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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 41 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 41

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
एकचत्वारिंशः सर्गः (41)

श्रीराम का सुग्रीव को दुःसाहस से रोकना, लङ्का के चारों द्वारों पर वानरसैनिकों की नियक्ति, रामदत अङद का रावण के महल में पराक्रम तथा वानरों के आक्रमण से राक्षसों को भय

 

अथ तस्मिन् निमित्तानि दृष्ट्वा लक्ष्मणपूर्वजः।
सुग्रीवं सम्परिष्वज्य रामो वचनमब्रवीत्॥१॥

सुग्रीव के शरीर में युद्ध के चिह्न देखकर लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगा लिया और इस प्रकार कहा— ॥१॥

असम्मन्त्र्य मया सार्धं तदिदं साहसं कृतम्।
एवं साहसयुक्तानि न कुर्वन्ति जनेश्वराः॥२॥

‘सुग्रीव! तुमने मुझसे सलाह लिये बिना ही यह बड़े साहस का काम कर डाला। राजालोग ऐसे दुःसाहसपूर्ण कार्य नहीं किया करते हैं॥२॥

संशये स्थाप्य मां चेदं बलं चेमं विभीषणम्।
कष्टं कृतमिदं वीर साहसं साहसप्रिय॥३॥

‘साहसप्रिय वीर! तुमने मुझको, इस वानरसेना को और विभीषण को भी संशय में डालकर जो यह साहसपूर्ण कार्य किया है, इससे हमें बड़ा कष्ट हुआ॥ ३॥

इदानीं मा कृथा वीर एवंविधमरिंदम।
त्वयि किंचित्समापन्ने किं कार्यं सीतया मम॥४॥
भरतेन महाबाहो लक्ष्मणेन यवीयसा।
शत्रुघ्नेन च शत्रुघ्न स्वशरीरेण वा पुनः॥५॥

‘शत्रुओं का दमन करने वाले वीर! अब फिर तुम ऐसा दुःसाहस न करना। शत्रुसूदन महाबाहो! यदि तुम्हें कुछ हो गया तो मैं, सीता, भरत, लक्ष्मण, छोटे भाई शत्रुघ्न तथा अपने इस शरीर को भी लेकर क्या करूँगा?॥

त्वयि चानागते पूर्वमिति मे निश्चिता मतिः।
जानतश्चापि ते वीर्यं महेन्द्रवरुणोपम॥६॥
हत्वाहं रावणं युद्धे सपुत्रबलवाहनम्।
अभिषिच्य च लङ्कायां विभीषणमथापि च॥७॥
भरते राज्यमारोप्य त्यक्ष्ये देहं महाबल।

‘महेन्द्र और वरुण के समान महाबली! यद्यपि मैं तुम्हारे बल-पराक्रम को जानता था, तथापि जबतक तुम यहाँ लौटकर नहीं आये थे, उससे पहले मैंने यह निश्चित विचार कर लिया था कि युद्ध में पुत्र, सेना और वाहनों-सहित रावण का वध करके लङ्का के राज्य पर विभीषण का अभिषेक कर दूंगा और अयोध्या का राज्य भरत को देकर अपने इस शरीर को त्याग दूंगा’ ॥ ६-७ १/२॥

तमेवं वादिनं रामं सुग्रीवः प्रत्यभाषत॥८॥
तव भार्यापहर्तारं दृष्ट्वा राघव रावणम्।
मर्षयामि कथं वीर जानन् विक्रममात्मनः॥९॥

ऐसी बातें कहते हुए श्रीराम को सुग्रीव ने यों उत्तर दिया—’वीर रघुनन्दन! अपने पराक्रम का ज्ञान रखते हुए मैं आपकी भार्या का अपहरण करने वाले रावण को देखकर कैसे क्षमा कर सकता था?’॥ ८-९॥

इत्येवं वादिनं वीरमभिनन्द्य च राघवः।
लक्ष्मणं लक्ष्मिसम्पन्नमिदं वचनमब्रवीत्॥१०

वीर सुग्रीव ने जब ऐसी बात कही, तब उनका अभिनन्दन करके श्रीरामचन्द्रजी ने शोभासम्पन्न लक्ष्मण से कहा- ॥ १०॥

परिगृह्योदकं शीतं वनानि फलवन्ति च।
बलौघं संविभज्येमं व्यूह्य तिष्ठाम लक्ष्मण॥११॥

‘लक्ष्मण! शीतल जल से भरे हुए जलाशय और फलों से सम्पन्न वन का आश्रय ले हमलोग इस विशाल वानरसेना का विभाग करके व्यूहरचना कर लें और युद्ध के लिये उद्यत हो जायँ॥ ११॥

लोकक्षयकरं भीमं भयं पश्याम्युपस्थितम्।
निबर्हणं प्रवीराणामृक्षवानररक्षसाम्॥१२॥

‘इस समय मैं लोकसंहार की सूचना देने वाला भयानक अपशकुन उपस्थित देखता हूँ, जिससे सिद्ध होता है रीछों, वानरों और राक्षसों के मुख्य-मुख्य वीरों का संहार होगा॥ १२॥

वाता हि परुषं वान्ति कम्पते च वसुंधरा।
पर्वताग्राणि वेपन्ते नदन्ति धरणीधराः॥१३॥

‘प्रचण्ड आँधी चल रही है, पृथ्वी काँपने लगी है, पर्वतों के शिखर हिलने लगे हैं और दिग्गज चीत्कार करते हैं ॥ १३॥

