वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 54 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 54
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
चतुःपञ्चाशः सर्गः (54)
वज्रदंष्ट्र और अङ्गद का युद्ध तथा अङ्गद के हाथ से उस निशाचर का वध
स्वबलस्य च घातेन अङ्गदस्य बलेन च।
राक्षसः क्रोधमाविष्टो वज्रदंष्ट्रो महाबलः॥१॥
अङ्गद के पराक्रम से अपनी सेना का संहार होता देख महाबली राक्षस वज्रदंष्ट्र अत्यन्त कुपित हो उठा॥
विस्फार्य च धनुर्घोरं शक्राशनिसमप्रभम्।
वानराणामनीकानि प्राकिरच्छरवृष्टिभिः॥२॥
वह इन्द्र के वज्र के समान तेजस्वी अपना भयंकर धनुष खींचकर वानरों की सेना पर बाणों की वर्षा करने लगा॥२॥
राक्षसाश्चापि मुख्यास्ते रथेषु समवस्थिताः।
नानाप्रहरणाः शूराः प्रायुध्यन्त तदा रणे॥३॥
उसके साथ अन्य प्रधान-प्रधान शूरवीर राक्षस भी रथों पर बैठकर हाथों में तरह-तरह के हथियार लिये संग्रामभूमि में युद्ध करने लगे॥३॥
वानराणां च शूरास्तु ते सर्वे प्लवगर्षभाः।
अयुध्यन्त शिलाहस्ताः समवेताः समन्ततः॥४॥
वानरों में भी जो विशेष शूरवीर थे, वे सभी वानरशिरोमणि सब ओर से एकत्र हो हाथों में शिलाएँ लिये जूझने लगे॥४॥
तत्रायुधसहस्राणि तस्मिन्नायोधने भृशम्।
राक्षसाः कपिमुख्येषु पातयांचक्रिरे तदा॥५॥
उस समय इस रणभूमि में राक्षसों ने मुख्य-मुख्य वानरों पर हजारों अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा की॥५॥
वानराश्चैव रक्षःसु गिरिवृक्षान् महाशिलाः।
प्रवीराः पातयामासुर्मत्तवारणसंनिभाः॥६॥
मतवाले हाथी के समान विशालकाय वीर वानरों ने भी राक्षसों पर अनेकानेक पर्वत, वृक्ष और बड़ी-बड़ी शिलाएँ गिरायीं॥६॥
शूराणां युध्यमानानां समरेष्वनिवर्तिनाम्।
तद् राक्षसगणानां च सुयुद्धं समवर्तत॥७॥
युद्ध में पीठ न दिखाने वाले और उत्साहपूर्वक जूझने वाले शूरवीर वानरों और राक्षसों का वह युद्ध उत्तरोत्तर बढ़ता गया॥७॥
प्रभिन्नशिरसः केचिच्छिन्नैः पादैश्च बाहभिः।
शस्त्रैरर्दितदेहास्तु रुधिरेण समुक्षिताः॥८॥
किन्हीं के सिर फूटे, किन्हीं के हाथ और पैर कट गये और बहुत-से योद्धाओं के शरीर शस्त्रों के आघात से पीड़ित हो रक्त से नहा गये॥ ८॥
हरयो राक्षसाश्चैव शेरते गां समाश्रिताः।
कङ्कगृध्रबलाढ्याश्च गोमायुकुलसंकुलाः॥९॥
वानर और राक्षस दोनों ही धराशायी हो गये। उन पर कङ्क, गीध और कौए टूट पड़े। गीदड़ों की जमातें छा गयीं॥ ९॥
कबन्धानि समुत्पेतुर्भीरूणां भीषणानि वै।
भुजपाणिशिरश्छिन्नाश्छिन्नकायाश्च भूतले॥१०॥
वहाँ जिनके मस्तक कट गये थे, ऐसे धड़ सब ओर उछलने लगे, जो भीरु स्वभाववाले सैनिकों को भयभीत करते थे। योद्धाओं की कटी हुई भुजाएँ, हाथ, सिर तथा शरीर के मध्यभाग पृथ्वी पर पड़े हुए थे। १०॥
