वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 33 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 33
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
त्रयस्त्रिंशः सर्गः (33)
सरमा का सीता को सान्त्वना देना, रावण की माया का भेद खोलना, श्रीराम के आगमन का प्रिय समाचार सुनाना और उनके विजयी होने का विश्वास दिलाना
सीतां तु मोहितां दृष्ट्वा सरमा नाम राक्षसी।
आससादाथ वैदेहीं प्रियां प्रणयिनी सखीम्॥१॥
विदेहनन्दिनी सीता को मोह में पड़ी हुई देख सरमा नाम की राक्षसी उनके पास उसी तरह आयी, जैसे प्रेम रखने वाली सखी अपनी प्यारी सखी के पास जाती है।
मोहितां राक्षसेन्द्रेण सीतां परमदुःखिताम्।
आश्वासयामास तदा सरमा मृदुभाषिणी॥२॥
सीता राक्षसराज की माया से मोहित हो बड़े दुःख में पड़ गयी थीं। उस समय मृदुभाषिणी सरमा ने उन्हें अपने वचनों द्वारा सान्त्वना दी॥२॥
सा हि तत्र कृता मित्रं सीतया रक्ष्यमाणया।
रक्षन्ती रावणादिष्टा सानुक्रोशा दृढव्रता॥३॥
सरमा रावण की आज्ञा से सीताजी की रक्षा करती थी। उसने अपनी रक्षणीया सीता के साथ मैत्री कर ली थी। वह बड़ी दयालु और दृढ-संकल्प थी॥३॥
सा ददर्श सखी सीतां सरमा नष्टचेतनाम्।
उपावृत्योत्थितां ध्वस्तां वडवामिव पांसुषु॥४॥
सरमा ने सखी सीता को देखा। उनकी चेतना नष्ट-सी हो रही थी। जैसे परिश्रम से थकी हुई घोड़ी धरती की धूल में लोटकर खड़ी हुई हो, उसी प्रकार सीता भी पृथ्वी पर लोटकर रोने और विलाप करने के कारण धूलिधूसरित हो रही थीं॥ ४॥
तां समाश्वासयामास सखीस्नेहेन सुव्रताम्।
समाश्वसिहि वैदेहि मा भूत् ते मनसो व्यथा।
उक्ता यद् रावणेन त्वं प्रयुक्तश्च स्वयं त्वया॥
सखीस्नेहेन तद् भीरु मया सर्वं प्रतिश्रुतम्।
लीनया गहने शून्ये भयमुत्सृज्य रावणात्।
तव हेतोर्विशालाक्षि नहि मे रावणाद् भयम्॥
उसने एक सखी के स्नेह से उत्तम व्रत का पालन करने वाली सीता को आश्वासन दिया —’विदेहनन्दिनी! धैर्य धारण करो। तुम्हारे मन में व्यथा नहीं होनी चाहिये। भीरु! रावण ने तुमसे जो कुछ कहा है और स्वयं तुमने उसे जो उत्तर दिया है, वह सब मैंने सखी के प्रति स्नेह होने के कारण सुन लिया है। विशाललोचने! तुम्हारे लिये मैं रावण का भय छोड़कर अशोकवाटिका में सूने गहन स्थान में छिपकर सारी बातें सुन रही थी। मुझे रावण से कोई डर नहीं है॥५-६॥
स सम्भ्रान्तश्च निष्क्रान्तो यत्कृते राक्षसेश्वरः।
तत्र मे विदितं सर्वमभिनिष्क्रम्य मैथिलि॥७॥
‘मिथिलेशकुमारी! राक्षसराज रावण जिस कारण यहाँ से घबराकर निकल गया है, उसका भी मैं वहाँ जाकर पूर्णरूप से पता लगा आयी हूँ॥७॥
न शक्यं सौप्तिकं कर्तुं रामस्य विदितात्मनः।
वधश्च पुरुषव्याघ्र तस्मिन् नैवोपपद्यते॥८॥
‘भगवान् श्रीराम अपने स्वरूप को जानने वाले सर्वज्ञ परमात्मा हैं। उनका सोते समय वध करना किसी के लिये भी सर्वथा असम्भव है। पुरुषसिंह श्रीराम के विषय में इस तरह उनके वध होने की बात युक्तिसंगत नहीं जान पड़ती॥
