वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 52 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 52
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
द्विपञ्चाशः सर्गः (52)
धूम्राक्ष का युद्ध और हनुमान जी के द्वारा उसका वध
धूम्राक्षं प्रेक्ष्य निर्यान्तं राक्षसं भीमविक्रमम्।
विनेदुर्वानराः सर्वे प्रहृष्टा युद्धकाक्षिणः॥१॥
भयंकर पराक्रमी निशाचर धूम्राक्ष को निकलते देख युद्ध की इच्छा रखने वाले समस्त वानर हर्ष और उत्साह से भरकर सिंहनाद करने लगे॥१॥
तेषां सुतुमुलं युद्धं संजज्ञे कपिरक्षसाम्।
अन्योन्यं पादपै?रैर्निजतां शूलमुद्गरैः॥२॥
उस समय उन वानरों और राक्षसों में अत्यन्त भयंकर युद्ध छिड़ गया। वे घोर वृक्षों तथा शूलों और मुद्गरों से एक-दूसरे को चोट पहुँचाने लगे॥२॥
राक्षसैर्वानरा घोरा विनिकृत्ताः समन्ततः।
वानरै राक्षसाश्चापि द्रुमैर्भूमिसमीकृताः॥३॥
राक्षसों ने चारों ओर से घोर वानरों को काटना आरम्भ किया तथा वानरों ने भी राक्षसों को वृक्षों से मार-मारकर धराशायी कर दिया॥३॥
राक्षसास्त्वभिसंक्रुद्धा वानरान् निशितैः शरैः।
विव्यधुर्घोरसंकाशैः कङ्कपत्रैरजिह्मगैः॥४॥
क्रोध से भरे हुए राक्षसों ने अपने कङ्कपत्रयुक्त, सीधे जाने वाले, घोर एवं तीखे बाणों से वानरों को गहरी चोट पहुँचायी॥ ४॥
ते गदाभिश्च भीमाभिः पट्टिशैः कूटमुद्गरैः।
घोरैश्च परिचैश्चित्रैस्त्रिशूलैश्चापि संश्रितैः॥५॥
विदार्यमाणा रक्षोभिर्वानरास्ते महाबलाः।
अमर्षजनितोद्धर्षाश्चक्रुः कर्माण्यभीतवत्॥६॥
राक्षसों द्वारा भयंकर गदाओं, पट्टिशों, कूट, मुद्गरों, घोर परिघों और हाथ में लिये हुए विचित्र त्रिशूलों से विदीर्ण किये जाते हुए वे महाबली वानर अमर्षजनित उत्साह से निर्भय की भाँति महान् कर्म करने लगे। ५-६॥
शरनिर्भिन्नगात्रास्ते शूलनिर्भिन्नदेहिनः।
जगृहस्ते द्रुमांस्तत्र शिलाश्च हरियूथपाः॥७॥
बाणों की चोट से उनके शरीर छिद गये थे। शूलों की मार से देह विदीर्ण हो गयी थी। इस अवस्था में उन वानर-यूथपतियों ने हाथों में वृक्ष और शिलाएँ उठायीं॥
ते भीमवेगा हरयो नर्दमानास्ततस्ततः।
ममन्थू राक्षसान् वीरान् नामानि च बभाषिरे॥८॥
उस समय उनका वेग बड़ा भयंकर था। वे जोरजोर से गर्जना करते हुए जहाँ-तहाँ वीर राक्षसों को पटक-पकटकर मथने लगे और अपने नामों की भी घोषणा करने लगे॥८॥
तद् बभूवाद्भुतं घोरं युद्धं वानररक्षसाम्।
शिलाभिर्विविधाभिश्च बहुशाखैश्च पादपैः॥९॥
नाना प्रकार की शिलाओं और बहुत-सी शाखा वाले वृक्षों के प्रहार से वहाँ वानरों और राक्षसों में घोर एवं अद्भुत युद्ध होने लगा॥९॥
राक्षसा मथिताः केचिद् वानरैर्जितकाशिभिः।
प्रवेमू रुधिरं केचिन्मुखै रुधिरभोजनाः॥१०॥