वानरा राक्षसाश्चापि निपेतुस्तत्र भूतले।
ततो वानरसैन्येन हन्यमानं निशाचरम्॥११॥
प्राभज्यत बलं सर्वं वज्रदंष्ट्रस्य पश्यतः।
वानर और राक्षस दोनों ही दलों के लोग वहाँ धराशायी हो रहे थे। तत्पश्चात् कुछ ही देर में वानरसैनिकों के प्रहारों से पीड़ित हो सारी निशाचरसेना वज्रदंष्ट्र के देखते-देखते भाग चली॥ ११ १/२॥
राक्षसान् भयवित्रस्तान् हन्यमानान् प्लवंगमैः॥१२॥
दृष्ट्वा स रोषताम्राक्षो वज्रदंष्ट्रः प्रतापवान्।
वानरों की मार से राक्षसों को भयभीत हुआ देख प्रतापी वज्रदंष्ट्र की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं॥ १२ १/२॥
प्रविवेश धनुष्पाणिस्त्रासयन् हरिवाहिनीम्॥१३॥
शरैर्विदारयामास कङ्कपत्रैरजिह्मगैः।
वह हाथ में धनुष ले वानरसेना को भयभीत करता हुआ उसके भीतर घुस गया और सीधे जाने वाले कङ्कपत्रयुक्त बाणों द्वारा शत्रुओं को विदीर्ण करने लगा॥
बिभेद वानरांस्तत्र सप्ताष्टौ नव पञ्च च॥१४॥
विव्याध परमवुद्धो वज्रदंष्ट्रः प्रतापवान्।
अत्यन्त क्रोध से भरा हुआ प्रतापी वज्रदंष्ट्र वहाँ एक-एक प्रहार से पाँच, सात, आठ और नौ-नौ वानरों को घायल कर देता था। इस तरह उसने वानरसैनिकों को गहरी चोट पहुँचायी॥ १४ १/२ ॥
त्रस्ताः सर्वे हरिगणाः शरैः संकृत्तदेहिनः।
अङ्गदं सम्प्रधावन्ति प्रजापतिमिव प्रजाः॥१५॥
बाणों से जिनके शरीर छिन्न-भिन्न हो गये थे, वे समस्त वानरगण भयभीत हो अङ्गद की ओर दौड़े, मानो प्रजा प्रजापति की शरण में जा रही हो॥ १५ ॥
ततो हरिगणान् भग्नान् दृष्ट्वा वालिसुतस्तदा।
क्रोधेन वज्रदंष्ट्र तमुदीक्षन्तमुदैक्षत॥१६॥
उस समय वानरों को भागते देख वालिकुमार अङ्गद ने अपनी ओर देखते हुए वज्रदंष्ट्र को क्रोधपूर्वक देखा॥ १६॥
वज्रदंष्ट्रोऽङ्गदश्चोभौ योयुध्येते परस्परम्।
चेरतुः परमक्रुद्धौ हरिमत्तगजाविव॥१७॥
फिर तो वज्रदंष्ट्र और अङ्गद अत्यन्त कुपित हो एक-दूसरे से वेगपूर्वक युद्ध करने लगे। वे दोनों रणभूमि में बाघ और मतवाले हाथी के समान विचर रहे थे॥ १७॥
ततः शतसहस्रेण हरिपुत्रं महाबलम्।
जघान मर्मदेशेषु शरैरग्निशिखोपमैः॥१८॥
उस समय वज्रदंष्ट्र ने महाबली वालिपुत्र अङ्गद के मर्मस्थानों में अग्निशिखा के समान तेजस्वी एक लाख बाण मारे॥१८॥
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गो वालिसूनुर्महाबलः।
चिक्षेप वज्रदंष्ट्राय वृक्षं भीमपराक्रमः॥१९॥
इससे उनके सारे अङ्ग लहू-लुहान हो उठे। तब भयानक पराक्रमी महाबली वालिकुमार ने वज्रदंष्ट्र पर एक वृक्ष चलाया॥ १९॥
दृष्ट्वा पतन्तं तं वृक्षमसम्भ्रान्तश्च राक्षसः।
