वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 43 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 43
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
त्रिचत्वारिंशः सर्गः (43)
द्वन्द्वयुद्ध में वानरों द्वारा राक्षसों की पराजय
युध्यतां तु ततस्तेषां वानराणां महात्मनाम्।
रक्षसां सम्बभूवाथ बलरोषः सुदारुणः॥१॥
तदनन्तर परस्पर युद्ध करते हुए महामना वानरों और राक्षसों को एक-दूसरे की सेना को देखकर बड़ा भयंकर रोष हुआ॥१॥
ते हयैः काञ्चनापीडैर्गजैश्चाग्निशिखोपमैः।
रथैश्चादित्यसंकाशैः कवचैश्च मनोरमैः॥२॥
निर्ययू राक्षसा वीरा नादयन्तो दिशो दश।
राक्षसा भीमकर्माणो रावणस्य जयैषिणः॥३॥
सोने के आभूषणों से विभूषित घोड़ों, हाथियों,अग्नि की ज्वाला के समान देदीप्यमान रथों तथा सूर्यतुल्य तेजस्वी मनोरम कवचों से युक्त वे वीर राक्षस दसों दिशाओं को अपनी गर्जना से जाते हुए निकले। भयानक कर्म करने वाले वे सभी निशाचर रावण की विजय चाहते थे।
वानराणामपि चमूर्बहती जयमिच्छताम्।
अभ्यधावत तां सेनां रक्षसां घोरकर्मणाम्॥४॥
भगवान् श्रीराम की विजय चाहने वाले वानरों की उस विशाल सेना ने भी घोर कर्म करने वाले राक्षसों की सेना पर धावा किया॥४॥
एतस्मिन्नन्तरे तेषामन्योन्यमभिधावताम्।
रक्षसां वानराणां च द्वन्द्वयुद्धमवर्तत॥५॥
इसी समय एक-दूसरे पर धावा बोलते हुए राक्षसों और वानरों में द्वन्द्वयुद्ध छिड़ गया॥५॥
अङ्गदेनेन्द्रजित्सार्धं वालिपुत्रेण राक्षसः।
अयुध्यत महातेजास्त्र्यम्बकेण यथान्धकः॥६॥
वालिपुत्र अङ्गद के साथ महातेजस्वी राक्षस इन्द्रजित् उसी तरह भिड़ गया, जैसे त्रिनेत्रधारी महादेवजी के साथ अन्धकासुर लड़ रहा हो॥६॥
प्रजङ्ग्रेन च सम्पातिर्नित्यं दुर्धर्षणो रणे।
जम्बुमालिनमारब्धो हनूमानपि वानरः॥७॥
प्रजङ्घ नामक राक्षस के साथ सदा ही रणदुर्जय वीर सम्पाति ने और जम्बुमाली के साथ वानर वीर हनुमान् जी ने युद्ध आरम्भ किया॥७॥
संगतस्तु महाक्रोधो राक्षसो रावणानुजः।
समरे तीक्ष्णवेगेन शत्रुजेन विभीषणः॥८॥
अत्यन्त क्रोध में भरे हुए रावणानुज राक्षस विभीषण समराङ्गण में प्रचण्ड वेगशाली शत्रुघ्न के साथ उलझ गये॥
तपनेन गजः सार्धं राक्षसेन महाबलः।
निकुम्भेन महातेजा नीलोऽपि समयुध्यत॥९॥
महाबली गज तपन नामक राक्षस के साथ लड़ने लगे। महातेजस्वी नील भी निकुम्भ से जूझने लगे। ९॥
वानरेन्द्रस्तु सुग्रीवः प्रघसेन सुसंगतः।
संगतः समरे श्रीमान् विरूपाक्षेण लक्ष्मणः॥१०॥
वानरराज सुग्रीव प्रघस के साथ और श्रीमान् लक्ष्मण समरभूमि में विरूपाक्ष के साथ युद्ध करने लगे॥
