वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 44 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 44
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
चतुश्चत्वारिंशः सर्गः (44)
रात में वानरों और राक्षसों का घोर युद्ध, अङ्गद के द्वारा इन्द्रजित् की पराजय, माया से अदृश्य हुए इन्द्रजित् का नागमय बाणों द्वारा श्रीराम और लक्ष्मण को बाँधना
युध्यतामेव तेषां तु तदा वानररक्षसाम्।
रविरस्तं गतो रात्रिः प्रवृत्ता प्राणहारिणी॥१॥
इस प्रकार उन वानर और राक्षसों में युद्ध चल ही रहा था कि सूर्यदेव अस्त हो गये तथा प्राणों का संहार करने वाली रात्रि का आगमन हुआ॥१॥
अन्योन्यं बद्धवैराणां घोराणं जयमिच्छताम्।
सम्प्रवृत्तं निशायुद्धं तदा वानररक्षसाम्॥२॥
वानरों और राक्षसों में परस्पर वैर बँध गया था। दोनों ही पक्षों के योद्धा बड़े भयंकर थे तथा अपनी-अपनी विजय चाहते थे; अतः उस समय उनमें रात्रियुद्ध होने लगा॥२॥
राक्षसोऽसीति हरयो वानरोऽसीति राक्षसाः।
अन्योन्यं समरे जघ्नुस्तस्मिंस्तमसि दारुणे॥३॥
उस दारुण अन्धकार में वानर लोग अपने विपक्षी से पूछते थे, क्या तुम राक्षस हो? और राक्षस लोग भी पूछते थे, क्या तुम वानर हो? इस प्रकार पूछ-पूछकर समराङ्गण में वे एक दूसरे पर प्रहार करते थे॥३॥
हत दारय चैहीति कथं विद्रवसीति च।
एवं सुतुमुलः शब्दस्तस्मिन् सैन्ये तु शुश्रुवे॥४॥
सेना में सब ओर ‘मारो, काटो, आओ तो, क्यों भागे जाते हो’—ये भयंकर शब्द सुनायी दे रहे थे। ४॥
कालाः काञ्चनसंनाहास्तस्मिंस्तमसि राक्षसाः।
सम्प्रदृश्यन्त शैलेन्द्रा दीप्तौषधिवना इव॥५॥
काले-काले राक्षस सुवर्णमय कवचोंसे विभूषित होकर उस अन्धकारमें ऐसे दिखायी देते थे, मानो चमकती हुई ओषधियोंके वनसे युक्त काले पहाड़ हों॥
तस्मिंस्तमसि दुष्पारे राक्षसाः क्रोधमिर्च्छताः।
परिपेतुर्महावेगा भक्षयन्तः प्लवङ्गमान्॥६॥
उस अन्धकार से पार पाना कठिन हो रहा था। उसमें क्रोध से अधीर हुए महान् वेगशाली राक्षसवानरों को खाते हुए उन पर सब ओर से टूट पड़े॥६॥
ते हयान् काञ्चनापीडान् ध्वजांश्चाशीविषोपमान्।
आप्लुत्य दशनैस्तीक्ष्णैर्भीमकोपा व्यदारयन्॥७॥
तब वानरों का कोप बड़ा भयानक हो उठा। वे उछल-उछलकर अपने तीखे दाँतों द्वारा सुनहरे साज से सजे हुए राक्षस-दल के घोड़ों को और विषधर सो के समान दिखायी देने वाले उनके ध्वजों को भी विदीर्ण कर देते थे॥७॥
वानरा बलिनो युद्धेऽक्षोभयन् राक्षसी चमूम्।
कुञ्जरान् कुञ्जरारोहान् पताकाध्वजिनो रथान्॥८॥
चकर्षश्च ददंशुश्च दशनैः क्रोधमूिर्च्छताः।
बलवान् वानरों ने युद्ध में राक्षस-सेना के भीतर हलचल मचा दी। वे सब-के-सब क्रोध से पागल हो रहे थे; अतः हाथियों एवं हाथी सवारों को तथा ध्वजापताका से सुशोभित रथों को भी खींच लेते और दाँतों से काट-काटकर क्षत-विक्षत कर देते थे॥ ८ १/२॥
लक्ष्मणश्चापि रामश्च शरैराशीविषोपमैः॥९॥
दृश्यादृश्यानि रक्षांसि प्रवराणि निजघ्नतुः।