न त्वेवं वानरा हन्तुं शक्याः पादपयोधिनः।
सुरा देवर्षभेणेव रामेण हि सुरक्षिताः॥९॥
‘वानरलोग वृक्षों के द्वारा युद्ध करने वाले हैं। उनका भी इस तरह मारा जाना कदापि सम्भव नहीं है; क्योंकि जैसे देवतालोग देवराज इन्द्रसे पालित होते हैं, उसी प्रकार ये वानर श्रीरामचन्द्रजी से भलीभाँति सुरक्षित हैं॥
दीर्घवृत्तभुजः श्रीमान् महोरस्कः प्रतापवान्।
धन्वी संनहनोपेतो धर्मात्मा भुवि विश्रुतः॥१०॥
विक्रान्तो रक्षिता नित्यमात्मनश्च परस्य च।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा कुलीनो नयशास्त्रवित् ॥११॥
हन्ता परबलौघानामचिन्त्यबलपौरुषः।
न हतो राघवः श्रीमान् सीते शत्रुनिबर्हणः॥१२॥
‘सीते! श्रीमान् राम गोलाकार बड़ी-बड़ी भुजाओं से सुशोभित, चौड़ी छातीवाले, प्रतापी, धनुर्धर, सुगठित शरीर से युक्त और भूमण्डल में सुविख्यात धर्मात्मा हैं। उनमें महान् पराक्रम है। वे भाई लक्ष्मण की सहायता से अपनी तथा दूसरे की भी रक्षा करने में समर्थ हैं। नीतिशास्त्र के ज्ञाता और कुलीन हैं। उनके बल और पौरुष अचिन्त्य हैं। वे शत्रुपक्ष के सैन्यसमूहों का संहार करने की शक्ति रखते हैं। शत्रुसूदन श्रीराम कदापि मारे नहीं गये हैं॥ १०– १२॥
अयुक्तबुद्धिकृत्येन सर्वभूतविरोधिना।
एवं प्रयुक्ता रौद्रेण माया मायाविना त्वयि॥१३॥
‘रावण की बुद्धि और कर्म दोनों ही बुरे हैं। वहसमस्त प्राणियों का विरोधी, क्रूर और मायावी है। उसने तुम पर यह माया का प्रयोग किया था (वह मस्तक और धनुष माया द्वारा रचे गये थे)॥ १३॥
शोकस्ते विगतः सर्वकल्याणं त्वामुपस्थितम्।
ध्रुवं त्वां भजते लक्ष्मीः प्रियं ते भवति शृणु॥१४॥
‘अब तुम्हारे शोक के दिन बीत गये। सब प्रकार से कल्याण का अवसर उपस्थित हुआ है। निश्चय ही लक्ष्मी तुम्हारा सेवन करती हैं। तुम्हारा प्रिय कार्य होने जा रहा है उसे बताती हूँ, सुनो॥ १४ ॥
उत्तीर्य सागरं रामः सह वानरसेनया।
संनिविष्टः समुद्रस्य तीरमासाद्य दक्षिणम्॥१५॥
‘श्रीरामचन्द्रजी वानरसेना के साथ समुद्र को लाँघकर इस पार आ रहे हैं। उन्होंने सागर के दक्षिणतट पर पड़ाव डाला है॥ १५ ॥
दृष्टो मे परिपूर्णार्थः काकुत्स्थः सहलक्ष्मणः।
सहितैः सागरान्तस्थैर्बलैस्तिष्ठति रक्षितः॥१६॥
‘मैंने स्वयं लक्ष्मणसहित पूर्णकाम श्रीराम का दर्शन किया है। वे समुद्रतट पर ठहरी हुई अपनी संगठित सेनाओं द्वारा सर्वथा सुरक्षित हैं॥१६॥
अनेन प्रेषिता ये च राक्षसा लघुविक्रमाः।
राघवस्तीर्ण इत्येवं प्रवृत्तिस्तैरिहाहृता॥१७॥
‘रावणने जो-जो शीघ्रगामी राक्षस भेजे थे, वे सब यहाँ यही समाचार लाये हैं कि ‘श्रीरघुनाथजी समुद्र को पार करके आ गये’ ॥ १७॥
स तां श्रुत्वा विशालाक्षि प्रवृत्तिं राक्षसाधिपः।
एष मन्त्रयते सर्वैः सचिवैः सह रावणः॥१८॥
‘विशाललोचने! इस समाचार को सुनकर यह राक्षसराज रावण अपने सभी मन्त्रियों के साथ गुप्त परामर्श कर रहा है’ ॥ १८॥
इति ब्रुवाणा सरमा राक्षसी सीतया सह।
