वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 24 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 24
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
चतुर्विंशः सर्गः (24)
(श्रीराम का लक्ष्मण से लङ्का की शोभा का वर्णन करके सेना को व्यूहबद्ध खड़ी होने के लिये आदेश देना, रावण का अपने बल की डींग हाँकना)
सा वीरसमिती राज्ञा विरराज व्यवस्थिता।
शशिना शुभनक्षत्रा पौर्णमासीव शारदी॥१॥
सुग्रीव ने उस वीर वानरसेना की यथोचित व्यवस्था की थी। उनके कारण वह वैसी ही शोभा पाती थी, जैसे चन्द्रमा और शुभ नक्षत्रों से युक्त शरत्काल की पूर्णिमा सुशोभित हो रही हो॥१॥
प्रचचाल च वेगेन त्रस्ता चैव वसुंधरा।
पीड्यमाना बलौघेन तेन सागरवर्चसा॥२॥
हाकना वह विशाल सैन्य-समूह समुद्र के समान जान पड़ता था। उसके भार से दबी हुई वसुधा भयभीत हो उठी और उसके वेग से डोलने लगी॥२॥
ततः शुश्रुवुराक्रुष्टं लङ्कायां काननौकसः।
भेरीमृदङ्गसंघुष्टं तुमुलं लोमहर्षणम्॥३॥
तदनन्तर वानरों ने लङ्का में महान् कोलाहल सुना, जो भेरी और मृदङ्ग के गम्भीर घोष से मिलकर बड़ा ही भयंकर और रोमाञ्चकारी जान पड़ता था॥३॥
बभूवुस्तेन घोषेण संहृष्टा हरियूथपाः।
अमृष्यमाणास्तद् घोषं विनेदुर्घोषवत्तरम्॥४॥
उस तुमुलनाद को सुनकर वानरयूथपति हर्ष और उत्साह में भर गये और उसे न सह सकने के कारण उससे भी बढ़कर जोर-जोर से गर्जना करने लगे॥४॥
राक्षसास्तत् प्लवंगानां शुश्रुवुस्तेऽपि गर्जितम्।
नर्दतामिव दृप्तानां मेघानामम्बरे स्वनम्॥५॥
राक्षसों ने वानरों की वह गर्जना सुनी, जो दर्प में भरकर सिंहनाद कर रहे थे। उनकी आवाज आकाश में मेघों की गर्जना के समान जान पड़ती थी॥
दृष्ट्वा दाशरथिर्लङ्कां चित्रध्वजपताकिनीम्।
जगाम मनसा सीतां दूयमानेन चेतसा॥६॥
दशरथनन्दन श्रीराम ने विचित्र ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित लङ्कापुरी को देखकर व्यथितचित्त से मन-हीमन सीता का स्मरण किया॥६॥
अत्र सा मृगशावाक्षी रावणेनोपरुध्यते।
अभिभूता ग्रहेणेव लोहिताङ्गेन रोहिणी॥७॥
वे भीतर-ही-भीतर कहने लगे—’हाय! यहीं वह मृगलोचना सीता रावण की कैद में पड़ी है। उसकी दशा मंगलग्रह से आक्रान्त हुई रोहिणी के समान हो रही है’॥ ७॥
दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य समुद्रीक्ष्य च लक्ष्मणम्।
उवाच वचनं वीरस्तत्कालहितमात्मनः॥८॥
मन-ही-मन ऐसा कहकर वीर श्रीराम गरम-गरम लंबी साँस खींचकर लक्ष्मण की ओर देखते हुए अपने लिये समयानुकूल हितकर वचन बोले- ॥ ८॥
आलिखन्तीमिवाकाशमुत्थितां पश्य लक्ष्मण।
मनसेव कृतां लङ्कां नगाग्रे विश्वकर्मणा॥९॥