मेघाः क्रव्यादसंकाशाः परुषाः परुषस्वराः।
क्रूराः क्रूरं प्रवर्षन्ते मिश्रं शोणितबिन्दुभिः॥१४॥

‘मेघ हिंसक जीवों के समान क्रूर हो गये हैं। वे कठोर स्वर में विकट गर्जना करते हैं तथा रक्तविन्दुओं से मिले हुए जल की क्रूरतापूर्ण वर्षा कर रहे हैं॥१४॥

रक्तचन्दनसंकाशा संध्या परमदारुणा।
ज्वलच्च निपतत्येतदादित्यादग्निमण्डलम्॥१५॥

‘अत्यन्त दारुण संध्या रक्त-चन्दन के समान लाल दिखायी देती है। सूर्य से यह जलती आग का पुञ्ज गिर रहा है॥ १५॥

आदित्यमभिवाश्यन्ति जनयन्तो महद्भयम्।
दीना दीनस्वरा घोरा अप्रशस्ता मृगद्विजाः॥१६॥

‘निषिद्ध पशु और पक्षी दीन हो दीनतासूचक स्वर में सूर्य की ओर देखते हुए चीत्कार करते हैं, इससे वे बड़े भयंकर लगते और महान् भय उत्पन्न करते हैं।

रजन्यामप्रकाशश्च संतापयति चन्द्रमाः।
कृष्णरक्तांशुपर्यन्तो यथा लोकस्य संक्षये॥१७॥

‘रात में चन्द्रमा का प्रकाश क्षीण हो जाता है। वे शीतलता की जगह संताप देते हैं। उनके किनारे का भाग काला और लाल दिखायी देता है। समस्त लोकों के संहारकाल में चन्द्रमा का जैसा रूप रहता है, वैसा ही इस समय भी देखा जाता है॥ १७॥

ह्रस्वो रूक्षोऽप्रशस्तश्च परिवेषः सुलोहितः।
आदित्यमण्डले नीलं लक्ष्म लक्ष्मण दृश्यते॥१८॥

‘लक्ष्मण! सूर्यमण्डल में छोटा, रूखा, अमङ्गलकारी और अत्यन्त लाल घेरा दिखायी देता है। साथ ही वहाँ काला चिह्न भी दृष्टिगोचर होता है। १८॥

दृश्यन्ते न यथावच्च नक्षत्राण्यभिवर्तते।
युगान्तमिव लोकस्य पश्य लक्ष्मण शंसति॥१९॥

‘लक्ष्मण! ये नक्षत्र अच्छी तरह प्रकाशित नहीं हो रहे हैं—मलिन दिखायी देते हैं। यह अशुभ लक्षण संसार का प्रलय-सा सूचित करता हुआ मेरे सामने प्रकट हो रहा है॥ १९॥

काकाः श्येनास्तथा गृध्रा नीचैः परिपतन्ति च।
शिवाश्चाप्यशुभा वाचः प्रवदन्ति महास्वनाः॥२०॥

‘कौए, बाज और गीध नीचे गिरते हैं—भूतल पर आ-आ बैठते हैं और गीदड़ियाँ बड़े जोर-जोर से अमङ्गलसूचक बोली बोलती हैं॥ २०॥

शैलैः शूलैश्च खड्गैश्च विमुक्तैः कपिराक्षसैः।
भविष्यत्यावृता भूमिमा॑सशोणितकर्दमा॥ २१॥

‘इससे सूचित होता है कि वानरों और राक्षसों द्वारा चलाये गये शिलाखण्डों, शूलों और खड्गों से यह धरती पट जायगी और यहाँ रक्त-मांस की कीच जम जायगी॥

क्षिप्रमद्य दुराधर्षां पुरीं रावणपालिताम्।
अभियाम जवेनैव सर्वतो हरिभिर्वृताः॥२२॥

‘रावण के द्वारा पालित यह लङ्कापुरी शत्रुओं के लिये दुर्जय है, तथापि अब हम शीघ्र ही वानरों के साथ इसपर सब ओर से वेगपूर्वक आक्रमण करें’। २२॥

इत्येवं तु वदन् वीरो लक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजः।
तस्मादवातरच्छीघ्रं पर्वताग्रान्महाबलः॥२३॥

लक्ष्मण से ऐसा कहते हुए वीर महाबली श्रीरामचन्द्रजी उस पर्वत-शिखर से तत्काल नीचे उतर आये॥२३॥

अवतीर्य तु धर्मात्मा तस्माच्छैलात् स राघवः।
परैः परमदुर्धर्षं ददर्श बलमात्मनः॥ २४॥

उस पर्वत से उतरकर धर्मात्मा श्रीरघुनाथजी ने अपनी सेना का निरीक्षण किया, जो शत्रुओं के लिये अत्यन्त दुर्जय थी॥२४॥

संना तु ससुग्रीवः कपिराजबलं महत्।
कालज्ञो राघवः काले संयुगायाभ्यचोदयत्॥२५॥

फिर सुग्रीव की सहायता से कपिराज की उस विशाल सेना को सुसज्जित करके समय का ज्ञान रखने वाले श्रीराम ने ज्योतिषशास्त्रोक्त शुभ समय में उसे युद्ध के लिये कूच करने की आज्ञा दी॥ २५ ॥

