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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 57 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 57

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
सप्तपञ्चाशः सर्गः (57)

प्रहस्त का रावण की आज्ञा से विशाल सेनासहित युद्ध के लिये प्रस्थान

 

अकम्पनवधं श्रुत्वा क्रुद्धो वै राक्षसेश्वरः।
किंचिद् दीनमुखश्चापि सचिवांस्तानुदैक्षत॥१॥

अकम्पन के वध का समाचार पाकर राक्षसराज रावण को बड़ा क्रोध हुआ। उसके मुख पर कुछ दीनता छा गयी और वह मन्त्रियों की ओर देखने लगा॥१॥

स तु ध्यात्वा मुहूर्तं तु मन्त्रिभिः संविचार्य च।
ततस्तु रावणः पूर्वदिवसे राक्षसाधिपः।
पुरीं परिययौ लङ्कां सर्वान् गुल्मानवेक्षितुम्॥२॥

पहले तो दो घड़ी तक वह कुछ सोचता रहा। फिर उसने मन्त्रियों के साथ विचार किया और उसके बाद दिन के पूर्वभाग में राक्षसराज रावण स्वयं लङ्का के सब मोरचों का निरीक्षण करने के लिये गया॥२॥

तां राक्षसगणैर्गुप्तां गुल्मैर्बहुभिरावृताम्।
ददर्श नगरी राजा पताकाध्वजमालिनीम्॥३॥

राक्षसगणों से सुरक्षित और बहुत-सी छावनियों से घिरी हुई, ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित उस नगरी को राजा रावण ने अच्छी तरह देखा॥३॥

रुद्धां तु नगरीं दृष्ट्वा रावणो राक्षसेश्वरः।
उवाचात्महितं काले प्रहस्तं युद्धकोविदम्॥४॥

लङ्कापुरी चारों ओर से शत्रुओं द्वारा घेर ली गयी थी। यह देखकर राक्षसराज रावण ने अपने हितैषी युद्धकलाकोविद प्रहस्त से यह समयोचित बात कही – ॥४॥

पुरस्योपनिविष्टस्य सहसा पीडितस्य ह।
नान्ययुद्धात् प्रपश्यामि मोक्षं युद्धविशारद ॥५॥

‘युद्धविशारद वीर! नगर के अत्यन्त निकट शत्रुओं की सेना छावनी डाले पड़ी है, इसीलिये सारानगर सहसा व्यथित हो उठा है। अब मैं दूसरे किसी के युद्ध करने से इसका छुटकारा होता नहीं देखता हूँ॥ ५॥

अहं वा कुम्भकर्णो वा त्वं वा सेनापतिर्मम।
इन्द्रजिद् वा निकुम्भो वा वहेयुर्भारमीदृशम्॥६॥

‘अब तो इस तरह के युद्ध का भार मैं, कुम्भकर्ण, मेरे सेनापति तुम, बेटा इन्द्रजित् अथवा निकुम्भ ही उठा सकते हैं॥६॥

स त्वं बलमतः शीघ्रमादाय परिगृह्य च।
विजयायाभिनिर्याहि यत्र सर्वे वनौकसः॥७॥

‘अतः तुम शीघ्र ही सेना लेकर विजय के लिये प्रस्थान करो और जहाँ ये सब वानर जुटे हुए हैं, वहाँ जाओ॥७॥

निर्याणादेव तूर्णं च चलिता हरिवाहिनी।
नर्दतां राक्षसेन्द्राणां श्रुत्वा नादं द्रविष्यति॥८॥

‘तुम्हारे निकलते ही सारी वानरसेना तुरंत विचलित हो उठेगी और गर्जते हुए राक्षसशिरोमणियों का सिंहनाद सुनकर भाग खड़ी होगी॥८॥

चपला ह्यविनीताश्च चलचित्ताश्च वानराः।
न सहिष्यन्ति ते नादं सिंहनादमिव द्विपाः॥९॥

‘वानरलोग बड़े चञ्चल, ढीठ और डरपोक होते हैं, जैसे हाथी सिंह की गर्जना नहीं सह सकते, उसी प्रकार वे वानर तुम्हारा सिंहनाद नहीं सह सकेंगे। ९॥