‘लक्ष्मण! इस लङ्का की ओर तो देखो। यह अपनी ऊँचाई से आकाश में रेखा खींचती हुई-सी जान पड़ती है। जान पड़ता है पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने अपने मन से ही इस पर्वत-शिखर पर लङ्कापुरी का निर्माण किया है॥९॥
विमानैर्बहुभिर्लङ्का संकीर्णा रचिता पुरा।
विष्णोः पदमिवाकाशं छादितं पाण्डुभिर्घनैः॥१०॥
‘पूर्वकाल में यह पुरी अनेक सतमंज ले मकानों से भरी-पूरी बनायी गयी थी। इसके श्वेत एवं सघन विमानाकार भवनों से भगवान् विष्णु के चरणस्थापन का स्थानभूत आकाश आच्छादित-सा हो गया॥१०॥
पुष्पितैः शोभिता लङ्का वनैश्चित्ररथोपमैः।
नानापतगसंघुष्टफलपुष्पोपगैः शुभैः॥११॥
‘फूलों से भरे हुए चैत्ररथ वन के सदृश सुन्दर काननों से लङ्कापुरी सुशोभित हो रही है। उन काननों में नाना प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे हैं तथा फलों और फूलों की प्राप्ति कराने के कारण वे बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं॥ ११॥
पश्य मत्तविहंगानि प्रलीनभ्रमराणि च।
कोकिलाकुलखण्डानि दोधवीति शिवोऽनिलः॥१२॥
‘देखो, यह शीतल सुखद वायु इन वनों को, जिनमें मतवाले पक्षी चहचहा रहे हैं, भौरे पत्तों और फूलों में लीन हो रहे हैं तथा जिनके प्रत्येक खण्ड कोकिलों के समूह एवं संगीतसे व्याप्त हैं, बारंबार कम्पित कर रहा है’।
इति दाशरथी रामो लक्ष्मणं समभाषत।
बलं च तत्र विभजच्छास्त्रदृष्टेन कर्मणा॥१३॥
दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम ने लक्ष्मण से ऐसा कहा और युद्ध के शास्त्रीय नियमानुसार सेना का विभाग किया॥१३॥
शशास कपिसेनां तां बलादादाय वीर्यवान्।
अङ्गदः सह नीलेन तिष्ठेदुरसि दुर्जयः॥१४॥
उस समय श्रीराम ने वानरसैनिकों को यह आदेश दिया—’इस विशाल सेना में से अपनी सेना को साथ लेकर दुर्जय एवं पराक्रमी वीर अङ्गद नील के साथ वानरसेना के पुरुषव्यूह में हृदय के स्थान में स्थित हो॥ १४॥
तिष्ठेद् वानरवाहिन्या वानरौघसमावृतः।
आश्रितो दक्षिणं पार्श्वमृषभो नाम वानरः॥१५॥
‘इसी तरह ऋषभ नामक वानर कपियों के समुदाय से घिरे रहकर इस वानरवाहिनी के दाहिने पार्श्व में खड़े रहें॥ १५॥
गन्धहस्तीव दुर्धर्षस्तरस्वी गन्धमादनः।
तिष्ठेद् वानरवाहिन्याः सव्यं पार्श्वमधिष्ठितः॥१६॥
‘जो गन्धहस्ती के समान दुर्जय एवं वेगशाली हैं, वे कपिश्रेष्ठ गन्धमादन वानरवाहिनी के वाम पार्श्व में खड़े हों॥१६॥
मूर्ध्नि स्थास्याम्यहं यत्तो लक्ष्मणेन समन्वितः।
जाम्बवांश्च सुषेणश्च वेगदर्शी च वानरः ॥१७॥
ऋक्षमुख्या महात्मानः कुक्षिं रक्षन्तु ते त्रयः।
‘मैं लक्ष्मण के साथ सावधान रहकर इस व्यूह के मस्तक के स्थान में खड़ा होऊँगा। जाम्बवान्, सुषेण और वानर वेगदर्शी—ये तीन महामनस्वी वीर जो रीछों की सेना के प्रधान हैं, वे सैन्यव्यूह के कुक्षिभाग की रक्षा करें।
जघनं कपिसेनायाः कपिराजोऽभिरक्षतु।
