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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 63 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 63

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
त्रिषष्टितमः सर्गः (63)

कुम्भकर्ण का रावण को उसके कुकृत्यों के लिये उपालम्भ देना और उसे धैर्य बँधाते हुए युद्धविषयक उत्साह प्रकट करना

 

तस्य राक्षसराजस्य निशम्य परिदेवितम्।
कुम्भकर्णो बभाषेदं वचनं प्रजहास च॥१॥

राक्षसराज रावण का यह विलाप सुनकर कुम्भकर्ण ठहाका मारकर हँसने लगा और इस प्रकार बोला – ॥१॥

दृष्टो दोषो हि योऽस्माभिः पुरा मन्त्रविनिर्णये।
हितेष्वनभियुक्तेन सोऽयमासादितस्त्वया॥२॥

‘भाईसाहब! पहले (विभीषण आदि के साथ) विचार करते समय हमलोगों ने जो दोष देखा था, वही तुम्हें इस समय प्राप्त हुआ है; क्योंकि तुमने हितैषी पुरुषों और उनकी बातों पर विश्वास नहीं किया था। २॥

शीघ्रं खल्वभ्युपेतं त्वां फलं पापस्य कर्मणः।
निरयेष्वेव पतनं यथा दुष्कृतकर्मणः॥३॥

‘तुम्हें शीघ्र ही अपने पापकर्म का फल मिल गया। जैसे कुकर्मी पुरुषों का नरकों में पड़ना निश्चित है, उसी प्रकार तुम्हें भी अपने दुष्कर्म का फल मिलना अवश्यम्भावी था॥३॥

प्रथमं वै महाराज कृत्यमेतदचिन्तितम्।
केवलं वीर्यदर्पण नानुबन्धो विचारितः॥४॥

‘महाराज! केवल बल के घमंड से तुमने पहले इस पापकर्म की कोई परवा नहीं की। इसके परिणाम का कुछ भी विचार नहीं किया था॥ ४॥

यः पश्चात्पूर्वकार्याणि कुर्यादैश्वर्यमास्थितः।
पूर्वं चोत्तरकार्याणि न स वेद नयानयौ॥५॥

‘जो ऐश्वर्य के अभिमान में आकर पहले करने योग्य कार्यों को पीछे करता है और पीछे करने योग्य कार्यों को पहले कर डालता है, वह नीति तथा अनीति को नहीं जानता है॥५॥

देशकालविहीनानि कर्माणि विपरीतवत्।
क्रियमाणानि दुष्यन्ति हवींष्यप्रयतेष्विव॥६॥

‘जो कार्य उचित देश-काल न होने पर विपरीत स्थिति में किये जाते हैं, वे संस्कारहीन अग्नियों में होमे गये हविष्य की भाँति केवल दुःख के ही कारण होते हैं॥६॥

त्रयाणां पञ्चधा योगं कर्मणां यः प्रपद्यते।
सचिवैः समयं कृत्वा स सम्यग् वर्तते पथि॥७॥

‘जो राजा सचिवों के साथ विचार करके क्षय, वृद्धि और स्थानरूप से उपलक्षित साम, दान और दण्ड– इन तीनों कर्मो के पाँच* प्रकार के प्रयोग को काम में लाता है, वही उत्तम नीति-मार्ग पर विद्यमान है, ऐसा समझना चाहिये॥७॥
* कार्य को आरम्भ करने का उपाय, पुरुष और द्रव्यरूप सम्पत्ति, देश-काल का विभाग, विपत्ति को टालने का उपाय और कार्य की सिद्धि–ये पाँच प्रकार के योग हैं।

यथागमं च यो राजा समयं च चिकीर्षति।
बुध्यते सचिवैर्बुद्ध्या सुहृदश्चानुपश्यति॥८॥

‘जो नरेश नीतिशास्त्र के अनुसार मन्त्रियों के साथ क्षय* आदि के लिये उपयुक्त समय का विचार करके तदनुरूप कार्य करता है और अपनी बुद्धि से सुहृदों की भी पहचान कर लेता है, वही कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक कर पाता है॥८॥
* जब अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि का समय हो तब दण्डोपयोगी यान (युद्धयात्रा) उचित है। अपनी और शत्रु की समान स्थिति हो तो सामपूर्वक संधि कर लेना उचित है। तथा जब अपनी हानि और शत्रु की वृद्धि का समय हो, तब उसे कुछ देकर उसका आश्रय ग्रहण करना उचित होता है।

