वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 58 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 58
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
अष्टपञ्चाशः सर्गः (58)
नील के द्वारा प्रहस्त का वध
ततः प्रहस्तं निर्यान्तं दृष्ट्वा रणकृतोद्यमम्।
उवाच सस्मितं रामो विभीषणमरिंदमः॥१॥
(इसके पूर्व) प्रहस्त को युद्ध की तैयारी करके लङ्का से बाहर निकलते देख शत्रुसूदन श्रीरामचन्द्रजी ने विभीषण से मुसकराकर कहा- ॥१॥
क एष सुमहाकायो बलेन महता वृतः।
आगच्छति महावेगः किंरूपबलपौरुषः॥२॥
आचक्ष्व मे महाबाहो वीर्यवन्तं निशाचरम्।
‘महाबाहो! यह बड़े शरीर और महान् वेगवाला तथा बड़ी भारी सेना से घिरा हुआ कौन योद्धा आ रहा है? इसका रूप, बल और पौरुष कैसा है? इस पराक्रमी निशाचर का मुझे परिचय दो’ ॥ २ १/२॥
राघवस्य वचः श्रुत्वा प्रत्युवाच विभीषणः॥३॥
एष सेनापतिस्तस्य प्रहस्तो नाम राक्षसः।
लङ्कायां राक्षसेन्द्रस्य त्रिभागबलसंवृतः।
वीर्यवानस्त्रविच्छूरः सुप्रख्यातपराक्रमः॥४॥
श्रीरघुनाथजी का वचन सुनकर विभीषण ने इस प्रकार उत्तर दिया—’प्रभो! इस राक्षस का नाम प्रहस्त है। यह राक्षसराज रावण का सेनापति है और लङ्का की एक तिहाई सेना से घिरा हुआ है। इसका पराक्रम भलीभाँति विख्यात है। यह नाना प्रकार के अस्त्रशस्त्रोंका ज्ञाता, बल-विक्रम से सम्पन्न और शूरवीर है’॥३-४॥
ततः प्रहस्तं निर्यान्तं भीमं भीमपराक्रमम्।
गर्जन्तं सुमहाकायं राक्षसैरभिसंवृतम्॥५॥
ददर्श महती सेना वानराणां बलीयसाम्।
अभिसंजातघोषाणां प्रहस्तमभिगर्जताम्॥६॥
इसी समय महाबलवान् वानरों की विशाल सेना ने भी भयानक पराक्रमी, भीषण रूपधारी तथा महाकाय प्रहस्त को बड़े गर्जन-तर्जन के साथ लङ्का से बाहर निकलते देखा। वह बहुसंख्यक राक्षसों से घिरा हुआ था। उसे देखते ही वानरों के दल में भी महान् कोलाहल होने लगा और वे प्रहस्त की ओर देखदेखकर गर्जने लगे॥
खड्गशक्त्यृष्टिशूलाश्च बाणानि मुसलानि च।
गदाश्च परिघाः प्रासा विविधाश्च परश्वधाः॥७॥
धनूंषि च विचित्राणि राक्षसानां जयैषिणाम्।
प्रगृहीतान्यराजन्त वानरानभिधावताम्॥८॥
विजय की इच्छावाले राक्षस वानरों की ओर दौड़े। उनके हाथों में खड्ग, शक्ति, ऋष्टि, शूल, बाण, मूसल, गदा, परिघ, प्रास, नाना प्रकार के फरसे और विचित्र-विचित्र धनुष शोभा पा रहे थे। ७-८॥
जगृहुः पादपांश्चापि पुष्पितांस्तु गिरीस्तथा।
शिलाश्च विपुला दीर्घा योद्धुकामाः प्लवंगमाः॥९॥
तब वानरों ने भी युद्ध की इच्छा से खिले हुए वृक्ष, पर्वत तथा बड़े-बड़े पत्थर उठा लिये॥९॥
तेषामन्योन्यमासाद्य संग्रामः सुमहानभूत्।
बहूनामश्मवृष्टिं च शरवर्षं च वर्षताम्॥१०॥
फिर दोनों पक्षों के बहुसंख्यक वीरों में पत्थरों और बाणों की वर्षा के साथ-साथ आपस में बड़ा भारी संग्राम छिड़ गया॥१०॥
