्य सुप्तस्य कुशास्तीर्णे महीतले।
नियमादप्रमत्तस्य निशास्तिस्रोऽभिजग्मतुः॥१०॥

कुश बिछी हुई भूमि पर सोकर नियम से असावधान न होते हुए श्रीराम की वहाँ तीन रातें व्यतीत हो गयीं।

स त्रिरात्रोषितस्तत्र नयज्ञो धर्मवत्सलः।
उपासत तदा रामः सागरं सरितां पतिम्॥११॥
न च दर्शयते रूपं मन्दो रामस्य सागरः।
प्रयतेनापि रामेण यथार्हमभिपूजितः॥१२॥

इस प्रकार उस समय वहाँ तीन रात लेटे रहकर नीति के ज्ञाता, धर्मवत्सल श्रीरामचन्द्रजी सरिताओं के स्वामी समुद्र की उपासना करते रहे; परंतु नियमपूर्वक रहते हुए श्रीराम के द्वारा यथोचित पूजा और सत्कार पाकर भी उस मन्दमति महासागर ने उन्हें अपने आधिदैविक रूप का दर्शन नहीं कराया—वह उनके समक्ष प्रकट नहीं हुआ॥ ११-१२॥

समुद्रस्य ततः क्रुद्धो रामो रक्तान्तलोचनः।
समीपस्थमुवाचेदं लक्ष्मणं शुभलक्षणम्॥१३॥

तब अरुणनेत्र प्रान्तवाले भगवान् श्रीराम समुद्रपर कुपित हो उठे और पास ही खड़े हुए शुभलक्षणयुक्त लक्ष्मण से इस प्रकार बोले- ॥ १३॥

अवलेपः समुद्रस्य न दर्शयति यः स्वयम्।
प्रशमश्च क्षमा चैव आर्जवं प्रियवादिता॥१४॥
असामर्थ्यफला ह्येते निर्गुणेषु सतां गुणाः।

‘समुद्र को अपने ऊपर बड़ा अहङ्कार है, जिससे वह स्वयं मेरे सामने प्रकट नहीं हो रहा है। शान्ति, क्षमा, सरलता और मधुर भाषण—ये जो सत्पुरुषों के गुण हैं, इनका गुणहीनों के प्रति प्रयोग करने पर यही परिणाम होता है कि वे उस गुणवान् पुरुष को भी असमर्थ समझ लेते हैं। १४ १/२ ॥

आत्मप्रशंसिनं दुष्टं धृष्टं विपरिधावकम्॥१५॥
सर्वत्रोत्सृष्टदण्डं च लोकः सत्कुरुते नरम्।

‘जो अपनी प्रशंसा करने वाला, दुष्ट, धृष्ट, सर्वत्र धावा करने वाला और अच्छे-बुरे सभी लोगों पर कठोर दण्ड का प्रयोग करने वाला होता है, उस मनुष्य का सब लोग सत्कार करते हैं। १५ १/२॥

न साम्ना शक्यते कीर्तिर्न साम्ना शक्यते यशः॥१६॥
प्राप्तुं लक्ष्मण लोकेऽस्मिञ्जयो वा रणमूर्धनि।

‘लक्ष्मण ! सामनीति (शान्ति)-के द्वारा इस लोक में न तो कीर्ति प्राप्त की जा सकती है, न यश का प्रसार हो सकता है और न संग्राम में विजय ही पायी जा सकती है।

अद्य मबाणनिर्भग्नैर्मकरैर्मकरालयम्॥१७॥
निरुद्धतोयं सौमित्रे प्लवद्भिः पश्य सर्वतः।

‘सुमित्रानन्दन! आज मेरे बाणों से खण्ड-खण्ड हो मगर और मत्स्य सब ओर उतराकर बहने लगेंगे और उनकी लाशों से इस मकरालय (समुद्र)-का जल आच्छादित हो जायगा। तुम यह दृश्य आज अपनी आँखों देख लो॥ १७ १/२ ॥

भोगिनां पश्य भोगानि मया भिन्नानि लक्ष्मण॥१८॥
महाभोगानि मत्स्यानां करिणां च करानिह।

