वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 34 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 34
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
चतुस्त्रिंशः सर्गः (34)
सीता के अनुरोध से सरमा का उन्हें मन्त्रियोंसहित रावण का निश्चित विचार बताना
अथ तां जातसंतापां तेन वाक्येन मोहिताम्।
सरमा लादयामास महीं दग्धामिवाम्भसा॥१॥
रावण के पूर्वोक्त वचन से मोहित एवं संतप्त हुई सीता को सरमा ने अपनी वाणी द्वारा उसी प्रकार आह्लाद प्रदान किया, जैसे ग्रीष्म ऋतु के ताप से दग्ध हुई पृथ्वी को वर्षा-काल की मेघमाला अपने जल से आह्लादित कर देती है।
ततस्तस्या हितं सख्याश्चिकीर्षन्ती सखी वचः।
उवाच काले कालज्ञा स्मितपूर्वाभिभाषिणी॥२॥
तदनन्तर समय को पहचानने और मुसकराकर बात करने वाली सखी सरमा अपनी प्रिय सखी सीता का हित करने की इच्छा रखकर यह समयोचित वचन बोली
उत्सहेयमहं गत्वा त्वद्वाक्यमसितेक्षणे।
निवेद्य कुशलं रामे प्रतिच्छन्ना निवर्तितुम्॥३॥
‘कजरारे नेत्रोंवाली सखी! मुझमें यह साहस और उत्साह है कि मैं श्रीराम के पास जाकर तुम्हारा संदेश और कुशल-समाचार निवेदन कर दूँ और फिर छिपी हुई वहाँ से लौट आऊँ॥३॥
नहि मे क्रममाणाया निरालम्बे विहायसि।
समर्थो गतिमन्वेतुं पवनो गरुडोऽपि वा॥४॥
‘निराधार आकाश में तीव्र वेग से जाती हुई मेरी गति का अनुसरण करने में वायु अथवा गरुड़ भी समर्थ नहीं हैं।
एवं ब्रुवाणां तां सीता सरमामिदमब्रवीत्।
मधुरं श्लक्ष्णया वाचा पूर्वशोकाभिपन्नया॥५॥
ऐसी बात कहती हुई सरमा से सीता ने उस स्नेहभरी मधुर वाणी द्वारा जो पहले शोक से व्याप्त थी, इस प्रकार कहा— ॥ ५॥
समर्था गगनं गन्तुमपि च त्वं रसातलम्।
अवगच्छाद्य कर्तव्यं कर्तव्यं ते मदन्तरे॥६॥
‘सरमे! तुम आकाश और पाताल सभी जगह जाने में समर्थ हो। मेरे लिये जो कर्तव्य तुम्हें करना है, उसे अब बता रही हूँ, सुनो और समझो॥६॥
मत्प्रियं यदि कर्तव्यं यदि बुद्धिः स्थिरा तव।
ज्ञातुमिच्छामि तं गत्वा किं करोतीति रावणः॥७॥
‘यदि तुम्हें मेरा प्रिय कार्य करना है और यदि इस विषय में तुम्हारी बुद्धि स्थिर है तो मैं यह जानना चाहती हूँ कि रावण यहाँ से जाकर क्या कर रहा है? ॥ ७॥
स हि मायाबलः क्रूरो रावणः शत्रुरावणः।
मां मोहयति दुष्टात्मा पीतमात्रेव वारुणी॥८॥
‘शत्रुओं को रुलाने वाला रावण मायाबल से सम्पन्न है। वह दुष्टात्मा मुझे उसी प्रकार मोहित कर रहा है, जैसे वारुणी अधिक मात्रा में पी लेने पर वह पीने वाले को मोहित (अचेत) कर देती है॥८॥
तर्जापयति मां नित्यं भर्सापयति चासकृत्।
राक्षसीभिः सुघोराभिर्यो मां रक्षति नित्यशः॥९॥
‘वह राक्षस अत्यन्त भयानक राक्षसियों द्वारा प्रतिदिन मुझे डाँट बताता है, धमकाता है और सदा मेरी रखवाली करता है॥९॥
उद्विग्ना शङ्किता चास्मि न स्वस्थं च मनो मम।
तद्भयाच्चाहमुद्रिग्ना अशोकवनिकां गता॥१०॥
‘मैं सदा उससे उद्विग्न और शङ्कित रहती हूँ। मेरा चित्त स्वस्थ नहीं हो पाता। मैं उसी के भय से व्याकुल होकर अशोकवाटिका में चली आयी थी॥१०॥
यदि नाम कथा तस्य निश्चितं वापि यद्भवेत्।
निवेदयेथाः सर्वं तद् वरो मे स्यादनुग्रहः॥११॥
‘यदि मन्त्रियों के साथ उसकी बातचीत चल रही है तो वहाँ जो कुछ निश्चय हो अथवा रावण का जो निश्चित विचार हो, वह सब मुझे बताती रहो। यह मुझ पर तुम्हारी बहुत बड़ी कृपा होगी’ ॥ ११॥
साप्येवं ब्रुवतीं सीतां सरमा मृदुभाषिणी।
उवाच वदनं तस्याः स्पृशन्ती बाष्पविक्लवम्॥१२॥
ऐसी बातें कहती हुई सीता से मधुरभाषिणी सरमा ने उनके आँसुओं से भीगे हुए मुखमण्डल को हाथ से पोंछते हुए इस प्रकार कहा- ॥ १२॥ ।
एष ते यद्यभिप्रायस्तस्माद् गच्छामि जानकि।
गृह्य शत्रोरभिप्रायमुपावर्तामि मैथिलि॥१३॥
‘मिथिलेशकुमारी जनकनन्दिनि! यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो मैं जाती हूँ और शत्रु के अभिप्राय को जानकर अभी लौटती हूँ’॥ १३॥
एवमुक्त्वा ततो गत्वा समीपं तस्य रक्षसः।
शुश्राव कथितं तस्य रावणस्य समन्त्रिणः॥१४॥
ऐसा कहकर सरमा ने उस राक्षस के समीप जाकर मन्त्रियोंसहित रावण की कही हुई सारी बातें सुनीं। १४॥
सा श्रुत्वा निश्चयं तस्य निश्चयज्ञा दुरात्मनः।
पुनरेवागमत् क्षिप्रमशोकवनिकां शुभाम्॥१५॥
उस दुरात्मा के निश्चय को सुनकर उसने अच्छी तरह समझ लिया और फिर वह शीघ्र ही सुन्दर अशोकवाटिका में लौट आयी॥ १५ ॥
सा प्रविष्टा ततस्तत्र ददर्श जनकात्मजाम्।
प्रतीक्षमाणां स्वामेव भ्रष्टपद्मामिव श्रियम्॥१६॥
वहाँ प्रवेश करके उसने अपनी ही प्रतीक्षा में बैठी हुई जनककिशोरी को देखा, जो उस लक्ष्मी के समान जान पड़ती थीं, जिसके हाथ का कमल कहीं गिर गया हो॥
तां तु सीता पुनः प्राप्तां सरमां प्रियभाषिणीम्।
परिष्वज्य च सुस्निग्धं ददौ च स्वयमासनम्॥१७॥
फिर लौटकर आयी हुई प्रियभाषिणी सरमा को बड़े स्नेह से गले लगाकर सीता ने स्वयं उसे बैठने के लिये आसन दिया और कहा- ॥ १७॥
इहासीना सुखं सर्वमाख्याहि मम तत्त्वतः।
क्रूरस्य निश्चयं तस्य रावणस्य दुरात्मनः॥१८॥
‘सखी! यहाँ सुख से बैठकर सारी बातें ठीक-ठीक बताओ। उस क्रूर एवं दुरात्मा रावण ने क्या निश्चय किया’॥
एवमुक्ता तु सरमा सीतया वेपमानया।
कथितं सर्वमाचष्ट रावणस्य समन्त्रिणः॥१९॥
काँपती हुई सीता के इस प्रकार पूछने पर सरमा ने मन्त्रियोंसहित रावण की कही हुई सारी बातें बतायीं
जनन्या राक्षसेन्द्रो वै त्वन्मोक्षार्थं बृहद्वचः।
अतिस्निग्धेन वैदेहि मन्त्रिवृद्धेन चोदितः॥२०॥
‘विदेहनन्दिनि! राक्षसराज रावण की माता ने तथा रावण के प्रति अत्यन्त स्नेह रखने वाले एक बूढ़े मन्त्री ने भी बड़ी-बड़ी बातें कहकर तुम्हें छोड़ देने के लिये रावण को प्रेरित किया॥२०॥
दीयतामभिसत्कृत्य मनुजेन्द्राय मैथिली।
निदर्शनं ते पर्याप्तं जनस्थाने यदद्भुतम्॥२१॥
