वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 22 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 22
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
वाविंशः सर्गः (22)
(समुद्र की सलाह के अनुसार नल के द्वारा सागर पर सौ योजन लंबे पुल का निर्माण तथा उसके द्वारा श्रीराम आदिसहित वानरसेना का उस पार पहुंचकर पड़ाव डालना)
अथोवाच रघुश्रेष्ठः सागरं दारुणं वचः।
अद्य त्वां शोषयिष्यामि सपातालं महार्णव॥१॥
तब रघुकुलतिलक श्रीराम ने समुद्र से कठोर शब्दों में कहा—’महासागर! आज मैं पातालसहित तुझे सुखा डालूँगा’॥१॥
शरनिर्दग्धतोयस्य परिशुष्कस्य सागर।
मया निहतसत्त्वस्य पांसुरुत्पद्यते महान्॥२॥
‘सागर! मेरे बाणों से तुम्हारी सारी जलराशि दग्ध हो जायगी, तू सूख जायगा और तेरे भीतर रहने वाले सब जीव नष्ट हो जायँगे। उस दशा में तेरे यहाँ जल के स्थान में विशाल बालुकाराशि पैदा हो जायगी॥२॥
मत्कार्मुकविसृष्टेन शरवर्षेण सागर।
परं तीरं गमिष्यन्ति पद्भिरेव प्लवंगमाः॥३॥
‘समुद्र! मेरे धनुष द्वारा की गयी बाण-वर्षा से जब तेरी ऐसी दशा हो जायगी, तब वानर लोग पैदल ही चलकर तेरे उस पार पहुँच जायेंगे॥३॥
विचिन्वन्नाभिजानासि पौरुषं नापि विक्रमम्।
दानवालय संतापं मत्तो नाम गमिष्यसि ॥४॥
‘दानवों के निवासस्थान! तू केवल चारों ओर से बहकर आयी हुई जलराशि का संग्रह करता है। तुझे मेरे बल और पराक्रम का पता नहीं हैं। किंतु याद रख, (इस उपेक्षा के कारण) तुझे मुझसे भारी संताप प्राप्त होगा’ ॥ ४॥
ब्राह्मणास्त्रेण संयोज्य ब्रह्मदण्डनिभं शरम्।
संयोज्य धनुषि श्रेष्ठ विचकर्ष महाबलः॥५॥
यों कहकर महाबली श्रीराम ने एक ब्रह्मदण्ड के समान भयंकर बाण को ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित करके अपने श्रेष्ठ धनुष पर चढ़ाकर खींचा॥ ५ ॥
तस्मिन् विकृष्टे सहसा राघवेण शरासने।
रोदसी सम्पफालेव पर्वताश्च चकम्पिरे॥६॥
श्रीरघुनाथजी के द्वारा सहसा उस धनुष के खींचे जाते ही पृथ्वी और आकाश मानो फटने लगे और पर्वत डगमगा उठे॥६॥
तमश्च लोकमावतें दिशश्च न चकाशिरे।
प्रतिचुक्षुभिरे चाशु सरांसि सरितस्तथा॥७॥
सारे संसार में अन्धकार छा गया। किसी को दिशाओं का ज्ञान न रहा। सरिताओं और सरोवरों में तत्काल हलचल पैदा हो गयी॥ ७॥
तिर्यक् च सह नक्षत्रैः संगतौ चन्द्रभास्करौ।
भास्करांशुभिरादीप्तं तमसा च समावृतम्॥८॥
चन्द्रमा और सूर्य नक्षत्रों के साथ तिर्यक्-गति से चलने लगे। सूर्य की किरणों से प्रकाशित होने पर भी आकाश में अन्धकार छा गया॥८॥
प्रचकाशे तदाऽऽकाशमुल्काशतविदीपितम्।
अन्तरिक्षाच्च निर्घाता निर्जग्मुरतुलस्वनाः॥९॥
उस समय आकाश में सैकड़ों उल्काएँ प्रज्वलित होकर उसे प्रकाशित करने लगीं तथा अन्तरिक्ष से अनुपम एवं भारी गड़गड़ाहट के साथ वज्रपात होने लगे॥९॥
वपुःप्रकर्षेण ववुर्दिव्यमारुतपङ्क्तयः।
बभञ्ज च तदा वृक्षाञ्जलदानुदहन्मुहुः॥१०॥
आरुजंश्चैव शैलाग्रान् शिखराणि बभञ्ज च।
परिवह आदि वायुभेदों का समूह बड़े वेग से बहने लगा। वह मेघों की घटा को उड़ाता हुआ बारंबार वृक्षों को तोड़ने, बड़े-बड़े पर्वतों से टकराने और उनके शिखरों को खण्डित करके गिराने लगा॥१० १/२॥