धर्ममर्थं हि कामं वा सर्वान् वा रक्षसां पते।
भजेत पुरुषः काले त्रीणि द्वन्द्वानि वा पुनः॥९॥

‘राक्षसराज! नीतिज्ञ पुरुष को चाहिये कि धर्म,अर्थ या काम का अथवा सबका अपने समय पर सेवन करे अथवा तीनों द्वन्द्वों का—धर्म-अर्थ, अर्थ-धर्म और काम-अर्थ इन सबका भी उपयुक्त समय में ही सेवन करे*॥
* यहाँ यह बात कही गयी है कि शास्त्र के अनुसार प्रातःकाल धर्म का, मध्याह्नकाल में अर्थ का और रात्रि में कामसेवन का विधान है; अतः उन-उन समयों में धर्म आदि का सेवन करना चाहिये अथवा प्रातःकाल में धर्म और अर्थरूप द्वन्द्व का, मध्याह्नकाल में अर्थ और धर्म का और रात्रि में काम और अर्थ का सेवन करे। जो हर समय केवल काम का ही सेवन करता है, वह पुरुषों में अधम कोटि का है।

त्रिषु चैतेषु यच्छ्रेष्ठं श्रुत्वा तन्नावबुध्यते।
राजा वा राजमात्रो वा व्यर्थं तस्य बहुश्रुतम्॥१०॥

‘धर्म, अर्थ और काम—इन तीनों में धर्म ही श्रेष्ठ है; अतः विशेष अवसरों पर अर्थ और काम की उपेक्षा करके भी धर्म का ही सेवन करना चाहिये—इस बात को विश्वसनीय पुरुषों से सुनकर भी जो राजा या राजपुरुष नहीं समझता अथवा समझकर भी स्वीकार नहीं करता, उसका अनेक शास्त्रों का अध्ययन व्यर्थ ही है॥ १०॥

उपप्रदानं सान्त्वं च भेदं काले च विक्रमम्।
योगं च रक्षसां श्रेष्ठ तावुभौ च नयानयौ॥११॥
काले धर्मार्थकामान् यः सम्मन्त्र्य सचिवैः सह।
निषेवेतात्मवाँल्लोके न स व्यसनमाप्नुयात् ॥१२॥

‘राक्षसशिरोमणे! जो मनस्वी राजा मन्त्रियों से अच्छी तरह सलाह करके समय के अनुसार दान, भेद और पराक्रमका, इनके पूर्वोक्त पाँच प्रकार के योग का, नय और अनय का तथा ठीक समय पर धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है, वह इस लोक में कभी दुःख या विपत्ति का भागी नहीं होता॥ ११-१२॥

हितानुबन्धमालोक्य कुर्यात् कार्यमिहात्मनः।
राजा सहार्थतत्त्वज्ञैः सचिवैर्बुद्धिजीविभिः॥१३॥

‘राजा को चाहिये कि वह अर्थतत्त्वज्ञ एवं बुद्धिजीवी मन्त्रियों की सलाह लेकर जो अपने लिये परिणाम में हितकर दिखायी देता हो, वही कार्य करे॥१३॥

अनभिज्ञाय शास्त्रार्थान् पुरुषाः पशुबुद्धयः।
प्रागल्भ्याद् वक्तुमिच्छन्ति मन्त्रिष्वभ्यन्तरीकृताः॥१४॥

‘जो पशु के समान बुद्धिवाले किसी तरह मन्त्रियों के भीतर सम्मिलित कर लिये गये हैं, वे शास्त्र के अर्थ को तो जानते नहीं, केवल धृष्टतावश बातें बनाना चाहते हैं।

अशास्त्रविदुषां तेषां कार्यं नाभिहितं वचः।
अर्थशास्त्रानभिज्ञानां विपुलां श्रियमिच्छताम्॥१५॥

‘शास्त्र के ज्ञान से शून्य और अर्थशास्त्र से अनभिज्ञ होते हुए भी प्रचुर सम्पत्ति चाहने वाले उन अयोग्य मन्त्रियों की कही हुई बात कभी नहीं माननी चाहिये।

