वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 39 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 39
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
एकोनचत्वारिंशः सर्गः (39)
वानरोंसहित श्रीराम का सुवेलशिखर से लङ्कापुरी का निरीक्षण करना
तां रात्रिमुषितास्तत्र सुवेले हरियूथपाः।
लङ्कायां ददृशुर्वीरा वनान्युपवनानि च॥१॥
वानर-यूथपतियों ने वह रात उस सुवेल पर्वत पर ही बितायी और वहाँ से उन वीरों ने लङ्का के वन और उपवन भी देखे॥१॥
समसौम्यानि रम्याणि विशालान्यायतानि च।
दृष्टिरम्याणि ते दृष्वा बभूवुर्जातविस्मयाः॥२॥
वे बड़े ही चौरस, शान्त, सुन्दर, विशाल और विस्तृत थे तथा देखने में अत्यन्त रमणीय जान पड़ते थे। उन्हें देखकर उन सब वानरों को बड़ा विस्मय हुआ॥२॥
चम्पकाशोकबकुलशालतालसमाकुला।
तमालवनसंछन्ना नागमालासमावृता॥३॥
हिन्तालैरर्जुनैर्नीपैः सप्तपर्णैः सुपुष्पितैः।
तिलकैः कर्णिकारैश्च पाटलैश्च समन्ततः॥४॥
शुशुभे पुष्पिताग्रैश्च लतापरिगतैर्दुमैः।
लङ्का बहुविधैर्दिव्यैर्यथेन्द्रस्यामरावती॥५॥
चम्पा, अशोक, बकुल, शाल और ताल-वृक्षों से व्याप्त, तमाल-वन से आच्छादित और नागकेसरों से आवृत लङ्कापुरी हिंताल, अर्जुन, नीप (कदम्ब), खिले हुए छितवन, तिलक,कनेर तथा पाटल आदि नाना प्रकार के दिव्य वृक्षों से जिनके अग्रभाग फूलों के भार से लदे थे तथा जिनपर लताबल्लरियाँ फैली हुई थीं, इन्द्र की अमरावती के समान शोभा पाती थी॥ ३ –५॥
विचित्रकुसुमोपेतै रक्तकोमलपल्लवैः।
शादलैश्च तथा नीलैश्चित्राभिर्वनराजिभिः॥६॥
विचित्र फूलों से युक्त लाल कोमल पल्लवों, हरी हरी घासों तथा विचित्र वनश्रेणियों से भी उस पुरी की बड़ी शोभा हो रही थी॥६॥
गन्धाढ्यान्यतिरम्याणि पुष्पाणि च फलानि च।
धारयन्त्यगमास्तत्र भूषणानीव मानवाः॥७॥
जैसे मनुष्य आभूषण धारण करते हैं, उसी प्रकार वहाँ के वृक्ष सुगन्धित फूल और अत्यन्त रमणीय फल धारण करते थे॥७॥
तच्चैत्ररथसंकाशं मनोज्ञं नन्दनोपमम्।
वनं सर्वर्तुकं रम्यं शुशुभे षट्पदायुतम्॥८॥
चैत्ररथ और नन्दनवन के समान वहाँ का मनोहर वन सभी ऋतुओं में भ्रमरों से व्याप्त हो रमणीय शोभा धारण करता था॥ ८॥
दात्यूहकोयष्टिबकैर्नृत्यमानैश्च बर्हिणैः।
रुतं परभृतानां च शुश्रुवे वननिर्झरे॥९॥
दात्यूह, कोयष्टि, बक और नाचते हुए मोर उस वन को सुशोभित करते थे। वन में झरनों के आसपास कोकिल की कूक सुनायी पड़ती थी॥९॥
नित्यमत्तविहंगानि भ्रमराचरितानि च।
कोकिलाकुलखण्डानि विहंगाभिरुतानि च॥१०॥
भृङ्गराजाधिगीतानि कुररस्वनितानि च।
कोणालकविघुष्टानि सारसाभिरुतानि च।
विविशुस्ते ततस्तानि वनान्युपवनानि च॥११॥
लङ्का के वन और उपवन नित्य मतवाले विहङ्गमों से विभूषित थे। वहाँ वृक्षों की डालियों पर भौरे मँडराते रहते थे। उनके प्रत्येक खण्ड में कोकिलाएँ कुहू कुहू बोला करती थीं। पक्षी चहचहाते रहते थे। भृङ्गराज के गीत मुखरित होते थे। कुरर के शब्द गूंजा करते थे। कोणालक के कलरव होते रहते थे तथा सारसों की स्वरलहरी सब ओर छायी रहती थी। कुछ वानरवीर उन वनों और उपवनों में घुस गये॥ १०-११॥
हृष्टाः प्रमुदिता वीरा हरयः कामरूपिणः।
तेषां प्रविशतां तत्र वानराणां महौजसाम्॥१२॥
पुष्पसंसर्गसुरभिर्ववौ घ्राणसुखोऽनिलः।
अन्ये तु हरिवीराणां यूथान्निष्क्रम्य यूथपाः।
सुग्रीवेणाभ्यनुज्ञाता लङ्कां जग्मुः पताकिनीम्॥१३॥