विजयोल्लास से सुशोभित होने वाले वानरों ने कितने ही राक्षसों को मसल डाला। कितने ही रक्तभोजी राक्षस उनकी मार खाकर अपने मुखों से रक्त वमन करने लगे॥१०॥
पार्वेषु दारिताः केचित् केचिद् राशीकृता द्रुमैः।
शिलाभिश्चूर्णिताः केचित् केचिद् दन्तैर्विदारिताः॥११॥
कुछ राक्षसों की पसलियाँ फाड़ डाली गयीं। कितने ही वृक्षों की चोट खाकर ढेर हो गये, किन्हीं का पत्थरों की चोटों से चूर्ण बन गया और कितने ही दाँतों से विदीर्ण कर दिये गये॥ ११॥
ध्वजैर्विमथितैर्भग्नैः खड्गैश्च विनिपातितैः।
रथैर्विध्वंसितैः केचिद् व्यथिता रजनीचराः॥१२॥
कितनों के ध्वज खण्डित करके मसल डाले गये। तलवारें छीनकर नीचे गिरा दी गयीं और रथ चौपट कर दिये गये। इस प्रकार दुर्दशा में पड़कर बहुत-से राक्षस व्यथित हो गये॥ १२॥
गजेन्द्रैः पर्वताकारैः पर्वताग्रैर्वनौकसाम्।
मथितैर्वाजिभिः कीर्णं सारोहैर्वसुधातलम्॥१३॥
वानरों के चलाये हुए पर्वत-शिखरों से कुचल डाले गये पर्वताकार गजराजों, घोड़ों और घुड़सवारों से वह सारी रणभूमि पट गयी॥१३॥
वानरैर्भीमविक्रान्तैराप्लुत्योत्प्लुत्य वेगितैः।
राक्षसाः करजैस्तीक्ष्णैर्मुखेषु विनिदारिताः॥१४॥
भयानक पराक्रम प्रकट करने वाले वेगशाली वानर उछल-उछलकर अपने पंजों से राक्षसों के मुँह नोच लेते या विदीर्ण कर देते थे॥१४॥
विषण्णवदना भूयो विप्रकीर्णशिरोरुहाः।
मूढाः शोणितगन्धेन निपेतुर्धरणीतले॥१५॥
उन राक्षसों के मुखों पर विषाद छा जाता। उनके बाल सब ओर बिखर जाते और रक्त की गन्ध से मूर्छित हो पृथ्वी पर पड़ जाते थे॥ १५ ॥
अन्ये तु परमक्रुद्धा राक्षसा भीमविक्रमाः।
तलैरेवाभिधावन्ति वज्रस्पर्शसमैर्हरीन्॥१६॥
दूसरे भीषण पराक्रमी राक्षस अत्यन्त क्रुद्ध हो अपने वज्रसदृश कठोर तमाचों से मारते हुए वहाँ वानरों पर धावा करते थे॥ १६॥
वानरैः पातयन्तस्ते वेगिता वेगवत्तरैः।
मुष्टिभिश्चरणैर्दन्तैः पादपैश्चावपोथिताः॥१७॥
प्रतिपक्षी को वेगपूर्वक गिराने वाले उन राक्षसों का बहुत-से अत्यन्त वेगशाली वानरों ने लातों, मुक्कों, दाँतों और वृक्षों की मार से कचूमर निकाल दिया। १७॥
सैन्यं तु विद्रुतं दृष्ट्वा धूम्राक्षो राक्षसर्षभः।
रोषेण कदनं चक्रे वानराणां युयुत्सताम्॥१८॥
अपनी सेना को वानरों द्वारा भगायी गयी देख राक्षसशिरोमणि धूम्राक्ष ने युद्ध की इच्छा से सामने आये हुए वानरों का रोषपूर्वक संहार आरम्भ किया॥ १८॥
प्रासैः प्रमथिताः केचिद् वानराः शोणितस्रवाः।
मुद्गरैराहताः केचित् पतिता धरणीतले॥१९॥
कुछ वानरों को उसने भालों से गाँथ दिया, जिससे वे खून की धारा बहाने लगे। कितने ही वानर उसके मुद्गरों से आहत होकर धरती पर लोट गये॥ १९ ॥
परिषैर्मथिताः केचिद् भिन्दिपालैश्च दारिताः।
पट्टिशैर्मथिताः केचिद् विह्वलन्तो गतासवः॥२०॥