अहितं च हिताकारं धाष्ट्याज्जल्पन्ति ये नराः।
अवश्यं मन्त्रबाह्यास्ते कर्तव्याः कृत्यदूषकाः॥१६॥

‘जो लोग धृष्टता के कारण अहितकर बात को हित का रूप देकर कहते हैं, वे निश्चय ही सलाह लेने योग्य नहीं हैं। अतः उन्हें इस कार्य से अलग कर देना चाहिये। वे तो काम बिगाड़ने वाले ही होते हैं। १६॥

विनाशयन्तो भर्तारं सहिताः शत्रुभिर्बुधैः।
विपरीतानि कृत्यानि कारयन्तीह मन्त्रिणः॥१७॥

‘कुछ बुरे मन्त्री साम आदि उपायों के ज्ञाता शत्रुओं के साथ मिल जाते हैं और अपने स्वामी का विनाश करने के लिये ही उससे विपरीत कर्म करवाते हैं॥१७॥

तान् भर्ता मित्रसंकाशानमित्रान् मन्त्रनिर्णये।
व्यवहारेण जानीयात् सचिवानुपसंहितान्॥१८॥

‘शास्त्र के ज्ञान से शून्य और अर्थशास्त्र से अनभिज्ञ होते हुए भी प्रचुर सम्पत्ति चाहने वाले उन अयोग्य मन्त्रियों की कही हुई बात कभी नहीं माननी चाहिये।

अहितं च हिताकारं धाष्ट्याज्जल्पन्ति ये नराः।
अवश्यं मन्त्रबाह्यास्ते कर्तव्याः कृत्यदूषकाः॥१६॥

‘जो लोग धृष्टता के कारण अहितकर बात को हित का रूप देकर कहते हैं, वे निश्चय ही सलाह लेने योग्य नहीं हैं। अतः उन्हें इस कार्य से अलग कर देना चाहिये। वे तो काम बिगाड़ने वाले ही होते हैं। १६॥

विनाशयन्तो भर्तारं सहिताः शत्रुभिर्बुधैः।
विपरीतानि कृत्यानि कारयन्तीह मन्त्रिणः॥१७॥

‘कुछ बुरे मन्त्री साम आदि उपायों के ज्ञाता शत्रुओं के साथ मिल जाते हैं और अपने स्वामी का विनाश करने के लिये ही उससे विपरीत कर्म करवाते हैं॥१७॥

तान् भर्ता मित्रसंकाशानमित्रान् मन्त्रनिर्णये।
व्यवहारेण जानीयात् सचिवानुपसंहितान्॥१८॥

‘जब किसी वस्तु या कार्य के निश्चय के लिये मन्त्रियों की सलाह ली जा रही हो, उस समय राजा व्यवहार के द्वारा ही उन मन्त्रियों को पहचानने का प्रयत्न करे, जो घूस आदि लेकर शत्रुओं से मिल गये हैं और अपने मित्र-से बने रहकर वास्तव में शत्रु का काम करते हैं।

चपलस्येह कृत्यानि सहसानुप्रधावतः।
छिद्रमन्ये प्रपद्यन्ते क्रौञ्चस्य खमिव द्विजाः॥१९॥

‘जो राजा चंचल है—आपातरमणीय वचनों को सुनकर ही संतुष्ट हो जाता है और सहसा बिना सोचे विचारे ही किसी भी कार्य की ओर दौड़ पड़ता है, उसके इस छिद्र (दुर्बलता)-को शत्रुलोग उसी तरह ताड़ जाते हैं, जैसे क्रौंच पर्वत के छेद को पक्षी। (क्रौंचपर्वत के छेद से होकर पक्षी जैसे पर्वत के उस पार आते-जाते हैं, उसी तरह शत्रु भी राजा के उस छिद्र या कमजोरी से लाभ उठाते हैं) ॥ १९ ॥

यो हि शत्रुमवज्ञाय आत्मानं नाभिरक्षति।
अवाप्नोति हि सोऽनर्थान् स्थानाच्च व्यवरोप्यते॥२०॥