‘राक्षसराज! तुम महाराज श्रीराम को सत्कारपूर्वक उनकी पत्नी सीता लौटा दो। जनस्थान में जो अद्भुत घटना घटित हुई थी, वही श्रीराम के पराक्रम को समझने के लिये पर्याप्त प्रमाण एवं उदाहरण है॥
२१॥
लङ्घनं च समुद्रस्य दर्शनं च हनूमतः।
वधं च रक्षसां युद्धे कः कुर्यान्मानुषो युधि॥२२॥
‘(उनके सेवकों में भी अद्भुत शक्ति है) हनुमान् ने जो समुद्र को लाँघा, सीता से भेंट की और युद्ध में बहुत-से राक्षसों का वध किया—यह सब कार्य दूसरा कौन मनुष्य कर सकता है ?’ ॥ २२ ॥
एवं स मन्त्रवृद्धैश्च मात्रा च बहुबोधितः।
न त्वामुत्सहते मोक्तुमर्थमर्थपरो यथा॥२३॥
‘इस प्रकार बूढ़े मन्त्रियों तथा माता के बहुत समझाने पर भी वह तुम्हें उसी तरह छोड़ने की इच्छा नहीं करता है, जैसे धन का लोभी धन को त्यागना नहीं चाहता है॥ २३॥
नोत्सहत्यमृतो मोक्तुं युद्धे त्वामिति मैथिलि।
सामात्यस्य नृशंसस्य निश्चयो ह्येष वर्तते॥२४॥
‘मिथिलेशकुमारी! वह युद्ध में मरे बिना तुम्हें छोड़ने का साहस नहीं कर सकता। मन्त्रियोंसहित उस नृशंस निशाचर का यही निश्चय है॥२४॥
तदेषा सुस्थिरा बुद्धिर्मृत्युलोभादुपस्थिता।
भयान्न शक्तस्त्वां मोक्तुमनिरस्तः स संयुगे॥२५॥
राक्षसानां च सर्वेषामात्मनश्च वधेन हि।
‘रावण के सिर पर काल नाच रहा है। इसलिये उसके मन में मृत्यु के प्रति लोभ पैदा हो गया है। यही कारण है कि तुम्हें न लौटाने के निश्चय पर उसकी बुद्धि सुस्थिर हो गयी है। वह जबतक युद्ध में राक्षसों के संहार और अपने वध के द्वारा (नष्ट) नहीं हो जायगा; केवल भय दिखाने से तुम्हें नहीं छोड़ सकता॥ २५ १/२॥
निहत्य रावणं संख्ये सर्वथा निशितैः शरैः।
प्रतिनेष्यति रामस्त्वामयोध्यामसितेक्षणे॥२६॥
‘कजरारे नेत्रोंवाली सीते! इसका परिणाम यही होगा कि भगवान् श्रीराम अपने सर्वथा तीखे बाणों से युद्धस्थल में रावण का वध करके तुम्हें अयोध्या को ले जायँगे’ ॥ २६॥
एतस्मिन्नन्तरे शब्दो भेरीशङ्खसमाकुलः।
श्रुतो वै सर्वसैन्यानां कम्पयन् धरणीतलम्॥२७॥
इसी समय भेरीनाद और शङ्खध्वनि से मिला हुआ समस्त सैनिकों का महान् कोलाहल सुनायी दिया, जो भूकम्प पैदा कर रहा था॥२७॥
श्रुत्वा तु तं वानरसैन्यनादं लङ्कागता राक्षसराजभृत्याः।
हतौजसो दैन्यपरीतचेष्टाः श्रेयो न पश्यन्ति नृपस्य दोषात्॥२८॥
वानरसैनिकों के उस भीषण सिंहनाद को सुनकर लङ्का में रहने वाले राक्षसराज रावण के सेवक हतोत्साह हो गये। उनकी सारी चेष्टा दीनता से व्याप्त हो गयी। रावण के दोष से उन्हें भी कोई कल्याण का उपाय नहीं दिखायी देता था।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे चतुस्त्रिंशः सर्गः॥ ३४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में चौंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३४॥
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