वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 40 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 40
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
चत्वारिंशः सर्गः (40)
सुग्रीव और रावण का मल्लयुद्ध
ततो रामः सुवेलाग्रं योजनद्वयमण्डलम्।
उपारोहत् ससुग्रीवो हरियथैः समन्वितः॥१॥
तदनन्तर वानरयूथों से युक्त सुग्रीवसहित श्रीराम सुवेल पर्वत के सबसे ऊँचे शिखर पर चढ़े, जिसका विस्तार दो योजन का था॥१॥
स्थित्वा मुहूर्तं तत्रैव दिशो दश विलोकयन्।
त्रिकूटशिखरे रम्ये निर्मितां विश्वकर्मणा॥२॥
ददर्श लङ्कां सुन्यस्तां रम्यकाननशोभिताम्।
वहाँ दो घड़ी ठहरकर दसों दिशाओं की ओर दृष्टिपात करते हुए श्रीराम ने त्रिकूट पर्वत के रमणीय शिखर पर सुन्दर ढंग से बसी हुई विश्वकर्मा द्वारा निर्मित लङ्कापुरी को देखा, जो मनोहर काननों से सुशोभित थी॥
तस्य गोपुरशृङ्गस्थं राक्षसेन्द्रं दुरासदम्॥३॥
श्वेतचामरपर्यन्तं विजयच्छत्रशोभितम्।
रक्तचन्दनसंलिप्तं रत्नाभरणभूषितम्॥४॥
उस नगर के गोपुर की छत पर उन्हें दुर्जय राक्षसराज रावण बैठा दिखायी दिया, जिसके दोनों ओर श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, सिर पर विजय-छत्र शोभा दे रहा था। रावण का सारा शरीर रक्तचन्दन से चर्चित था। उसके अङ्ग लाल रंग के आभूषणों से विभूषित थे॥३-४॥
नीलजीमूतसंकाशं हेमसंछादिताम्बरम्।
ऐरावतविषाणाग्रैरुत्कृष्टकिणवक्षसम्॥५॥
वह काले मेघ के समान जान पड़ता था। उसके वस्त्रों पर सोने के काम किये गये थे। ऐरावत हाथी के दाँतों के अग्रभाग से आहत होने के कारण उसके वक्षःस्थल में आघातचिह्न बन गया था॥५॥
शशलोहितरागेण संवीतं रक्तवाससा।
संध्यातपेन संछन्नं मेघराशिमिवाम्बरे॥६॥
खरगोश के रक्त के समान लाल रंग से रँगे हुए वस्त्र से आच्छादित होकर वह आकाश में संध्याकाल की धूप से ढकी हुई मेघमाला के समान दिखायी देता था॥६॥
पश्यतां वानरेन्द्राणां राघवस्यापि पश्यतः।
दर्शनाद् राक्षसेन्द्रस्य सुग्रीवः सहसोत्थितः॥७॥
मुख्य-मुख्य वानरों तथा श्रीरघुनाथजी के सामने ही राक्षसराज रावण पर दृष्टि पड़ते ही सुग्रीव सहसा खड़े हो गये॥७॥
क्रोधवेगेन संयुक्तः सत्त्वेन च बलेन च।
अचलाग्रादथोत्थाय पुप्लुवे गोपुरस्थले॥८॥
वे क्रोध के वेग से युक्त और शारीरिक एवं मानसिक बल से प्रेरित हो सुवेल के शिखर से उठकर उस गोपुर की छत पर कूद पड़े॥८॥
स्थित्वा मुहूर्तं सम्प्रेक्ष्य निर्भयेनान्तरात्मना।
तृणीकृत्य च तद् रक्षः सोऽब्रवीत् परुषं वचः॥
वहाँ खड़े होकर वे कुछ देर तो रावण को देखते रहे। फिर निर्भय चित्त से उस राक्षस को तिनके के समान समझकर वे कठोर वाणी में बोले- ॥९॥
लोकनाथस्य रामस्य सखा दासोऽस्मि राक्षस।
न मया मोक्ष्यसेऽद्य त्वं पार्थिवेन्द्रस्य तेजसा॥१०॥
‘राक्षस! मैं लोकनाथ भगवान् श्रीराम का सखा और दास हूँ। महाराज श्रीराम के तेज से आज तू मेरे हाथ से छूट नहीं सकेगा’ ॥ १० ॥