‘जो राजा शत्रु की अवहेलना करके अपनी रक्षा का प्रबन्ध नहीं करता है, वह अनेक अनर्थों का भागी होता और अपने स्थान (राज्य)-से नीचे उतार दिया जाता है।

यदुक्तमिह ते पूर्वं प्रियया मेऽनुजेन च।
तदेव नो हितं वाक्यं यथेच्छसि तथा कुरु॥२१॥

‘तुम्हारी प्रिय पत्नी मन्दोदरी और मेरे छोटे भाई विभीषण ने पहले तुमसे जो कुछ कहा था, वही हमारे लिये हितकर था। यों तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो’॥

तत् तु श्रुत्वा दशग्रीवः कुम्भकर्णस्य भाषितम्।
भ्रुकुटिं चैव संचक्रे क्रुद्धश्चैनमभाषत॥२२॥

कुम्भकर्ण की यह बात सुनकर दशमुख रावण ने भौंहें टेढ़ी कर ली और कुपित होकर उससे कहा- ॥ २२॥

मान्यो गुरुरिवाचार्यः किं मां त्वमनुशाससे।
किमेवं वाक्श्रमं कृत्वा यद् युक्तं तद् विधीयताम्॥२३॥

‘तुम माननीय गुरु और आचार्य की भाँति मुझे उपदेश क्यों दे रहे हो? इस तरह भाषण देने का परिश्रम करने से क्या लाभ होगा? इस समय जो उचित और आवश्यक हो, वह काम करो॥ २३॥

विभ्रमाच्चित्तमोहाद् वा बलवीर्याश्रयेण वा।
नाभिपन्नमिदानीं यद् व्यर्था तस्य पुनः कथा॥२४॥

‘मैंने भ्रम से, चित के मोह से अथवा अपने बलपराक्रम के भरोसे पहले जो तुमलोगों की बात नहीं मानी थी, उसकी इस समय पुनः चर्चा करना व्यर्थ है॥२४॥

अस्मिन् काले तु यद् युक्तं तदिदानीं विचिन्त्यताम्।
गतं तु नानुशोचन्ति गतं तु गतमेव हि ॥२५॥
ममापनयजं दोषं विक्रमेण समीकुरु।

‘जो बात बीत गयी, सो तो बीत ही गयी। बुद्धिमान् लोग बीती बात के लिये बारंबार शोक नहीं करते हैं। अब इस समय हमें क्या करना चाहिये, इसका विचार करो। अपने पराक्रम से मेरे अनीतिजनित दुःख को शान्त कर दो॥ २५ ॥

यदि खल्वस्ति मे स्नेहो विक्रमं वाधिगच्छसि॥२६॥
यदि कार्यं ममैतत्ते हृदि कार्यतमं मतम्।

‘यदि मुझ पर तुम्हारा स्नेह है, यदि अपने भीतर यथेष्ट पराक्रम समझते हो और यदि मेरे इस कार्य को परम कर्तव्य समझकर हृदय में स्थान देते हो तो युद्ध करो॥

स सुहृद् यो विपन्नार्थं दीनमभ्युपपद्यते॥२७॥
स बन्धुर्योऽपनीतेषु साहाय्यायोपकल्पते।

‘वही सुहृद् है, जो सारा कार्य नष्ट हो जानेसे दुःखी हुए स्वजन पर अकारण अनुग्रह करता है तथा वही बन्धु है, जो अनीति के मार्ग पर चलने से संकट में पड़े हुए पुरुषों की सहायता करता है’॥ २७ १/२॥

तमथैवं ब्रुवाणं स वचनं धीरदारुणम्॥२८॥
रुष्टोऽयमिति विज्ञाय शनैः श्लक्ष्णमुवाच ह।

रावण को इस प्रकार धीर एवं दारुण वचन बोलते देख उसे रुष्ट समझकर कुम्भकर्ण धीरे-धीरे मधुर वाणी में कुछ कहने को उद्यत हुआ॥ २८ १/२॥

अतीव हि समालक्ष्य भ्रातरं क्षुभितेन्द्रियम्॥२९॥
कुम्भकर्णः शनैर्वाक्यं बभाषे परिसान्त्वयन्।