बहवो राक्षसा युद्धे बहून् वानरपुङ्गवान्।
वानरा राक्षसांश्चापि निजघ्नुर्बहवो बहून्॥११॥
उस युद्धस्थल में बहुत-से राक्षसों ने बहुतेरे वानरों का और बहुसंख्यक वानरों ने बहुत-से राक्षसों का संहार कर डाला॥११॥
शूलैः प्रमथिताः केचित् केचित् तु परमायुधैः।
परिघुराहताः केचित् केचिच्छिन्नाः परश्वधैः॥१२॥
वानरों में से कोई शूलों से और कोई चक्रों से मथ डाले गये। कितने ही परिघों की मार से आहत हो गये और कितनों के फरसों से टुकड़े-टुकड़े कर डाले गये॥
निरुच्छ्वासाः पुनः केचित् पतिता जगतीतले।
विभिन्नहृदयाः केचिदिषुसंधानसाधिताः॥१३॥
कितने ही योद्धा साँसरहित हो पृथ्वी पर गिर पड़े और कितने ही बाणों के लक्ष्य बन गये, जिससे उनके हृदय विदीर्ण हो गये॥१३॥
केचिद् द्विधा कृताः खड्गैः स्फुरन्तः पतिता भुवि।
वानरा राक्षसैः शूरैः पार्श्वतश्च विदारिताः॥ १४॥
कितने ही वानर तलवारों की मार से दो टूक होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और तड़फड़ाने लगे। कितने ही शूरवीर राक्षसों ने वानरों की पसलियाँ फाड़ डालीं। १४॥
वानरैश्चापि संक्रुद्धै राक्षसौघाः समन्ततः।
पादपैर्गिरिशृङ्गैश्च सम्पिष्टा वसुधातले ॥१५॥
इसी तरह वानरों ने भी अत्यन्त कुपित हो वृक्षों और पर्वत-शिखरों द्वारा सब ओर भूतल पर झुंड-के-झुंड राक्षसों को पीस डाला॥ १५॥
वज्रस्पर्शतलैर्हस्तैर्मुष्टिभिश्च हता भृशम्।
वमन् शोणितमास्येभ्यो विशीर्णदशनेक्षणाः॥१६॥
वानरों के वज्रतुल्य कठोर थप्पड़ों और मुक्कों से भलीभाँति पीटे गये राक्षस मुँह से रक्त वमन करने लगे। उनके दाँत और नेत्र छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये॥ १६॥
आर्तस्वनं च स्वनतां सिंहनादं च नर्दताम्।
बभूव तुमुलः शब्दो हरीणां रक्षसामपि॥१७॥
कोई आर्तनाद करते तो कोई सिंहों के समान दहाड़ते थे। इस प्रकार वानरों और राक्षसों का भयंकर कोलाहल वहाँ सब ओर गूंज उठा॥ १७॥
वानरा राक्षसाः क्रुद्धा वीरमार्गमनुव्रताः।
विवृत्तवदनाः क्रूराश्चक्रुः कर्माण्यभीतवत्॥१८॥
क्रोध से भरे हुए वानर और राक्षस वीरोचितमार्ग का अनुसरण करके युद्ध में पीठ नहीं दिखाते थे। वे मुँह बा-बाकर निर्भय के समान क्रूरतापूर्ण कर्म करते थे। १८॥
नरान्तकः कुम्भहनुमहानादः समुन्नतः।
एते प्रहस्तसचिवाः सर्वे जघ्नुर्वनौकसः॥१९॥
नरान्तक, कुम्भहनु, महानाद और समुन्नत—ये प्रहस्त के सारे सचिव वानरों का वध करने लगे॥ १९॥
तेषां निपततां शीघ्रं निजतां चापि वानरान्।
द्विविदो गिरिशृङ्गेण जघानैकं नरान्तकम्॥२०॥
शीघ्रतापूर्वक आक्रमण करते और वानरों को मारते हुए प्रहस्त के सचिवों में से एक को, जिसका नाम नरान्तक था, द्विविद ने एक पर्वत के शिखर से मार डाला॥