अग्निकेतुः सुदुर्धर्षो रश्मिकेतुश्च राक्षसः।
सुप्तघ्नो यज्ञकोपश्च रामेण सह संगताः॥११॥
दुर्जय वीर अग्निकेतु, रश्मिकेतु, सुप्तघ्न और यज्ञकोप-ये सब राक्षस श्रीरामचन्द्रजी के साथ जूझने लगे॥११॥
वज्रमुष्टिश्च मैन्देन द्विविदेनाशनिप्रभः।
राक्षसाभ्यां सुघोराभ्यां कपिमुख्यौ समागतौ॥१२॥
मैन्द के साथ वज्रमुष्टि और द्विविद के साथ अशनिप्रभ युद्ध करने लगे। इस प्रकार इन दोनों भयानक राक्षसों के साथ वे दोनों कपिशिरोमणि वीर भिड़े हुए थे॥ १२॥
वीरः प्रतपनो घोरो राक्षसो रणदुर्धरः।
समरे तीक्ष्णवेगेन नलेन समयुध्यत॥१३॥
प्रतपन नाम से प्रसिद्ध एक घोर राक्षस था, जिसे रणभूमि में परास्त करना अत्यन्त कठिन था। वह वीर निशाचर समराङ्गण में प्रचण्ड वेगशाली नल के साथ युद्ध करने लगा॥ १३॥
धर्मस्य पुत्रो बलवान् सुषेण इति विश्रुतः।
स विद्युन्मालिना सार्धमयुध्यत महाकपिः॥१४॥
धर्म के बलवान् पुत्र महाकपि सुषेण राक्षस विद्युन्माली के साथ लोहा लेने लगे॥ १४ ॥
वानराश्चापरे घोरा राक्षसैरपरैः सह।
द्वन्दं समीयुः सहसा युद्ध्वा च बहुभिः सह ॥१५॥
इसी प्रकार अन्यान्य भयानक वानर बहुतों के साथ युद्ध करने के पश्चात् दूसरे-दूसरे राक्षसों के साथ सहसा द्वन्द्वयुद्ध करने लगे॥ १५ ॥
तत्रासीत् सुमहद् युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्।
रक्षसां वानराणां च वीराणां जयमिच्छताम्॥१६॥
वहाँ राक्षस और वानरवीर अपनी-अपनी विजय चाहते थे। उनमें बड़ा भयंकर और रोमाञ्चकारी युद्ध होने लगा॥ १६॥
हरिराक्षसदेहेभ्यः प्रभूताः केशशाबलाः।
शरीरसंघाटवहाः प्रसुस्रुः शोणतापगाः॥१७॥
वानरों और राक्षसों के शरीरों से निकलकर बहुत-सी खून की नदियाँ बहने लगीं। उनके सिर के बाल ही वहाँ शैवाल (सेवार) के समान जान पड़ते थे। वे नदियाँ सैनिकों की लाशरूपी काष्ठसमूहों को बहाये लिये जाती थीं॥ १७॥
आजघानेन्द्रजित् क्रुद्धो वज्रेणेव शतक्रतुः।
अङ्गदं गदया वीरं शत्रुसैन्यविदारणम्॥१८॥
जिस प्रकार इन्द्र वज्र से प्रहार करते हैं, उसी तरह इन्द्रजित् मेघनाद ने शत्रुसेना को विदीर्ण करने वाले वीर अङ्गद पर गदा से आघात किया॥१८॥
तस्य काञ्चनचित्राङ्गं रथं साश्वं ससारथिम्।
जघान गदया श्रीमानङ्गदो वेगवान् हरिः॥१९॥
किंतु वेगशाली वानर श्रीमान् अङ्गद ने उसकी गदा हाथ से पकड़ ली और उसी गदा से इन्द्रजित् के सुवर्णजटित रथ को सारथि और घोड़ोंसहित चूर-चूर कर डाला॥ १९॥
सम्पातिस्तु प्रजङ्ग्रेन त्रिभिर्बाणैः समाहतः।
निजघानाश्वकर्णेन प्रजङ्गं रणमूर्धनि॥२०॥
प्रजङ्घ ने सम्पाति को तीन बाणों से घायल कर दिया। तब सम्पाति ने भी अश्वकर्ण नामक वृक्ष से युद्ध के मुहाने पर प्रजङ्घ को मार डाला॥ २० ॥