‘लक्ष्मण! तुम देखो कि मैं यहाँ जल में रहने वाले सोके शरीर, मत्स्यों के विशाल कलेवर और जलहस्तियों के शुण्ड-दण्ड के किस तरह टुकड़े-टुकड़े कर डालता हूँ॥ १८ १/२॥

सशङ्खशुक्तिकाजालं समीनमकरं तथा॥१९॥
अद्य युद्धेन महता समुद्रं परिशोषये।

‘आज महान् युद्ध ठानकर शङ्खों और सीपियों के समुदाय तथा मत्स्यों और मगरोंसहित समुद्र को मैं अभी सुखाये देता हूँ॥ १९ १/२॥

क्षमया हि समायुक्तं मामयं मकरालयः॥२०॥
असमर्थं विजानाति धिक् क्षमामीदृशे जने।

‘मगरों का निवासभूत यह समुद्र मुझे क्षमा से युक्त देख असमर्थ समझने लगा है। ऐसे मूों के प्रति की गयी क्षमा को धिक्कार है॥२० १/२॥

न दर्शयति साम्ना मे सागरो रूपमात्मनः॥२१॥
चापमानय सौमित्रे शरांश्चाशीविषोपमान्।
समुद्रं शोषयिष्यामि पद्भयां यान्तु प्लवंगमाः॥२२॥

‘सुमित्रानन्दन! सामनीति का आश्रय लेने से यह समुद्र मेरे सामने अपना रूप नहीं प्रकट कर रहा है, इसलिये धनुष तथा विषधर सो के समान भयंकर बाण ले आओ। मैं समुद्र को सुखा डालूँगा; फिर वानर लोग पैदल ही लङ्कापुरी को चलें॥ २१-२२॥

अद्याक्षोभ्यमपि क्रुद्धः क्षोभयिष्यामि सागरम्।
वेलासु कृतमर्यादं सहस्रोर्मिसमाकुलम्॥२३॥
निर्मर्यादं करिष्यामि सायकैर्वरुणालयम्।
महार्णवं क्षोभयिष्ये महादानवसंकुलम्॥२४॥

‘यद्यपि समुद्र को अक्षोभ्य कहा गया है; फिर भी आज कुपित होकर मैं इसे विक्षुब्ध कर दूंगा। इसमें सहस्रों तरङ् उठती रहती हैं। फिर भी यह सदा अपने तट की मर्यादा (सीमा) में ही रहता है। किंतु अपने बाणों से मारकर मैं इसकी मर्यादा नष्ट कर दूंगा। बड़े बड़े दानवों से भरे हुए इस महासागर में हलचल मचा दूंगा-तूफान ला दूंगा’ ॥ २३-२४॥

एवमुक्त्वा धनुष्पाणिः क्रोधविस्फारितेक्षणः।
बभूव रामो दुर्धर्षो युगान्ताग्निरिव ज्वलन्॥२५॥

यों कहकर दुर्धर्ष वीर भगवान् श्रीराम ने हाथ में धनुष ले लिया। वे क्रोध से आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे और प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित हो उठे॥२५॥

सम्पीड्य च धनुर्घोरं कम्पयित्वा शरैर्जगत्।
मुमोच विशिखानुग्रान् वज्रानिव शतक्रतुः॥२६॥

उन्होंने अपने भयंकर धनुष को धीरे से दबाकर उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी और उसकी टङ्कार से सारे जगत् को कम्पित करते हुए बड़े भयंकर बाण छोड़े, मानो इन्द्रने बहुत-से वज्रों का प्रहार किया हो॥२६॥

ते ज्वलन्तो महावेगास्तेजसा सायकोत्तमाः।
प्रविशन्ति समुद्रस्य जलं वित्रस्तपन्नगम्॥२७॥

तेज से प्रज्वलित होते हुए वे महान् वेगशाली श्रेष्ठ बाण समुद्र के जल में घुस गये। वहाँ रहने वाले सर्प भय से थर्रा उठे॥२७॥

तोयवेगः समुद्रस्य समीनमकरो महान्।
स बभूव महाघोरः समारुतरवस्तथा ॥२८॥

‘मत्स्यों और मगरोंसहित महासागर के जल का महान् वेग सहसा अत्यन्त भयंकर हो गया। वहाँ तूफान का कोलाहल छा गया॥ २८॥