वे सभी वीर वानर इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, उत्साही और आनन्दमग्न थे। उन महातेजस्वी वानरों के वहाँ प्रवेश करते ही फूलों के संसर्ग से सुगन्धित तथा घ्राणेन्द्रिय को सुख देने वाली मन्द वायु चलने लगी। दूसरे बहुत-से यूथपति उन वानरवीरों के समूह से निकलकर सुग्रीव की आज्ञा ले ध्वजा-पताकाओं से अलंकृत लङ्कापुरी में गये॥ १२-१३॥
वित्रासयन्तो विहगान् ग्लापयन्तो मृगद्विपान्।
कम्पयन्तश्च तां लङ्कां नादैः स्वैर्नदतां वराः॥१४॥
गर्जने वाले लोगों में से श्रेष्ठ वे वानरवीर अपने सिंहनाद से पक्षियों को डराते, मृगों और हाथियों के हर्ष छीनते तथा लङ्का को कम्पित करते हुए आगे बढ़ रहे थे॥
कुर्वन्तस्ते महावेगा महीं चरणपीडिताम्।
रजश्च सहसैवोर्ध्वं जगाम चरणोत्थितम्॥१५॥
वे महान् वेगशाली वानर पृथ्वी को जब चरणों से दबाते थे, उस समय उनके पैरों से उठी हुई धूल सहसा ऊपर को उड़ जाती थी॥ १५ ॥
ऋक्षाः सिंहाश्च महिषा वारणाश्च मृगाः खगाः।
तेन शब्देन वित्रस्ता जग्मुर्रता दिशो दश॥१६॥
वानरों के उस सिंहनाद से त्रस्त एवं भयभीत हुए रीछ, सिंह, भैंसे, हाथी, मृग और पक्षी दसों दिशाओं की ओर भाग गये॥१६॥
शिखरं तु त्रिकूटस्य प्रांशु चैकं दिविस्पृशम्।
समन्तात् पुष्पसंछन्नं महारजतसंनिभम्॥१७॥
त्रिकूट पर्वत का एक शिखर बहुत ऊँचा था। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो स्वर्गलोक को छू रहा हो। उसपर सब ओर पीले रंग के फूल खिले हुए थे, जिनसे वह सोने का-सा जान पड़ता था॥ १७॥
शतयोजनविस्तीर्णं विमलं चारुदर्शनम्।
श्लक्ष्णं श्रीमन्महच्चैव दुष्प्रापं शकुनैरपि॥१८॥
उस शिखर का विस्तार सौ योजन था। वह देखने में बड़ा ही सुन्दर, स्वच्छ, स्निग्ध, कान्तिमान् और विशाल था। पक्षियों के लिये भी उसकी चोटी तक पहुँचना कठिन होता था॥ १८॥
मनसापि दुरारोहं किं पुनः कर्मणा जनैः।
निविष्टा तस्य शिखरे लङ्का रावणपालिता॥१९॥
लोग त्रिकूट के उस शिखर पर मन के द्वारा चढ़ने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। फिर क्रियाद्वारा उस पर आरूढ़ होने की तो बात ही क्या है? रावण द्वारा पालित लङ्का त्रिकूट के उसी शिखर पर बसी हुई थी॥ १९॥
दशयोजनविस्तीर्णा विंशद्योजनमायता।
सा पुरी गोपुरैरुच्चैः पाण्डुराम्बुदसंनिभैः।
काञ्चनेन च शालेन राजतेन च शोभते॥२०॥
वह पुरी दस योजन चौड़ी और बीस योजन लंबी थी। सफेद बादलों के समान ऊँचे-ऊँचे गोपुर तथा सोने और चाँदी के परकोटे उसकी शोभा बढ़ाते थे॥२०॥
प्रासादैश्च विमानैश्च लङ्का परमभूषिता।
घनैरिवातपापाये मध्यमं वैष्णवं पदम्॥२१॥
जैसे ग्रीष्म के अन्तकाल वर्षा ऋतु में घनीभूत बादल आकाश की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार प्रासादों और विमानों से लङ्कापुरी अत्यन्त सुशोभित हो रही थी॥
१. अमरकोश के अनुसार देवताओं के मन्दिरों तथा राजाओं के महलों को प्रासाद कहते हैं। प्राचीन वास्तुविद्या के अनुसार बहुत लंबा, चौड़ा, ऊँचा और कई भूमियों का पक्का या पत्थर का बना हुआ भव्य भवन जिसमें अनेक शृङ्ग, शृङ्खला और अण्डक आदि हों ‘प्रासाद’ कहा गया है। उसमें बहुत-से गवाक्षों से युक्त त्रिकोण, चतुष्कोण, आयत और वृत्तशालाएँ बनी होती हैं। आकृति के भेद से पुराणों में प्रासाद के पाँच भेद किये गये हैं-चतुरस्र, चतुरायत, वृत्त, वृत्तायत और अष्टास्र। इनका नाम क्रमशः वैराज, पुष्पक, कैलास, मालक और त्रिविष्टप है। भूमि, अण्डक और शिखर आदि की न्यूनता-अधिकता के कारण इन पाँचों के नौ-नौ भेद माने गये हैं। जैसे वैराज के मेरु, मन्दर, विमान, भद्रक, शतेन सर्वतोभद्र, रुचक, नन्दन, नन्दिवर्धन और श्रीवत्स; पुष्पक के वलभी, गृहराज, शालागृह, मन्दिर, विमान, ब्रह्ममन्दिर, भवन, उत्तम्भ और शिविकावेश्म; कैलास के वलय, दुन्दुभि, पद्म, महापद्म, भद्रक, सर्वतोभद्र, रुचक, नन्दन, गवाक्ष और गवावृत्त; मालक के गज, वृषभ, हंस, गरुड, सिंह, भूमुख, भूधर, श्रीजय और पृथ्वीधर तथा त्रिविष्टप के वज्र, चक्र, मुष्टिक या वभ्र, वक्र, स्वस्तिक, खड्ग, गदा, श्रीवृक्ष और विजय।
२. आकाशमार्ग से गमन करने वाला रथ जो देवता आदि के पास होता है ‘विमान’ कहलाता है। सात मंजिल के मकान को भी विमान कहते हैं। प्राचीन वास्तुविद्या के अनुसार उस देवमन्दिर को विमान की संज्ञा दी गयी है जो ऊपर की ओर पतला होता चला गया हो। मानसार नामक प्राचीन ग्रन्थ के अनुसार विमान गोल, चौपहला और अठपहला होता है। गोल को बेसर, चौपहले को नागर और अठपहले को द्रावि कहते हैं (हिंदी-शब्दसागर से)।
यस्यां स्तम्भसहस्रेण प्रासादः समलंकृतः।
कैलासशिखराकारो दृश्यते खमिवोल्लिखन्॥२२॥
उस पुरी में सहस्र खम्भों से अलंकृत एक चैत्यप्रासाद था, जो कैलास-शिखर के समान दिखायी देता था। वह आकाश को मापता हुआ-सा जान पड़ता था॥ २२॥
चैत्यः स राक्षसेन्द्रस्य बभूव पुरभूषणम्।
रक्षसां नित्यं यः समग्रेण रक्ष्यते॥२३॥
राक्षसराज रावण का वह चैत्यप्रासाद लङ्कापुरी का आभूषण था। कई सौ राक्षस रक्षा के सभी साधनों से सम्पन्न होकर प्रतिदिन उसकी रक्षा करते थे॥२३॥
मनोज्ञां काञ्चनवतीं पर्वतैरुपशोभिताम्।
नानाधातुविचित्रैश्च उद्यानैरुपशोभिताम्॥२४॥
इस प्रकार वह पुरी बड़ी ही मनोहर, सुवर्णमयी, अनेकानेक पर्वतों से अलंकृत, नाना प्रकार की विचित्र धातुओं से चित्रित और अनेक उद्यानों से सुशोभित थी॥
नानाविहगसंघुष्टां नानामृगनिषेविताम्।
नानाकुसुमसम्पन्नां नानाराक्षससेविताम्॥२५॥
भाँति-भाँति के विहङ्गम वहाँ अपनी मधुर बोली बोल रहे थे। नाना प्रकार के मृग आदि पशु उसका सेवन करते थे। अनेक प्रकार के फूलों की सम्पत्ति से वह सम्पन्न थी और विविध प्रकार के आकार वाले राक्षस वहाँ निवास करते थे॥ २५ ॥
तां समृद्धां समृद्धार्थां लक्ष्मीवाल्लक्ष्मणाग्रजः।
रावणस्य पुरीं रामो ददर्श सह वानरैः॥ २६॥
धन-धान्य से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण मनोवाञ्छित वस्तुओं से भरी-पूरी उस रावण-पुरी को लक्ष्मण के बड़े भाई लक्ष्मीवान् श्रीराम ने वानरों के साथ देखा॥ २६॥
तां महागृहसम्बाधां दृष्ट्वा लक्ष्मणपूर्वजः।
नगरीं त्रिदिवप्रख्यां विस्मयं प्राप वीर्यवान्॥२७॥
बड़े-बड़े महलों से सघन बसी हुई उस स्वर्गतुल्य नगरी को देखकर पराक्रमी श्रीराम बड़े विस्मित हुए।
तां रत्नपूर्णा बहुसंविधानां प्रासादमालाभिरलंकृतां च।
पुरीं महायन्त्रकवाटमुख्यां ददर्श रामो महता बलेन॥२८॥
इस प्रकार अपनी विशाल सेना के साथ श्रीरघुनाथजी ने अनेक प्रकार के रत्नों से पूर्ण, तरहतरह की रचनाओं से सुसज्जित, ऊँचे-ऊँचे महलों की पंक्ति से अलंकृत और बड़े-बड़े यन्त्रों से युक्त मजबूत किवाड़ोंवाली वह अद्भुत पुरी देखी॥ २८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे एकोनचत्वारिंशः सर्गः॥३९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में उन्तालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३९॥
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