उसने देखा मेरे भाई की सारी इन्द्रियाँ अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठी हैं; अतः कुम्भकर्ण ने धीरे-धीरे उसे सान्त्वना देते हुए कहा- ॥ २९ १/२॥

शृणु राजन्नवहितो मम वाक्यमरिंदम॥३०॥
अलं राक्षसराजेन्द्र संतापमुपपद्य ते।
रोषं च सम्परित्यज्य स्वस्थो भवितुमर्हसि ॥३१॥

‘शत्रुदमन महाराज! सावधान होकर मेरी बात सुनो। राक्षसराज! संताप करना व्यर्थ है। अब तुम्हें रोष त्यागकर स्वस्थ हो जाना चाहिये॥ ३०-३१॥

नैतन्मनसि कर्तव्यं मयि जीवति पार्थिव।
तमहं नाशयिष्यामि यत् कृते परितप्यते॥३२॥

‘पृथ्वीनाथ! मेरे जीते-जी तुम्हें मन में ऐसा भाव नहीं लाना चाहिये। तुम्हें जिसके कारण संतप्त होना पड़ रहा है, उसे मैं नष्ट कर दूंगा॥ ३२॥

अवश्यं तु हितं वाच्यं सर्वावस्थं मया तव।
बन्धुभावादभिहितं भ्रातृस्नेहाच्च पार्थिव॥३३॥

‘महाराज! अवश्य ही सब अवस्थाओं में मुझे तुम्हारे हित की बात कहनी चाहिये। अतः मैंने बन्धुभाव और भ्रातृ-स्नेह के कारण ही ये बातें कही हैं।॥ ३३॥

सदृशं यच्च कालेऽस्मिन् कर्तुं स्नेहेन बन्धुना।
शत्रूणां कदनं पश्य क्रियमाणं मया रणे॥३४॥

‘इस समय एक भाई को स्नेहवश जो कुछ करना उचित है, वही करूँगा। अब रणभूमि में मेरे द्वारा किया जाने वाला शत्रुओं का संहार देखो॥ ३४॥

अद्य पश्य महाबाहो मया समरमूर्धनि।
हते रामे सह भ्रात्रा द्रवन्तीं हरिवाहिनीम्॥३५॥

‘महाबाहो! आज युद्ध के मुहाने पर मेरे द्वारा भाईसहित राम के मारे जाने के पश्चात् तुम देखोगे कि वानरों की सेना किस तरह भागी जा रही है॥ ३५॥

अद्य रामस्य तद् दृष्ट्वा मयाऽऽनीतं रणाच्छिरः।
सुखी भव महाबाहो सीता भवतु दुःखिता॥३६॥

‘महाबाहो ! आज मैं संग्रामभूमि में राम का सिर काट लाऊँगा। उसे देखकर तुम सुखी होना और सीता दुःख में डूब जायगी॥ ३६॥

अद्य रामस्य पश्यन्तु निधनं सुमहत् प्रियम्।
लङ्कायां राक्षसाः सर्वे ये ते निहतबान्धवाः॥३७॥

‘लङ्का में जिन राक्षसों के सगे-सम्बन्धी मारे गये हैं, वे भी आज राम की मृत्यु देख लें। यह उनके लिये बहुत ही प्रिय बात होगी॥ ३७॥

अद्य शोकपरीतानां स्वबन्धुवधशोचिनाम्।
शत्रोर्युधि विनाशेन करोम्यश्रुप्रमार्जनम्॥३८॥

‘अपने भाई-बन्धुओं के मारे जाने से जो लोग अत्यन्त शोक में डूबे हुए हैं, आज युद्ध में शत्रु का नाश करके मैं उनके आँसू पोंछूगा॥ ३८॥

अद्य पर्वतसंकाशं ससूर्यमिव तोयदम्।
विकीर्णं पश्य समरे सुग्रीवं प्लवगेश्वरम्॥३९॥

‘आज पर्वत के समान विशालकाय वानरराज सुग्रीव को समराङ्गण में खून से लथपथ होकर गिरे हुए देखोगे, जो सूर्यसहित मेघ के समान दृष्टिगोचर होंगे॥

