वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 37 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 37
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
सप्तत्रिंशः सर्गः (37)
विभीषण का श्रीराम से लङ्का की रक्षा के प्रबन्ध का वर्णन तथा श्रीराम द्वारा लङ्का के विभिन्न द्वारों पर आक्रमण करने के लिये अपने सेनापतियों की नियुक्ति
नरवानरराजानौ स तु वायुसुतः कपिः।
जाम्बवानृक्षराजश्च राक्षसश्च विभीषणः॥१॥
अङ्गदो वालिपुत्रश्च सौमित्रिः शरभः कपिः।
सुषेणः सहदायादो मैन्दो द्विविद एव च ॥२॥
गजो गवाक्षः कुमुदो नलोऽथ पनसस्तथा।
अमित्रविषयं प्राप्ताः समवेताः समर्थयन्॥३॥
शत्रु के देश में पहुँचे हुए नरराज श्रीराम, सुमित्राकुमार लक्ष्मण, वानरराज सुग्रीव, वायुपुत्र हनुमान्, ऋक्षराज जाम्बवान्, राक्षस विभीषण, वालिपुत्र अङ्गद, शरभ,बन्धु-बान्धवोंसहित सुषेण, मैन्द, द्विविद, गज, गवाक्ष, कुमुद, नल और पनस ये सब आपस में मिलकर विचार करने लगे— ॥१–३॥
इयं सा लक्ष्यते लङ्का पुरी रावणपालिता।
सासुरोरगगन्धर्वैरमरैरपि दुर्जया॥४॥
‘यही वह लङ्कापुरी दिखायी देती है, जिसका पालन रावण करता है। असुर, नाग और गन्धर्वोसहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी इसपर विजय पाना अत्यन्त कठिन है॥४॥
कार्यसिद्धिं पुरस्कृत्य मन्त्रयध्वं विनिर्णये।
नित्यं संनिहितो यत्र रावणो राक्षसाधिपः॥५॥
‘राक्षसराज रावण इस पुरी में सदा निवास करता है। अब आपलोग इस पर विजय पाने के उपायों का निर्णय करने के लिये परस्पर विचार करें’॥५॥
अथ तेषु ब्रुवाणेषु रावणावरजोऽब्रवीत्।।
वाक्यमग्राम्यपदवत् पुष्कलार्थं विभीषणः॥६॥
उन सबके इस प्रकार कहने पर रावण के छोटे भाई विभीषण ने संस्कारयुक्त पद और प्रचुर अर्थ से भरी हुई वाणी में कहा- ॥६॥
अनलः पनसश्चैव सम्पातिः प्रमतिस्तथा।
गत्वा लङ्कां ममामात्याः पुरी पुनरिहागताः॥७॥
‘मेरे मन्त्री अनल, पनस, सम्पाति और प्रमति—ये चारों लङ्कापुरी में जाकर फिर यहाँ लौट आये हैं॥७॥
भूत्वा शकुनयः सर्वे प्रविष्टाश्च रिपोर्बलम्।
विधानं विहितं यच्च तद् दृष्ट्वा समुपस्थिताः॥८॥
‘ये सब लोग पक्षी का रूप धारण करके शत्रु की सेना में गये थे और वहाँ जो व्यवस्था की गयी है, उसे अपनी आँखों देखकर फिर यहाँ उपस्थित हुए हैं॥ ८॥
संविधानं यथाहुस्ते रावणस्य दुरात्मनः।
राम तद् ब्रुवतः सर्वं याथातथ्येन मे शृणु॥९॥
‘श्रीराम! इन्होंने दुरात्मा रावण के द्वारा किये गये नगर-रक्षा के प्रबन्ध का जैसा वर्णन किया है, उसे मैं ठीक-ठीक बताता हूँ। आप वह सब मुझसे सुनिये॥ ९॥
