वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 3 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 3
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
तृतीयः सर्गः (3)
(हनुमान जी का लङ्का के दुर्ग, फाटक, सेना-विभाग और संक्रम आदि का वर्णन करके भगवान् श्रीराम से सेना को कूच करने की आज्ञा देने के लिये प्रार्थना करना)
सुग्रीवस्य वचः श्रुत्वा हेतुमत् परमार्थवत्।
प्रतिजग्राह काकुत्स्थो हनूमन्तमथाब्रवीत्॥१॥
सुग्रीव के ये युक्तियुक्त और उत्तम अभिप्राय से पूर्ण वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने उन्हें स्वीकार किया और फिर हनुमान जी से कहा- ॥१॥
तपसा सेतुबन्धेन सागरोच्छोषणेन च।
सर्वथापि समर्थोऽस्मि सागरस्यास्य लङ्घने॥२॥
‘मैं तपस्या से पुल बाँधकर और समुद्र को सुखाकर सब प्रकार से महासागर को लाँघ जाने में समर्थ हूँ॥२॥
कति दुर्गाणि दुर्गाया लङ्कायास्तद् ब्रवीष्व मे।
ज्ञातुमिच्छामि तत् सर्वं दर्शनादिव वानर ॥३॥
‘वानरवीर! तुम मुझे यह तो बताओ कि उस दुर्गम लङ्कापुरी के कितने दुर्ग हैं। मैं देखे हुए के समान उसका सारा विवरण स्पष्टरूप से जानना चाहता हूँ। ३॥
बलस्य परिमाणं च द्वारदुर्गक्रियामपि।
गुप्तिकर्म च लङ्काया रक्षसां सदनानि च॥४॥
यथासुखं यथावच्च लङ्कायामसि दृष्टवान्।
सर्वमाचक्ष्व तत्त्वेन सर्वथा कुशलो ह्यसि॥५॥
‘तुमने रावण की सेना का परिमाण, पुरी के दरवाजों को दुर्गम बनाने के साधन, लङ्का की रक्षा के उपाय तथा राक्षसों के भवन–इन सबको सुखपूर्वक यथावत्-रूप से वहाँ देखा है। अतः इन सबका ठीकठीक वर्णन करो; क्योंकि तुम सब प्रकार से कुशल हो’॥ ४-५॥
श्रुत्वा रामस्य वचनं हनूमान् मारुतात्मजः।
वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठो रामं पुनरथाब्रवीत्॥६॥
श्रीरघुनाथजी का यह वचन सुनकर वाणी के मर्म को समझने वाले विद्वानों में श्रेष्ठ पवनकुमार हनुमान् ने श्रीराम से फिर कहा- ॥६॥
श्रूयतां सर्वमाख्यास्ये दुर्गकर्म विधानतः।
गुप्ता पुरी यथा लङ्का रक्षिता च यथा बलैः॥७॥
राक्षसाश्च यथा स्निग्धा रावणस्य च तेजसा।
परां समृद्धिं लङ्कायाः सागरस्य च भीमताम्॥८॥
विभागं च बलौघस्य निर्देशं वाहनस्य च।
एवमुक्त्वा कपिश्रेष्ठः कथयामास तत्त्वतः॥९॥
‘भगवन्! सुनिये। मैं सब बातें बता रहा हूँ। लङ्का के दुर्ग किस विधि से बने हैं, किस प्रकार लङ्कापुरी की रक्षा की व्यवस्था की गयी है, किस तरह वह सेनाओं से सुरक्षित है, रावण के तेज से प्रभावित हो राक्षस उसके प्रति कैसा स्नेह रखते हैं, लङ्का की समृद्धि कितनी उत्तम है, समुद्र कितना भयंकर है, पैदल सैनिकों का विभाग करके कहाँ कितने सैनिक रखे गये हैं और वहाँ के वाहनों की कितनी संख्या है —इन सब बातों का मैं वर्णन करूँगा। ऐसा कहकर कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने वहाँ की बातों को ठीक-ठीक बताना आरम्भ किया॥७–९॥