पश्चार्धमिव लोकस्य प्रचेतास्तेजसा वृतः॥१८॥
‘वानरराज सुग्रीव वानरवाहिनी के पिछले भाग की रक्षा में उसी प्रकार लगे रहें, जैसे तेजस्वी वरुण इस जगत् की पश्चिम दिशा का संरक्षण करते हैं’ ॥ १८ ॥
सुविभक्तमहाव्यूहा महावानररक्षिता।
अनीकिनी सा विबभौ यथा द्यौः साभ्रसम्लवा॥१९॥
इस प्रकार सुन्दरता से विभक्त हो विशाल व्यूह में बद्ध हुई वह सेना, जिसकी बड़े-बड़े वानर रक्षा करते थे, मेघों से घिरे हुए आकाश के समान जान पड़ती थी॥
प्रगृह्य गिरिशृङ्गाणि महतश्च महीरुहान्।
आसेदुर्वानरा लङ्कां मिमर्दयिषवो रणे॥२०॥
वानरलोग पर्वतों के शिखर और बड़े-बड़े वृक्ष लेकर युद्ध के लिये लङ्का पर चढ़ आये। वे उस पुरी को पददलित करके धूल में मिला देना चाहते थे।२०॥
शिखरैर्विकिरामैनां लङ्कां मुष्टिभिरेव वा।
इति स्म दधिरे सर्वे मनांसि हरिपुङ्गवाः॥२१॥
सभी वानरयूथपति ये ही मनसूबे बाँधते थे कि हम लङ्कापर पर्वत-शिखरों की वर्षा करें और लङ्कावासियों को मुक्कों से मार-मारकर यमलोक पहुँचा दें॥२१॥
ततो रामो महातेजाः सुग्रीवमिदमब्रवीत्।।
सुविभक्तानि सैन्यानि शुक एष विमुच्यताम्॥२२॥
तदनन्तर महातेजस्वी रामने सुग्रीव से कहा ‘हमलोगों ने अपनी सेनाओं को सुन्दर ढंग से विभक्त करके उन्हें व्यूहबद्ध कर लिया है, अतः अब इस शुक को छोड़ दिया जाय’ ॥ २२ ॥
रामस्य तु वचः श्रुत्वा वानरेन्द्रो महाबलः।
मोचयामास तं दूतं शुकं रामस्य शासनात्॥२३॥
श्रीरामचन्द्रजी का यह वचन सुनकर महाबली वानरराज ने उनके आदेश से रावणदूत शुक को बन्धनमुक्त करा दिया॥ २३॥
मोचितो रामवाक्येन वानरैश्च निपीडितः।
शुकः परमसंत्रस्तो रक्षोधिपमुपागमत्॥२४॥
श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा से छुटकारा पाकर वानरों से पीड़ित होने के कारण अत्यन्त भयभीत हुआ शुक राक्षसराज के पास गया॥ २४ ॥
रावणः प्रहसन्नेव शुकं वाक्यमुवाच ह।
किमिमौ ते सितौ पक्षौ लूनपक्षश्च दृश्यसे॥२५॥
कच्चिन्नानेकचित्तानां तेषां त्वं वशमागतः।
उस समय रावण ने हँसते हुए-से ही शुक से कहा —’ये तुम्हारी दोनों पाँखें बाँध क्यों दी गयी हैं। इससे तुम इस तरह दिखायी देते हो मानो तुम्हारे पंख नोच लिये गये हों। कहीं तुम उन चञ्चलचित्तवाले वानरों के चंगुल में तो नहीं फँस गये थे?’ ।। २५ १/२॥
ततः स भयसंविग्नस्तेन राज्ञाभिचोदितः।
वचनं प्रत्युवाचेदं राक्षसाधिपमुत्तमम्॥२६॥
राजा रावण के इस प्रकार पूछने पर भय से घबराये हुए शुक ने उस समय उस श्रेष्ठ राक्षसराज को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ २६॥
सागरस्योत्तरे तीरेऽब्रुवं ते वचनं तथा।
यथा संदेशमक्लिष्टं सान्त्वयन् श्लक्ष्णया गिरा॥२७॥
‘महाराज! मैंने समुद्र के उत्तर तट पर पहुंचकर आपका संदेश बहुत स्पष्ट शब्दों में मधुर वाणी द्वारा सान्त्वना देते हुए सुनाया॥ २७॥
