वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 53 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 53
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
त्रिपञ्चाशः सर्गः (53)
वज्रदंष्ट्र का सेनासहित युद्ध के लिये प्रस्थान, वानरों और राक्षसों का युद्ध, वज्रदंष्ट्र द्वारा वानरोंका तथा अङ्गदद्वारा राक्षसों का संहार
धूम्राक्षं निहतं श्रुत्वा रावणो राक्षसेश्वरः।
क्रोधेन महताऽऽविष्टो निःश्वसन्नुरगो यथा॥१॥
धूम्राक्ष के मारे जाने का समाचार सुनकर राक्षसराज रावण को महान् क्रोध हुआ। वह फुफकारते हुए सर्प के समान जोर-जोर से साँस लेने लगा॥१॥
दीर्घमुष्णं विनिःश्वस्य क्रोधेन कलुषीकृतः।
अब्रवीद् राक्षसं क्रूरं वज्रदंष्ट्र महाबलम्॥२॥
क्रोध से कलुषित हो गर्म-गर्म लम्बी साँस खींचकर उसने क्रूर निशाचर महाबली वज्रदंष्ट्र से कहा— ॥२॥
गच्छ त्वं वीर निर्याहि राक्षसैः परिवारितः।
जहि दाशरथिं रामं सुग्रीवं वानरैः सह ॥३॥
‘वीर! तुम राक्षसों के साथ जाओ और दशरथकुमार राम और वानरोंसहित सुग्रीव को मार डालो’॥३॥
तथेत्युक्त्वा द्रुततरं मायावी राक्षसेश्वरः।
निर्जगाम बलैः सार्धं बहुभिः परिवारितः॥४॥
तब वह मायावी राक्षस ‘बहुत अच्छा’ कहकर बहुत बड़ी सेना के साथ तुरंत युद्ध के लिये चल दिया॥
नागैरश्वैः खरैरुष्टैः संयुक्तः सुसमाहितः।
पताकाध्वजचित्रैश्च बहुभिः समलंकृतः॥५॥
वह हाथी, घोड़े, गदहे और ऊँट आदि सवारियों से युक्त था, चित्तको पूर्णतः एकाग्र किये हुए था और पताका, ध्वजा आदि से विचित्र शोभा पाने वाले बहुत से सेनाध्यक्ष उसकी शोभा बढ़ाते थे॥५॥
ततो विचित्रकेयूरमुकुटेन विभूषितः।
तनुत्रं स समावृत्य सधनुर्निर्ययौ द्रुतम्॥६॥
विचित्र भुजबंद और मुकुट से विभूषित हो कवच धारण करके हाथ में धनुष लिये वह शीघ्र ही निकला॥
पताकालंकृतं दीप्तं तप्तकाञ्चनभूषितम्।
रथं प्रदक्षिणं कृत्वा समारोहच्चमपतिः॥७॥
ध्वजा-पताकाओं से अलंकृत, दीप्तिमान् तथा सोने के साज-बाज से सुसज्जित रथ की परिक्रमा करके सेनापति वज्रदंष्ट्र उस पर आरूढ़ हुआ॥ ७॥
ऋष्टिभिस्तोमरैश्चित्रैः श्लक्ष्णैश्च मुसलैरपि।
भिन्दिपालैश्च चापैश्च शक्तिभिः पट्टिशैरपि॥८ ॥
खड्गैश्चक्रैर्गदाभिश्च निशितैश्च परश्वधैः।
पदातयश्च निर्यान्ति विविधाः शस्त्रपाणयः॥९॥
उसके साथ ऋष्टि, विचित्र तोमर, चिकने मूसल, भिन्दिपाल, धनुष, शक्ति, पट्टिश, खड्ग, चक्र, गदा और तीखे फरसों से सुसज्जित बहुत-से पैदल योद्धा चले। उनके हाथों में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र शोभा पा रहे थे॥ ८-९॥
विचित्रवाससः सर्वे दीप्ता राक्षसपुङ्गवाः।
गजा महोत्कटाः शूराश्चलन्त इव पर्वताः॥१०॥
विचित्र वस्त्र धारण करने वाले सभी राक्षस वीर अपने तेज से उद्भासित हो रहे थे। शौर्यसम्पन्न मदमत्त गजराज चलते-फिरते पर्वतों के समान जान पड़ते थे।
ते युद्धकुशला रूढास्तोमराङ्कशपाणिभिः।
अन्ये लक्षणसंयुक्ताः शूरारूढा महाबलाः॥११॥
हाथों में तोमर, अंकुश धारण करने वाले महावत जिनकी गर्दन पर सवार थे तथा जो युद्ध की कला में कुशल थे, वे हाथी युद्ध के लिये आगे बढ़े। उत्तम लक्षणों से युक्त जो दूसरे-दूसरे महाबली घोड़े थे, जिनके ऊपर शूरवीर सैनिक सवार थे, वे भी युद्ध के लिये निकले॥११॥