हृष्टप्रमुदिता लङ्का मत्तद्विपसमाकुला।
महती रथसम्पूर्णा रक्षोगणनिषेविता॥१०॥
‘प्रभो! लङ्कापुरी हर्ष और आमोद-प्रमोद से पूर्ण है। वह विशाल पुरी मतवाले हाथियों से व्याप्त तथा असंख्य रथों से भरी हुई है। राक्षसों के समुदाय सदा उसमें निवास करते हैं ॥ १० ॥
दृढबद्धकपाटानि महापरिघवन्ति च।
चत्वारि विपुलान्यस्या द्वाराणि सुमहान्ति च॥
‘उस पुरी के चार बड़े-बड़े दरवाजे हैं, जो बहुत लंबे-चौड़े हैं। उनमें बहुत मजबूत किवाड़ लगे हैं और मोटी-मोटी अर्गलाएँ हैं॥ ११॥
तत्रेषूपलयन्त्राणि बलवन्ति महान्ति च।
आगतं प्रतिसैन्यं तैस्तत्र प्रतिनिवार्यते॥१२॥
‘उन दरवाजों पर बड़े विशाल और प्रबल यन्त्र लगे हैं। जो तीर और पत्थरों के गोले बरसाते हैं। उनके द्वारा आक्रमण करने वाली शत्रुसेना को आगे बढ़ने से रोका जाता है॥ १२॥
द्वारेषु संस्कृता भीमाः कालायसमयाः शिताः।
शतशो रचिता वीरैः शतघ्न्यो रक्षसां गणैः॥१३॥
‘जिन्हें वीर राक्षसगणों ने बनाया है, जो काले लोहे की बनी हुई, भयंकर और तीखी हैं तथा जिनका अच्छी तरह संस्कार किया गया है, ऐसी सैकड़ों शतघ्नियाँ* (लोहे के काँटों से भरी हुई चार हाथ लंबी गदाएँ) उन दरवाजों पर सजाकर रखी गयी हैं॥१३॥
* शतघ्नी च चतुर्हस्ता लोहकंटकिनी गदा इति वैजयन्ती।
सौवर्णस्तु महांस्तस्याः प्राकारो दुष्प्रधर्षणः।
मणिविद्रुमवैदूर्यमुक्ताविरचितान्तरः॥१४॥
‘उस पुरी के चारों ओर सोने का बना हुआ बहुत ऊँचा परकोटा है, जिसको तोड़ना बहुत ही कठिन है। उसमें मणि, मूंगे, नीलम और मोतियों का काम किया गया है॥ १४॥
सर्वतश्च महाभीमाः शीततोया महाशुभाः।
अगाधा ग्राहवत्यश्च परिखा मीनसेविताः॥१५॥
‘परकोटों के चारों ओर महाभयंकर, शत्रुओं का महान् अमङ्गल करने वाली, ठंडे जल से भरी हुई और अगाध गहराई से युक्त कई खाइयाँ बनी हुई हैं, जिनमें ग्राह और बड़े-बड़े मत्स्य निवास करते हैं।॥ १५ ॥
द्वारेषु तासां चत्वारः संक्रमाः परमायताः।
यन्त्रैरुपेता बहुभिर्महद्भिगृहपङ्कतिभिः॥१६॥
‘उक्त चारों दरवाजों के सामने उन खाइयों पर मचानों के रूप में चार संक्रम* (लकड़ी के पुल) हैं, जो बहुत ही विस्तृत हैं। उनमें बहुत-से बड़े-बड़े यन्त्र लगे हुए हैं और उनके आस-पास परकोटे पर बने हुए मकानों की पंक्तियाँ हैं ॥ १६॥
* मालूम होता है ‘संक्रम’ इस प्रकार के पुल थे, जिन्हें जब आवश्यकता होती, तभी यन्त्रों द्वारा गिरा दिया जाता था। इसी से शत्रु की सेना आने पर उसे खाई में गिरा देने की बात कही गयी है।