क्रुद्वैस्तैरहमुत्प्लुत्य दृष्टमात्रः प्लवंगमैः।
गृहीतोऽस्म्यपि चारब्धो हन्तुं लोप्तुं च मुष्टिभिः॥२८॥
‘किंतु मुझपर दृष्टि पड़ते ही कुपित हुए वानरों ने उछलकर मुझे पकड़ लिया और घूसों से मारना एवं पाँखें नोचना आरम्भ किया॥ २८॥
न ते संभाषितुं शक्याः सम्प्रश्नोऽत्र न विद्यते।
प्रकृत्या कोपनास्तीक्ष्णा वानरा राक्षसाधिप॥२९॥
‘राक्षसराज! वे वानर स्वभाव से ही क्रोधी और तीखे हैं। उनसे बात भी नहीं की जा सकती थी। फिर यह पूछने का अवसर कहाँ था कि तुम मुझे क्यों मार रहे हो?॥
स च हन्ता विराधस्य कबन्धस्य खरस्य च।
सुग्रीवसहितो रामः सीतायाः पदमागतः॥ ३०॥
‘जो विराध, कबन्ध और खर का वध कर चुके हैं, वे श्रीराम सुग्रीव के साथ सीता के स्थान का पता पाकर उनका उद्धार करने के लिये आये हैं ॥ ३० ॥
स कृत्वा सागरे सेतुं तीर्वा च लवणोदधिम्।
एष रक्षांसि निधूय धन्वी तिष्ठति राघवः॥ ३१॥
‘वे रघुनाथजी समुद्र पर पुल बाँध लवणसागर को पार करके राक्षसों को तिनकों के समान समझकर धनुष हाथ में लिये यहाँ पास ही खड़े हैं ॥ ३१॥
ऋक्षवानरसङ्घानामनीकानि सहस्रशः।
गिरिमेघनिकाशानां छादयन्ति वसुंधराम्॥३२॥
‘पर्वत और मेघों के समान विशालकाय रीछों और वानर-समूहों की सहस्रों सेनाएँ इस पृथ्वी पर छा गयी हैं।॥ ३२॥
राक्षसानां बलौघस्य वानरेन्द्रबलस्य च।
नैतयोर्विद्यते संधिर्देवदानवयोरिव॥३३॥
‘देवता और दानवों में जैसे मेल होना असम्भव है, उसी प्रकार राक्षसों और वानरराज सुग्रीव के सैनिकों में संधि नहीं हो सकती॥ ३३॥
पुरा प्राकारमायान्ति क्षिप्रमेकतरं कुरु।
सीतां चास्मै प्रयच्छाशु युद्धं वापि प्रदीयताम्॥३४॥
‘अतः जब तक वे लङ्गापुरी की चहारदिवारी पर नहीं चढ़ आते, उसके पहले ही आप शीघ्रतापूर्वक दो में से एक काम कर डालिये—या तो तुरंत ही उन्हें सीता को लौटा दीजिये या फिर सामने खड़े होकर युद्ध कीजिये।
शुकस्य वचनं श्रुत्वा रावणो वाक्यमब्रवीत्।
रोषसंरक्तनयनो निर्दहन्निव चक्षुषा॥ ३५॥
शुक की यह बात सुनकर रावण की आँखें रोष से लाल हो गयीं। वह इस तरह घूर-घूरकर देखने लगा, मानो अपनी दृष्टि से उसको दग्ध कर देगा। वह बोला –
यदि मां प्रति युद्धेरन देवगन्धर्वदानवाः।
नैव सीतां प्रदास्यामि सर्वलोकभयादपि॥ ३६॥
‘यदि देवता, गन्धर्व और दानव भी मुझसे युद्ध करने को तैयार हो जायँ तथा सारे संसार के लोग मुझे भय दिखाने लगें तो भी मैं सीता को नहीं लौटाऊँगा॥ ३६॥
कदा समभिधावन्त मामका राघवं शराः।
वसन्ते पुष्पितं मत्ता भ्रमरा इव पादपम्॥३७॥
‘जैसे मतवाले भ्रमर वसन्त-ऋतु में फूलों से भरे हुए वृक्षपर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार मेरे बाण कब उस रघुवंशी पर धावा करेंगे? ॥ ३७॥
कदा शोणितदिग्धाङ्गं दीप्तैः कार्मुकविच्युतैः।