ततः काले महाबाहुर्बलेन महता वृतः।
प्रस्थितः पुरतो धन्वी लङ्कामभिमुखः पुरीम्॥२६॥

तदनन्तर महाबाहु धनुर्धर श्रीरघुनाथजी उस विशाल सेना के साथ शुभ मुहूर्त में आगे-आगे लङ्कापुरी की ओर प्रस्थित हुए॥२६॥

तं विभीषणसुग्रीवौ हनूमाञ्जाम्बवान् नलः।
ऋक्षराजस्तथा नीलो लक्ष्मणश्चान्वयुस्तदा।२७॥

उस समय विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, ऋक्षराज जाम्बवान्, नल, नील तथा लक्ष्मण उनके पीछे-पीछे चले॥

ततः पश्चात् सुमहती पृतनक्षवनौकसाम्।
प्रच्छाद्य महती भूमिमनुयाति स्म राघवम्॥२८॥

तत्पश्चात् रीछों और वानरों की वह विशाल सेना बहुत बड़ी भूमि को आच्छादित करके श्रीरघुनाथजी के पीछे-पीछे चली॥ २८॥

शैलशृङ्गाणि शतशः प्रवृद्धांश्च महीरुहान्।
जगृहुः कुञ्जरप्रख्या वानराः परवारणाः॥२९॥

शत्रुओं को आगे बढ़ने से रोकने वाले हाथी के समान विशालकाय वानरों ने सैकड़ों शैलशिखरों और बड़े बड़े वृक्षों को हाथ में ले रखा था॥ २९॥

तौ त्वदीर्पण कालेन भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
रावणस्य पुरीं लङ्कामासेदतुररिंदमौ॥३०॥

शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण थोड़ी ही देर में लङ्कापुरी के पास पहुँच गये॥

पताकामालिनी रम्यामुद्यानवनशोभिताम्।
चित्रवप्रां सुदुष्प्रापामुच्चैः प्राकारतोरणाम्॥३१॥

वह रमणीय ध्वजा-पताकाओं से अलंकृत थी। अनेकानेक उद्यान और वन उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उसके चारों ओर बड़ा ही अद्भुत और ऊँचा परकोटा था। उस परकोटे से मिला हुआ ही नगर का सदर फाटक था। उन परकोटों के कारण लङ्कापुरी में पहँचना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन था॥३१॥

तां सुरैरपि दुर्धर्षां रामवाक्यप्रचोदिताः।
यथानिदेशं सम्पीड्य न्यविशन्त वनौकसः॥३२॥

यद्यपि देवताओं के लिये भी लङ्का पर आक्रमण करना कठिन काम था तो भी श्रीराम की आज्ञा से प्रेरित हो वानर यथास्थान रहकर उस पुरी पर घेरा डालकर उसके भीतर प्रवेश करने लगे॥३२॥

लङ्कायास्तूत्तरद्वारं शैलशृङ्गमिवोन्नतम्।
रामः सहानुजो धन्वी जुगोप च रुरोध च॥३३॥

लङ्का का उत्तर द्वार पर्वतशिखर के समान ऊँचा था। श्रीराम और लक्ष्मण ने धनुष हाथ में लेकर उसका मार्ग रोक लिया और वहीं रहकर वे अपनी सेना की रक्षा करने लगे॥३३॥

लङ्कामुपनिविष्टस्तु रामो दशरथात्मजः।
लक्ष्मणानुचरो वीरः पुरीं रावणपालिताम्॥३४॥
उत्तरद्वारमासाद्य यत्र तिष्ठति रावणः।
नान्यो रामाद्धि तद् द्वारं समर्थः परिरक्षितुम्॥३५॥

दशरथनन्दन वीर श्रीराम लक्ष्मण को साथ ले रावणपालित लङ्कापुरी के पास जा उत्तर द्वार पर पहुँचकर जहाँ स्वयं रावण खड़ा था, वहीं डट गये। श्रीराम के सिवा दूसरा कोई उस द्वार पर अपने सैनिकों की रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकता था। ३४-३५॥

रावणाधिष्ठितं भीमं वरुणेनेव सागरम्।
सायुधै राक्षसैर्भीमैरभिगुप्तं समन्ततः॥३६॥

अस्त्र-शस्त्रधारी भयंकर राक्षसों द्वारा सब ओर से सुरक्षित उस भयानक द्वार पर रावण उसी तरह खड़ा था, जैसे वरुण देवता समुद्र में अधिष्ठित होते हैं। ३६॥

लघूनां त्रासजननं पातालमिव दानवैः।
विन्यस्तानि च योधानां बहूनि विविधानि च॥३७॥
ददर्शायुधजालानि तथैव कवचानि च।

वह उत्तर द्वार अल्प बलशाली पुरुषों के मन में उसी प्रकार भय उत्पन्न करता था, जैसे दानवों द्वारा सुरक्षित पाताल भयदायक जान पड़ता है। उस द्वारके भीतर योद्धाओं के बहुत-से भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र और कवच रखे गये थे, जिन्हें भगवान् श्रीराम ने देखा॥

पूर्वं तु द्वारमासाद्य नीलो हरिचमपतिः॥३८॥
अतिष्ठत् सह मैन्देन द्विविदेन च वीर्यवान्।