इत्युक्त्वा सहसोत्पत्य पुप्लुवे तस्य चोपरि।
आकृष्य मुकुटं चित्रं पातयामास तद् भुवि॥११॥
ऐसा कहकर वे अकस्मात् उछलकर रावण के ऊपर जा कूदे और उसके विचित्र मुकुटों को खींचकर उन्होंने पृथ्वी पर गिरा दिया॥११॥
समीक्ष्य तूर्णमायान्तं बभाषे तं निशाचरः।
सुग्रीवस्त्वं परोक्षं मे हीनग्रीवो भविष्यसि॥१२॥
उन्हें इस प्रकार तीव्र गति से अपने ऊपर आक्रमण करते देख रावण ने कहा—’अरे! जबतक तू मेरे सामने नहीं आया था, तभी तक सुग्रीव (सुन्दर कण्ठ से युक्त) था। अब तो तू अपनी इस ग्रीवा से रहित हो जायगा’॥
इत्युक्त्वोत्थाय तं क्षिप्रं बाहुभ्यामाक्षिपत् तले।
कन्दुवत् स समुत्थाय बाहुभ्यामाक्षिपद्धरिः॥१३॥
ऐसा कहकर रावण ने अपनी दो भुजाओं द्वारा उन्हें शीघ्र ही उठाकर उस छत की फर्श पर दे मारा। फिर वानरराज सुग्रीव ने भी गेंद की तरह उछलकर रावण को दोनों भुजाओं से उठा लिया और उसी फर्शपर जोर से पटक दिया॥१३॥
परस्परं स्वेदविदिग्धगात्रौ परस्परं शोणितरक्तदेहौ।
परस्परं श्लिष्टनिरुद्धचेष्टौ परस्परं शाल्मलिकिंशुकाविव॥१४॥
फिर तो वे दोनों आपस में गुंथ गये। दोनों के ही शरीर पसीने से तर और खून से लथपथ हो गये तथा दोनों ही एक-दूसरे की पकड़ में आने के कारण निश्चेष्ट होकर खिले हुए सेमल और पलाश नामक वृक्षों के समान दिखायी देने लगे॥१४॥
मुष्टिप्रहारैश्च तलप्रहारैररनिघातैश्च कराग्रघातैः।
तौ चक्रतुयुद्धमसह्यरूपं महाबलौ राक्षसवानरेन्द्रौ॥१५॥
राक्षसराज रावण और वानरराज सुग्रीव दोनों ही बड़े बलवान् थे, अतः दोनों चूंसे, थप्पड़, कोहनी और पंजों की मार के साथ बड़ा असह्य युद्ध करने लगे॥ १५॥
कृत्वा नियुद्धं भृशमुग्रवेगौ कालं चिरं गोपुरवेदिमध्ये।
उत्क्षिप्य चोरिक्षप्य विनम्य देहौ पादक्रमाद् गोपुरवेदिलग्नौ ॥१६॥
गोपुर के चबूतरे पर बहुत देर तक भारी मल्लयुद्ध करके वे भयानक वेगवाले दोनों वीर बार-बार एक-दूसरे को उछालते और झुकाते हुए पैरों को विशेष दाँव-पेंच के साथ चलाते-चलाते उस चबूतरे से जा लगे॥१६॥
अन्योन्यमापीड्य विलग्नदेहौ तौ पेततुः सालनिखातमध्ये।
उत्पेततुर्भूमितलं स्पृशन्तौ स्थित्वा मुहूर्तं त्वभिनिःश्वसन्तौ॥१७॥
एक-दूसरे को दबाकर परस्पर सटे हुए शरीरवाले वे दोनों योद्धा किले के परकोटे और खाईं के बीच में गिर गये। वहाँ हाँफते हुए दो घड़ी तक पृथ्वी का आलिङ्गन किये पड़े रहे। तत्पश्चात् उछलकर खड़े हो गये॥ १७॥
आलिङ्ग्य चालिङ्ग्य च बाहुयोक्त्रैः संयोजयामासतुराहवे तौ।
संरम्भशिक्षाबलसम्प्रयुक्तौ सुचेरतुः सम्प्रति युद्धमार्गः ॥१८॥
फिर वे एक-दूसरे का बार-बार आलिङ्गन करके उसे बाहुपाश में जकड़ने लगे। दोनों ही क्रोध, शिक्षा (मल्लयुद्ध-विषयक अभ्यास) तथा शारीरिक बल से सम्पन्न थे; अतः उस युद्धस्थल में कुश्ती के अनेक दाँव-पेंच दिखाते हुए भ्रमण करने लगे॥ १८ ॥