जम्बुमाली रथस्थस्तु रथशक्त्या महाबलः।
बिभेद समरे क्रुद्धो हनूमन्तं स्तनान्तरे॥२१॥
महाबली जम्बुमाली रथ पर बैठा हुआ था। उसने कुपित होकर समराङ्गण में एक रथ-शक्ति के द्वारा हनुमान जी की छाती पर चोट की॥ २१॥
तस्य तं रथमास्थाय हनूमान् मारुतात्मजः।
प्रममाथ तलेनाशु सह तेनैव रक्षसा॥२२॥
परंतु पवननन्दन हनुमान् उछलकर उसके उस रथ पर चढ़ गये और तुरंत ही थप्पड़ से मारकर उन्होंने उस राक्षस के साथ ही उस रथ को भी चौपट कर दिया (जम्बुमाली मर गया) ॥ २२॥
नदन् प्रतपनो घोरो नलं सोऽभ्यनुधावत।
नलः प्रतपनस्याशु पातयामास चक्षुषी॥२३॥
भिन्नगात्रः शरैस्तीक्ष्णैः क्षिप्रहस्तेन रक्षसा।
दूसरी ओर भयानक राक्षस प्रतपन भीषण गर्जना करके नल की ओर दौड़ा। शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले उस राक्षस ने अपने तीखे बाणों से नल के शरीर को क्षत-विक्षत कर दिया। तब नल ने तत्काल ही उसकी दोनों आँखें निकाल लीं॥
ग्रसन्तमिव सैन्यानि प्रघसं वानराधिपः॥ २४॥
सुग्रीवः सप्तपर्णेन निजघान जवेन च।
उधर राक्षस प्रघस वानरसेना को काल का ग्रास बना रहा था। यह देख वानरराज सुग्रीव ने सप्तपर्णनामक वृक्ष से उसे वेगपूर्वक मार गिराया॥ २४ १/२ ॥
प्रपीड्य शरवर्षेण राक्षसं भीमदर्शनम्॥२५॥
निजघान विरूपाक्षं शरेणैकेन लक्ष्मणः।
लक्ष्मण ने पहले बाणों की वर्षा करके भयंकर दृष्टिवाले राक्षस विरूपाक्ष को बहुत पीड़ा दी। फिर एक बाण से मारकर उसे मौत के घाट उतार दिया। २५ १/२॥
अग्निकेतुश्च दुर्धर्षो रश्मिकेतुश्च राक्षसः।
सुप्तघ्नो यज्ञकोपश्च रामं निर्बिभिदुः शरैः॥२६॥
अग्निकेतु, दुर्जय रश्मिकेतु, सुप्तघ्न और यज्ञकोप नामक राक्षसों ने श्रीरामचन्द्रजी को अपने बाणों से घायल कर दिया॥२६॥
तेषां चतुर्णां रामस्तु शिरांसि समरे शरैः।
क्रुद्धश्चतुर्भिश्चिच्छेद घोरैरग्निशिखोपमैः॥२७॥
तब श्रीराम ने कुपित हो अग्निशिखा के समान भयंकर बाणों द्वारा समराङ्गण में उन चारों के सिर काट लिये॥ २७॥
वज्रमुष्टिस्तु मैन्देन मुष्टिना निहतो रणे।
पपात सरथः साश्वः पुराट्ट इव भूतले॥२८॥
उस युद्धस्थल में मैन्द ने वज्रमुष्टिपर मुक्के का प्रहार किया, जिससे वह रथ और घोड़ोंसहित उसी तरह पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानो देवताओं का विमान धराशायी हो गया हो॥२८॥
निकुम्भस्तु रणे नीलं नीलाञ्जनचयप्रभम्।
निर्बिभेद शरैस्तीक्ष्णैः करैर्मेघमिवांशुमान्॥ २९॥
निकुम्भ ने काले कोयले के समूह की भाँति नील वर्णवाले नील को रणक्षेत्र में अपने पैने बाणों द्वारा उसी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे सूर्यदेव अपनी प्रचण्ड किरणों द्वारा बादलों को फाड़ देते हैं ॥ २९॥