कथं च राक्षसैरेभिर्मया च परिसान्त्वितः।
जिघांसुभिर्दाशरथिं व्यथसे त्वं सदानघ॥४०॥

‘निष्पाप निशाचरराज! ये राक्षस तथा मैं सब लोग दशरथपुत्र राम को मार डालने की इच्छा रखते हैं और तुम्हें इस बात के लिये आश्वासन देते हैं तो भी तुम सदा व्यथित क्यों रहते हो? ॥ ४०॥

मां निहत्य किल त्वां हि निहनिष्यति राघवः।
नाहमात्मनि संतापं गच्छेयं राक्षसाधिप॥४१॥

‘राक्षसराज! पहले मेरा वध करके ही राम तुम्हें मार सकेंगे; किंतु मैं अपने विषय में राम से संताप या भय नहीं मानता॥४१॥

कामं त्विदानीमपि मां व्यादिश त्वं परंतप।
न परः प्रेक्षणीयस्ते युद्धायातुलविक्रम॥४२॥

‘शत्रुओं को संताप देने वाले अनुपम पराक्रमी वीर! इस समय तुम इच्छानुसार मुझे युद्ध के लिये आदेश दो। शत्रुओं से जूझने के लिये तुम्हें दूसरे किसी की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है॥ ४२ ॥

अहमुत्सादयिष्यामि शत्रूस्तव महाबलान्।
यदि शक्रो यदि यमो यदि पावकमारुतौ॥४३॥
तानहं योधयिष्यामि कुबेरवरुणावपि।

‘तुम्हारे महाबली शत्रु यदि इन्द्र, यम, अग्नि, वायु, कुबेर और वरुण भी हों तो मैं उनसे भी युद्ध करूँगा तथा उन सबको उखाड़ फेंकूँगा॥ ४३ १/२॥

गिरिमात्रशरीरस्य शितशूलधरस्य मे॥४४॥
नर्दतस्तीक्ष्णदंष्ट्रस्य बिभीयाद् वै पुरंदरः।

‘मेरा पर्वत के समान विशाल शरीर है। मैं हाथ में तीखा त्रिशूल धारण करता हूँ और मेरी दाढ़ें भी बहुत तीखी हैं। मेरे सिंहनाद करने पर इन्द्र भी भय से थर्रा उठेंगे॥ ४४ १/२॥

अथ वा त्यक्तशस्त्रस्य मृद्नतस्तरसा रिपून्॥४५॥
न मे प्रतिमुखः कश्चित् स्थातुं शक्तो जिजीविषुः।

‘अथवा यदि मैं शस्त्र त्याग करके भी वेगपूर्वक शत्रुओं को रौंदता हुआ रणभूमि में विचरने लगूं तो कोई भी जीवित रहने की इच्छावाला पुरुष मेरे सामने नहीं ठहर सकता॥ ४५ १/२॥

नैव शक्त्या न गदया नासिना निशितैः शरैः॥४६॥
हस्ताभ्यामेव संरभ्य हनिष्यामि सवज्रिणम्।

‘मैं न तो शक्ति से, न गदा से, न तलवार से और न पैने बाणों से ही काम लूँगा। रोष से भरकर केवल दोनों हाथों से ही वज्रधारी इन्द्र-जैसे शत्रु को भी मौत के घाट उतार दूंगा।। ४६ १/२॥

यदि मे मुष्टिवेगं स राघवोऽद्य सहिष्यति॥४७॥
ततः पास्यन्ति बाणौघा रुधिरं राघवस्य मे।

‘यदि राम आज मेरी मुट्ठी का वेग सह लेंगे तो मेरे बाणसमूह अवश्य ही उनका रक्त पान करेंगे॥ ४७ १/२॥

चिन्तया तप्यसे राजन् किमर्थं मयि तिष्ठति॥४८॥
सोऽहं शत्रुविनाशाय तव निर्यातुमुद्यतः।

‘राजन्! मेरे रहते हुए तुम किसलिये चिन्ता की आग से झुलस रहे हो? मैं तुम्हारे शत्रुओं का विनाश करने के लिये अभी रणभूमि में जाने को उद्यत हूँ॥ ४८ १/२॥

मुञ्च रामाद् भयं घोरं निहनिष्यामि संयुगे॥४९॥
राघवं लक्ष्मणं चैव सुग्रीवं च महाबलम्।