सर्वोद्योगेन सैन्यानां शब्दं शुश्राव भैरवम्॥१९॥
जब राक्षसी सरमा सीता से ये बातें कह रही थी, उसी समय उसने युद्ध के लिये पूर्णतः उद्योगशील सैनिकों का भैरव नाद सुना॥ १९॥
दण्डनिर्घातवादिन्याः श्रुत्वा भेर्या महास्वनम्।
उवाच सरमा सीतामिदं मधुरभाषिणी॥२०॥
डंडे की चोट से बजने वाले धौंसे का गम्भीर नाद सुनकर मधुरभाषिणी सरमा ने सीता से कहा— ॥२०॥
संनाहजननी ह्येषा भैरवा भीरु भेरिका।
भेरीनादं च गम्भीरं शृणु तोयदनिःस्वनम्॥२१॥
‘भीरु ! यह भयानक भेरीनाद युद्ध के लिये तैयारी की सूचना दे रहा है। मेघ की गर्जना के समान रणभेरी का गम्भीर घोष तुम भी सुन लो॥२१॥
कल्प्यन्ते मत्तमातङ्गा युज्यन्ते रथवाजिनः।
दृश्यन्ते तुरगारूढाः प्रासहस्ताः सहस्रशः॥२२॥
‘मतवाले हाथी सजाये जा रहे हैं। रथ में घोड़े जोते जा रहे हैं और हजारों घुड़सवार हाथ में भाला लिये दृष्टिगोचर हो रहे हैं ॥ २२॥
तत्र तत्र च संनद्धाः सम्पतन्ति सहस्रशः।
आपूर्यन्ते राजमार्गाः सैन्यैरद्भुतदर्शनैः॥२३॥
वेगवद्भिर्नदद्भिश्च तोयौपैरिव सागरः।
‘जहाँ-तहाँ से युद्ध के लिये संनद्ध हुए सहस्रों सैनिक दौड़े चले आ रहे हैं। सारी सड़कें अद्भुत वेष में सजे और बड़े वेगसे गर्जना करते हुए सैनिकों से उसी तरह भरती जा रही हैं जैसे जल के असंख्य प्रवाह सागर में मिल रहे हों॥ २३ १/२॥
शस्त्राणां च प्रसन्नानां चर्मणां वर्मणां तथा॥२४॥
रथवाजिगजानां च राक्षसेन्द्रानुयायिनाम्।
सम्भ्रमो रक्षसामेष हृषितानां तरस्विनाम्॥२५॥
प्रभां विसृजतां पश्य नानावर्णसमुत्थिताम्।
वनं निर्दहतो घर्मे यथा रूपं विभावसोः॥२६॥
‘नाना प्रकार की प्रभा बिखेरने वाले चमचमाते हुए अस्त्र-शस्त्रों, ढालों और कवचों की वह चमक देखो। राक्षसराज रावण का अनुगमन करने वाले रथों, घोड़ों, हाथियों तथा रोमाञ्चित हुए वेगशाली राक्षसों में इस समय यह बड़ी हड़बड़ी दिखायी देती है। ग्रीष्म ऋतु में वन को जलाते हुए दावानल का जैसा जाज्वल्यमान रूप होता है, वैसी ही प्रभा इन अस्त्रशस्त्र आदि की दिखायी देती है॥ २४–२६॥
घण्टानां शृणु निर्घोषं रथानां शृणु निःस्वनम्।
हयानां हेषमाणानां शृणु तूर्यध्वनिं तथा॥ २७॥
‘हाथियों पर बजते हुए घण्टों का गम्भीर घोष सुनो, रथों की घर्घराहट सुनो और हिनहिनाते हुए घोड़ों तथा भाँति-भाँति के बाजों की आवाज भी सुन लो॥२७॥
उद्यतायुधहस्तानां राक्षसेन्द्रानुयायिनाम्।
सम्भ्रमो रक्षसामेष तुमुलो लोमहर्षणम्॥२८॥
श्रीस्त्वां भजति शोकनी रक्षसां भयमागतम्।
‘हाथों मे हथियार लिये रावण के अनुगामी राक्षसों में इस समय बड़ी घबराहट है। इससे यह जान लो कि उनपर कोई बड़ा भारी रोमाञ्चकारी भय उपस्थित हुआ है और शोक का निवारण करने वाली लक्ष्मी तुम्हारी सेवा में उपस्थित हो रही है॥ २८ १/२॥
रामः कमलपत्राक्षो दैत्यानामिव वासवः॥२९॥
अवजित्य जितक्रोधस्तमचिन्त्यपराक्रमः।
रावणं समरे हत्वा भर्ता त्वाधिगमिष्यति॥३०॥