दिवि च स्म महामेघाः संहताः समहास्वनाः॥११॥
मुमुचुर्वैद्युतानग्नींस्ते महाशनयस्तदा।
यानि भूतानि दृश्यानि चुक्रुशुश्चाशनेः समम्॥१२॥
अदृश्यानि च भूतानि मुमुचुभैरवस्वनम्।
आकाश में महान् वेगशाली विशाल वज्र भारी गड़गड़ाहट के साथ टकराकर उस समय वैद्युत अग्नि की वर्षा करने लगे। जो प्राणी दिखायी दे रहे थे और जो नहीं दिखायी देते थे, वे सब बिजली की कड़क के समान भयंकर शब्द करने लगे॥ ११-१२ १/२॥
शिश्यिरे चाभिभूतानि संत्रस्तान्युद्भिजन्ति च॥
सम्प्रविव्यथिरे चापि न च पस्पन्दिरे भयात्।
उनमें से कितने ही अभिभूत होकर धराशायी हो गये। कितने ही भयभीत और उद्विग्न हो उठे। कोई व्यथा से व्याकुल हो गये और कितने ही भय के मारे जडवत् हो गये॥
सह भूतैः सतोयोर्मिः सनागः सहराक्षसः॥१४॥
सहसाभूत् ततो वेगाद् भीमवेगो महोदधिः।
योजनं व्यतिचक्राम वेलामन्यत्र सम्प्लवात्॥१५॥
समुद्र अपने भीतर रहने वाले प्राणियों, तरङ्गों,सो और राक्षसोंसहित सहसा भयानक वेग से युक्त हो गया और प्रलयकाल के बिना ही तीव्रगति से अपनी मर्यादा लाँघकर एक-एक योजन आगे बढ़ गया॥ १४-१५॥
तं तथा समतिक्रान्तं नातिचक्राम राघवः।
समुद्धतममित्रघ्नो रामो नदनदीपतिम्॥१६॥
इस प्रकार नदों और नदियों के स्वामी उस उद्धत समुद्र के मर्यादा लाँघकर बढ़ जाने पर भी शत्रुसूदन श्रीरामचन्द्रजी अपने स्थान से पीछे नहीं हटे॥१६॥
ततो मध्यात् समुद्रस्य सागरः स्वयमुत्थितः।
उदयाद्रिमहाशैलान्मेरोरिव दिवाकरः॥१७॥
तब समुद्र के बीच से सागर स्वयं मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ, मानो महाशैल मेरुपर्वत के अङ्गभूत उदयाचल से सूर्यदेव उदित हुए हों॥ १७ ॥
पन्नगैः सह दीप्तास्यैः समुद्रः प्रत्यदृश्यत।
स्निग्धवैदूर्यसंकाशो जाम्बूनदविभूषणः॥१८॥
चमकीले मुखवाले सो के साथ समुद्र का दर्शन हुआ। उसका वर्ण स्निग्ध वैदूर्यमणि के समान श्याम था। उसने जाम्बूनद नामक सुवर्ण के बने हुए आभूषण पहन रखे थे॥१८॥
रक्तमाल्याम्बरधरः पद्मपत्रनिभेक्षणः।
सर्वपुष्पमयीं दिव्यां शिरसा धारयन् स्रजम्॥१९॥
लाल रंग के फूलों की माला तथा लाल ही वस्त्र धारण किये थे। उसके नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान सुन्दर थे। उसने सिर पर एक दिव्य पुष्पमाला धारण कर रखी थी, जो सब प्रकार के फूलों से बनायी गयी थी॥
जातरूपमयैश्चैव तपनीयविभूषणैः।
आत्मजानां च रत्नानां भूषितो भूषणोत्तमैः॥२०॥
सुवर्ण और तपे हुए काञ्चन के आभूषण उसकी शोभा बढ़ाते थे। वह अपने ही भीतर उत्पन्न हुए रत्नों के उत्तम आभूषणों से विभूषित था॥ २० ॥
धातुभिर्मण्डितः शैलो विविधैर्हिमवानिव।
एकावलीमध्यगतं तरलं पाण्डरप्रभम्॥२१॥
विपुलेनोरसा बिभ्रत्कौस्तुभस्य सहोदरम्।
इसीलिये नाना प्रकार के धातुओं से अलंकृत हिमवान् पर्वत के समान शोभा पाता था। वह अपने विशाल वक्षःस्थल पर कौस्तुभ मणि के सहोदर (सदृश) एक श्वेत प्रभा से युक्त मुख्य रत्न धारण किये हुए था, जो मोतियों की इकहरी माला के मध्यभाग में प्रकाशित हो रहा था॥ २१ १/२॥
आघूर्णिततरङ्गौघः कालिकानिलसंकुलः॥२२॥
गङ्गासिन्धुप्रधानाभिरापगाभिः समावृतः।