विद्रुते च बले तस्मिन् रामः सौमित्रिणा सह।
अवशस्ते निरालम्बः प्रहस्त वशमेष्यति॥१०॥

‘प्रहस्त! जब वानरसेना भाग जायगी, तब कोई सहारा न रहने के कारण लक्ष्मणसहित श्रीराम विवश होकर तुम्हारे अधीन हो जायँगे॥ १० ॥

आपत्संशयिता श्रेयो नात्र निःसंशयीकृता।
प्रतिलोमानुलोमं वा यत् तु नो मन्यसे हितम्॥११॥

‘युद्ध में मृत्यु संदिग्ध होती है, हो भी सकती है और न भी हो। किंतु ऐसी मृत्यु ही श्रेष्ठ है। (इसके विपरीत) जीवन को बिना संशय (जोखिम)-में डाले (बिना युद्धस्थल के) जो मृत्यु होती है, वह श्रेष्ठ नहीं होती (ऐसा मेरा विचार है)। इसके अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ तुम हमारे लिये हितकर समझते हो, उसे बताओ’ ॥ ११॥

रावणेनैवमुक्तस्तु प्रहस्तो वाहिनीपतिः।
राक्षसेन्द्रमुवाचेदमसुरेन्द्रमिवोशना ॥१२॥

रावण के ऐसा कहने पर सेनापति प्रहस्त ने उस राक्षसराज के समक्ष उसी तरह अपना विचार व्यक्त किया, जैसे शुक्राचार्य असुरराज बलि को अपनी सलाह दिया करते हैं।१२ ॥

राजन् मन्त्रितपूर्वं नः कुशलैः सह मन्त्रिभिः।
विवादश्चापि नो वृत्तः समवेक्ष्य परस्परम्॥

(उसने कहा-) ‘राजन्! हमलोगों ने कुशल मन्त्रियों के साथ पहले भी इस विषयपर विचार किया है। उन दिनों एक-दूसरे के मत की आलोचना करके हमलोगों में विवाद भी खड़ा हो गया था (हमलोग सर्वसम्मति से किसी एक निर्णय पर नहीं पहुँच सके थे) ॥ १३॥

प्रदानेन तु सीतायाः श्रेयो व्यवसितं मया।
अप्रदाने पुनर्युद्धं दृष्टमेव तथैव नः॥१४॥

‘मेरा पहले से ही यह निश्चय रहा है कि सीताजी को लौटा देने से ही हमलोगों का कल्याण होगा और न लौटाने पर युद्ध अवश्य होगा। उस निश्चयके अनुसार ही हमें आज यह युद्ध का संकट दिखायी दिया है॥ १४॥

सोऽहं दानैश्च मानैश्च सततं पूजितस्त्वया।
सान्त्वैश्च विविधैः काले किं न कुर्यां हितं तव॥१५॥

‘परंतु आपने दान, मान और विविध सान्त्वनाओं के द्वारा समय-समय पर सदा ही मेरा सत्कार किया है। फिर मैं आपका हितसाधन क्यों नहीं करूँगा? (अथवा आपके हित के लिये कौन-सा कार्य नहीं कर सकूँगा)॥

नहि मे जीवितं रक्ष्यं पत्रदारधनानि च।
त्वं पश्य मां जुहूषन्तं त्वदर्थे जीवितं युधि॥१६॥

‘मुझे अपने जीवन, स्त्री, पुत्र और धन आदि की रक्षा नहीं करनी है—इनकी रक्षाके लिये मुझे कोई चिन्ता नहीं। आप देखिये कि मैं किस तरह आपके लिये युद्ध की ज्वाला में अपने जीवन की आहुति देता हूँ’॥ १६॥

एवमुक्त्वा तु भर्तारं रावणं वाहिनीपतिः।
उवाचेदं बलाध्यक्षान् प्रहस्तः पुरतः स्थितान्॥१७॥

अपने स्वामी रावण से ऐसा कहकर प्रधान सेनापति प्रहस्त ने अपने सामने खड़े हुए सेनाध्यक्षों से इस प्रकार कहा- ॥ १७॥