वानरसेनापति पराक्रमी नील मैन्द और द्विविद के साथ लङ्का के पूर्वद्वार पर जाकर डट गये॥३८ १/२॥

अङ्गदो दक्षिणद्वारं जग्राह सुमहाबलः॥३९॥
ऋषभेण गवाक्षेण गजेन गवयेन च।

महाबली अङ्गद ने ऋषभ, गवाक्ष, गज और गवय के साथ दक्षिण द्वार पर अधिकार जमा लिया। ३९ १/२॥

हनूमान् पश्चिमद्वारं ररक्ष बलवान् कपिः॥४०॥
प्रमाथिप्रघसाभ्यां च वीरैरन्यैश्च संगतः।

प्रमाथी, प्रघस तथा अन्य वानरवीरों के साथ बलवान् कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने पश्चिम द्वार का मार्ग रोक लिया॥ ४० १/२॥

मध्यमे च स्वयं गुल्मे सुग्रीवः समतिष्ठत॥४१॥
सह सर्वैर्हरिश्रेष्ठैः सुपर्णपवनोपमैः।

उत्तर और पश्चिम के मध्यभाग में (वायव्यकोण में) जो राक्षससेना की छावनी थी, उसपर गरुड़ और वायु के समान वेगशाली श्रेष्ठ वानरवीरों के साथ सुग्रीव ने आक्रमण किया॥ ४१ १/२॥

वानराणां तु षट्त्रिंशत्कोट्यः प्रख्यातयूथपाः॥४२॥
निपीड्योपनिविष्टाश्च सुग्रीवो यत्र वानरः।

जहाँ वानरराज सुग्रीव थे, वहाँ वानरों के छत्तीस करोड़ विख्यात यूथपति राक्षसों को पीड़ा देते हुए उपस्थित रहते थे॥ ४२ १/२॥

शासनेन तु रामस्य लक्ष्मणः सविभीषणः॥४३॥
द्वारे द्वारे हरीणां तु कोटि कोटीर्यवेशयत्।

श्रीराम की आज्ञा से विभीषणसहित लक्ष्मण ने लङ्का के प्रत्येक द्वार पर एक-एक करोड़ वानरों को नियुक्त कर दिया॥ ४३ १/२॥

पश्चिमेन तु रामस्य सुषेणः सहजाम्बवान्॥४४॥
अदूरान्मध्यमे गुल्मे तस्थौ बहुबलानुगः।

सुषेण और जाम्बवान् बहुत-सी सेना के साथ श्रीरामचन्द्रजी के पीछे थोड़ी ही दूर पर रहकर बीच के मोर्चे की रक्षा करते रहे॥ ४४ १/२ ।।

ते तु वानरशार्दूलाः शार्दूला इव दंष्ट्रिणः।
गृहीत्वा द्रुमशैलाग्रान् हृष्टा युद्धाय तस्थिरे॥४५॥

वे वानरसिंह बाघों के समान बड़े-बड़े दाढ़ों से युक्त थे। वे हर्ष और उत्साह में भरकर हाथों में वृक्ष और पर्वत-शिखर लिये युद्धके लिये डट गये॥ ४५ ॥

सर्वे विकृतलाङ्गलाः सर्वे दंष्ट्रानखायुधाः।
सर्वे विकृतचित्राङ्गाः सर्वे च विकृताननाः॥४६॥

सभी वानरों की पूँछे क्रोध के कारण अस्वाभाविक रूप से हिल रही थीं। दाढ़ें और नख ही उन सबके आयुध थे। उन सबके मुख आदि अङ्गों पर क्रोधरूप विकार के विचित्र चिह्न परिलक्षित होते थे तथा सबके मुख विकट एवं विकराल दिखायी देते थे। ४६॥

दशनागबलाः केचित् केचिद् दशगुणोत्तराः।
केचिन्नागसहस्रस्य बभूवुस्तुल्यविक्रमाः॥४७॥

इनमें से किन्हीं वानरों में दस हाथियों का बल था, कोई उनसे भी दस गुने अधिक बलवान् थे तथा किन्हीं में एक हजार हाथियों के समान बल था॥ ४७॥

सन्ति चौघबलाः केचित् केचिच्छतगुणोत्तराः।
अप्रमेयबलाश्चान्ये तत्रासन् हरियूथपाः॥४८॥

किन्हीं में दस हजार हाथियों की शक्ति थी, कोई इनसे भी सौ गुने बलवान् थे तथा अन्य बहुतेरे वानरयूथपतियों में तो बल का परिमाण ही नहीं था। वे असीम बलशाली थे॥४८॥

अद्भुतश्च विचित्रश्च तेषामासीत् समागमः।
तत्र वानरसैन्यानां शलभानामिवोद्गमः॥४९॥

वहाँ उन वानरसेनाओं का टिड्डीदल के उद्गमके समान अद्भुत एवं विचित्र समागम हुआ था॥४९॥

परिपूर्णमिवाकाशं सम्पूर्णेव च मेदिनी।
लङ्कामुपनिविष्टैश्च सम्पतद्भिश्च वानरैः॥५०॥

लङ्का में उछल-उछलकर आते हुए वानरों से आकाश भर गया था और पुरी में प्रवेश करके खड़े हुए कपिसमूहों से वहाँ की सारी पृथ्वी आच्छादित हो गयी थी॥५०॥