चञ्चल तरङ्गे उसे घेरे हुए थीं। मेघमाला और वायु से वह व्याप्त था तथा गङ्गा और सिन्धु आदि नदियाँ उसे सब ओर से घेरकर खड़ी थीं॥ २२ १/२ ॥
उद्धर्तितमहाग्राहः सम्भ्रान्तोरगराक्षसः॥२३॥
देवतानां सुरूपाभिर्नानारूपाभिरीश्वरः।
सागरः समुपक्रम्य पूर्वमामन्त्र्य वीर्यवान्॥२४॥
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं राघवं शरपाणिनम्॥२५॥
उसके भीतर बड़े-बड़े ग्राह उद्भान्त हो रहे थे, नाग और राक्षस घबराये हुए थे। देवताओं के समान सुन्दर रूप धारण करके आयी हुई विभिन्न रूपवाली नदियों के साथ शक्तिशाली नदीपति समुद्र ने निकट आकर पहले धनुर्धर श्रीरघुनाथजी को सम्बोधित किया और फिर हाथ जोड़कर कहा- ॥ २३–२५ ॥
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च राघव।
स्वभावे सौम्य तिष्ठन्ति शाश्वतं मार्गमाश्रिताः॥२६॥
‘सौम्य रघुनन्दन! पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और तेज—ये सर्वदा अपने स्वभाव में स्थित रहते हैं। अपने सनातन मार्ग को कभी नहीं छोड़ते—सदा उसी के आश्रित रहते हैं॥ २६॥
तत्स्वभावो ममाप्येष यदगाधोऽहमप्लवः।
विकारस्तु भवेद् गाध एतत् ते प्रवदाम्यहम्॥२७॥
‘मेरा भी यह स्वभाव ही है जो मैं अगाध और अथाह हूँ-कोई मेरे पार नहीं जा सकता। यदि मेरी थाह मिल जाय तो यह विकार—मेरे स्वभाव का व्यतिक्रम ही होगा। इसलिये मैं आपसे पार होने का यह उपाय बताता हूँ॥ २७॥
न कामान्न च लोभाद् वा न भयात् पार्थिवात्मज।
ग्राहनक्राकुलजलं स्तम्भयेयं कथंचन॥२८॥
‘राजकुमार! मैं मगर और नाक आदि से भरे हुए अपने जल को किसी कामना से, लोभ से अथवा भय से किसी तरह स्तम्भित नहीं होने दूंगा॥२८॥
विधास्ये येन गन्तासि विषहिष्येऽप्यहं तथा।
न ग्राहा विधमिष्यन्ति यावत्सेना तरिष्यति।
हरीणां तरणे राम करिष्यामि यथा स्थलम्॥२९॥
‘श्रीराम! मैं ऐसा उपाय बताऊँगा, जिससे आप मेरे पार चले जायँगे, ग्राह वानरों को कष्ट नहीं देंगे, सारी सेना पार उतर जायगी और मुझे भी खेद नहीं होगा। मैं आसानी से सब कुछ सह लूँगा। वानरों के पार जाने के लिये जिस प्रकार पुल बन जाय, वैसा प्रयत्न मैं करूँगा’॥ २९॥
तमब्रवीत् तदा रामः शृणु मे वरुणालय।
अमोघोऽयं महाबाणः कस्मिन् देशे निपात्यताम्॥३०॥
तब श्रीरामचन्द्रजी ने उससे कहा—’वरुणालय! मेरी बात सुनो। मेरा यह विशाल बाण अमोघ है। बताओ, इसे किस स्थान पर छोड़ा जाय’ ॥ ३० ॥
रामस्य वचनं श्रुत्वा तं च दृष्ट्वा महाशरम्।
महोदधिर्महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत्॥३१॥
श्रीरामचन्द्रजी का यह वचन सुनकर और उस महान् बाण को देखकर महातेजस्वी महासागर ने रघुनाथजी से कहा- ॥३१॥
उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान्॥३२॥
‘प्रभो! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवं पुण्यात्मा हैं, उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नाम से विख्यात एक बड़ा ही पवित्र देश है॥ ३२॥
उग्रदर्शनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः।
आभीरप्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम॥३३॥