चिच्छेद बहुधा सोऽपि मथितः प्रापतद् भुवि॥२०॥
उस वृक्ष को अपनी ओर आते देखकर भी वज्रदंष्ट्र के मन में घबराहट नहीं हुई। उसने बाण मारकर उस वृक्ष के कई टुकड़े कर दिये। इस प्रकार खण्डित होकर वह वृक्ष पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ २० ॥
तं दृष्ट्वा वज्रदंष्ट्रस्य विक्रमं प्लवगर्षभः।
प्रगृह्य विपुलं शैलं चिक्षेप च ननाद च॥२१॥
वज्रदंष्ट्र के उस पराक्रम को देखकर वानरशिरोमणि अङ्गद ने एक विशाल चट्टान लेकर उसके ऊपर दे मारी और बड़े जोर से गर्जना की॥२१॥
तमापतन्तं दृष्ट्वा स रथादाप्लुत्य वीर्यवान्।
गदापाणिरसम्भ्रान्तः पृथिव्यां समतिष्ठत ॥ २२॥
उस चट्टान को आती देख वह पराक्रमी राक्षस बिना किसी घबराहट के रथ से कूद पड़ा और केवल गदा हाथ में लेकर पृथ्वी पर खड़ा हो गया॥२२॥
अङ्गदेन शिला क्षिप्ता गत्वा तु रणमूर्धनि।
सचक्रकूबरं साश्वं प्रममाथ रथं तदा ॥२३॥
अङ्गद की फेंकी हुई वह चट्टान उसके रथ पर पहुँच गयी और युद्ध के मुहाने पर उसने पहिये, कूबर तथा घोड़ोंसहित उस रथ को तत्काल चूर-चूर कर डाला। २३॥
ततोऽन्यच्छिखरं गृह्य विपुलं द्रुमभूषितम्।
वज्रदंष्ट्रस्य शिरसि पातयामास वानरः॥२४॥
तत्पश्चात् वानरवीर अङ्गद ने वृक्षों से अलंकृत दूसरा विशाल शिखर हाथ में लेकर उसे वज्रदंष्ट्र के मस्तक पर दे मारा ॥२४॥
अभवच्छोणितोद्गारी वज्रदंष्टः सुमूर्च्छितः।
मुहूर्तमभवन्मूढो गदामालिङ्ग्य निःश्वसन्॥२५॥
वज्रदंष्ट्र उसकी चोट से मूर्च्छित हो गया और रक्त वमन करने लगा। वह गदा को हृदय से लगाये दो घड़ी तक अचेत पड़ा रहा। केवल उसकी साँस चलती रही॥२५॥
स लब्धसंज्ञो गदया वालिपुत्रमवस्थितम्।
जघान परमक्रुद्धो वक्षोदेशे निशाचरः॥२६॥
होश में आने पर उस निशाचर ने अत्यन्त कुपित हो सामने खड़े हुए वालिपुत्र की छाती में गदा से प्रहार किया॥२६॥
गदां त्यक्त्वा ततस्तत्र मुष्टियुद्धमकुर्वत।
अन्योन्यं जनतस्तत्र तावुभौ हरिराक्षसौ॥२७॥
फिर गदा त्यागकर वह वहाँ मुक्के से युद्ध करने लगा। वे वानर और राक्षस दोनों वीर एक-दूसरे को मुक्कों से मारने लगे॥२७॥
रुधिरोद्गारिणौ तौ तु प्रहारैर्जनितश्रमौ।
बभूवतुः सुविक्रान्तावङ्गारकबुधाविव॥२८॥
दोनों ही बड़े पराक्रमी थे और परस्पर जूझते हुए मङ्गल एवं बुध के समान जान पड़ते थे। आपस के प्रहारों से पीड़ित हो दोनों ही थक गये और मुँह से रक्त वमन करने लगे॥२८॥
ततः परमतेजस्वी अङ्गदः प्लवगर्षभः।
उत्पाट्य वृक्षं स्थितवानासीत् पुष्पफलैर्युतः॥२९॥
तत्पश्चात् परम तेजस्वी वानरशिरोमणि अङ्गद एक वृक्ष उखाड़कर खड़े हो गये। वे वहाँ उस वृक्षसम्बन्धी फल-फूलों के कारण स्वयं भी फल और फूलों से युक्त दिखायी देते थे॥२९॥