दुर्मुखः पुनरुत्थाय कपिः सविपुलद्रुमम्।
राक्षसं क्षिप्रहस्तं तु समुन्नतमपोथयत्॥२१॥
फिर दुर्मुख ने एक विशाल वृक्ष लिये उठकर शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले राक्षस समुन्नत को कुचल डाला॥
जाम्बवांस्तु सुसंक्रुद्धः प्रगृह्य महतीं शिलाम्।
पातयामास तेजस्वी महानादस्य वक्षसि ॥२२॥
तत्पश्चात् अत्यन्त कुपित हुए तेजस्वी जाम्बवान् ने एक बड़ी भारी शिला उठा ली और उसे महानाद की छाती पर दे मारा॥ २२॥
अथ कुम्भहनुस्तत्र तारेणासाद्य वीर्यवान्।
वृक्षेण महता सद्यः प्राणान् संत्याजयद् रणे॥२३॥
बाकी रहा पराक्रमी कुम्भहनु। वह तार नामक वानर से भिड़ा और अन्त में एक विशाल वृक्ष की चपेट में आकर उसे भी रणभूमि में अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े॥
अमृष्यमाणस्तत्कर्म प्रहस्तो रथमास्थितः।
चकार कदनं घोरं धनुष्पाणिर्वनौकसाम्॥२४॥
रथ पर बैठे हुए प्रहस्त से वानरों का यह अद्भुत पराक्रम नहीं सहा गया। उसने हाथ में धनुष लेकर वानरों का घोर संहार आरम्भ किया॥२४॥
आवर्त इव संजज्ञे सेनयोरुभयोस्तदा।
क्षुभितस्याप्रमेयस्य सागरस्येव निःस्वनः॥ २५॥
उस समय दोनों सेनाएँ जल के भँवर की भाँति चक्कर काट रही थीं। विक्षुब्ध अपार महासागर की गर्जना के समान उनकी गर्जना सुनायी दे रही थी॥२५॥
महता हि शरौघेण राक्षसो रणदुर्मदः।
अर्दयामास संक्रुद्धो वानरान् परमाहवे॥२६॥
अत्यन्त क्रोध से भरे हुए रणदुर्मद राक्षस प्रहस्त ने अपने बाण-समूहों द्वारा उस महासमर में वानरों को पीड़ित करना आरम्भ किया॥२६॥
वानराणां शरीरैस्तु राक्षसानां च मेदिनी।
बभूवातिचिता घोरैः पर्वतैरिव संवृता॥२७॥
पृथ्वी पर वानरों और राक्षसों की लाशों के ढेर लग गये। उनसे आच्छादित हुई रणभूमि भयानक पर्वतों से ढकी हुई-सी जान पड़ती थी॥ २७॥
सा मही रुधिरौघेण प्रच्छन्ना सम्प्रकाशते।
संछन्ना माधवे मासि पलाशैरिव पुष्पितैः॥२८॥
रक्त के प्रवाह से आच्छादित हुई वह युद्धभूमि वैशाख-मास में खिले हुए पलाश-वृक्षों से ढकी हुई वन्य भूमि-सी सुशोभित होती थी॥ २८ ॥
हतवीरौघवप्रां तु भग्नायुधमहाद्रुमाम्।
शोणितौघमहातोयां यमसागरगामिनीम्॥२९॥
यकृत् प्लीहमहापङ्कां विनिकीर्णान्त्रशैवलाम्।
भिन्नकायशिरोमीनामङ्गावयवशादलाम्॥३०॥
गृध्रहंसवराकी) कङ्कसारससेविताम्।
मेदःफेनसमाकीर्णामार्तस्तनितनिःस्वनाम्॥३१॥
तां कापुरुषदुस्तारां युद्धभूमिमयीं नदीम्।
नदीमिव घनापाये हंससारससेविताम्॥३२॥
राक्षसाः कपिमुख्यास्ते तेरुस्तां दुस्तरां नदीम्।
यथा पद्मरजोध्वस्तां नलिनी गजयूथपाः॥३३॥