‘वहाँ आभीर आदि जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं, जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं। वे सब-के-सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं॥ ३३॥
तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः।
अमोघः क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः॥३४॥
‘उन पापाचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मैं नहीं सह सकता। श्रीराम! आप अपने इस उत्तम बाण को वहीं सफल कीजिये’॥ ३४॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागरदर्शनात्॥ ३५॥
महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के दिखाये अनुसार उसी देश में श्रीरामचन्द्रजी ने वह अत्यन्त प्रज्वलित बाण छोड़ दिया॥ ३५ ॥
तेन तन्मरुकान्तारं पृथिव्यां किल विश्रुतम्।
निपातितः शरो यत्र वज्राशनिसमप्रभः॥३६॥
वह वज्र और अशनि के समान तेजस्वी बाण जिस स्थान पर गिरा था, वह स्थान उस बाण के कारण ही पृथ्वी में दुर्गम मरुभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ॥३६॥
ननाद च तदा तत्र वसुधा शल्यपीडिता।
तस्माद् व्रणमुखात् तोयमुत्पपात रसातलात्॥३७॥
उस बाण से पीड़ित होकर उस समय वसुधा आर्तनाद कर उठी। उसकी चोट से जो छेद हुआ, उसमें होकर रसातल का जल ऊपर को उछलने लगा। ३७॥
स बभूव तदा कूपो व्रण इत्येव विश्रुतः।
सततं चोत्थितं तोयं समुद्रस्येव दृश्यते॥३८॥
वह छिद्र कुएँ के समान हो गया और व्रण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस कुएँ से सदा निकलता हुआ जल समुद्र के जल की भाँति ही दिखायी देता है॥ ३८॥
अवदारणशब्दश्च दारुणः समपद्यत।
तस्मात् तद् बाणपातेन अपः कुक्षिष्वशोषयत्॥३९॥
उस समय वहाँ भूमि के विदीर्ण होने का भयंकर शब्द सुनायी पड़ा। उस बाण को गिराकर वहाँ के भूतल की कुक्षि में (तालाब-पोखरे आदि में) वर्तमान जल को श्रीराम ने सुखा दिया॥ ३९॥
विख्यातं त्रिषु लोकेषु मरुकान्तारमेव च।
शोषयित्वा तु तं कुक्षिं रामो दशरथात्मजः॥४०॥
वरं तस्मै ददौ विद्वान् मरवेऽमरविक्रमः॥४१॥
तबसे वह स्थान तीनों लोकों में मरुकान्तार के नाम से ही विख्यात हो गया। जो पहले समुद्र का कुक्षिप्रदेश था, उसे सुखाकर देवोपम पराक्रमी विद्वान् दशरथनन्दन श्रीराम ने उस मरुभूमि को वरदान दिया॥ ४०-४१॥
पशव्यश्चाल्परोगश्च फलमूलरसायुतः।
बहुस्नेहो बहुक्षीरः सुगन्धिर्विविधौषधिः॥४२॥
‘यह मरुभूमि पशुओं के लिये हितकारी होगी। यहाँ रोग कम होंगे। यह भूमि फल, मूल और रसों से सम्पन्न होगी। यहाँ घी आदि चिकने पदार्थ अधिक सुलभ होंगे, दूध की भी बहुतायत होगी। यहाँ सुगन्ध छायी रहेगी और अनेक प्रकार की ओषधियाँ उत्पन्न होंगी’॥ ४२॥
एवमेतैश्च संयुक्तो बहुभिः संयुतो मरुः।
रामस्य वरदानाच्च शिवः पन्था बभूव ह॥४३॥
इस प्रकार भगवान् श्रीराम के वरदान से वह मरुप्रदेश इस तरह के बहुसंख्यक गुणों से सम्पन्न हो सबके लिये मङ्गलकारी मार्ग बन गया॥४३॥
तस्मिन् दग्धे तदा कुक्षौ समुद्रः सरितां पतिः।
राघवं सर्वशास्त्रज्ञमिदं वचनमब्रवीत्॥४४॥
उस कुक्षिस्थान के दग्ध हो जाने पर सरिताओं के स्वामी समुद्र ने सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता श्रीरघुनाथजी से कहा— ॥४४॥