तद् राक्षसबलं सर्वं विप्रस्थितमशोभत।
प्रावृट्काले यथा मेघा नर्दमानाः सविद्युतः॥१२॥
युद्ध के उद्देश्य से प्रस्थित हुई राक्षसों की वह सारी सेना वर्षाकाल में गर्जते हुए बिजलियोंसहित मेघ के समान शोभा पा रही थी॥१२॥
निःसृता दक्षिणद्वारादङ्गदो यत्र यूथपः।
तेषां निष्क्रममाणानामशुभं समजायत॥१३॥
वह सेना लङ्का के दक्षिणद्वार से निकली, जहाँ वानरयूथपति अङ्गद राह रोके खड़े थे। उधर से निकलते ही उन राक्षसों के सामने अशुभसूचक अपशकुन होने लगा॥१३॥
आकाशाद् विघनात् तीव्रा उल्काश्चाभ्यपतंस्तदा।
वमन्तः पावकज्वालाः शिवा घोरा ववाशिरे॥१४॥
मेघरहित आकाश से तत्काल दुःसह उल्कापात होने लगे। भयानक गीदड़ मुँह से आग की ज्वाला उगलते हुए अपनी बोली बोलने लगे॥ १४ ॥
व्याहरन्त मृगा घोरा रक्षसां निधनं तदा।
समापतन्तो योधास्तु प्रास्खलंस्तत्र दारुणम्॥१५॥
घोर पशु ऐसी बोली बोलने लगे, जिससे राक्षसों के संहार की सूचना मिल रही थी। युद्ध के लिये आते हुए योद्धा बुरी तरह लड़खड़ाकर गिर पड़ते थे। इससे उनकी बड़ी दारुण अवस्था हो जाती थी॥ १५ ॥
एतानौत्पातिकान् दृष्ट्वा वज्रदंष्ट्रो महाबलः।
धैर्यमालम्ब्य तेजस्वी निर्जगाम रणोत्सुकः॥१६॥
इन उत्पातसूचक लक्षणों को देखकर भी महाबली वज्रदंष्ट्रने धैर्य नहीं छोड़ा। वह तेजस्वी वीर युद्ध के लिये उत्सुक होकर निकला॥ १६॥
तांस्तु विद्रवतो दृष्ट्वा वानरा जितकाशिनः।
प्रणेदुः सुमहानादान् दिशः शब्देन पूरयन्॥१७॥
तीव्रगति से आते हुए उन राक्षसों को देखकर विजयलक्ष्मी से सुशोभित होने वाले वानर बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे। उन्होंने अपने सिंहनाद से सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजा दिया॥ १७॥
ततः प्रवृत्तं तुमुलं हरीणां राक्षसैः सह।
घोराणां भीमरूपाणामन्योन्यवधकाङ्किणाम्॥१८॥
तदनन्तर भयानक रूप धारण करने वाले घोर वानरों का राक्षसों के साथ तुमुल युद्ध आरम्भ हुआ। दोनों दलों के योद्धा एक-दूसरे का वध करना चाहते थे॥१८॥
निष्पतन्तो महोत्साहा भिन्नदेहशिरोधराः।
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गा न्यपतन् धरणीतले॥१९॥
वे बड़े उत्साह से युद्ध के लिये निकलते; परंतु देह और गर्दन कट जाने से पृथ्वी पर गिर पड़ते थे। उस समय उनके सारे अङ्ग रक्त से भीग जाते थे॥ १९ ॥
केचिदन्योन्यमासाद्य शूराः परिघबाहवः।
चिक्षिपुर्विविधान् शस्त्रान् समरेष्वनिवर्तिनः॥२०॥
युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले और परिघ-जैसी बाँहों वाले कितने ही शूरवीर एक-दूसरे के निकट पहुँचकर परस्पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते थे॥
द्रुमाणां च शिलानां च शस्त्राणां चापि निःस्वनः।
श्रूयते सुमहांस्तत्र घोरो हृदयभेदनः॥२१॥
उस युद्धस्थल में प्रयुक्त होने वाले वृक्षों, शिलाओं और शस्त्रों का महान् एवं घोर शब्द जब कानों में पड़ता था, तब वह हृदय को विदीर्ण-सा कर देता था॥ २१॥
रथनेमिस्वनस्तत्र धनुषश्चापि घोरवत्।
शङ्खभेरीमृदङ्गानां बभूव तुमुलः स्वनः॥२२॥