शतं शतसहस्राणां पृतनक्षवनौकसाम्।
लङ्काद्वाराण्युपाजग्मुरन्ये योद्धं समन्ततः॥५१॥

रीछों और वानरों की एक करोड़ सेना तो लङ्का के चारों द्वारों पर आकर डटी थी और अन्य सैनिक सब ओर युद्ध के लिये चले गये थे॥५१॥

आवृतः स गिरिः सर्वैस्तैः समन्तात् प्लवङ्गमैः।
अयुतानां सहस्रं च पुरी तामभ्यवर्तत॥५२॥

समस्त वानरों ने चारों ओर से उस त्रिकूट पर्वत को (जिस पर लङ्का बसी थी) घेर लिया था। सहस्र अयुत (एक करोड़) वानर तो उस पुरी में सभी द्वारों पर लड़ती हुई सेना का समाचार लेने के लिये नगर में सब ओर घूमते रहते थे॥५२॥

वानरैर्बलवद्भिश्च बभूव द्रुमपाणिभिः।
सर्वतः संवृता लङ्का दुष्प्रवेशापि वायुना ॥५३॥

हाथों में वृक्ष लिये बलवान् वानरों द्वारा सब ओर से घिरी हुई लङ्का में वायु के लिये भी प्रवेश पाना कठिन हो गया था॥ ५३॥

राक्षसा विस्मयं जग्मुः सहसाभिनिपीडिताः।
वानरैर्मेघसंकाशैः शक्रतुल्यपराक्रमैः॥५४॥

मेघ के समान काले एवं भयंकर तथा इन्द्रतुल्य पराक्रमी वानरों द्वारा सहसा पीड़ित होने के कारण राक्षसों को बड़ा विस्मय हुआ॥ ५४॥

महाञ्छब्दोऽभवत् तत्र बलौघस्याभिवर्ततः।
सागरस्येव भिन्नस्य यथा स्यात् सलिलस्वनः॥५५॥

जैसे सेतु को विदीर्ण कर अथवा मर्यादा को तोड़कर बहने वाले समुद्र के जल का महान् शब्द होता है, उसी प्रकार वहाँ आक्रमण करती हुई विशाल वानरसेना का महान् कोलाहल हो रहा था॥ ५५ ॥

तेन शब्देन महता सप्राकारा सतोरणा।
लङ्का प्रचलिता सर्वा सशैलवनकानना॥५६॥

उस महान् कोलाहल से परकोटों, फाटकों, पर्वतों, वनों तथा काननोंसहित समूची लङ्कापुरी में हलचल मच गयी॥५६॥

रामलक्ष्मणगुप्ता सा सुग्रीवेण च वाहिनी।
बभूव दुर्धर्षतरा सर्वैरपि सुरासुरैः॥५७॥

श्रीराम, लक्ष्मण और सुग्रीव से सुरक्षित वह विशाल वानरवाहिनी समस्त देवताओं और असुरों के लिये भी अत्यन्त दुर्जय हो गयी थी॥ ५७॥

राघवः संनिवेश्यैवं स्वसैन्यं रक्षसां वधे।
सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिः सार्धं निश्चित्य च पुनः पुनः॥५८॥
आनन्तर्यमभिप्रेप्सुः क्रमयोगार्थतत्त्ववित् ।
विभीषणस्यानुमते राजधर्ममनुस्मरन्॥५९॥
अङ्गदं वालितनयं समाहूयेदमब्रवीत्।

इस प्रकार राक्षसों के वध के लिये अपनी सेना को यथास्थान खड़ी करके उसके बाद के कर्तव्य को जानने की इच्छा से श्रीरघुनाथजी ने मन्त्रियों के साथ बारंबार सलाह की और एक निश्चय पर पहुँचकर साम, दान आदि उपायों के क्रमशः प्रयोग से सुलभ होने वाले अर्थतत्त्व के ज्ञाता श्रीराम विभीषण की अनुमति ले राजधर्म का विचार करते हुए वालिपुत्र अङ्गद को बुलाकर उनसे इस प्रकार बोले

गत्वा सौम्य दशग्रीवं ब्रूहि मद्रचनात् कपे॥६०॥
लवयित्वा पुरीं लङ्कां भयं त्यक्त्वा गतव्यथः।
भ्रष्टश्रीकं गतैश्वर्यं मुमूर्षानष्टचेतनम्॥६१॥

‘सौम्य! कपिप्रवर! दशमुख रावण राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट हो गया, अब उसका ऐश्वर्य समाप्त हो चला, वह मरना ही चाहता है, इसलिये उसकी चेतना (विचार-शक्ति) नष्ट हो गयी है। तुम परकोटा लाँघकर लङ्कापुरी में भय छोड़कर जाओ और व्यथारहित हो उससे मेरी ओर से ये बातें कहो— ॥ ६०-६१॥

ऋषीणां देवतानां च गन्धर्वाप्सरसां तथा।
नागानामथ यक्षाणां राज्ञां च रजनीचर॥६२॥
यच्च पापं कृतं मोहादवलिप्तेन राक्षस।
नूनं ते विगतो दर्पः स्वयंभूवरदानजः।
तस्य पापस्य सम्प्राप्ता व्युष्टिरद्य दुरासदा॥६३॥