अयं सौम्य नलो नाम तनयो विश्वकर्मणः।
पित्रा दत्तवरः श्रीमान् प्रीतिमान् विश्वकर्मणः॥४५॥
‘सौम्य! आपकी सेना में जो यह नल नामक कान्तिमान् वानर है, साक्षात् विश्वकर्मा का पुत्र है। इसे इसके पिता ने यह वर दिया है कि ‘तुम मेरे ही समान समस्त शिल्पकला में निपुण हो ओगे।’ प्रभो! आप भी तो इस विश्व के स्रष्टा विश्वकर्मा हैं। इस नल के हृदय में आपके प्रति बड़ा प्रेम है॥ ४५ ॥
एष सेतुं महोत्साहः करोतु मयि वानरः।
तमहं धारयिष्यामि यथा ह्येष पिता तथा॥४६॥
‘यह महान् उत्साही वानर अपने पिता के समान ही शिल्पकर्म में समर्थ है, अतः यह मेरे ऊपर पुल का निर्माण करे। मैं उस पुल को धारण करूँगा’॥ ४६॥
एवमुक्त्वोदधिनष्टः समुत्थाय नलस्ततः।
अब्रवीद् वानरश्रेष्ठो वाक्यं रामं महाबलम्॥४७॥
यों कहकर समुद्र अदृश्य हो गया। तब वानरश्रेष्ठ नल उठकर महाबली भगवान् श्रीराम से बोला—॥ ४७॥
अहं सेतुं करिष्यामि विस्तीर्णे मकरालये।
पितुः सामर्थ्यमासाद्य तत्त्वमाह महोदधिः॥४८॥
‘प्रभो! मैं पिता की दी हुई शक्ति को पाकर इस विस्तृत समुद्रपर सेतु का निर्माण करूँगा। महासागर ने ठीक कहा है॥४८॥
दण्ड एव वरो लोके पुरुषस्येति मे मतिः।
धिक् क्षमामकृतज्ञेषु सान्त्वं दानमथापि वा॥ ४९॥
‘संसार में पुरुष के लिये अकृतज्ञों के प्रति दण्डनीति का प्रयोग ही सबसे बड़ा अर्थसाधक है, ऐसा मेरा विश्वास है। वैसे लोगों के प्रति क्षमा, सान्त्वना और दाननीति के प्रयोग को धिक्कार है॥४९॥
अयं हि सागरो भीमः सेतुकर्मदिदृक्षया।
ददौ दण्डभयाद् गाधं राघवाय महोदधिः॥५०॥
‘इस भयानक समुद्र को राजा सगर के पुत्रों ने ही बढ़ाया है। फिर भी इसने कृतज्ञता से नहीं, दण्ड के भय से ही सेतुकर्म देखने की इच्छा मन में लाकर श्रीरघुनाथजी को अपनी थाह दी है।॥ ५० ॥
मम मातुर्वरो दत्तो मन्दरे विश्वकर्मणा।
मया तु सदृशः पुत्रस्तव देवि भविष्यति॥५१॥
‘मन्दराचलपर विश्वकर्माजी ने मेरी माता को यह वर दिया था कि ‘देवि! तुम्हारे गर्भ से मेरे ही समान पुत्र होगा’। ५१॥
औरसस्तस्य पुत्रोऽहं सदृशो विश्वकर्मणा।
स्मारितोऽस्म्यहमेतेन तत्त्वमाह महोदधिः।
न चाप्यहमनुक्तो वः प्रब्रूयामात्मनो गुणान्॥५२॥
‘इस प्रकार मैं विश्वकर्मा का औरस पुत्र हूँ और शिल्पकर्म में उन्हीं के समान हूँ। इस समुद्र ने आज मुझे इन सब बातों का स्मरण दिला दिया है। महासागर ने जो कुछ कहा है, ठीक है। मैं बिना पूछे आपलोगों से अपने गुणों को नहीं बता सकता था, इसीलिये अबतक चुप था॥५२॥
समर्थश्चाप्यहं सेतुं कर्तुं वै वरुणालये।
तस्मादद्यैव बध्नन्तु सेतुं वानरपुङ्गवाः॥५३॥
‘मैं महासागर पर पुल बाँधने में समर्थ हूँ, अतः सब वानर आज ही पुल बाँधने का कार्य आरम्भ कर दें।
ततो विसृष्टा रामेण सर्वतो हरिपुङ्गवाः।
उत्पेततुर्महारण्यं हृष्टाः शतसहस्रशः॥५४॥
तब भगवान् श्रीराम के भेजने से लाखों बड़े-बड़े वानर हर्ष और उत्साह में भरकर सब ओर उछलते हुए गये और बड़े-बड़े जंगलों में घुस गये॥ ५४॥
ते नगान् नगसंकाशाः शाखामृगगणर्षभाः।
बभञ्जः पादपांस्तत्र प्रचकर्षुश्च सागरम्॥५५॥