पुनः शरशतेनाथ क्षिप्रहस्तो निशाचरः।
बिभेद समरे नीलं निकुम्भः प्रजहास च॥३०॥
परंतु शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले उस निशाचर ने समराङ्गण में नील को पुनः सौ बाणों से घायल कर दिया। ऐसा करके निकुम्भ जोर-जोर से हँसने लगा॥३०॥
तस्यैव रथचक्रेण नीलो विष्णुरिवाहवे।
शिरश्चिच्छेद समरे निकुम्भस्य च सारथेः॥३१॥
यह देख नील ने उसी के रथ के पहिये से युद्धस्थल में निकुम्भ तथा उसके सारथि का उसी तरह सिर काट लिया, जैसे भगवान् विष्णु संग्रामभूमि में अपने चक्र से दैत्यों के मस्तक उड़ा देते हैं॥३१॥
वज्राशनिसमस्पर्शो द्विविदोऽप्यशनिप्रभम्।
जघान गिरिशृङ्गेण मिषतां सर्वरक्षसाम्॥३२॥
द्विविद का स्पर्श वज्र और अशनि के समान दुःसह था। उन्होंने सब राक्षसों के देखते-देखते अशनिप्रभनामक निशाचरपर एक पर्वतशिखर से प्रहार किया॥ ३२॥
द्विविदं वानरेन्द्रं तु दुमयोधिनमाहवे।
शरैरशनिसंकाशैः स विव्याधाशनिप्रभः॥ ३३॥
तब अशनिप्रभ ने युद्धस्थल में वृक्ष लेकर युद्ध करने वाले वानरराज द्विविद को वज्रतुल्य तेजस्वी बाणों द्वारा घायल कर दिया॥३३॥
स शरैरभिविद्धाङ्गो द्विविदः क्रोधर्मूच्छितः।
सालेन सरथं साश्वं निजघानाशनिप्रभम्॥३४॥
द्विविद का सारा शरीर बाणों से क्षत-विक्षत हो गया था, इससे उन्हें बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने एक सालवृक्ष से रथ और घोड़ोंसहित अशनिप्रभ को मार गिराया॥ ३४॥
विद्युन्माली रथस्थस्तु शरैः काञ्चनभूषणैः।
सुषेणं ताडयामास ननाद च मुहुर्मुहुः॥३५॥
रथ पर बैठे हुए विद्युन्माली ने अपने सुवर्णभूषित बाणों द्वारा सुषेण को बारम्बार घायल किया। फिर वह जोर-जोर से गर्जना करने लगा॥ ३५ ॥
तं रथस्थमथो दृष्ट्वा सुषेणो वानरोत्तमः।
गिरिशृङ्गेण महता रथमाशु न्यपातयत्॥ ३६॥
उसे रथ पर बैठा देख वानरशिरोमणि सुषेण ने एक विशाल पर्वत-शिखर चलाकर उसके रथ को शीघ्र ही चूर-चूर कर डाला ॥ ३६॥
लाघवेन तु संयुक्तो विद्युन्माली निशाचरः।
अपक्रम्य रथात् तूर्णं गदापाणिः क्षितौ स्थितः॥३७॥
निशाचर विद्युन्माली तुरंत ही बड़ी फुर्ती के साथ रथ से नीचे कूद पड़ा और हाथ में गदा लेकर पृथ्वी पर खड़ा हो गया॥३७॥
ततः क्रोधसमाविष्टः सुषेणो हरिपुङ्गवः।
शिलां सुमहतीं गृह्य निशाचरमभिद्रवत्॥ ३८॥
तदनन्तर क्रोध से भरे हुए वानरशिरोमणि सुषेण एक बहुत बड़ी शिला लेकर उस निशाचर की ओर दौड़े। ३८॥
तमापतन्तं गदया विद्युन्माली निशाचरः।
वक्षस्यभिजघानाशु सुषेणं हरिपुङ्गवम्॥३९॥