मारे गये वीरों की लाशें ही जिसके दोनों तट थे। रक्त का प्रवाह ही जिसकी महान् जलराशि थी। टूटे-फूटे अस्त्र-शस्त्र ही जिसके तटवर्ती विशाल वृक्षों के समान जान पड़ते थे। जो यमलोकरूपी समुद्र से मिली हुई थी। सैनिकों के यकृत् और प्लीहा (हृदय के दाहिने और बायें भाग) जिसके महान् पंक थे। निकली हुई आँतें जहाँ सेवार का काम देती थीं। कटे हुए सिर और धड़ जहाँ मत्स्य-से प्रतीत होते थे। शरीर के छोटे-छोटे अवयव एवं केश जिसमें घास का भ्रम उत्पन्न करते थे। जहाँ गीध ही हंस बनकर बैठे थे। कङ्करूपी सारस जिसका सेवन करते थे। मेदे ही फेन बनकर जहाँ सब ओर फैले थे। पीड़ितों की कराह जिसकी कलकल ध्वनि थी और कायरों के लिये जिसे पार करना अत्यन्त कठिन था,उस युद्ध भूमिरूपिणी नदी को प्रवाहित करके राक्षस और श्रेष्ठ वानर वर्षा के अन्त में हंसों और सारसों से सेवित सरिता की भाँति उस दुस्तर नदी को उसी तरह पार कर रहे थे, जैसे गजयूथपति कमलों के पराग से आच्छादित किसी पुष्करिणी को पार करते हैं॥ २९– ३३॥
ततः सृजन्तं बाणौघान् प्रहस्तं स्यन्दने स्थितम्।
ददर्श तरसा नीलो विधमन्तं प्लवंगमान्॥३४॥
तदनन्तर नील ने देखा, रथ पर बैठा हुआ प्रहस्त बाणसमूहों की वर्षा करके वेगपूर्वक वानरों का संहार कर रहा है॥ ३४॥
उद्धृत इव वायुः खे महदभ्रबलं बलात्।
समीक्ष्याभिद्रुतं युद्धे प्रहस्तो वाहिनीपतिः॥ ३५॥
रथेनादित्यवर्णेन नीलमेवाभिदुद्रुवे।
तब जैसे उठी हुई प्रचण्ड वायु आकाश में महान् मेघों की घटा को छिन्न-भिन्न करके उड़ा देती है, उसी प्रकार नील भी बलपूर्वक राक्षस-सेना का संहार करने लगे। इससे उस युद्धस्थल में राक्षसी-सेना भाग खड़ी हुई। सेनापति प्रहस्त ने जब अपनी सेना की ऐसी दुरवस्था देखी, तब उसने सूर्यतुल्य तेजस्वी रथ के द्वारा नील पर ही धावा किया॥ ३५ १/२॥
स धनुर्धन्विनां श्रेष्ठो विकृष्य परमाहवे॥३६॥
नीलाय व्यसृजद् बाणान् प्रहस्तो वाहिनीपतिः।
धनुषधारियों में श्रेष्ठ और निशाचरों की सेना के नायक प्रहस्त ने उस महासमर में अपने धनुष को खींचकर नील पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी॥ ३६ १/२ ॥
ते प्राप्य विशिखा नीलं विनिर्भिद्य समाहिताः॥३७॥
महीं जग्मुर्महावेगा रोषिता इव पन्नगाः।
रोष से भरे हुए सो के समान वे महान् वेगशाली बाण नील तक पहुँचकर उन्हें विदीर्ण करके बड़ी सावधानी के साथ धरती में समा गये॥ ३७ १/२ ॥
नीलः शरैरभिहतो निशितैर्व्वलनोपमैः॥ ३८॥
स तं परमदुर्धर्षमापतन्तं महाकपिः।
प्रहस्तं ताडयामास वृक्षमुत्पाट्य वीर्यवान्॥३९॥
प्रहस्त के पैने बाण प्रज्वलित अग्नि के समान जान पड़ते थे। उनकी चोट से नील बहुत घायल हो गये। इस तरह उस परम दुर्जय राक्षस प्रहस्त को अपने ऊपर आक्रमण करते देख बल-विक्रमशाली महाकपि नील ने एक वृक्ष उखाड़कर उसी के द्वारा उस पर आघात किया॥
स तेनाभिहतः क्रुद्धो नर्दन् राक्षसपुंगवः।
ववर्ष शरवर्षाणि प्लवंगानां चमूपतौ॥४०॥