शार्दूलसिंहाविव जातदंष्ट्रौ गजेन्द्रपोताविव सम्प्रयुक्तौ।
संहत्य संवेद्य च तौ कराभ्यां तौ पेततुर्वै युगपद् धरायाम्॥१९॥
जिनके नये-नये दाँत निकले हों, ऐसे बाघ और सिंह के बच्चों तथा परस्पर लड़ते हुए गजराज के छोटे छौनों के समान वे दोनों वीर अपने वक्षःस्थल से एकदूसरे को दबाते और हाथों से परस्पर बल आजमाते हुए एक साथ ही पृथ्वी पर गिर पड़े॥ १९॥
उद्यम्य चान्योन्यमधिक्षिपन्तौ संचक्रमाते बहु युद्धमार्गे।
व्यायामशिक्षाबलसम्प्रयुक्तौ क्लमं न तौ जग्मतुराशु वीरौ॥२०॥
दोनों ही कसरती जवान थे और युद्ध की शिक्षा तथा बल से सम्पन्न थे। अतः युद्ध जीतने के लिये उद्यमशील हो एक-दूसरे पर आक्षेप करते हुए युद्धमार्ग पर अनेक प्रकार से विचरण करते थे तथापि उन वीरों को जल्दी थकावट नहीं होती थी॥ २० ॥
बाहूत्तमैारणवारणाभैनिवारयन्तौ परवारणाभौ।
चिरेण कालेन भृशं प्रयुद्धौ संचेरतुर्मण्डलमार्गमाशु॥२१॥
मतवाले हाथियों के समान सुग्रीव और रावण गजराज के शुण्ड-दण्ड की भाँति मोटे एवं बलिष्ठ बाहुदण्डों द्वारा एक-दूसरे के दाँव को रोकते हुए बहुत देर तक बड़े आवेश के साथ युद्ध करते और शीघ्रतापूर्वक पैंतरे बदलते रहे ॥ २१॥
तौ परस्परमासाद्य यत्तावन्योन्यसूदने।
मार्जाराविव भक्षार्थेऽवतस्थाते मुहुर्मुहुः॥२२॥
वे परस्पर भिड़कर एक-दूसरे को मार डालने का प्रयत्न कर रहे थे। जैसे दो बिलाव किसी भक्ष्य वस्तु के लिये क्रोधपूर्वक स्थित हो परस्पर दृष्टिपात कर बारंबार गुर्राते रहते हैं, उसी तरह रावण और सुग्रीव भी लड़ रहे थे।
मण्डलानि विचित्राणि स्थानानि विविधानि च।
गोमूत्रकाणि चित्राणि गतप्रत्यागतानि च॥२३॥
विचित्र मण्डल’ और भाँति-भाँति के स्थान का प्रदर्शन करते हुए गोमूत्र की रेखा के समान कुटिल गति से चलते और विचित्र रीति से कभी आगे बढ़ते और कभी पीछे हटते थे॥ २३॥
१. भरत ने मल्लयुद्ध में चार प्रकार के मण्डल बताये हैं। इनके नाम हैं-चारिमण्डल, करणमण्डल, खण्डमण्डल और महामण्डल। इनके लक्षण इस प्रकार हैं-एक पैर से आगे बढ़कर चक्कर काटते हुए शत्रु पर आक्रमण करना चारिमण्डल कहलाता है। दो पैर से मण्डलाकार घूमते हुए आक्रमण करना करणमण्डल कहा गया है। अनेक करणमण्डलों का संयोग होने से खण्डमण्डल होता है और तीन या चार खण्डमण्डलों के संयोग से महामण्डल कहा गया है।
२. भरत मुनि ने मल्लयुद्ध में छः स्थानों का उल्लेख किया हैवैष्णव, समपाद, वैशाख, मण्डल, प्रत्यालीढ़ और अनालीढ़। पैरों को आगे-पीछे अगल-बगल में चलाते हुए विशेष प्रकार से उन्हें यथास्थान स्थापित करना ही स्थान कहलाता है। कोई-कोई बाघ, सिंह आदि जन्तुओं के समान खड़े होने की रीति को ही स्थान कहते
तिरश्चीनगतान्येव तथा वक्रगतानि च।
परिमोक्षं प्रहाराणां वर्जनं परिधावनम्॥२४॥
अभिद्रवणमाप्लावमवस्थानं सविग्रहम्।
परावृत्तमपावृत्तमपद्रुतमवप्लुतम्॥ २५॥