‘तुम्हें राम से जो घोर भय हो रहा है, उसे त्याग दो। मैं रणभूमि में राम, लक्ष्मण और महाबली सुग्रीव को अवश्य मार डालूँगा॥ ४९ १/२॥

हनूमन्तं च रक्षोभं येन लङ्का प्रदीपिता॥५०॥
हरीश्च भक्षयिष्यामि संयुगे समुपस्थिते।
असाधारणमिच्छामि तव दातुं महद् यशः॥५१॥

‘युद्ध उपस्थित होने पर मैं राक्षसों का संहार करने वाले उस हनुमान् को भी जीवित नहीं छोडूंगा, जिसने लङ्का जलायी थी। साथ ही अन्य वानरों को भी खा जाऊँगा। आज मैं तुम्हें अलौकिक एवं महान् यश प्रदान करना चाहता हूँ॥ ५०-५१॥

यदि चेन्द्राद् भयं राजन् यदि चापि स्वयंभुवः।
ततोऽहं नाशयिष्यामि नैशं तम इवांशुमान्॥५२॥

‘राजन् !यदि तुम्हें इन्द्र अथवा स्वयम्भू ब्रह्मा से भी भय है तो मैं उस भय को भी उसी तरह नष्ट कर दूंगा, जैसे सूर्य रात्रि के अन्धकार को॥५२॥

अपि देवाः शयिष्यन्ते मयि क्रुद्धे महीतले।
यमं च शमयिष्यामि भक्षयिष्यामि पावकम्॥५३॥

‘मेरे कुपित होने पर देवता भी धराशायी हो जायेंगे। (फिर मनुष्यों और वानरों की तो बात ही क्या है ?) मैं यमराज को भी शान्त कर दूंगा। सर्वभक्षी अग्नि का भी भक्षण कर जाऊँगा॥५३॥

आदित्यं पातयिष्यामि सनक्षत्रं महीतले।
शतक्रतुं वधिष्यामि पास्यामि वरुणालयम्॥५४॥

‘नक्षत्रोंसहित सूर्य को भी पृथ्वी पर मार गिराऊँगा, इन्द्र का भी वध कर डालूँगा और समुद्र को भी पी जाऊँगा॥ ५४॥

पर्वतांश्चूर्णयिष्यामि दारयिष्यामि मेदिनीम्।
दीर्घकालं प्रसुप्तस्य कुम्भकर्णस्य विक्रमम्॥५५॥
अद्य पश्यन्तु भूतानि भक्ष्यमाणानि सर्वशः।
न त्विदं त्रिदिवं सर्वमाहारो मम पूर्यते॥५६॥

‘पर्वतों को चूर-चूर कर दूंगा। भूमण्डल को विदीर्ण कर डालूँगा। आज मेरे द्वारा खाये जाने वाले सब प्राणी दीर्घकाल तक सोकर उठे हुए मुझ कुम्भकर्ण का पराक्रम देखें। यह सारी त्रिलोकी आहार बन जाय तो भी मेरा पेट नहीं भर सकता॥ ५५-५६॥

वधेन ते दाशरथेः सुखावहं सुखं समाहर्तुमहं व्रजामि।
निहत्य रामं सह लक्ष्मणेन खादामि सर्वान् हरियूथमुख्यान्॥५७॥

‘दशरथकुमार श्रीराम का वध करके मैं तुम्हें उत्तरोत्तर सुख की प्राप्ति कराने वाले सुख-सौभाग्य को देना चाहता हूँ। लक्ष्मणसहित राम का वध करके सभी प्रधान-प्रधान वानरयूथपतियों को खा जाऊँगा॥ ५७॥

रमस्व राजन् पिब चाद्य वारुणीं कुरुष्व कृत्यानि विनीय दुःखम्।
मयाद्य रामे गमिते यमक्षयं चिराय सीता वशगा भविष्यति॥५८॥

‘राजन्! अब मौज करो, मदिरा पीओ और मानसिक दुःख को दूर करके सब कार्य करो। आज मेरे द्वारा राम यमलोक पहुँचा दिये जायेंगे; फिर तो सीता चिरकाल (सदा)-के लिये तुम्हारे अधीन हो जायगी’॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे त्रिषष्टितमः सर्गः॥६३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६३॥


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Shivangi

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