नील की चोट खाकर कुपित हुआ राक्षसशिरोमणि प्रहस्त बड़े जोर से गर्जता हुआ उन वानर-सेनापतिपर बाणों की वर्षा करने लगा॥ ४०॥
तस्य बाणगणानेव राक्षसस्य दुरात्मनः।
अपारयन् वारयितुं प्रत्यगृह्णान्निमीलितः।
यथैव गोवृषो वर्ष शारदं शीघ्रमागतम्॥४१॥
एवमेव प्रहस्तस्य शरवर्षान् दुरासदान्।
निमीलिताक्षः सहसा नीलः सेहे दुरासदान्॥४२॥
उस दुरात्मा राक्षस के बाण-समूहों का निवारण करने में समर्थ न हो सकने पर नील आँख बंद करके उन सब बाणों को अपने अंगों पर ही ग्रहण करने लगे। जैसे साँड़ सहसा आयी हुई शरद्-ऋतु की वर्षा को चुपचाप अपने शरीर पर ही सह लेता है, उसी प्रकार प्रहस्त की उस दुःसह बाणवर्षा को नील चुपचाप नेत्र बंद करके सहन करते रहे ॥ ४१-४२॥
रोषितः शरवर्षेण सालेन महता महान्।
प्रजघान हयान् नीलः प्रहस्तस्य महाबलः॥४३॥
प्रहस्त की बाणवर्षा से कुपित हो महाबली महाकपि नील ने एक विशाल सालवृक्ष के द्वारा उसके घोड़ों को मार डाला॥४३॥
ततो रोषपरीतात्मा धनुस्तस्य दुरात्मनः।
बभञ्ज तरसा नीलो ननाद च पुनः पुनः॥४४॥
तत्पश्चात् रोष से भरे हुए नील ने उस दुरात्मा के धनुष को भी वेगपूर्वक तोड़ दिया और बारंबार वे गर्जना करने लगे॥४४॥
विधनुः स कृतस्तेन प्रहस्तो वाहिनीपतिः।
प्रगृह्य मुसलं घोरं स्यन्दनादवपुप्लुवे॥४५॥
नील के द्वारा धनुषरहित किया गया सेनापति प्रहस्त एक भयानक मूसल हाथ में लेकर अपने रथ से कूद पड़ा॥
तावुभौ वाहिनीमुख्यौ जातवैरौ तरस्विनौ।
स्थितौ क्षतजसिक्ताङ्गौ प्रभिन्नाविव कुञ्जरौ॥४६॥
वे दोनों वीर अपनी-अपनी सेना के प्रधान थे। दोनों ही एक-दूसरे के वैरी और वेगशाली थे। वे मद की धारा बहाने वाले दो गजराजों के समान खून से नहा उठे थे॥
उल्लिखन्तौ सुतीक्ष्णाभिर्दष्ट्राभिरितरेतरम्।
सिंहशार्दूलसदृशौ सिंहशार्दूलचेष्टितौ॥४७॥
दोनों ही अपनी तीखी दाढ़ों से काट-काटकर एक-दूसरे के अंगों को घायल किये देते थे। वे दोनों सिंह और बाघ के समान शक्तिशाली और उन्हीं के समान विजय के लिये सचेष्ट थे॥४७॥
विक्रान्तविजयौ वीरौ समरेष्वनिवर्तिनौ।
काङ्क्षमाणौ यशः प्राप्तुं वृत्रवासवयोरिव॥४८॥
दोनों वीर पराक्रमी, विजयी और युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले थे तथा वृत्रासुर और इन्द्र के समान युद्ध में यश पाने की अभिलाषा रखते थे॥४८॥
आजघान तदा नीलं ललाटे मुसलेन सः।
प्रहस्तः परमायत्तस्ततः सुस्राव शोणितम्॥४९॥
उस समय परम उद्योगी प्रहस्तने नील के ललाट में मूसल से आघात किया। इससे उनके ललाट से रक्त की धारा बह चली॥४९॥
ततः शोणितदिग्धाङ्गः प्रगृह्य च महातरुम्।
प्रहस्तस्योरसि क्रुद्धो विससर्ज महाकपिः॥५०॥
उनके सारे अंग रक्त से भीग गये। तब क्रोध से भरे हुए महाकपि नील ने एक विशाल वृक्ष उठाकर प्रहस्त की छाती पर दे मारा॥ ५० ॥
तमचिन्त्यप्रहारं स प्रगृह्य मुसलं महत्।