त्रायन्ते संक्रमास्तत्र परसैन्यागते सति।
यन्त्रैस्तैरवकीर्यन्ते परिखासु समन्ततः॥१७॥
‘जब शत्रु की सेना आती है, तब यन्त्रों के द्वारा उन संक्रमों की रक्षा की जाती है तथा उन यन्त्रों के द्वारा ही उन्हें सब ओर खाइयों में गिरा दिया जाता है और वहाँ पहुँची हुई शत्रु-सेनाओं को भी सब ओर फेंक दिया जाता है॥ १७॥
एकस्त्वकम्प्यो बलवान् संक्रमः सुमहादृढः ।
काञ्चनैर्बहुभिः स्तम्भैर्वेदिकाभिश्च शोभितः॥१८॥
‘उनमें से एक संक्रम तो बड़ा ही सुदृढ़ और अभेद्य है। वहाँ बहुत बड़ी सेना रहती है और वह सोने के अनेक खंभों तथा चबूतरों से सुशोभित है॥ १८ ॥
स्वयं प्रकृतिमापन्नो युयुत्सू राम रावणः।
उत्थितश्चाप्रमत्तश्च बलानामनुदर्शने॥१९॥
‘रघुनाथजी! रावण युद्ध के लिये उत्सुक होता हुआ स्वयं कभी क्षुब्ध नहीं होता-स्वस्थ एवं धीर बना रहता है। वह सेनाओं के बारंबार निरीक्षण के लिये सदा सावधान एवं उद्यत रहता है॥ १९॥
लङ्का पुनर्निरालम्बा देवदुर्गा भयावहा।
नादेयं पार्वतं वान्यं कृत्रिमं च चतुर्विधम्॥२०॥
‘लङ्का पर चढ़ाई करने के लिये कोई अवलम्ब नहीं है। वह पुरी देवताओं के लिये भी दुर्गम और बड़ी भयावनी है। उसके चारों ओर नदी, पर्वत, वन और कृत्रिम (खाई, परकोटा आदि)—ये चार प्रकार के दुर्ग हैं ॥ २० ॥
स्थिता पारे समुद्रस्य दूरपारस्य राघव।
नौपथश्चापि नास्त्यत्र निरुद्देशश्च सर्वतः॥२१॥
‘रघुनन्दन! वह बहुत दूर तक फैले हुए समुद्र के दक्षिण किनारे पर बसी हुई है। वहाँ जाने के लिये नाव का भी मार्ग नहीं है; क्योंकि उसमें लक्ष्य का भी किसी प्रकार पता रहना सम्भव नहीं है॥ २१॥
शैलाग्रे रचिता दुर्गा सा पूर्देवपुरोपमा।
वाजिवारणसम्पूर्णा लङ्का परमदुर्जया॥२२॥
‘वह दुर्गम पुरी पर्वत के शिखर पर बसायी गयी है और देवपुरी के समान सुन्दर दिखायी देती है, हाथी, घोड़ों से भरी हुई वह लङ्का अत्यन्त दुर्जय है॥ २२॥
परिखाश्च शतघ्न्यश्च यन्त्राणि विविधानि च।
शोभयन्ति पुरीं लङ्कां रावणस्य दुरात्मनः॥ २३॥
‘खाइयाँ, शतघ्नियाँ और तरह-तरह के यन्त्र दुरात्मा रावण की उस लङ्कानगरी की शोभा बढ़ाते हैं॥ २३॥
अयुतं रक्षसामत्र पूर्वद्वारं समाश्रितम्।
शूलहस्ता दुराधर्षाः सर्वे खड्गाग्रयोधिनः॥२४॥
‘लङ्का के पूर्वद्वार पर दस हजार राक्षस रहते हैं, जो सब-के-सब हाथों में शूल धारण करते हैं। वे अत्यन्त दुर्जय और युद्ध के मुहाने पर तलवारों से जूझने वाले हैं।
नियुतं रक्षसामत्र दक्षिणद्वारमाश्रितम्।
चतुरङ्गेण सैन्येन योधास्तत्राप्यनुत्तमाः॥२५॥
‘लङ्का के दक्षिण द्वार पर चतुरंगिणी सेना के साथ एक लाख राक्षस योद्धा डटे रहते हैं। वहाँ के सैनिक भी बड़े बहादुर हैं॥ २५ ॥