“निशाचर! राक्षसराज! तुमने मोहवश घमंड में आकर ऋषि, देवता, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष और राजाओं का बड़ा अपराध किया है। ब्रह्माजी का वरदान पाकर तुम्हें जो अभिमान हो गया था, निश्चय ही उसके नष्ट होने का अब समय आ गया है। तुम्हारे उस पाप का दुःसह फल आज उपस्थित है। ६२-६३॥

यस्य दण्डधरस्तेऽहं दाराहरणकर्शितः।
दण्डं धारयमाणस्तु लङ्काद्वारे व्यवस्थितः॥६४॥

“मैं अपराधियों को दण्ड देने वाला शासक हूँ। तुमने जो मेरी भार्या का अपहरण किया है, इससे मुझे बड़ा कष्ट पहुँचा है; अतः तुम्हें उसका दण्ड देने के लिये मैं लङ्का के द्वार पर आकर खड़ा हूँ॥ ६४ ॥

पदवी देवतानां च महर्षीणां च राक्षस।
राजर्षीणां च सर्वेषां गमिष्यसि युधि स्थिरः॥६५॥

“राक्षस! यदि तुम युद्ध में स्थिरतापूर्वक खड़े रहे तो उन समस्त देवताओं, महर्षियों और राजर्षियों की पदवी को पहुँच जाओगे—उन्हीं की भाँति तुम्हें परलोकवासी होना पड़ेगा॥६५॥

बलेन येन वै सीतां मायया राक्षसाधम।
मामतिक्रमयित्वा त्वं हृतवांस्तन्निदर्शय॥६६॥

“नीच निशाचर! जिस बल के भरोसे तुमने मुझे धोखा देकर माया से सीता का हरण किया है, उसे आज युद्ध के मैदान में दिखाओ॥६६॥

अराक्षसमिमं लोकं कर्तास्मि निशितैः शरैः।
न चेच्छरणमभ्येषि तामादाय तु मैथिलीम्॥६७॥

“यदि तुम मिथिलेशकुमारी को लेकर मेरी शरण में नहीं आये तो मैं अपने तीखे बाणों द्वारा इस संसार को राक्षसों से सूना कर दूंगा॥६७॥

धर्मात्मा राक्षसश्रेष्ठः सम्प्राप्तोऽयं विभीषणः।
लडैश्वर्यमिदं श्रीमान् ध्रुवं प्राप्नोत्यकण्टकम्॥६८॥

“राक्षसों में श्रेष्ठ ये श्रीमान् धर्मात्मा विभीषण भी मेरे साथ यहाँ आये हैं, निश्चय ही लङ्का का निष्कण्टक राज्य इन्हें ही प्राप्त होगा॥ ६८॥

नहि राज्यमधर्मेण भोक्तुं क्षणमपि त्वया।
शक्यं मूर्खसहायेन पापेनाविदितात्मना॥६९॥

“तुम पापी हो। तुम्हें अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है और तुम्हारे संगी-साथी भी मूर्ख हैं; अतः इस प्रकार अधर्मपूर्वक अब तुम एक क्षण भी इस राज्य को नहीं भोग सकोगे॥६९॥

युध्यस्व मा धृतिं कृत्वा शौर्यमालम्ब्य राक्षस।
मच्छरैस्त्वं रणे शान्तस्ततः पूतो भविष्यसि॥७०॥

“राक्षस! शूरता का आश्रय ले धैर्य धारण करके मेरे साथ युद्ध करो। रणभूमि में मेरे बाणों से शान्त (प्राणशून्य) होकर तुम पूत (शुद्ध एवं निष्पाप) हो जाओगे॥ ७० ॥

यद्याविशसि लोकांस्त्रीन् पक्षीभूतो निशाचर।
मम चक्षुःपथं प्राप्य न जीवन् प्रतियास्यसि॥७१॥

“निशाचर ! मेरे दृष्टिपथ में आने के पश्चात् यदि तुम पक्षी होकर तीनों लोकों में उड़ते और छिपते फिरो तो भी अपने घर को जीवित नहीं लौट सकोगे॥ ७१॥

ब्रवीमि त्वां हितं वाक्यं क्रियतामौर्ध्वदेहिकम्।
सुदृष्टा क्रियतां लङ्का जीवितं ते मयि स्थितम्॥७२॥

“अब मैं तुम्हें हित की बात बताता हूँ। तुम अपना श्राद्ध कर डालो—परलोक में सुख देने वाले दान-पुण्य कर लो और लङ्का को जी भरकर देख लो; क्योंकि तुम्हारा जीवन मेरे अधीन हो चुका है”॥७२॥

इत्युक्तः स तु तारेयो रामेणाक्लिष्टकर्मणा।
जगामाकाशमाविश्य मूर्तिमानिव हव्यवाट् ॥७३॥

अनायास ही महान् कर्म करने वाले भगवान् श्रीराम के ऐसा कहने पर ताराकुमार अङ्गद मूर्तिमान् अग्नि की भाँति आकाशमार्ग से चल दिये॥७३॥

सोऽतिपत्य मुहूर्तेन श्रीमान् रावणमन्दिरम्।
ददर्शासीनमव्यग्रं रावणं सचिवैः सह॥७४॥

श्रीमान् अङ्गद एक ही मुहूर्त में परकोटा लाँघकर रावण के राजभवन में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने मन्त्रियों के साथ शान्तभाव से बैठे हुए रावण को देखा। ७४॥