अभिदुद्राव बलिनं बलान्नीलं प्लवङ्गमम्॥५१॥
उस प्रहार की कोई परवा न करके प्रहस्त महान् मूसल हाथ में लिये बलवान् वानर नील की ओर बड़े वेग से दौड़ा॥५१॥
तमुग्रवेगं संरब्धमापतन्तं महाकपिः।
ततः सम्प्रेक्ष्य जग्राह महावेगो महाशिलाम्॥५२॥
उस भयंकर वेगशाली राक्षस को रोष से भरकर आक्रमण करते देख महान् वेगशाली महाकपि नील ने एक बड़ी भारी शिला हाथ में ले ली॥५२॥
तस्य युद्धाभिकामस्य मृधे मुसलयोधिनः।
प्रहस्तस्य शिलां नीलो मूर्ध्नि तूर्णमपातयत्॥५३॥
उस शिला को नील ने रणभूमि में संग्राम की इच्छावाले मूसलयोधी निशाचर प्रहस्त के मस्तक पर तत्काल दे मारा॥
नीलेन कपिमुख्येन विमुक्ता महती शिला।
बिभेद बहुधा घोरा प्रहस्तस्य शिरस्तदा॥५४॥
कपिप्रवर नील के द्वारा चलायी गयी उस भयंकर एवं विशाल शिला ने प्रहस्त के मस्तक को कुचलकर उसके कई टुकड़े कर डाले॥ ५४॥
स गतासुर्गतश्रीको गतसत्त्वो गतेन्द्रियः।
पपात सहसा भूमौ छिन्नमूल इव द्रुमः॥५५॥
उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। उसकी कान्ति, उसका बल और उसकी सारी इन्द्रियाँ भी चली गयीं। वह राक्षस जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ ५५ ॥
विभिन्नशिरसस्तस्य बहु सुस्राव शोणितम्।
शरीरादपि सुस्राव गिरेः प्रस्रवणं यथा॥५६॥
उसके छिन्न-भिन्न हुए मस्तक से और शरीर से भी बहुत खून गिरने लगा, मानो पर्वत से पानी का झरना झर रहा हो॥५६॥
हते प्रहस्ते नीलेन तदकम्प्यं महाबलम्।
राक्षसानामहृष्टानां लङ्कामभिजगाम ह॥५७॥
नील के द्वारा प्रहस्त के मारे जाने पर दुःखी हुए राक्षसों की वह अकम्पनीय विशाल सेना लंका को लौट गयी॥ ५७॥
न शेकुः समवस्थातुं निहते वाहिनीपतौ।
सेतुबन्धं समासाद्य विशीर्णं सलिलं यथा॥५८॥
सेनापति के मारे जाने पर वह सेना ठहर न सकी। जैसे बाँध टूट जाने पर नदी का पानी रुक नहीं पाता॥
हते तस्मिंश्चमूमुख्ये राक्षसास्ते निरुद्यमाः।
रक्षःपतिगृहं गत्वा ध्यानमूकत्वमागताः॥५९॥
प्राप्ताः शोकार्णवं तीव्र विसंज्ञा इव तेऽभवन्॥६०॥
सेनानायक के मारे जाने से वे सारे राक्षस अपना युद्धविषयक उत्साह खो बैठे और राक्षसराज रावण के भवन में जाकर चिन्ता के कारण चुपचाप खड़े हो गये। तीव्र शोक-समुद्र में डूब जाने के कारण वे सब-के-सब अचेत-से हो गये थे॥ ५९-६० ॥
ततस्तु नीलो विजयी महाबलः प्रशस्यमानः सुकृतेन कर्मणा।
समेत्य रामेण सलक्ष्मणेन प्रहृष्टरूपस्तु बभूव यूथपः॥६१॥
तदनन्तर विजयी सेनापति महाबली नील अपने इस महान् कर्म के कारण प्रशंसित होते हुए श्रीराम और लक्ष्मण से आकर मिले और बड़े हर्ष का अनुभव करने लगे॥६१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डेऽष्टपञ्चाशः सर्गः॥५८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५८॥