कपिश्रेष्ठ सुषेण को आक्रमण करते देख निशाचर विद्युन्माली ने तत्काल ही गदा से उनकी छाती पर प्रहार किया॥ ३९॥
गदाप्रहारं तं घोरमचिन्त्य प्लवगोत्तमः।
तां तूष्णीं पातयामास तस्योरसि महामृधे॥४०॥
गदा के उस भीषण प्रहार की कुछ भी परवा न करके वानरप्रवर सुषेण ने उसी पहले वाली शिला को चुपचाप उठा लिया और उस महासमर में उसे विद्युन्माली की छाती पर दे मारा॥ ४०॥
शिलाप्रहाराभिहतो विद्युन्माली निशाचरः।
निष्पिष्टहृदयो भूमौ गतासुर्निपपात ह॥४१॥
शिला के प्रहार से घायल हुए निशाचर विद्युन्माली की छाती चूर-चूर हो गयी और वह प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा॥४१॥
एवं तैर्वानरैः शूरैः शूरास्ते रजनीचराः।
द्वन्द्वे विमथितास्तत्र दैत्या इव दिवौकसैः॥४२॥
इस प्रकार वे शूरवीर निशाचर शौर्यसम्पन्न वानरवीरों द्वारा वहाँ द्वन्द्वयुद्ध में उसी तरह कुचल दिये गये जैसे देवताओं द्वारा दैत्य मथ डाले गये थे॥४२॥
भल्लैश्चान्यैर्गदाभिश्च शक्तितोमरसायकैः।
अपविद्धैश्चापि रथैस्तथा सांग्रामिकैर्हयैः॥४३॥
निहतैः कुञ्जरैर्मत्तैस्तथा वानरराक्षसैः।
चक्राक्षयुगदण्डैश्च भग्नैर्धरणिसंश्रितैः॥४४॥
बभूवायोधनं घोरं गोमायुगणसेवितम्।
कबन्धानि समुत्पेतुर्दिक्षु वानररक्षसाम्।
विमर्दे तुमुले तस्मिन् देवासुररणोपमे॥४५॥
उस समय भालों, अन्यान्य बाणों, गदाओं, शक्तियों, तोमरों, सायकों, टूटे और फेंके हुए रथों, फौजी घोड़ों, मरे हुए मतवाले हाथियों, वानरों, राक्षसों, पहियों तथा टूटे हुए जूओं से, जो धरती पर बिखरे पड़े थे, वह युद्धभूमि बड़ी भयानक हो रही थी। गीदड़ों के समुदाय वहाँ सब ओर विचर रहे थे। देवासुर-संग्राम के समान उस भयानक मार-काट में वानरों और राक्षसों के कबन्ध (मस्तकरहित धड़) सम्पूर्ण दिशाओं में उछल रहे थे॥ ४३–४५॥
निहन्यमाना हरिपुङ्गवैस्तदा निशाचराः शोणितगन्धमूर्च्छिताः।
पुनः सुयुद्धं तरसा समाश्रिता दिवाकरस्यास्तमयाभिकातिणः॥४६॥
उस समय उन वानरशिरोमणियों द्वारा मारे जाते हुए निशाचर रक्त की गन्ध से मतवाले हो रहे थे। वे सूर्य के अस्त होने की प्रतीक्षा करते हुए पुनः बड़े वेग से घमासान युद्ध में तत्पर हो गये* ॥ ४६॥
* सूर्यास्त के बाद प्रदोषकाल से लेकर पूरी रातभर राक्षसों का बल अधिक बढ़ा होता है, इसीलिये वे सूर्यास्त होने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे त्रिचत्वारिंशः सर्गः॥४३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में तैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४३॥
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