वे पर्वत के समान विशालकाय वानरशिरोमणि पर्वतशिखरों और वृक्षों को तोड़ देते और उन्हें समुद्र तक खींच लाते थे॥ ५५॥
ते सालैश्चाश्वकर्णैश्च धवैर्वंशैश्च वानराः।
कुटजैरर्जुनैस्तालैस्तिलकैस्तिनिशैरपि॥५६॥
बिल्वकैः सप्तपर्णैश्च कर्णिकारैश्च पुष्पितैः।
चूतैश्चाशोकवृक्षैश्च सागरं समपूरयन्॥५७॥
वे साल, अश्वकर्ण, धव, बाँस, कुटज, अर्जुन, ताल, तिलक, तिनिश, बेल, छितवन, खिले हुए कनेर, आम और अशोक आदि वृक्षों से समुद्र को पाटने लगे॥ ५६-५७॥
समूलांश्च विमूलांश्च पादपान् हरिसत्तमाः।
इन्द्रकेतूनिवोद्यम्य प्रजह्वानरास्तरून्॥५८॥
वे श्रेष्ठ वानर वहाँ के वृक्षों को जड़ से उखाड़ लाते या जड़ के ऊपर से भी तोड़ लाते थे। इन्द्रध्वज के समान ऊँचे-ऊँचे वृक्षों को उठाये लिये चले आते थे। ५८॥
तालान् दाडिमगुल्मांश्च नारिकेलविभीतकान्।
करीरान् बकुलान् निम्बान् समाजलुरितस्ततः॥
ताड़ों, अनार की झाड़ियों, नारियल और बहेड़े के वृक्षों, करीर, बकुल तथा नीम को भी इधर-उधर से तोड़-तोड़कर लाने लगे॥ ५९॥
हस्तिमात्रान् महाकायाः पाषाणांश्च महाबलाः।
पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्रैः परिवहन्ति च॥६०॥
महाकाय महाबली वानर हाथी के समान बड़ी-बड़ी शिलाओं और पर्वतों को उखाड़कर यन्त्रों (विभिन्न साधनों) द्वारा समुद्रतट पर ले आते थे॥६०॥
प्रक्षिप्यमाणैरचलैः सहसा जलमुद्धृतम्।
समुत्ससर्प चाकाशमवासर्पत् ततः पुनः॥६१॥
शिलाखण्डों को फेंकने से समुद्र का जल सहसा आकाश में उठ जाता और फिर वहाँ से नीचे को गिर जाता था॥ ६१॥
समुद्रं क्षोभयामासुर्निपतन्तः समन्ततः।
सूत्राण्यन्ये प्रगृह्णन्ति ह्यायतं शतयोजनम्॥६२॥
उन वानरों ने सब ओर पत्थर गिराकर समुद्र में हलचल मचा दी। कुछ दूसरे वानर सौ योजन लंबा सूत पकड़े हुए थे॥ ६२॥
नलश्चक्रे महासेतुं मध्ये नदनदीपतेः।
स तदा क्रियते सेतुर्वानोरकर्मभिः॥६३॥
नल नदों और नदियों के स्वामी समुद्र के बीचमें महान् सेतु का निर्माण कर रहे थे। भयंकर कर्म करने वाले वानरों ने मिल-जुलकर उस समय सेतुनिर्माण का कार्य आरम्भ किया था॥ ६३॥
दण्डानन्ये प्रगृह्णन्ति विचिन्वन्ति तथापरे।
वानरैः शतशस्तत्र रामस्याज्ञापुरःसरैः॥६४॥
मेघाभैः पर्वताभैश्च तृणैः काष्ठैर्बबन्धिरे।
पुष्पिताग्रैश्च तरुभिः सेतुं बघ्नन्ति वानराः॥६५॥
कोई नापने के लिये दण्ड पकड़ते थे तो कोई सामग्री जुटाते थे। श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा शिरोधार्य करके सैकड़ों वानर जो पर्वतों और मेघों के समान प्रतीत होते थे, वहाँ तिनकों और काष्ठों द्वारा भिन्नभिन्न स्थानों में पुल बाँध रहे थे। जिनके अग्रभाग फूलों से लदे थे, ऐसे वृक्षों द्वारा भी वे वानर सेतु बाँधते थे॥६४-६५॥
पाषाणांश्च गिरिप्रख्यान् गिरीणां शिखराणि च।
दृश्यन्ते परिधावन्तो गृह्य दानवसंनिभाः॥६६॥
पर्वतों-जैसी बड़ी-बड़ी चट्टानें और पर्वत-शिखर लेकर सब ओर दौड़ते वानर दानवों के समान दिखायी देते थे॥
शिलानां क्षिप्यमाणानां शैलानां तत्र पात्यताम्।
बभूव तुमुलः शब्दस्तदा तस्मिन् महोदधौ॥६७॥
उस समय उस महासागरमें फेंकी जाती हुई शिलाओं और गिराये जाते हुए पहाड़ों के गिरने से बड़ा भीषण शब्द हो रहा था॥ ६७॥