पूर्वं प्रहस्तः सबलो द्वारमासाद्य तिष्ठति।
दक्षिणं च महावीयौँ महापार्श्वमहोदरौ॥१०॥
‘सेनासहित प्रहस्त नगर के पूर्व द्वार का आश्रय लेकर खड़ा है। महापराक्रमी महापार्श्व और महोदर दक्षिण द्वार पर खड़े हैं॥ १० ॥
इन्द्रजित् पश्चिमं द्वारं राक्षसैर्बहुभिर्वृतः।
पट्टिशासिधनुष्मद्भिः शूलमुद्गरपाणिभिः॥११॥
नानाप्रहरणैः शूरैरावृतो रावणात्मजः।
‘बहुसंख्यक राक्षसों से घिरा हुआ इन्द्रजित् नगर के पश्चिम द्वार पर खड़ा है। उसके साथी राक्षस पट्टिश, खड्ग, धनुष, शूल और मुद्गर आदि अस्त्र-शस्त्र हाथों में लिये हुए हैं। नाना प्रकार के आयुध धारण करने वाले शूरवीरों से घिरा हुआ वह रावणकुमार पश्चिमद्वार की रक्षा के लिये डटा है॥
राक्षसानां सहस्रेस्तु बहुभिः शस्त्रपाणिभिः॥१२॥
युक्तः परमसंविग्नो राक्षसैः सह मन्त्रवित्।
उत्तरं नगरद्वारं रावणः स्वयमास्थितः॥१३॥
‘स्वयं मन्त्रवेत्ता रावण शुक, सारण आदि कई सहस्र शस्त्रधारी राक्षसों के साथ नगर के उत्तर द्वार पर सावधानी के साथ खड़ा है। वह मन-ही-मन अत्यन्त उद्विग्न जान पड़ता है। १२-१३॥
विरूपाक्षस्तु महता शूलखड्गधनुष्मता।
बलेन राक्षसैः सार्धं मध्यमं गुल्ममाश्रितः॥१४॥
‘विरूपाक्ष शूल, खड्ग और धनुष धारण करने वाली विशाल राक्षससेना के साथ नगर के बीच की छावनी पर खड़ा है॥१४॥
एतानेवं विधान् गुल्मॉल्लङ्कायां समुदीक्ष्य ते।
मामका मन्त्रिणः सर्वे शीघ्रं पुनरिहागताः॥१५॥
‘इस प्रकार मेरे सारे मन्त्री लङ्का में विभिन्न स्थानों पर नियुक्त हुई इन सेनाओं का निरीक्षण करके फिर शीघ्र यहाँ लौटे हैं॥ १५॥
गजानां दशसाहस्रं रथानामयुतं तथा।
हयानामयुते द्वे च साग्रकोटिश्च रक्षसाम्॥१६॥
‘रावण की सेना में दस हजार हाथी, दस हजार रथ, बीस हजार घोड़े और एक करोड़ से भी ऊपर पैदल राक्षस हैं॥ १६॥
विक्रान्ता बलवन्तश्च संयुगेष्वाततायिनः।
इष्टा राक्षसराजस्य नित्यमेते निशाचराः॥१७॥
वे सभी बड़े वीर, बल-पराक्रम से सम्पन्न और युद्ध में आततायी हैं। ये सभी निशाचर राक्षसराज रावण को सदा ही प्रिय हैं॥१७॥
एकैकस्यात्र युद्धार्थे राक्षसस्य विशाम्पते।
परीवारः सहस्राणां सहस्रमुपतिष्ठते॥१८॥
‘प्रजानाथ! इनमें से एक-एक राक्षस के पास युद्ध के लिये दस-दस लाख का परिवार उपस्थित है’॥ १८॥
एतां प्रवृत्तिं लङ्कायां मन्त्रिप्रोक्तां विभीषणः।
एवमुक्त्वा महाबाहू राक्षसांस्तानदर्शयत्॥१९॥
लङ्कायां सचिवैः सर्वं रामाय प्रत्यवेदयत्।
महाबाहु विभीषण ने मन्त्रियों द्वारा बताये गये लङ्काविषयक समाचार को इस प्रकार बताकर उन मन्त्रीस्वरूप राक्षसों को भी श्रीराम से मिलाया और उनके द्वारा लङ्का का सारा वृत्तान्त पुनः उनसे कहलाया॥१९ १/२॥