समानयत मे शीघ्रं राक्षसानां महाबलम्।
मबाणानां तु वेगेन हतानां च रणाजिरे॥१८॥
अद्य तृप्यन्तु मांसादाः पक्षिणः काननौकसाम्।

‘तुमलोग शीघ्र मेरे पास राक्षसों की विशाल सेना ले आओ। आज मांसाहारी पक्षी समराङ्गण में मेरे बाणों के वेग से मारे गये वानरों के मांस खाकर तृप्त हो जायँ॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा बलाध्यक्षा महाबलाः॥१९॥
 बलमुद्योजयामासुस्तस्मिन् राक्षसमन्दिरे।

प्रहस्त की यह बात सुनकर महाबली सेनाध्यक्षों ने रावण के उस महल के पास विशाल सेना को युद्ध के लिये तैयार किया॥ १९ १/२॥

सा बभूव मुहूर्तेन भीमैर्नानाविधायुधैः ॥ २०॥
लङ्का राक्षसवीरैस्तैर्गजैरिव समाकुला।

दो ही घड़ी में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये हाथी-जैसे भयानक राक्षसवीरों से लङ्कापुरी भर गयी॥

हुताशनं तर्पयतां ब्राह्मणांश्च नमस्यताम्॥२१॥
आज्यगन्धप्रतिवहः सुरभिर्मारुतो ववौ।

कितने ही राक्षस घी की आहुति देकर अग्निदेव को तृप्त करने लगे और ब्राह्मणों को नमस्कार करके आशीर्वाद लेने लगे। उस समय घी की गन्ध लेकर सुगन्धित वायु सब ओर बहने लगी॥ २१ १/२ ।।

स्रजश्च विविधाकारा जगृहुस्त्वभिमन्त्रिताः॥२२॥
संग्रामसज्जाः संहृष्टा धारयन् राक्षसास्तदा।

राक्षसों ने मन्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित नाना प्रकार की मालाएँ ग्रहण की और हर्ष एवं उत्साह से युक्त हो युद्धोपयोगी वेश-भूषा धारण की॥ २२ १/२ ।।

सधनुष्काः कवचिनो वेगादाप्लुत्य राक्षसाः॥२३॥
रावणं प्रेक्ष्य राजानं प्रहस्तं पर्यवारयन्।

धनुष और कवच धारण किये राक्षस वेग से उछलकर आगे बढ़े और राजा रावण का दर्शन करते हए प्रहस्त को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। २३ १/२॥

अथामन्त्र्य तु राजानं भेरीमाहत्य भैरवाम्॥२४॥
आरुरोह रथं युक्तः प्रहस्तः सज्जकल्पितम्।

तदनन्तर राजा की आज्ञा ले भयंकर भेरी बजवाकर कवच आदि धारण कर के युद्ध के लिये उद्यत हुआ प्रहस्त अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित रथ पर आरूढ़ हुआ॥ २४ १/२॥

हयैर्महाजवैर्युक्तं सम्यक्सूतं सुसंयतम्॥ २५॥
महाजलदनिर्घोषं साक्षाच्चन्द्रार्कभास्वरम्।

प्रहस्त के उस रथ में बड़े वेगशाली घोड़े जुते हुए थे, उसका सारथि भी अपने कार्य में कुशल था। वह रथ पूर्णतः सारथि के नियन्त्रण में था। उसके चलने पर महान् मेघों की गर्जना के समान घर्घर-ध्वनि होती थी। वह रथ साक्षात् चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशमान था॥

उरगध्वजदुर्धर्षं सुवरूथं स्वपस्करम्॥२६॥
सुवर्णजालसंयुक्तं प्रहसन्तमिव श्रिया।

सर्पाकार या सर्पचिह्नित ध्वज के कारण वह दुर्धर्ष प्रतीत होता था। उस रथ की रक्षा के लिये जो कवच था, वह बहुत ही सुन्दर दिखायी देता था। उसके सारे अङ्ग सुन्दर थे और उसमें अच्छी-अच्छी सामग्रियाँ रखी गयी थीं। उस रथ में सोने की जाली लगी थी। वह अपनी कान्ति से हँसता-सा प्रतीत होता था । (अथवा दूसरे कान्तिमान् पदार्थों का उपहास-सा कर रहा था) ॥ २६ १/२ ॥