‘तुम्हारे पति कमलनयन श्रीराम क्रोध को जीत चुके हैं। उनका पराक्रम अचिन्त्य है। वे दैत्यों को परास्त करने वाले इन्द्र की भाँति राक्षसों को हराकर समराङ्गण में रावण का वध करके तुम्हें प्राप्त कर लेंगे॥ २९-३०॥
विक्रमिष्यति रक्षःसु भर्ता ते सहलक्ष्मणः।
यथा शत्रुषु शत्रुघ्नो विष्णुना सह वासवः॥३१॥
‘जैसे शत्रुसूदन इन्द्र ने उपेन्द्र की सहायता से शत्रुओं पर पराक्रम प्रकट किया था, उसी प्रकार तुम्हारे पतिदेव श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के सहयोग से राक्षसों पर अपने बलविक्रम का प्रदर्शन करेंगे॥३१॥
आगतस्य हि रामस्य क्षिप्रमङ्कागतां सतीम्।
अहं द्रक्ष्यामि सिद्धार्थां त्वां शत्रौ विनिपातिते॥३२॥
‘शत्रु रावण का संहार हो जाने पर मैं शीघ्र ही तुम जैसी सतीसाध्वी को यहाँ पधारे हुए श्रीरघुनाथजी की गोद में समोद बैठी देखूगी। अब शीघ्र ही तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा॥ ३२॥
अस्राण्यानन्दजानि त्वं वर्तयिष्यसि जानकि।
समागम्य परिष्वक्ता तस्योरसि महोरसः॥३३॥
‘जनकनन्दिनि! विशाल वक्षःस्थल से विभूषित श्रीराम के मिलने पर उनकी छाती से लगकर तुम शीघ्र ही नेत्रों से आनन्द के आँसू बहाओगी॥ ३३॥
अचिरान्मोक्ष्यते सीते देवि ते जघनं गताम्।
धृतामेकां बहून् मासान् वेणी रामो महाबलः॥३४॥
‘देवि सीते! कई महीनों से तुम्हारे केशों की एक ही वेणी जटा के रूप में परिणत हो जो कटिप्रदेशतक लटक रही है, उसे महाबली श्रीराम शीघ्र ही अपने हाथों से खोलेंगे॥३४॥
तस्य दृष्ट्वा मुखं देवि पूर्णचन्द्रमिवोदितम्।
मोक्ष्यसे शोकजं वारि निर्मोकमिव पन्नगी॥३५॥
‘देवि! जैसे नागिन केंचुल छोड़ती है, उसी प्रकार तुम उदित हुए पूर्णचन्द्र के समान अपने पति का मुदित मुख देखकर शोक के आँसू बहाना छोड़ दोगी॥ ३५ ॥
रावणं समरे हत्वा नचिरादेव मैथिलि।
त्वया समग्रः प्रियया सुखार्हो लप्स्यते सुखम्॥३६॥
‘मिथिलेशकुमारी! समराङ्गण में शीघ्र ही रावण का वध करके सुख भोगने के योग्य श्रीराम सफलमनोरथ हो तुझ प्रियतमा के साथ मनोवाञ्छित सुख प्राप्त करेंगे।
सभाजिता त्वं रामेण मोदिष्यसि महात्मना।
सुवर्षेण समायुक्ता यथा सस्येन मेदिनी॥ ३७॥
‘जैसे पृथ्वी उत्तम वर्षासे अभिषिक्त होनेपर हरीभरी खेतीसे लहलहा उठती है, उसी प्रकार तुम महात्मा श्रीरामसे सम्मानित हो आनन्दमग्न हो जाओगी॥३७॥
गिरिवरमभितो विवर्तमानो हय इव मण्डलमाशु यः करोति।
तमिह शरणमभ्युपैहि देवि दिवसकरं प्रभवो ह्ययं प्रजानाम्॥३८॥
‘देवि! जो गिरिवर मेरु के चारों ओर घूमते हुए अश्व की भाँति शीघ्रतापूर्वक मण्डलाकार-गति से चलते हैं, उन्हीं भगवान् सूर्य की (जो तुम्हारे कुल के देवता हैं) तुम यहाँ शरण लो; क्योंकि ये प्रजाजनों को सुख देने तथा उनका दुःख दूर करने में समर्थ हैं’।३८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे त्रयस्त्रिंशः सर्गः॥ ३३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में तैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३३॥