प्रयुतं रक्षसामत्र पश्चिमद्वारमाश्रितम्।
चर्मखड्गधराः सर्वे तथा सर्वास्त्रकोविदाः॥२६॥
‘पुरी के पश्चिम द्वार पर दस लाख राक्षस निवास करते हैं। वे सब-के-सब ढाल और तलवार धारण करते हैं तथा सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञान में निपुण हैं। २६॥
न्यर्बुदं रक्षसामत्र उत्तरद्वारमाश्रितम्।
रथिनश्चाश्ववाहाश्च कुलपुत्राः सुपूजिताः॥२७॥
‘उस पुरी के उत्तर द्वार पर एक अर्बुद (दस करोड़) राक्षस रहते हैं। जिनमें से कुछ तो रथी हैं और कुछ घुड़सवार वे सभी उत्तम कुल में उत्पन्न और अपनी वीरता के लिये प्रशंसित हैं॥ २७॥
शतशोऽथ सहस्राणि मध्यमं स्कन्धमाश्रिताः।
यातुधाना दुराधर्षाः साग्रकोटिश्च रक्षसाम्॥२८॥
‘लङ्का के मध्यभाग की छावनी में सैकड़ों सहस्र दुर्जय राक्षस रहते हैं, जिनकी संख्या एक करोड़ से अधिक है॥२८॥
ते मया संक्रमा भग्नाः परिखाश्चावपूरिताः।
दग्धा च नगरी लङ्का प्राकाराश्चावसादिताः।
बलैकदेशः क्षपितो राक्षसानां महात्मनाम्॥२९॥
‘किंतु मैंने उन सब संक्रमों को तोड़ डाला है, खाइयाँ पाट दी हैं, लङ्कापुरी को जला दिया है और उसके परकोटों को भी धराशायी कर दिया है। इतना ही नहीं, वहाँ के विशालकाय राक्षसों की सेना का एक चौथाई भाग नष्ट कर डाला है॥ २९॥
येन केन तु मार्गेण तराम वरुणालयम्।
हतेति नगरी लङ्का वानरैरुपधार्यताम्॥३०॥
‘हमलोग किसी-न-किसी मार्ग या उपाय से एक बार समुद्र को पार कर लें; फिर तो लङ्का को वानरों के द्वारा नष्ट हुई ही समझिये॥३०॥
अङ्गदो द्विविदो मैन्दो जाम्बवान् पनसो नलः।
नीलः सेनापतिश्चैव बलशेषेण किं तव॥३१॥
‘अङ्गद, द्विविद, मैन्द, जाम्बवान्, पनस, नल और सेनापति नील—इतने ही वानर लङ्काविजय करने के लिये पर्याप्त हैं बाकी सेना लेकर आपको क्या करना है? ॥
प्लवमाना हि गत्वा त्वां रावणस्य महापुरीम्।
सपर्वतवना भित्त्वा सखातां च सतोरणाम्।
सप्राकारां सभवनामानयिष्यन्ति राघव॥३२॥
‘रघुनन्दन! ये अङ्गद आदि वीर आकाश में उछलते-कूदते हुए रावण की महापुरी लङ्का में पहुँचकर उसे पर्वत, वन, खाई, दरवाजे, परकोटे और मकानोंसहित नष्ट करके सीताजी को यहाँ ले आयेंगे॥ ३२॥
एवमाज्ञापय क्षिप्रं बलानां सर्वसंग्रहम्।
मुहूर्तेन तु युक्तेन प्रस्थानमभिरोचय॥३३॥
‘ऐसा समझकर आप शीघ्र ही समस्त सैनिकों को सम्पूर्ण आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करके कूच करने की आज्ञा दीजिये और उचित मुहूर्त से प्रस्थान की इच्छा कीजिये’ ॥ ३३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे तृतीयः सर्गः॥३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में तीसरा सर्ग पूरा हुआ॥३॥
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