बड़े-बड़े राक्षस कभी प्रकट होकर युद्ध करते थे और कभी अदृश्य हो जाते थे; परंतु श्रीराम और लक्ष्मण विषधर सो के समान अपने बाणों द्वारा दृश्य और अदृश्य सभी राक्षसों को मार डालते थे॥ ९ १/२॥
तुरंगखुरविध्वस्तं रथनेमिसमुत्थितम्॥१०॥
रुरोध कर्णनेत्राणि युध्यतां धरणीरजः।
घोड़ों की टाप से चूर्ण होकर रथ के पहियों से उड़ायी हुई धरती की धूल योद्धाओं के कान और नेत्र बंद कर देती थी॥ १० १/२॥
वर्तमाने तथा घोरे संग्रामे लोमहर्षणे।
रुधिरौघा महाघोरा नद्यस्तत्र विसुस्रुवुः॥११॥
इस प्रकार रोमाञ्चकारी भयंकर संग्राम के छिड़ जाने पर वहाँ रक्त के प्रवाह को बहाने वाली खून की बड़ी भयंकर नदियाँ बहने लगीं॥ ११॥
ततो भेरीमृदङ्गानां पणवानां च निःस्वनः।
शङ्कनेमिस्वनोन्मिश्रः सम्बभूवाद्भुतोपमः॥१२॥
तदनन्तर भेरी, मृदङ्ग और पणव आदि बाजों की ध्वनि होने लगी, जो शङ्खों के शब्द तथा रथ के पहियों की घर्घराहट से मिलकर बड़ी अद्भुत जान पड़ती थी॥१२॥
हतानां स्तनमानानां राक्षसानां च निःस्वनः।
शस्तानां वानराणां च सम्बभूवात्र दारुणः॥१३॥
घायल होकर कराहते हुए राक्षसों और शस्त्रों से क्षत-विक्षत हुए वानरों का आर्तनाद वहाँ बड़ा भयंकर प्रतीत होता था॥ १३॥
हतैर्वानरमुख्यैश्च शक्तिशूलपरश्वधैः।
निहतैः पर्वताकारै राक्षसैः कामरूपिभिः॥१४॥
शस्त्रपुष्पोपहारा च तत्रासीद् युद्धमेदिनी।
दुर्जेया दुर्निवेशा च शोणितास्त्रावकर्दमा॥१५॥
शक्ति, शूल और फरसों से मारे गये मुख्य-मुख्य वानरों तथा वानरों द्वारा काल के गाल में डाले गये इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ पर्वताकार राक्षसों से उपलक्षित उस युद्धभूमि में रक्त के प्रवाह से कीच हो गयी थी। उसे पहचानना कठिन हो रहा था तथा वहाँ ठहरना तो और मुश्किल हो गया था। ऐसा जान पड़ता था उस भूमिको शस्त्ररूपी पुष्पों का उपहार अर्पित किया गया है।
सा बभूव निशा घोरा हरिराक्षसहारिणी।।
कालरात्रीव भूतानां सर्वेषां दुरतिक्रमा॥१६॥
वानरों और राक्षसों का संहार करने वाली वह भयंकर रजनी कालरात्रि के समान समस्त प्राणियों के लिये दुर्लय हो गयी थी॥१६॥
ततस्ते राक्षसास्तत्र तस्मिंस्तमसि दारुणे।
राममेवाभ्यवर्तन्त संहृष्टाः शरवृष्टिभिः॥१७॥
तदनन्तर उस दारुण अन्धकार में वहाँ वे सब राक्षस हर्ष और उत्साह में भरकर बाणों की वर्षा करते हुए श्रीराम पर ही धावा करने लगे॥१७॥
तेषामापततां शब्दः क्रुद्धानामपि गर्जताम्।
उद्धर्त इव सप्तानां समुद्राणामभूत् स्वनः॥१८॥
उस समय कुपित हो गर्जना करते हुए उन आक्रमणकारी राक्षसों का शब्द प्रलय के समय सातों समुद्रों के महान् कोलाहल-सा जान पड़ता था॥ १८ ॥
तेषां रामः शरैः षड्भिः षड् जघान निशाचरान्।
निमेषान्तरमात्रेण शरैरग्निशिखोपमैः॥१९॥
तब श्रीरामचन्द्रजी ने पलक मारते-मारते अग्निज्वाला के समान छः भयानक बाणों से निम्नाङ्कित छः निशाचरों को घायल कर दिया॥ १९ ॥
यज्ञशत्रुश्च दुर्धर्षो महापार्श्वमहोदरौ।।