रामं कमलपत्राक्षमिदमुत्तरमब्रवीत्॥२०॥
रावणावरजः श्रीमान् रामप्रियचिकीर्षया।
तदनन्तर रावण के छोटे भाई श्रीमान् विभीषण ने कमलनयन श्रीराम से उनका प्रिय करने के लिये स्वयं भी यह उत्तम बात कही— ॥२० १/२॥
कुबेरं तु यदा राम रावणः प्रतियुद्ध्यति ॥२१॥
षष्टिः शतसहस्राणि तदा निर्यान्ति राक्षसाः।
पराक्रमेण वीर्येण तेजसा सत्त्वगौरवात्।
सदृशा ह्यत्र दर्पण रावणस्य दुरात्मनः ॥ २२॥
‘श्रीराम! जब रावण ने कुबेर के साथ युद्ध किया था, उस समय साठ लाख राक्षस उसके साथ गये थे। वे सब-के-सब बल, पराक्रम, तेज, धैर्य की अधिकता और दर्प की दृष्टि से दुरात्मा रावण के ही समान थे॥ २१-२२॥
अत्र मन्युर्न कर्तव्यः कोपये त्वां न भीषये।
समर्थो ह्यसि वीर्येण सुराणामपि निग्रहे॥२३॥
‘मैंने जो रावण की शक्ति का वर्णन किया है, इसको लेकर न तो आपको अपने मन में दीनता लानी चाहिये और न मुझ पर रोष ही करना चाहिये। मैं आपको डराता नहीं, शत्रु के प्रति आपके क्रोध को उभाड़ रहा हूँ; क्योंकि आप अपने बलपराक्रम द्वारा देवताओं का भी दमन करने में समर्थ हैं ॥ २३॥
तद्भवांश्चतुरङ्गेण बलेन महता वृतम्।
व्यूह्येदं वानरानीकं निर्मथिष्यसि रावणम्॥२४॥
‘इसलिये आप इस वानरसेना का व्यूह बनाकर ही विशाल चतुरङ्गिणी सेना से घिरे हुए रावण का विनाश कर सकेंगे’॥२४॥
रावणावरजे वाक्यमेवं ब्रुवति राघवः।
शत्रूणां प्रतिघातार्थमिदं वचनमब्रवीत्॥२५॥
विभीषण के ऐसी बात कहने पर भगवान् श्रीराम ने शत्रुओं को परास्त करने के लिये इस प्रकार कहा-॥
पूर्वद्वारं तु लङ्काया नीलो वानरपुङ्गवः।
प्रहस्तं प्रतियोद्धा स्याद् वानरैर्बहुभिर्वृतः॥ २६॥
‘बहुसंख्यक वानरों से घिरे हुए कपिश्रेष्ठ नील पूर्व द्वार पर जाकर प्रहस्त का सामना करें॥ २६॥
अङ्गदो वालिपुत्रस्तु बलेन महता वृतः।
दक्षिणे बाधतां द्वारे महापार्श्वमहोदरौ॥२७॥
‘विशाल वाहिनी से युक्त वालिकुमार अङ्गद दक्षिण द्वार पर स्थित हो महापार्श्व और महोदर के कार्य में बाधा दें॥२७॥
हनूमान् पश्चिमद्वारं निष्पीड्य पवनात्मजः।
प्रविशत्वप्रमेयात्मा बहुभिः कपिभिर्वृतः॥२८॥
‘पवनकुमार हनुमान् अप्रमेय आत्मबल से सम्पन्न हैं। ये बहुत-से वानरों के साथ लङ्का के पश्चिम फाटक में प्रवेश करें॥ २८ ॥
दैत्यदानवसङ्घानामृषीणां च महात्मनाम्।
विप्रकारप्रियः क्षुद्रो वरदानबलान्वितः॥२९॥
परिक्रमति यः सर्वान् लोकान् संतापयन् प्रजाः।
तस्याहं राक्षसेन्द्रस्य स्वयमेव वधे धृतः॥३०॥
उत्तरं नगरद्वारमहं सौमित्रिणा सह।
निपीड्याभिप्रवेक्ष्यामि सबलो यत्र रावणः॥