ततस्तं रथमास्थाय रावणार्पितशासनः॥२७॥
लङ्काया निर्ययौ तूर्णं बलेन महता वृतः।

उस रथ पर बैठकर रावण की आज्ञा शिरोधार्य करके विशाल सेना से घिरा हुआ प्रहस्त तुरंत लङ्का से बाहर निकला॥ २७ १/२॥

ततो दुन्दुभिनिर्घोषः पर्जन्यनिनदोपमः।
वादित्राणां च निनदः पूरयन्निव मेदिनीम्॥२८॥

उसके निकलते ही मेघ की गम्भीर गर्जना के समान धौंसा बजने लगा। अन्य रणवाद्यों का निनाद भी पृथ्वी को परिपूर्ण करता-सा प्रतीत होने लगा॥२८॥

शुश्रुवे शङ्खशब्दश्च प्रयाते वाहिनीपतौ।
निनदन्तः स्वरान् घोरान् राक्षसा जग्मुरग्रतः॥२९॥
भीमरूपा महाकायाः प्रहस्तस्य पुरःसराः।

सेनापति के प्रस्थानकाल में शङ्खों की ध्वनि भी सुनायी देने लगी। प्रहस्त के आगे चलने वाले भयानक रूपधारी विशालकाय राक्षस भयंकर स्वर से गर्जना करते हुए आगे बढ़े॥२९ १/२॥

नरान्तकः कुम्भहनुर्महानादः समुन्नतः।
प्रहस्तसचिवा ह्येते निर्ययुः परिवार्य तम्॥३०॥

नरान्तक, कुम्भहनु, महानाद और समुन्नत—ये प्रहस्त के चार सचिव उसे चारों ओर से घेरकर निकले॥

व्यूढेनैव सुघोरेण पूर्वद्वारात् स निर्ययौ।
गजयूथनिकाशेन बलेन महता वृतः॥३१॥

प्रहस्त की वह विशाल सेना हाथियों के समूह-सी अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थी। उसकी व्यूह-रचना हो चुकी थी। उस व्यूहबद्ध सेना के साथ ही प्रहस्त लङ्का के पूर्वद्वार से निकला॥ ३१॥ ।

सागरप्रतिमौघेन वृतस्तेन बलेन सः।।
प्रहस्तो निर्ययौ क्रुद्धः कालान्तकयमोपमः॥३२॥

समुद्र के समान उस अपार सेना के साथ जब प्रहस्त बाहर निकला, उस समय वह क्रोध से भरे हुए प्रलयकाल के संहारकारी यमराज के समान जान पड़ता था॥

तस्य निर्याणघोषेण राक्षसानां च नर्दताम्।
लङ्कायां सर्वभूतानि विनेदुर्विकृतैः स्वरैः॥ ३३॥

उसके प्रस्थान करते समय जो भेरी आदि बाजों और गर्जते हुए राक्षसों का गम्भीर घोष हुआ, उससे भयभीत हो लङ्का के सब प्राणी विकृत स्वर में चीत्कार करने लगे॥ ३३॥

व्यभ्रमाकाशमाविश्य मांसशोणितभोजनाः।
मण्डलान्यपसव्यानि खगाश्चक्रू रथं प्रति॥३४॥

उस समय बिना बादल के आकाश में उड़कर रक्तमांस का भोजन करने वाले पक्षी मण्डल बनाकर प्रहस्त के रथ की दक्षिणावर्त परिक्रमा करने लगे। ३४॥

वमन्त्यः पावकज्वालाः शिवा घोरा ववाशिरे।
अन्तरिक्षात् पपातोल्का वायुश्च परुष ववौ॥३५॥

भयानक गीदड़ियाँ मुँह से आग की ज्वाला उगलती हुई अशुभसूचक बोली बोलने लगीं। आकाश से उल्कापात होने लगा और प्रचण्ड वायु चलने लगी। ३५॥

अन्योन्यमभिसंरब्धा ग्रहाश्च न चकाशिरे।
मेघाश्च खरनिर्घोषा रथस्योपरि रक्षसः॥ ३६॥
ववषू रुधिरं चास्य सिषिचुश्च पुरःसरान्।
केतुमूर्धनि गृध्रस्तु विलीनो दक्षिणामुखः ॥ ३७॥
नदन्नुभयतः पार्वं समग्रां श्रियमाहरत्।