वहाँ रथ के पहियों की घर्घराहट, धनुष की भयानक टंकार तथा शङ्ख, भेरी और मृदङ्गों का शब्द एक में मिलकर बड़ा भयंकर प्रतीत होता था॥ २२॥
केचिदस्त्राणि संत्यज्य बाहुयुद्धमकुर्वत॥२३॥
तलैश्च चरणैश्चापि मुष्टिभिश्च द्रुमैरपि।
जानुभिश्च हताः केचिद् भग्नदेहाश्च राक्षसाः।
शिलाभिश्चूर्णिताः केचिद् वानरैयुद्धदुर्मदैः॥२४॥
कुछ योद्धा अपने हथियार फेंककर बाहुयुद्ध करने लगते थे। थप्पड़ों, लातों, मुक्कों, वृक्षों और घुटनों की मार खाकर कितने ही राक्षसों के शरीर चूर-चूर हो गये थे। रणदुर्मद वानरों ने शिलाओं से मार-मारकर कितने ही राक्षसों का चूरा बना दिया था॥ २३-२४॥
वज्रदंष्ट्रो भृशं बाणै रणे वित्रासयन् हरीन्।
चचार लोकसंहारे पाशहस्त इवान्तकः॥२५॥
उस समय वज्रदंष्ट्र अपने बाणों की मार से वानरों को अत्यन्त भयभीत करता हुआ तीनों लोकों के संहार के लिये उठे हुए पाशधारी यमराज के समान रणभूमि में विचरने लगा॥ २५॥
बलवन्तोऽस्त्रविदुषो नानाप्रहरणा रणे।
जघ्नुर्वानरसैन्यानि राक्षसाः क्रोधर्मूच्छिताः॥२६॥
साथ ही क्रोध से भरे तथा नाना प्रकार के अस्त्रशस्त्र लिये अन्य अस्त्रवेत्ता बलवान् राक्षस भी वानरसेनाओं का रणभूमि में संहार करने लगे॥ २६॥
जम्ने तान् राक्षसान् सर्वान् धृष्टो वालिसुतो रणे।
क्रोधेन द्विगुणाविष्टः संवर्तक इवानलः॥२७॥
किंतु प्रलयकाल में संवर्तक अग्नि जैसे प्राणियों का संहार करती है, उसी तरह वालिपुत्र अङ्गद और भी निर्भय हो दूने क्रोध से भरकर उन सब राक्षसों का वध करने लगे॥ २७॥
तान् राक्षसगणान् सर्वान् वृक्षमुद्यम्य वीर्यवान्।
अङ्गदः क्रोधताम्राक्षः सिंहः क्षुद्रमृगानिव॥२८॥
चकार कदनं घोरं शक्रतुल्यपराक्रमः।
उनकी आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं। वे इन्द्र के तुल्य पराक्रमी थे। जैसे सिंह छोटे वन्य-पशुओं को अनायास ही नष्ट कर देता है, उसी तरह पराक्रमी अङ्गद ने एक वृक्ष उठाकर उन समस्त राक्षसगणों का घोर संहार आरम्भ किया॥ २८ १/२॥
अङ्गदाभिहतास्तत्र राक्षसा भीमविक्रमाः॥२९॥
विभिन्नशिरसः पेतुर्निकृत्ता इव पादपाः।
अङ्गद की मार खाकर वे भयानक पराक्रमी राक्षस सिर फट जाने के कारण कटे हुए वृक्षों के समान पृथ्वी पर गिरने लगे॥ २९ १/२॥
रथैश्चित्रैर्ध्वजैरश्वैः शरीरैर्हरिरक्षसाम्॥३०॥
रुधिरौघेण संछन्ना भूमिर्भयकरी तदा।
उस समय रथों, चित्र-विचित्र ध्वजों, घोड़ों, राक्षस और वानरों के शरीरों तथा रक्त की धाराओं से भर जाने के कारण वह रणभूमि बड़ी भयानक जान पड़ती थी॥३० १/२॥
हारकेयूरवस्त्रैश्च शस्त्रैश्च समलंकृता॥३१॥
भूमि ति रणे तत्र शारदीव यथा निशा।
योद्धाओं के हार, केयूर (बाजूबंद), वस्त्र और शस्त्रों से अलंकृत हुई रणभूमि शरत्काल की रात्रि के समान शोभा पाती थी॥ ३१ १/२॥
अङ्गदस्य च वेगेन तद् राक्षसबलं महत्।
प्राकम्पत तदा तत्र पवनेनाम्बुदो यथा॥३२॥
अङ्गद के वेग से वहाँ वह विशाल राक्षससेना उस समय उसी तरह काँपने लगी, जैसे वायु के वेग से मेघ कम्पित हो उठता है॥३२॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे त्रिपञ्चाशः सर्गः॥५३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में तिरपनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५३॥