शरैरादीपयिष्यामि उल्काभिरिव कुञ्जरम्॥३८॥
‘वह अवसर कब आयेगा जब मेरे धनुष से छूटे हुए तेजस्वी बाणों द्वारा घायल होकर राम का शरीर लहूलुहान हो जायगा और जैसे जलती हुई लुकारी से लोग हाथी को जलाते हैं, उसी तरह मैं उन बाणों से राम को दग्ध कर डालूँगा॥ ३८॥
तच्चास्य बलमादास्ये बलेन महता वृतः।
ज्योतिषामिव सर्वेषां प्रभामुद्यन् दिवाकरः॥३९॥
‘जैसे सूर्य अपने उदय के साथ ही समस्त नक्षत्रों की प्रभा हर लेते हैं, उसी प्रकार मैं विशाल सेना के साथ रणभूमि में खड़ा हो राम की समस्त वानर-सेना को आत्मसात् कर लूँगा॥ ३९॥
सागरस्येव मे वेगो मारुतस्येव मे बलम्।
न च दाशरथिर्वेद तेन मां योद्धमिच्छति॥४०॥
दशरथकुमार राम ने अभी समरभूमि में समुद्र के समान मेरे वेग और वायु के समान मेरे बल का अनुभव नहीं किया है, इसलिये वह मेरे साथ युद्ध करना चाहता है।
न मे तूणीशयान् बाणान् सविषानिव पन्नगान्।
रामः पश्यति संग्रामे तेन मां योद्धुमिच्छति॥४१॥
‘मेरे तरकस में सोये हुए बाण विषधर साँ के समान भयंकर हैं। राम ने संग्राम में उन बाणों को देखा ही नहीं है; इसलिये वह मुझसे जूझना चाहता है। ४१॥
न जानाति पुरा वीर्यं मम युद्धे स राघवः।
मम चापमयीं वीणां शरकोणैः प्रवादिताम्॥४२॥
ज्याशब्दतुमुलां घोरामार्तगीतमहास्वनाम्।
नाराचतलसंनादां नदीमहितवाहिनीम्।
अवगाह्य महारङ्गं वादयिष्याम्यहं रणे॥४३॥
‘पहले कभी युद्ध में राम का मेरे बल-पराक्रम से पाला नहीं पड़ा है, इसीलिये वह मेरे साथ लड़ने का हौसला रखता है। मेरा धनुष एक सुन्दर वीणा है, जो बाणों के कोनों से बजायी जाती है। उसकी प्रत्यञ्चा से जो टङ्कार-ध्वनि उठती है, वही उसकी भयंकर स्वरलहरी है। आतॊ की चीत्कार और पुकार ही उस पर उच्च स्वर से गाया जाने वाला गीत है। नाराचों को छोड़ते समय जो चट-चट शब्द होता है, वही मानो हथेली पर दिया जाने वाला ताल है। बहती हुई नदी के समान जो शत्रुओं की वाहिनी है, वही मानो उस संगीतोत्सव के लिये विशाल रंगभूमि है। मैं समराङ्गण में उस रंगभूमि के भीतर प्रवेश करके अपनी वह भयंकर वीणा बजाऊँगा।। ४२-४३॥
न वासवेनापि सहस्रचक्षुषा युद्धेऽस्मि शक्यो वरुणेन वा स्वयम्।
यमेन वा धर्षयितुं शराग्निना महाहवे वैश्रवणेन वा पुनः॥४४॥
‘यदि महासमर में सहस्रनेत्रधारी इन्द्र अथवा साक्षात् वरुण या स्वयं यमराज अथवा मेरे बड़े भाई कुबेर ही आ जायँ तो वे भी अपनी बाणाग्नि से मुझे पराजित नहीं कर सकते’ ॥ ४४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे चतुर्विंशः सर्गः॥२४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में चौबीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२४॥
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