कुछ वानर परिघों से कुचल डाले गये। कुछ भिन्दिपालों से चीर दिये गये और कुछ पट्टिशों से मथे जाकर व्याकुल हो अपने प्राणों से हाथ धो बैठे॥२०॥
केचिद् विनिहता भूमौ रुधिरार्द्रा वनौकसः।
केचिद् विद्राविता नष्टाः संक्रुदै राक्षसैर्युधि॥२१॥
कितने ही वानर राक्षसों द्वारा मारे जाकर खून से लथपथ हो पृथ्वी पर सो गये और कितने ही क्रोध भरे राक्षसों द्वारा युद्धस्थल में खदेड़े जाने पर कहीं भागकर छिप गये॥
विभिन्नहृदयाः केचिदेकपाइँन शायिताः।
विदारितास्त्रिशूलैश्च केचिदान्त्रैर्विनिःसृताः॥२२॥
कितनों के हृदय विदीर्ण हो गये। कितने ही एक करवट से सुला दिये गये तथा कितनों को त्रिशूल से विदीर्ण करके धूम्राक्ष ने उनकी आँतें बाहर निकाल दी॥ २२॥
तत् सुभीमं महद्युद्धं हरिराक्षससंकुलम्।
प्रबभौ शस्त्रबहुलं शिलापादपसंकुलम्॥२३॥
वानरों और राक्षसों से भरा हुआ वह महान् युद्ध बड़ा भयानक प्रतीत होता था। उसमें अस्त्र-शस्त्रों की बहुलता थी तथा शिलाओं और वृक्षों की वर्षा से सारी रणभूमि भर गयी थी॥ २३॥
धनुातन्त्रिमधुरं हिक्कातालसमन्वितम्।
मन्दस्तनितगीतं तद् युद्धगान्धर्वमाबभौ ॥२४॥
वह युद्धरूपी गान्धर्व (संगीत-महोत्सव) अद्भुत प्रतीत होता था। धनुष की प्रत्यञ्चा से जो टंकार-ध्वनि होती थी, वही मानो वीणा का मधुर नाद था, हिचकियाँ ताल का काम देती थीं और मन्दस्वर से घायलों का जो कराहना होता था वही गीत का स्थान ले रहा था॥ २४॥
धूम्राक्षस्तु धनुष्पाणिर्वानरान् रणमूर्धनि।
हसन् विद्रावयामास दिशस्ताञ्छरवृष्टिभिः॥२५॥
इस प्रकार धनुष हाथ में लिये धूम्राक्ष ने युद्ध के मुहाने पर बाणों की वर्षा करके वानरों को हँसते-हँसते सम्पूर्ण दिशाओं में मार भगाया॥ २५ ॥
धूम्राक्षेणार्दितं सैन्यं व्यथितं प्रेक्ष्य मारुतिः।
अभ्यवर्तत संक्रुद्धः प्रगृह्य विपुलां शिलाम्॥२६॥
धूम्राक्ष की मार से अपनी सेना को पीड़ित एवं व्यथित हुई देख पवनकुमार हनुमान जी अत्यन्त कुपित हो उठे और एक विशाल शिला हाथ में ले उसके सामने आये॥२६॥
क्रोधाद् द्विगुणताम्राक्षः पितुस्तुल्यपराक्रमः।
शिलां तां पातयामास धूम्राक्षस्य रथं प्रति॥२७॥
उस समय क्रोध के कारण उनके नेत्र दुगुने लाल हो रहे थे। उनका पराक्रम अपने पिता वायुदेवता के ही समान था। उन्होंने धूम्राक्ष के रथ पर वह विशाल शिला दे मारी॥२७॥
आपतन्तीं शिलां दृष्ट्वा गदामुद्यम्य सम्भ्रमात्।
रथादाप्लुत्य वेगेन वसुधायां व्यतिष्ठत ॥२८॥
उस शिला को रथ की ओर आती देख धूम्राक्ष हड़बड़ी में गदा लिये उठा और वेगपूर्वक रथ से कूदकर पृथ्वी पर खड़ा हो गया॥२८॥
सा प्रमथ्य रथं तस्य निपपात शिला भुवि।
सचक्रकूबरं साश्वं सध्वजं सशरासनम्॥२९॥
वह शिला पहिये, कूबर, अश्व, ध्वज और धनुषसहित उसके रथ को चूर-चूर करके पृथ्वी पर गिर पड़ी॥ २९॥