वज्रदंष्ट्रो महाकायस्तौ चोभौ शुकसारणौ॥२०॥
उनके नाम इस प्रकार हैं-दुर्धर्ष वीर यज्ञशत्रु, महापार्श्व, महोदर, महाकाय, वज्रदंष्ट्र तथा वे दोनों शुक और सारण॥२०॥
ते तु रामेण बाणौघैः सर्वमर्मसु ताडिताः।
युद्धादपसृतास्तत्र सावशेषायुषोऽभवन्॥२१॥
श्रीराम के बाणसमूहों से सारे मर्मस्थानों में चोट पहुँचने के कारण वे छहों राक्षस युद्ध छोड़कर भाग गये; इसीलिये उनकी आयु शेष रह गयी-जान बच गयी॥ २१॥
निमेषान्तरमात्रेण घोरैरग्निशिखोपमैः।
दिशश्चकार विमलाः प्रदिशश्च महारथः॥२२॥
महारथी श्रीराम ने अग्निशिखा के समान प्रज्वलित भयंकर बाणों द्वारा पलक मारते-मारते सम्पूर्ण दिशाओं और उनके कोणों को निर्मल (प्रकाशपूर्ण) कर दिया॥ २२॥
ये त्वन्ये राक्षसा वीरा रामस्याभिमुखे स्थिताः।
तेऽपि नष्टाः समासाद्य पतङ्गा इव पावकम्॥२३॥
दूसरे भी जो-जो राक्षसवीर श्रीराम के सामने खड़े थे, वे भी उसी प्रकार नष्ट हो गये, जैसे आग में पड़कर पतिंगे जल जाते हैं॥ २३॥
सुवर्णपुलैर्विशिखैः सम्पतद्भिः समन्ततः।
बभूव रजनी चित्रा खद्योतैरिव शारदी॥२४॥
चारों ओर सुवर्णमय पङ्क्षवाले बाण गिर रहे थे। उनकी प्रभासे वह रजनी जुगुनुओं से विचित्र दिखायी देने वाली शरद् ऋतु की रात्रि के समान अद्भुत प्रतीत होती थी॥२४॥
राक्षसानां च निनदैर्भेरीणां चैव निःस्वनैः।
सा बभूव निशा घोरा भूयो घोरतराभवत्॥२५॥
राक्षसों के सिंहनादों और भेरियों की आवाजों से वह भयानक रात्रि और भी भयंकर हो उठी थी॥२५॥
तेन शब्देन महता प्रवृद्धेन समन्ततः।
त्रिकूटः कंदराकीर्णः प्रव्याहरदिवाचलः॥२६॥
सब ओर फैले हुए उस महान् शब्द से प्रतिध्वनित हो कन्दराओं से व्याप्त त्रिकूट पर्वत मानो किसी की बात का उत्तर देता-सा जान पड़ता था॥ २६॥
गोलाङ्गला महाकायास्तमसा तुल्यवर्चसः।
सम्परिष्वज्य बाहुभ्यां भक्षयन् रजनीचरान्॥२७॥
लंगूर जाति के विशालकाय वानर जो अन्धकार के समान काले थे, निशाचरों को दोनों भुजाओं में कसकर मार डालते और उन्हें कुत्ते आदि को खिला देते थे।
अङ्गदस्तु रणे शत्रून् निहन्तुं समुपस्थितः।
रावणिं निजघानाशु सारथिं च हयानपि॥ २८॥
दूसरी ओर अङ्गद रणभूमि में शत्रुओं का संहार करने के लिये आगे बढ़े। उन्होंने रावणपुत्र इन्द्रजित् को घायल कर दिया तथा उसके सारथि और घोड़ों को भी यमलोक पहुँचा दिया॥२८॥
इन्द्रजित् तु रथं त्यक्त्वा हताश्वो हतसारथिः।
अङ्गदेन महाकायस्तत्रैवान्तरधीयत॥२९॥
अङ्गद के द्वारा घोड़े और सारथि के मारे जाने पर महान् कष्ट में पड़ा हुआ इन्द्रजित् रथ को छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गया॥ २९॥
तत् कर्म वालिपुत्रस्य सर्वे देवाः सहर्षिभिः।
तुष्टवुः पूजनार्हस्य तौ चोभौ रामलक्ष्मणौ ॥३०॥
प्रशंसा के योग्य वालिकुमार अङ्गद के उस पराक्रम की ऋषियोंसहित देवताओं तथा दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥ ३०॥
प्रभावं सर्वभूतानि विदुरिन्द्रजितो युधि।