जग्राह चार्षभं चर्म खड्गं च विपुलं शुभम्।
किङ्किणीजालसंछन्नं चर्मणा च परिष्कृतम्॥३०॥
उधर वज्रदंष्ट्र ने ऋषभ के चर्म की बनी हुई ढाल और सुन्दर एवं विशाल तलवार ले ली। वह तलवार छोटी-छोटी घण्टियों के जाल से आच्छादित तथा चमड़े की म्यान से सुशोभित थी॥३०॥
चित्रांश्च रुचिरान् मार्गाश्चेरतुः कपिराक्षसौ।
जघ्नतुश्च तदान्योन्यं नर्दन्तौ जयकांक्षिणौ॥३१॥
उस समय परस्पर विजय की इच्छा रखने वाले वे वानर और राक्षस वीर सुन्दर एवं विचित्र पैंतरे बदलने तथा गर्जते हुए एक-दूसरे पर चोट करने लगे॥३१॥
व्रणैः सानैरशोभेतां पुष्पिताविव किंशुकौ।
युध्यमानौ परिश्रान्तौ जानुभ्यामवनीं गतौ॥३२॥
दोनों के घावों से रक्त की धारा बहने लगी, जिससे वे खिले हुए पलाश-वृक्षों के समान शोभा पाने लगे। लड़ते-लड़ते थक जाने के कारण दोनोंने ही पृथ्वी पर घुटने टेक दिये॥ ३२॥
निमेषान्तरमात्रेण अङ्गदः कपिकुञ्जरः।
उदतिष्ठत दीप्ताक्षो दण्डाहत इवोरगः॥३३॥
किंतु पलक मारते-मारते कपिश्रेष्ठ अङ्गद उठकर खड़े हो गये। उनके नेत्र रोष से उद्दीप्त हो उठे थे और वे डंडे की चोट खाये हुए सर्प के समान उत्तेजित हो रहे थे॥
निर्मलेन सुधौतेन खड्गेनास्य महच्छिरः।
जघान वज्रदंष्ट्रस्य वालिसूनुर्महाबलः॥ ३४॥
महाबली बालिकुमार ने अपनी निर्मल एवं तेज धारवाली चमकीली तलवार से वज्रदंष्ट्र का विशाल मस्तक काट डाला॥ ३४॥
रुधिरोक्षितगात्रस्य बभूव पतितं द्विधा।
तच्च तस्य परीताक्षं शुभं खड्गहतं शिरः॥ ३५॥
खून से लथपथ शरीर वाले उस राक्षस का वह खड्ग से कटा हुआ सुन्दर मस्तक, जिसके नेत्र उलट गये थे, धरती पर गिरकर दो टुकड़ों में विभक्त हो गया॥
वज्रदंष्ट्र हतं दृष्ट्वा राक्षसा भयमोहिताः।
त्रस्ता ह्यभ्यद्रवल्लङ्कां वध्यमानाः प्लवङ्गमैः।
विषण्णवदना दीना ह्रिया किंचिदवाङ्मखाः॥३६॥
वज्रदंष्ट्र को मारा गया देख राक्षस भय से अचेत हो गये। वे वानरों की मार खाकर भय के मारे लङ्का में भाग गये। उनके मुख पर विषाद छा रहा था। वे बहुत दुःखी थे और लज्जा के कारण उन्होंने अपना मुँह कुछ नीचा कर लिया था॥ ३६॥
निहत्य तं वज्रधरः प्रतापवान् स वालिसूनुः कपिसैन्यमध्ये।
जगाम हर्षं महितो महाबलः सहस्रनेत्रस्त्रिदशैरिवावृतः॥३७॥
वज्रधारी इन्द्र के समान प्रतापी महाबली वालिकुमार अङ्गद उस निशाचर वज्रदंष्ट्र को मारकर वानरसेना में सम्मानित हो देवताओं से घिरे हुए सहस्र नेत्रधारी इन्द्र के समान बड़े हर्ष को प्राप्त हुए॥ ३७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः॥५४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में चौवनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५४॥