उपन्यस्तमपन्यस्तं युद्धमार्गविशारदौ।
तौ विचेरतुरन्योन्यं वानरेन्द्रश्च रावणः॥ २६॥
वे कभी तिरछी चाल से चलते, कभी टेढ़ी चाल से दायें-बायें घूम जाते, कभी अपने स्थान से हटकर शत्रु के प्रहार को व्यर्थ कर देते, कभी बदले में स्वयं भी दाँव-पेंच का प्रयोग करके शत्रु के आक्रमण से अपने को बचा लेते, कभी एक खड़ा रहता तो दूसरा उसके चारों ओर दौड़ लगाता, कभी दोनों एक दूसरे के सम्मुख शीघ्रतापूर्वक दौड़कर आक्रमण करते, कभी झुककर या मेढक की भाँति धीरे से उछलकर चलते, कभी लड़ते हुए एक ही जगह पर स्थिर रहते, कभी पीछे की ओर लौट पड़ते, कभी सामने खड़े-खड़े ही पीछे हटते, कभी विपक्षी को पकड़ने की इच्छा से अपने शरीर को सिकोड़कर या झुकाकर उसकी ओर दौड़ते, कभी प्रतिद्वन्द्वी पर पैर से प्रहार करने के लिये नीचे मुँह किये उस पर टूट पड़ते, कभी प्रतिपक्षी योद्धा की बाँह पकड़ने के लिये अपनी बाँह फैला देते और कभी विरोधी की पकड़ से बचने के लिये अपनी बाहों को पीछे खींच लेते। इस प्रकार मल्लयुद्ध की कला में परम प्रवीण वानरराज सुग्रीव तथा रावण एक दूसरे पर आघात करने के लिये मण्डलाकार विचर रहे थे॥ २४–२६॥
एतस्मिन्नन्तरे रक्षो मायाबलमथात्मनः।
आरब्धुमुपसम्पेदे ज्ञात्वा तं वानराधिपः॥ २७॥
उत्पपात तदाऽऽकाशं जितकाशी जितक्लमः।
रावणः स्थित एवात्र हरिराजेन वञ्चितः॥२८॥
इसी बीच में राक्षस रावण ने अपनी मायाशक्ति से काम लेने का विचार किया। वानरराज सुग्रीव इस बात को ताड़ गये; इसलिये सहसा आकाश में उछल पड़े। वे विजयोल्लास से सुशोभित होते थे और थकावट को जीत चुके थे। वानरराज रावण को चकमा देकर निकल गये और वह खड़ा-खड़ा देखता ही रह गय॥ २७-२८॥
अथ हरिवरनाथः प्राप्तसंग्रामकीर्तिनिशिचरपतिमाजौ योजयित्वा श्रमेण।
गगनमतिविशालं लयित्वार्कसूनु हरिगणबलमध्ये रामपार्वं जगाम॥२९॥
जिन्हें संग्राम में कीर्ति प्राप्त हुई थी, वे वानरराज सूर्यपुत्र सुग्रीव निशाचरपति रावण को युद्ध में थकाकर अत्यन्त विशाल आकाशमार्ग का लङ्घन करके वानरों की सेना के बीच श्रीरामचन्द्रजी के पास आ पहुँचे॥ २९॥
इति स सवितृसूनुस्तत्र तत् कर्म कृत्वा पवनगतिरनीकं प्राविशत् सम्प्रहृष्टः।
रघुवरनृपसूनोर्वर्धयन् युद्धहर्षं तरुमृगगणमुख्यैः पूज्यमानो हरीन्द्रः॥३०॥
इस प्रकार वहाँ अद्भुत कर्म करके वायु के समान शीघ्रगामी सूर्यपुत्र सुग्रीव ने दशरथराजकुमार श्रीराम के युद्धविषयक उत्साह को बढ़ाते हुए बड़े हर्ष के साथ वानरसेना में प्रवेश किया। उस समय प्रधान-प्रधान वानरों ने वानरराज का अभिनन्दन किया॥३०॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे चत्वारिंशः सर्गः॥४०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में चालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४०॥
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