कृतानि प्रथमेनाना योजनानि चतुर्दश।
प्रहृष्टैर्गजसंकाशैस्त्वरमाणैः प्लवङ्गमैः॥ ६८॥
हाथी के समान विशालकाय वानर बड़े उत्साह और तेजी के साथ काम में लगे हुए थे। पहले दिन उन्होंने चौदह योजन लंबा पुल बाँधा॥ ६८॥
द्वितीयेन तथैवाह्ना योजनानि तु विंशतिः।
कृतानि प्लवगैस्तूर्णं भीमकायैर्महाबलैः॥६९॥
फिर दूसरे दिन भयंकर शरीरवाले महाबली वानरों ने तेजी से काम करके बीस योजन लंबा पुल बाँध दिया॥ ६९॥
अह्ना तृतीयेन तथा योजनानि तु सागरे।
त्वरमाणैर्महाकायैरेकविंशतिरेव च॥७०॥
तीसरे दिन शीघ्रतापूर्वक काम में जुटे हुए महाकाय कपियों ने समुद्र में इक्कीस योजन लंबा पुल बाँध दिया॥
चतुर्थेन तथा चाह्ना द्वाविंशतिरथापि वा।
योजनानि महावेगैः कृतानि त्वरितैस्ततः॥७१॥
चौथे दिन महान् वेगशाली और शीघ्रकारी वानरों ने बाईस योजन लंबा पुल और बाँध दिया॥७१॥
पञ्चमेन तथा चाला प्लवगैः क्षिप्रकारिभिः।
योजनानि त्रयोविंशत् सुवेलमधिकृत्य वै॥७२॥
तथा पाँचवें दिन शीघ्रता करने वाले उन वानरवीरों ने सुवेल पर्वत के निकट तक तेईस योजन लंबा पुल बाँधा॥
स वानरवरः श्रीमान् विश्वकर्मात्मजो बली।
बबन्ध सागरे सेतुं यथा चास्य पिता तथा॥७३॥
इस प्रकार विश्वकर्मा के बलवान् पुत्र कान्तिमान् कपिश्रेष्ठ नल ने समुद्र में सौ योजन लंबा पुल तैयार कर दिया। इस कार्य में वे अपने पिता के समान ही प्रतिभाशाली थे॥७३॥
स नलेन कृतः सेतुः सागरे मकरालये।
शुशुभे सुभगः श्रीमान् स्वातीपथ इवाम्बरे॥७४॥
मकरालय समुद्र में नल के द्वारा निर्मित हुआ वह सुन्दर और शोभाशाली सेतु आकाश में स्वातीपथ (छायापथ)-के समान सुशोभित होता था॥ ७४॥
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।
आगम्य गगने तस्थुर्द्रष्टुकामास्तदद्भुतम्॥७५॥
उस समय देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षि उस अद्भुत कार्य को देखने के लिये आकाश में आकर खड़े थे॥
दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्।
ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम्॥७६ ॥
नलके बनाये हुए सौ योजन लंबे और दस योजन चौड़े उस पुलको देवताओं और गन्धर्वोने देखा, जिसे बनाना बहुत ही कठिन काम था॥ ७६॥
आप्लवन्तः प्लवन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः।
तमचिन्त्यमसह्यं च ह्यद्भुतं लोमहर्षणम्॥७७॥
ददृशुः सर्वभूतानि सागरे सेतुबन्धनम्।
वानरलोग भी इधर-उधर उछल-कूदकर गर्जना करते हुए उस अचिन्त्य, असह्य, अद्भुत और रोमाञ्चकारी पुल को देख रहे थे। समस्त प्राणियों ने ही समुद्र में सेतु बाँधने का वह कार्य देखा॥ ७७ १/२ ।।
तानि कोटिसहस्राणि वानराणां महौजसाम्॥७८॥
बध्नन्तः सागरे सेतुं जग्मुः पारं महोदधेः।
इस प्रकार उन सहस्र कोटि (एक खरब) महाबली एवं उत्साही वानरों का दल पुल बाँधते बाँधते ही समुद्र के उस पार पहुँच गया॥ ७८ १/२॥
विशालः सुकृतः श्रीमान् सुभूमिः सुसमाहितः॥७९॥
अशोभत महान् सेतुः सीमन्त इव सागरे।
वह पुल बड़ा ही विशाल, सुन्दरता से बनाया हुआ, शोभासम्पन्न, समतल और सुसम्बद्ध था। वह महान् सेतु सागर में सीमन्त के समान शोभा पाता था॥ ७९ १/२॥