ततस्तस्याविदूरेण निपत्य हरिपुंगवः।
दीप्ताग्निसदृशस्तस्थावङ्गदः कनकाङ्गदः॥७५॥

वानरश्रेष्ठ अङ्गद सोने के बाजूबंद पहने हुए थे और प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे, वे रावण के निकट पहुँचकर खड़े हो गये॥ ७५ ॥

तद् रामवचनं सर्वमन्यूनाधिकमुत्तमम्।
सामात्यं श्रावयामास निवेद्यात्मानमात्मना॥७६॥

उन्होंने पहले अपना परिचय दिया और मन्त्रियोंसहित रावण को श्रीरामचन्द्रजी की कही हुई सारी उत्तम बातें ज्यों-की-त्यों सुना दीं। न तो एक भी शब्द कम किया और न बढ़ाया। ७६ ॥

दूतोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः।
वालिपुत्रोऽङ्गदो नाम यदि ते श्रोत्रमागतः॥७७॥

वे बोले—’मैं अनायास ही बड़े-बड़े उत्तम कर्म करने वाले कोसलनरेश महाराज श्रीराम का दूत और वाली का पुत्र अङ्गद हूँ। सम्भव है कभी मेरा नाम भी तुम्हारे कानों में पड़ा हो॥७७॥

आह त्वां राघवो रामः कौसल्यानन्दवर्धनः।
निष्पत्य प्रतियुध्यस्व नृशंस पुरुषो भव॥७८॥

‘माता कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले रघुकुलतिलक श्रीराम ने तुम्हारे लिये यह संदेश दिया है’नृशंस रावण! जरा मर्द बनो और घर से बाहर निकलकर युद्ध में मेरा सामना करो॥ ७८ ॥

हन्तास्मि त्वां सहामात्यं सपुत्रज्ञातिबान्धवम्।
निरुद्विग्नास्त्रयो लोका भविष्यन्ति हते त्वयि॥७९॥

“मैं मन्त्री, पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित तुम्हारा वध करूँगा; क्योंकि तुम्हारे मारे जाने से तीनों लोकों के प्राणी निर्भय हो जायेंगे॥ ७९ ॥

देवदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
शत्रुमद्योधरिष्यामि त्वामृषीणां च कण्टकम्॥८०॥

“तुम देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, नाग और राक्षस -सभी के शत्रु हो। ऋषियों के लिये तो कंटकरूप ही हो; अतः आज मैं तुम्हें उखाड़ फेंकूँगा॥ ८०॥

विभीषणस्य चैश्वर्यं भविष्यति हते त्वयि।
न चेत् सत्कृत्य वैदेहीं प्रणिपत्य प्रदास्यसि॥८१॥

“अतः यदि तुम मेरे चरणों में गिरकर आदरपूर्वक सीता को नहीं लौटाओगे तो मेरे हाथ से मारे जाओगे और तुम्हारे मारे जाने पर लङ्का का सारा ऐश्वर्य विभीषण को प्राप्त होगा”॥ ८१॥

इत्येवं परुषं वाक्यं ब्रुवाणे हरिपुङ्गवे।
अमर्षवशमापन्नो निशाचरगणेश्वरः॥ ८२॥

वानरशिरोमणि अङ्गद के ऐसे कठोर वचन कहने पर निशाचरगणों का राजा रावण अत्यन्त अमर्ष से भर गया॥

ततः स रोषमापन्नः शशास सचिवांस्तदा।
गृह्यतामिति दुर्मेधा वध्यतामिति चासकृत्॥८३॥

रोष से भरे हुए रावण ने उस समय अपने मन्त्रियों से बार-बार कहा–’पकड़ लो इस दुर्बुद्धि वानर को और मार डालो’ ॥ ८३॥

रावणस्य वचः श्रुत्वा दीप्ताग्निमिव तेजसा।
जगृहुस्तं ततो घोराश्चत्वारो रजनीचराः॥८४॥

रावण की यह बात सुनकर चार भयंकर निशाचरों ने प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी अङ्गद को पकड़ लिया॥

ग्राहयामास तारेयः स्वयमात्मानमात्मवान्।
बलं दर्शयितुं वीरो यातुधानगणे तदा ॥ ८५॥

आत्मबल से सम्पन्न ताराकुमार अङ्गद ने उस समय राक्षसों को अपना बल दिखाने के लिये स्वयं ही अपने-आपको पकड़ा दिया॥ ८५ ॥

स तान् बाहुद्यासक्तानादाय पतगानिव।
प्रासादं शैलसंकाशमुत्पपाताङ्गदस्तदा॥८६॥

फिर वे पक्षियोंकी तरह अपनी दोनों भुजाओं से जकड़े हुए उन चारों राक्षसों को लिये-दिये ही उछले और उस महल की छत पर, जो पर्वतशिखर के समान ऊँची थी, चढ़ गये॥८६॥

तस्योत्पतनवेगेन निर्धूतास्तत्र राक्षसाः।
भूमौ निपतिताः सर्वे राक्षसेन्द्रस्य पश्यतः॥८७॥

उनके उछलने के वेग से झटका खाकर वे सब राक्षस राक्षसराज रावण के देखते-देखते पृथ्वी पर गिर पड़े। ८७॥