‘दैत्यों, दानवसमूहों तथा महात्मा ऋषियों का अपकार करना ही जिसे प्रिय लगता है, जिसका स्वभाव क्षुद्र है, जो वरदान की शक्ति से सम्पन्न है और प्रजाजनों को संताप देता हुआ सम्पूर्ण लोकों में घूमता रहता है, उस राक्षसराज रावण के वध का दृढ़ निश्चय लेकर मैं स्वयं ही सुमित्राकुमार लक्ष्मण के साथ नगर के उत्तर फाटक पर आक्रमण करके उसके भीतर प्रवेश करूँगा, जहाँ सेनासहित रावण विद्यमान है॥ २९-३१॥
वानरेन्द्रश्च बलवानृक्षराजश्च वीर्यवान्।
राक्षसेन्द्रानुजश्चैव गुल्मे भवतु मध्यमे ॥३२॥
‘बलवान् वानरराज सुग्रीव, रीछों के पराक्रमी राजा जाम्बवान् तथा राक्षसराज रावण के छोटे भाई विभीषण—ये लोग नगर के बीच के मोर्चे पर आक्रमण करें॥ ३२॥
न चैव मानुषं रूपं कार्यं हरिभिराहवे।
एषा भवतु नः संज्ञा युद्धेऽस्मिन् वानरे बले॥३३॥
‘वानरों को युद्ध में मनुष्य का रूप नहीं धारण करना चाहिये। इस युद्ध में वानरों की सेना का हमारे लिये यही संकेत या चिह्न होगा॥ ३३॥
वानरा एव नश्चिह्न स्वजनेऽस्मिन् भविष्यति।
वयं तु मानुषेणैव सप्त योत्स्यामहे परान्॥३४॥
‘इस स्वजनवर्ग में वानर ही हमारे चिह्न होंगे। केवल हम सात व्यक्ति ही मनुष्यरूप में रहकर शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे॥ ३४॥
अहमेव सह भ्रात्रा लक्ष्मणेन महौजसा।
आत्मना पञ्चमश्चायं सखा मम विभीषणः॥३५॥
‘मैं अपने महातेजस्वी भाई लक्ष्मण के साथ रहूँगा और ये मेरे मित्र विभीषण अपने चार मन्त्रियों के साथ पाँचवें होंगे (इस प्रकार हम सात व्यक्ति मनुष्यरूप में रहकर युद्ध करेंगे)’॥ ३५॥
स रामः कृत्यसिद्ध्यर्थमेवमुक्त्वा विभीषणम्।
सुवेलारोहणे बुद्धिं चकार मतिमान् प्रभुः।
रमणीयतरं दृष्ट्वा सुवेलस्य गिरेस्तटम्॥३६॥
अपने विजयरूपी प्रयोजन की सिद्धि के लिये विभीषण से ऐसा कहकर बुद्धिमान् भगवान् श्रीराम ने सुवेल पर्वत पर चढ़ने का विचार किया। सुवेल पर्वत का तटप्रान्त बड़ा ही रमणीय था, उसे देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई॥
ततस्तु रामो महता बलेन प्रच्छाद्य सर्वां पृथिवीं महात्मा।
प्रहृष्टरूपोऽभिजगाम लङ्कां कृत्वा मतिं सोऽरिवधे महात्मा॥३७॥
तदनन्तर महामना महात्मा श्रीराम अपनी विशाल सेना के द्वारा वहाँ की सारी पृथ्वी को आच्छादित करके शत्रुवध का निश्चय किये बड़े हर्ष और उत्साह से लङ्का की ओर चले॥ ३७॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे सप्तत्रिंशः सर्गः॥ ३७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में सैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३७॥
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