वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 62 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 62
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
द्विषष्टितमः सर्गः (62)
कुम्भकर्ण का रावण के भवन में प्रवेश तथा रावण का राम से भय बताकर उसे शत्रुसेना के विनाश के लिये प्रेरित करना
स तु राक्षसशार्दूलो निद्रामदसमाकुलः।
राजमार्गं श्रिया जुष्टं ययौ विपुलविक्रमः॥१॥
महापराक्रमी राक्षसशिरोमणि कुम्भकर्ण निद्रा और मद से व्याकुल हो अलसाया हुआ-सा शोभाशाली राजमार्ग से जा रहा था॥१॥
राक्षसानां सहस्रैश्च वृतः परमदुर्जयः।
गृहेभ्यः पुष्पवर्षेण कीर्यमाणस्तदा ययौ॥२॥
वह परम दुर्जय वीर हजारों राक्षसों से घिरा हुआ यात्रा कर रहा था। सड़क के किनारे पर जो मकान थे, उनमें से उसके ऊपर फूल बरसाये जा रहे थे॥२॥
स हेमजालविततं भानुभास्वरदर्शनम्।
ददर्श विपुलं रम्यं राक्षसेन्द्रनिवेशनम्॥३॥
उसने राक्षसराज रावण के रमणीय एवं विशाल भवन का दर्शन किया, जो सोने की जाली से आच्छादित होने के कारण सूर्यदेव के समान दीप्तिमान् दिखायी देता था॥
स तत्तदा सूर्य इवाभ्रजालं प्रविश्य रक्षोधिपतेर्निवेशनम्।
ददर्श दूरेऽग्रजमासनस्थं स्वयंभुवं शक्र इवासनस्थम्॥४॥
जैसे सूर्य मेघों की घटा में छिप जायँ, उसी प्रकार कुम्भकर्ण ने राक्षसराज के महल में प्रवेश किया और राजसिंहासन पर बैठे हुए अपने भाई को दूरसे ही देखा, मानो देवराज इन्द्र ने दिव्य कमलासन पर विराजमान स्वयम्भू ब्रह्मा का दर्शन किया हो॥४॥
भ्रातुः स भवनं गच्छन् रक्षोगणसमन्वितः।
कुम्भकर्णः पदन्यासैरकम्पयत मेदिनीम्॥५॥
राक्षसोंसहित कुम्भकर्ण अपने भाई के भवन में जाते समय जब-जब एक-एक पैर आगे बढ़ाता था, तब-तब पृथ्वी काँप उठती थी॥ ५ ॥
सोऽभिगम्य गृहं भ्रातुः कक्ष्यामभिविगाह्य च।
ददर्शोद्विग्नमासीनं विमाने पुष्पके गुरुम्॥६॥
भाई के भवन में जाकर जब वह भीतर की कक्षा में प्रविष्ट हुआ, तब उसने अपने बड़े भाई को उद्विग्न अवस्था में पुष्पक विमान पर विराजमान देखा॥६॥
अथ दृष्ट्वा दशग्रीवः कुम्भकर्णमुपस्थितम्।
तूर्णमुत्थाय संहृष्टः संनिकर्षमुपानयत्॥७॥
कुम्भकर्ण को उपस्थित देख दशमुख रावण तुरंत उठकर खड़ा हो गया और बड़े हर्ष के साथ उसे अपने समीप बुला लिया॥७॥
अथासीनस्य पर्यङ्के कुम्भकर्णो महाबलः।
भ्रातुर्ववन्दे चरणौ किं कृत्यमिति चाब्रवीत्॥८॥
महाबली कुम्भकर्ण ने सिंहासन पर बैठे हुए अपने भाई के चरणों में प्रणाम किया और पूछा—’कौन-सा कार्य आ पड़ा है ?’॥ ८॥
उत्पत्य चैनं मुदितो रावणः परिषस्वजे।
स भ्रात्रा सम्परिष्वक्तो यथावच्चाभिनन्दितः॥९॥
रावण ने उछलकर बड़ी प्रसन्नता के साथ कुम्भकर्ण को हृदय से लगा लिया। भाई रावण ने उसका आलिंगन करके यथावत् रूप से अभिनन्दन किया॥९॥
कुम्भकर्णः शुभं दिव्यं प्रतिपेदे वरासनम्।
स तदासनमाश्रित्य कुम्भकर्णो महाबलः॥१०॥
संरक्तनयनः क्रोधाद् रावणं वाक्यमब्रवीत्।
इसके बाद कुम्भकर्ण सुन्दर दिव्य सिंहासन पर बैठा। उस आसन पर बैठकर महाबली कुम्भकर्ण ने क्रोध से लाल आँखें किये रावण से पूछा- ॥ १० १/२॥
किमर्थमहमादृत्य त्वया राजन् प्रबोधितः॥११॥
शंस कस्माद् भयं तेऽत्र को वा प्रेतो भविष्यति।
‘राजन् ! किसलिये तुमने बड़े आदर के साथ मुझे जगाया है? बताओ, यहाँ तुम्हें किससे भय प्राप्त हुआ है? अथवा कौन परलोक का पथिक होने वाला है?’ ॥ ११ १/२॥
भ्रातरं रावणः क्रुद्धं कुम्भकर्णमवस्थितम्॥१२॥
रोषेण परिवृत्ताभ्यां नेत्राभ्यां वाक्यमब्रवीत्।
तब रावण अपने पास बैठे हुए कुपित भाई कुम्भकर्ण से रोष से चञ्चल आँखें किये बोला—॥ १२ १/२॥