ततः प्रासादशिखरं शैलशृङ्गमिवोन्नतम्।
चक्राम राक्षसेन्द्रस्य वालिपुत्रः प्रतापवान्॥८८॥

तदनन्तर प्रतापी वालिकुमार अङ्गद राक्षसराज के उस महल की चोटी पर, जो पर्वतशिखर के समान ऊँची थी, पैर पटकते हुए घूमने लगे॥ ८८॥

पफाल च तदाक्रान्तं दशग्रीवस्य पश्यतः।
पुरा हिमवतः शृङ्गं वज्रेणेव विदारितम्॥८९॥

उनके पैरों से आक्रान्त होकर वह छत रावण के देखते-देखते फट गयी। ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकाल में वज्र के आघात से हिमालय का शिखर विदीर्ण हो गयाथा॥

भक्त्वा प्रासादशिखरं नाम विश्राव्य चात्मनः।
विनद्य सुमहानादमुत्पपात विहायसा॥९०॥

इस प्रकार महल की छत तोड़कर उन्होंने अपना नाम सुनाते हुए बड़े जोर से सिंहनाद किया और वे आकाशमार्ग से उड़ चले॥९०॥

व्यथयन् राक्षसान् सर्वान् हर्षयंश्चापि वानरान्।
स वानराणां मध्ये तु रामपार्श्वमुपागतः॥९१॥

राक्षसों को पीड़ा देते और समस्त वानरों का हर्ष बढ़ाते हुए वे वानरसेना के बीच श्रीरामचन्द्रजी के पास लौट आये॥९१॥

रावणस्तु परं चक्रे क्रोधं प्रासादधर्षणात्।
विनाशं चात्मनः पश्यन् निःश्वासपरमोऽभवत्॥९२॥

अपने महल के टूटने से रावण को बड़ा क्रोध हुआ, परंतु विनाश की घड़ी आयी देख वह लंबी साँस छोड़ने लगा॥ ९२॥

रामस्तु बहुभिर्हृष्टैर्विनदद्भिः प्लवङ्गमैः।
वृतो रिपुवधाकाङ्क्षी युद्धायैवाभ्यवर्तत॥९३॥

इधर श्रीरामचन्द्रजी हर्ष से भरकर गर्जना करते हुए बहुसंख्यक वानरों से घिरे रहकर युद्ध के लिये ही डटे रहे। वे अपने शत्रु का वध करना चाहते थे॥९३॥

सुषेणस्तु महावीर्यो गिरिकूटोपमो हरिः।
बहुभिः संवृतस्तत्र वानरैः कामरूपिभिः॥९४॥
स तु द्वाराणि संयम्य सुग्रीववचनात् कपिः।
पर्यक्रामत दुर्धर्षो नक्षत्राणीव चन्द्रमाः॥ ९५॥

इसी समय पर्वतशिखर के समान विशालकाय महापराक्रमी दुर्जय वानर वीर सुषेण ने इच्छानुसार रूप धारण करने वाले बहुसंख्यक वानरों के साथ लङ्का के सभी दरवाजों को काबू में कर लिया और सुग्रीव की आज्ञा के अनुसार वे (अपने सैनिकों की रक्षा करने एवं सभी द्वारों का समाचार जानने के लिये) बारी-बारी से उन सब पर विचरने लगे, जैसे चन्द्रमा क्रमशः सब नक्षत्रों पर गमन करते हैं। ९४-९५॥

तेषामक्षौहिणिशतं समवेक्ष्य वनौकसाम्।
लङ्कामुपनिविष्टानां सागरं चाभिवर्तताम्॥९६॥
राक्षसा विस्मयं जग्मुस्त्रासं जग्मुस्तथापरे।
अपरे समरे हर्षाद्धर्षमेवोपपेदिरे॥९७॥

लङ्का पर घेरा डालकर समुद्रतक फैले हुए उन वनवासी वानरों की सौ अक्षौहिणी सेनाओं को देख राक्षसों को बड़ा विस्मय हुआ। बहुत-से निशाचर भयभीत हो गये तथा अन्य कितने ही राक्षस समराङ्गण में हर्ष और उत्साह से भर गये॥ ९६-९७॥

कृत्स्नं हि कपिभिर्व्याप्तं प्राकारपरिखान्तरम्।
ददृशू राक्षसा दीनाः प्राकारं वानरीकृतम्।
हाहाकारमकुर्वन्त राक्षसा भयमागताः॥९८॥

उस समय लङ्का की चहारदीवारी और खाईं सारी की-सारी वानरों से व्याप्त हो रही थी। इस तरह राक्षसों ने चहारदीवारी को जब वानराकार हुई देखा, तब वे दीन-दुःखी और भयभीत हो हाहाकार करने लगे॥९८॥

तस्मिन् महाभीषणके प्रवृत्ते कोलाहले राक्षसराजयोधाः।
प्रगृह्य रक्षांसि महायुधानि युगान्तवाता इव संविचेरुः॥९९॥

वह महाभीषण कोलाहल आरम्भ होने पर राक्षसराज रावण के योद्धा निशाचर बड़े-बड़े आयुध हाथों में लेकर प्रलयकाल की प्रचण्ड वायु के समान सब ओर विचरने लगे॥ ९९॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे एकचत्वारिंशः सर्गः॥४१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में इकतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४१॥


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Shivangi

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