ग्रह रोषपूर्वक आपस में युद्ध करने लगे, जिससे उनका प्रकाश मन्द पड़ गया तथा मेघ उस राक्षस के रथ के ऊपर गधों की-सी आवाज में गर्जना करने लगे रक्त बरसाने लगे और आगे चलने वाले सैनिकों को खींचने लगे। उसके ध्वज के ऊपर गीध दक्षिण की ओर मुँह करके आ बैठा। उसने दोनों ओर अपनी अशुभ बोली बोलकर उस राक्षसकी सारी शोभासम्पत्ति हर ली॥ ३६-३७ १/२ ।।

सारथेर्बहुशश्चास्य संग्राममवगाहतः॥३८॥
प्रतोदो न्यपतद्धस्तात् सूतस्य हयसादिनः।

संग्रामभूमि में प्रवेश करते समय घोड़े को काबू में रखने वाले उसके सारथि के हाथ से कई बार चाबुक गिर पड़ा॥ ३८ १/२॥

निर्याणश्रीश्च या च स्याद् भास्वरा च सुदुर्लभा॥३९॥
सा ननाश मुहूर्तेन समे च स्खलिता हयाः।

युद्ध के लिये निकलते समय प्रहस्त की जो परम दुर्लभ और प्रकाशमान शोभा थी, वह दो ही घड़ी में नष्ट हो गयी। उसके घोड़े समतल भूमि में भी लड़खड़ाकर गिर पड़े। ३९ १/२॥

प्रहस्तं तं हि निर्यान्तं प्रख्यातगुणपौरुषम्।
युधि नानाप्रहरणा कपिसेनाभ्यवर्तत॥४०॥

जिसके गुण और पौरुष विख्यात थे, वह प्रहस्त ज्यों ही युद्धभूमि में उपस्थित हुआ, त्यों ही शिला, वृक्ष आदि नाना प्रकार के प्रहार-साधनों से सम्पन्न वानरसेना उसका सामना करने के लिये आ गयी।
४०॥

अथ घोषः सुतुमुलो हरीणां समजायत।
वृक्षानारुजतां चैव गुर्वीर्वै गृह्णतां शिलाः॥४१॥

तदनन्तर वृक्षों को तोड़ते और भारी शिलाओं को उठाते हुए वानरों का अत्यन्त भयंकर कोलाहल वहाँ सब ओर छा गया॥४१॥

नदतां राक्षसानां च वानराणां च गर्जताम्।
उभे प्रमुदिते सैन्ये रक्षोगणवनौकसाम्॥४२॥

एक ओर राक्षस सिंहनाद कर रहे थे तो दूसरी ओर वानर गरज रहे थे। उन सबका तुमुल नाद वहाँ फैल गया। राक्षसों और वानरों की वे दोनों सेनाएँ हर्ष और उल्लास से भरी थीं॥ ४२ ॥

वेगितानां समर्थानामन्योन्यवधकाक्षिणाम्।
परस्परं चाह्वयतां निनादः श्रूयते महान्॥४३॥

अत्यन्त वेगशाली, समर्थ तथा एक-दूसरे के वध की इच्छा वाले योद्धा परस्पर ललकार रहे थे। उनका महान् कोलाहल सबको सुनायी देता था॥ ४३॥

ततः प्रहस्तः कपिराजवाहिनीमभिप्रतस्थे विजयाय दुर्मतिः।
विवृद्धवेगां च विवेश तां चमूं यथा मुमूर्षुः शलभो विभावसुम्॥४४॥

इसी समय दुर्बुद्धि प्रहस्त विजयकी अभिलाषा से वानरराज सुग्रीव की सेनाकी ओर बढ़ा और जैसे पतंग मरने के लिये आग पर टूट पड़ता है, उसी प्रकार वह बढ़े हुए वेगवाली उस वानरसेना में घुसने की चेष्टा करने लगा॥४४॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे सप्तपञ्चाशः सर्गः॥५७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५७॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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