अद्य ते सुमहान् कालः शयानस्य महाबल॥१३॥
सुषुप्तस्त्वं न जानीषे मम रामकृतं भयम्।
‘महाबली वीर! तुम्हारे सोये-सोये दीर्घकाल व्यतीत हो गया। तुम गाढ़ निद्रा में निमग्न होने के कारण नहीं जानते कि मुझे राम से भय प्राप्त हुआ है। १३ १/२॥
एष दाशरथिः श्रीमान् सुग्रीवसहितो बली॥१४॥
समुद्रं लवयित्वा तु मूलं नः परिकृन्तति।
‘ये दशरथकुमार बलवान् श्रीमान् राम सुग्रीव के साथ समुद्र लाँघकर यहाँ आये हैं और हमारे कुल का विनाश कर रहे हैं॥ १४ १/२॥
हन्त पश्यस्व लङ्कायां वनान्युपवनानि च॥१५॥
सेतुना सुखमागत्य वानरैकार्णवं कृतम्।
‘हाय! देखो तो सही, समुद्र में पुल बाँधकर सुखपूर्वक यहाँ आये हुए वानरों ने लङ्का के समस्त वनों और उपवनों को एकार्णवमय बना दिया है— यहाँ वानररूपी जल का समुद्र-सा लहरा रहा है॥ १५ १/२॥
ये राक्षसा मुख्यतमा हतास्ते वानरैयुधि॥१६॥
वानराणां क्षयं युद्धे न पश्यामि कथंचन।
न चापि वानरा युद्धे जितपूर्वाः कदाचन ॥१७॥
‘हमारे जो मुख्य-मुख्य राक्षस वीर थे, उन्हें वानरों ने युद्ध में मार डाला; किंतु रणभूमि में वानरों का संहार होता मुझे किसी तरह नहीं दिखायी देता। युद्ध में कभी कोई वानर पहले जीते नहीं गये हैं॥ १६-१७॥
तदेतद् भयमुत्पन्नं त्रायस्वेह महाबल।
नाशय त्वमिमानद्य तदर्थं बोधितो भवान्॥१८॥
‘महाबली वीर! इस समय हमारे ऊपर यही भय उपस्थित हुआ है। तुम इससे हमारी रक्षा करो और आज इन वानरों को नष्ट कर दो। इसीलिये हमने तुम्हें जगाया है॥ १८॥
सर्वक्षपितकोशं च स त्वमभ्युपपद्य माम्।
त्रायस्वेमां पुरीं लङ्कां बालवृद्धावशेषिताम्॥१९॥
‘हमारा सारा खजाना खाली हो गया है; अतः मुझपर अनुग्रह करके तुम इस लङ्कापुरी की रक्षा करो; अब यहाँ केवल बालक और वृद्ध ही शेष रह गये हैं॥ १९॥
भ्रातुरर्थे महाबाहो कुरु कर्म सुदुष्करम्।
मयैवं नोक्तपूर्वो हि भ्राता कश्चित् परंतप॥२०॥
‘महाबाहो! तुम अपने इस भाई के लिये अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करो। परंतप! आज से पहले कभी किसी भाई से मैंने ऐसी अनुनय-विनय नहीं की थी॥२०॥
त्वय्यस्ति मम च स्नेहः परा सम्भावना च मे।
देवासुरेषु युद्धेषु बहुशो राक्षसर्षभ॥२१॥
त्वया देवाः प्रतिव्यूह्य निर्जिताश्चासुरा युधि॥२२॥
‘तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा स्नेह है और मुझे तुमसे बड़ी आशा है। राक्षसशिरोमणे! तुमने देवासुरसंग्राम के अवसरों पर अनेक बार प्रतिद्वन्द्वी का स्थान लेकर रणभूमि में देवताओं और असुरों को भी परास्त किया है।
तदेतत् सर्वमातिष्ठ वीर्यं भीमपराक्रम।
नहि ते सर्वभूतेषु दृश्यते सदृशो बली॥ २३॥
‘अतः भयंकर पराक्रमी वीर! तुम्हीं यह सारा पराक्रमपूर्ण कार्य सम्पन्न करो; क्योंकि समस्त प्राणियों में तुम्हारे समान बलवान् मुझे दूसरा कोई नहीं दिखायी देता है॥२३॥
कुरुष्व मे प्रियहितमेतदुत्तमं यथाप्रियं प्रियरण बान्धवप्रिय।
स्वतेजसा व्यथय सपत्नवाहिनीं शरद्धनं पवन इवोद्यतो महान्॥२४॥
‘तुम युद्धप्रेमी तो हो ही, अपने बन्धु-बान्धवों से भी बड़ा प्रेम रखते हो। इस समय तुम मेरा यही प्रिय और उत्तम हित करो। अपने तेज से शत्रुओं की सेना को उसी तरह व्यथित कर दो, जैसे वेग से उठी हुई प्रचण्ड वायु शरद्-ऋतु के बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है’ ॥ २४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे द्विषष्टितमः सर्गः॥६२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में बासठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६२॥