ततः पारे समुद्रस्य गदापाणिर्विभीषणः॥८०॥
परेषामभिघातार्थमतिष्ठत् सचिवैः सह।
पुल तैयार हो जाने पर अपने सचिवों के साथ विभीषण गदा हाथ में लेकर समुद्र के दूसरे तट पर खड़े हो गये, जिससे शत्रुपक्षीय राक्षस यदि पुल तोड़ने के लिये आवे तो उन्हें दण्ड दिया जा सके। ८० १/२॥
सुग्रीवस्तु ततः प्राह रामं सत्यपराक्रमम्॥८१॥
हनूमन्तं त्वमारोह अङ्गदं त्वथ लक्ष्मणः।
अयं हि विपुलो वीर सागरो मकरालयः॥८२॥
वैहायसौ युवामेतौ वानरौ धारयिष्यतः।
तदनन्तर सुग्रीव ने सत्यपराक्रमी श्रीराम से कहा – वीरवर! आप हनुमान् के कंधे पर चढ़ जाइये और लक्ष्मण अङ्गद की पीठ पर सवार हो लें; क्योंकि यह मकरालय समुद्र बहुत लंबा-चौड़ा है। ये दोनों वानर आकाश-मार्ग से चलने वाले हैं। अतः ये ही दोनों आप दोनों भाइयों को धारण कर सकेंगे’।। ८१-८२ १/२ ॥
अग्रतस्तस्य सैन्यस्य श्रीमान् रामः सलक्ष्मणः॥८३॥
जगाम धन्वी धर्मात्मा सुग्रीवेण समन्वितः।
इस प्रकार धनुर्धर एवं धर्मात्मा भगवान् श्रीराम लक्ष्मण और सुग्रीव के साथ उस सेना के आगे-आगे चले॥
अन्ये मध्येन गच्छन्ति पार्श्वतोऽन्ये प्लवंगमाः॥८४॥
सलिलं प्रपतन्त्यन्ये मार्गमन्ये प्रपेदिरे।
केचिद् वैहायसगताः सुपर्णा इव पुप्लुवुः ॥ ८५॥
दूसरे वानर सेना के बीच में और अगल-बगल में होकर चलने लगे। कितने ही वानर जल में कूद पड़ते और तैरते हुए चलते थे। दूसरे पुल का मार्ग पकड़कर जाते थे और कितने ही आकाश में उछलकर गरुड़ के समान उड़ते थे॥ ८४-८५॥
घोषेण महता घोषं सागरस्य समुच्छ्रितम्।
भीममन्तर्दधे भीमा तरन्ती हरिवाहिनी॥८६॥
इस प्रकार पार जाती हुई उस भयंकर वानर-सेना ने अपने महान् घोष से समुद्रकी बढ़ी हुई भीषण गर्जना को भी दबा दिया॥ ८६ ॥
वानराणां हि सा तीर्णा वाहिनी नलसेतुना।
तीरे निविविशे राज्ञो बहुमूलफलोदके॥ ८७॥
धीरे-धीरे वानरों की सारी सेना नल के बनाये हुए पुल से समुद्र के उस पार पहुँच गयी। राजा सुग्रीव ने फल, मूल और जल की अधिकता देख सागर के तट पर ही सेना का पड़ाव डाला॥ ८७॥
तदद्भुतं राघवकर्म दुष्करं समीक्ष्य देवाः सह सिद्धचारणैः।
उपेत्य रामं सहसा महर्षिभिस्तमभ्यषिञ्चन् सुशुभै लैः पृथक्॥८८॥
भगवान् श्रीराम का वह अद्भुत और दुष्कर कर्म देखकर सिद्ध, चारण और महर्षियों के साथ देवतालोग उनके पास आये तथा उन्होंने अलग अलग पवित्र एवं शुभ जल से उनका अभिषेक किया॥ ८८॥
जयस्व शत्रून् नरदेव मेदिनी ससागरां पालय शाश्वतीः समाः।
इतीव रामं नरदेवसत्कृतं शुभैर्वचोभिर्विविधैरपूजयन्॥८९॥
फिर बोले-‘नरदेव! तुम शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो और समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी का सदा पालन करते रहो।’ इस प्रकार भाँति-भाँति के मङ्गलसूचक वचनों द्वारा राजसम्मानित श्रीराम का उन्होंने अभिवादन किया॥ ८९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे द्वाविंशः सर्गः ॥२२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में बाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२२॥
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