स भक्त्वा तु रथं तस्य हनूमान् मारुतात्मजः।
रक्षसां कदनं चक्रे सस्कन्धविटपैर्दुमैः॥३०॥
इस प्रकार धूम्राक्ष के रथ को चौपट करके पवनपुत्र हनुमान् ने छोटी-बड़ी डालियोंसहित वृक्षों द्वारा राक्षसों का संहार आरम्भ किया॥३०॥
विभिन्नशिरसो भूत्वा राक्षसा रुधिरोक्षिताः।
द्रुमैः प्रमथिताश्चान्ये निपेतुर्धरणीतले॥३१॥
बहुतेरे राक्षसों के सिर फूट गये और वे रक्त से नहा उठे। दूसरे बहुत-से निशाचर वृक्षों की मार से कुचले जाकर धरती पर लोट गये॥ ३१॥
विद्राव्य राक्षसं सैन्यं हनूमान् मारुतात्मजः।
गिरेः शिखरमादाय धूम्राक्षमभिदुद्रुवे॥३२॥
इस प्रकार राक्षससेना को खदेड़कर पवनकुमार हनुमान् ने एक पर्वत का शिखर उठा लिया और धूम्राक्ष पर धावा किया॥३२॥
तमापतन्तं धूम्राक्षो गदामुद्यम्य वीर्यवान्।
विनर्दमानः सहसा हनूमन्तमभिद्रवत्॥३३॥
उन्हें आते देख पराक्रमी धूम्राक्ष ने भी गदा उठा ली और गर्जना करता हुआ वह सहसा हनुमान जी की ओर दौड़ा॥
तस्य क्रुद्धस्य रोषेण गदां तां बहुकण्टकाम्।
पातयामास धूम्राक्षो मस्तकेऽथ हनूमतः॥ ३४॥
धूम्राक्ष ने कुपित हुए हनुमान जी के मस्तक पर बहुसंख्यक काँटों से भरी हुई वह गदा दे मारी॥ ३४ ॥
ताडितः स तया तत्र गदया भीमवेगया।
स कपिर्मारुतबलस्तं प्रहारमचिन्तयन्॥ ३५॥
धूम्राक्षस्य शिरोमध्ये गिरिशृङ्गमपातयत्।
भयानक वेगवाली उस गदा की चोट खाकर भी वायु के समान बलशाली कपिवर हनुमान् ने वहाँ इस प्रहार को कुछ भी नहीं गिना और धूम्राक्ष के मस्तक पर वह पर्वतशिखर चला दिया॥ ३५ १/२ ॥
स विस्फारितसर्वाङ्गो गिरिशृङ्गेण ताडितः॥३६॥
पपात सहसा भूमौ विकीर्ण इव पर्वतः।
पर्वतशिखर की गहरी चोट खाकर धूम्राक्ष के सारे अङ्ग छिन्न-भिन्न हो गये और वह बिखरे हुए पर्वत की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ ३६ १/२॥
धूम्राक्षं निहतं दृष्ट्वा हतशेषा निशाचराः।
त्रस्ताः प्रविविशुर्लङ्कां वध्यमानाः प्लवंगमैः॥३७॥
धूम्राक्ष को मारा गया देख मरने से बचे हुए निशाचर भयभीत हो वानरों की मार खाते हुए लङ्का में घुस गये॥३७॥
स तु पवनसुतो निहत्य शत्रून् क्षतजवहाः सरितश्च संविकीर्य।
रिपुवधजनितश्रमो महात्मा मुदमगमत् कपिभिः सुपूज्यमानः॥३८॥
इस प्रकार शत्रुओं को मारकर और रक्त की धारा बहाने वाली बहुत-सी नदियों को प्रवाहित करके महात्मा पवनकुमार हनुमान् यद्यपि शत्रुवधजनित परिश्रम से थक गये थे, तथापि वानरों द्वारा पूजित एवं प्रशंसित होने से उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई॥ ३८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे द्विपञ्चाशः सर्गः॥५२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में बावनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५२॥