महोर्मिमालाविततः शङ्कशुक्तिसमावृतः।
सधूमः परिवृत्तोर्मिः सहसासीन्महोदधिः॥२९॥

बड़ी-बड़ी तरङ्ग-मालाओं से सारा समुद्र व्याप्त हो उठा। शङ्ख और सीपियाँ पानी के ऊपर छा गयीं। वहाँ धुआँ उठने लगा और सारे महासागर में सहसा बड़ी बड़ी लहरें चक्कर काटने लगीं॥ २९॥

व्यथिताः पन्नगाश्चासन् दीप्तास्या दीप्तलोचनाः।
दानवाश्च महावीर्याः पातालतलवासिनः॥३०॥

चमकीले फन और दीप्तिशाली नेत्रोंवाले सर्प व्यथित हो उठे तथा पाताल में रहने वाले महापराक्रमी दानव भी व्याकुल हो गये॥३०॥

ऊर्मयः सिन्धुराजस्य सनक्रमकरास्तथा।
विन्ध्यमन्दरसंकाशाः समुत्पेतुः सहस्रशः॥३१॥

सिन्धुराज की सहस्रों लहरें जो विन्ध्याचल और मन्दराचल के समान विशाल एवं विस्तृत थीं, नाकों और मकरों को साथ लिये ऊपर को उठने लगीं॥ ३१॥

आघूर्णिततरङ्गौघः सम्भ्रान्तोरगराक्षसः।
उदर्तितमहाग्राहः सघोषो वरुणालयः॥३२॥

सागर की उत्ताल तरङ्ग-मालाएँ झूमने और चक्कर काटने लगीं। वहाँ निवास करने वाले नाग और राक्षस घबरा गये। बड़े-बड़े ग्राह ऊपर को उछलने लगे तथा वरुण के निवासभूत उस समुद्र में सब ओर भारी कोलाहल मच गया॥ ३२॥

ततस्तु तं राघवमुग्रवेगं प्रकर्षमाणं धनुरप्रमेयम्।
सौमित्रिरुत्पत्य विनिःश्वसन्तं मामेति चोक्त्वा धनुराललम्बे॥३३॥

तदनन्तर श्रीरघुनाथजी रोष से लंबी साँस लेते हुए अपने भयंकर वेगशाली अनुपम धनुष को पुनः खींचने लगे। यह देख सुमित्राकुमार लक्ष्मण उछलकर उनके पास जा पहुँचे और ‘बस, बस, अब नहीं, अब नहीं’ ऐसा कहते हुए उन्होंने उनका धनुष पकड़ लिया। ३३॥

एतद्विनापि ह्युदधेस्तवाद्य सम्पत्स्यते वीरतमस्य कार्यम्।
भवद्विधाः क्रोधवशं न यान्ति दीर्घ भवान् पश्यतु साधुवृत्तम्॥३४॥

(फिर वे बोले-) भैया! आप वीर-शिरोमणि हैं। इस समुद्र को नष्ट किये बिना भी आपका कार्य सम्पन्न हो जायगा। आप-जैसे महापुरुष क्रोध के अधीन नहीं होते हैं। अब आप सुदीर्घकाल तक उपयोग में लाये जाने वाले किसी अच्छे उपायपर दृष्टि डालें—कोई दूसरी उत्तम युक्ति सोचें’॥ ३४॥

अन्तर्हितैश्चापि तथान्तरिक्षे ब्रह्मर्षिभिश्चैव सुरर्षिभिश्च।
शब्दः कृतः कष्टमिति ब्रुवद्भिर्मामेति चोक्त्वा महता स्वरेण॥३५॥

इसी समय अन्तरिक्ष में अव्यक्तरूप से स्थित महर्षियों और देवर्षियों ने भी ‘हाय! यह तो बड़े कष्टकी बात है’ ऐसा कहते हुए ‘अब नहीं, अब नहीं’ कहकर बड़े जोर से कोलाहल किया॥ ३५ ॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे एकविंशः सर्गः ॥२१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में इक्कीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२१॥


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Shivangi

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