ततस्ते तं महात्मानं दृष्ट्वा तुष्टाः प्रधर्षितम्॥३१॥
सम्पूर्ण प्राणी युद्ध में इन्द्रजित् के प्रभाव को जानते थे; अतः अङ्गद के द्वारा उसको पराजित हुआ देख उन महात्मा अंगदपर दृष्टिपात करके सबको बड़ी प्रसन्नता हुई॥ ३१॥
ततः प्रहृष्टाः कपयः ससुग्रीवविभीषणाः।
साधुसाध्विति नेदुश्च दृष्ट्वा शत्रु पराजितम्॥३२॥
शत्रु को पराजित हुआ देख सुग्रीव और विभीषणसहित सब वानर बड़े प्रसन्न हुए और अङ्गद को साधुवाद देने लगे॥ ३२॥
इन्द्रजित् तु तदानेन निर्जितो भीमकर्मणा।
संयुगे वालिपुत्रेण क्रोधं चक्रे सुदारुणम्॥३३॥
युद्धस्थल में भयानक कर्म करने वाले वालिपुत्र अङ्गद से पराजित होकर इन्द्रजित् ने बड़ा भयंकर क्रोध प्रकट किया॥३३॥
सोऽन्तर्धानगतः पापो रावणी रणकर्शितः।
ब्रह्मदत्तवरो वीरो रावणिः क्रोधमूर्च्छितः॥३४॥
अदृश्यो निशितान् बाणान् मुमोचाशनिवर्चसः।
रावणकुमार वीर इन्द्रजित् ब्रह्माजी से वर प्राप्त कर चुका था। युद्ध में अधिक कष्ट पाने के कारण वह पापी रावणपुत्र क्रोध से अचेत-सा हो रहा था; अतः अन्तर्धान-विद्या का आश्रय ले अदृश्य हो उसने वज्र के समान तेजस्वी और तीखे बाण बरसाने आरम्भ किये॥३४ १/२ ॥
रामं च लक्ष्मणं चैव घोरै गमयैः शरैः॥ ३५॥
बिभेद समरे क्रुद्धः सर्वगात्रेषु राक्षसः।
समराङ्गण में कुपित हुए इन्द्रजित् ने घोर सर्पमय बाणों द्वारा श्रीराम और लक्ष्मण को घायल कर दिया। वे दोनों रघुवंशीबन्धु अपने सभी अङ्गों में चोट खाकर क्षत-विक्षत हो रहे थे॥ ३५ १/२॥
मायया संवृतस्तत्र मोहयन् राघवौ युधि॥ ३६॥
अदृश्यः सर्वभूतानां कूटयोधी निशाचरः।
बबन्ध शरबन्धेन भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥३७॥
माया से आवृत हो समस्त प्राणियों के लिये अदृश्य होकर वहाँ कूटयुद्ध करने वाले उस निशाचर ने युद्धस्थल में दोनों रघुवंशी बन्धु श्रीराम और लक्ष्मण को मोह में डालते हुए उन्हें सर्पाकार बाणों के बन्धन में बाँध लिया॥ ३६-३७॥
तौ तेन पुरुषव्याघ्रौ क्रुद्धेनाशीविषैः शरैः।
सहसाभिहतौ वीरौ तदा प्रेक्षन्त वानराः॥३८॥
इस प्रकार क्रोध से भरे हुए इन्द्रजित् ने उन दोनों पुरुषप्रवर वीरों को सहसा सर्पाकार बाणों द्वारा बाँध लिया। उस समय वानरों ने उन्हें नागपाश में बद्ध देखा॥ ३८॥
प्रकाशरूपस्तु यदा न शक्तस्तौ बाधितुं राक्षसराजपुत्रः।
मायां प्रयोक्तुं समुपाजगाम बबन्ध तौ राजसुतौ दुरात्मा॥३९॥
प्रकटरूप से युद्ध करते समय जब राक्षसराजकुमार इन्द्रजित् उन दोनों राजकुमारों को बाधा देने में समर्थ न हो सका, तब उन पर माया का प्रयोग करने को उतारू हो गया और उन दोनों भाइयों को उस दुरात्मा ने बाँध लिया॥ ३९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे चतुश्चत्वारिंशः सर्गः॥४४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में चौवालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४४॥
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