वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 64 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 64
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
चतुःषष्टितमः सर्गः (64)
महोदर का कुम्भकर्ण के प्रति आक्षेप करके रावण को बिना युद्ध के ही अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का उपाय बताना
तदुक्तमतिकायस्य बलिनो बाहुशालिनः।
कुम्भकर्णस्य वचनं श्रुत्वोवाच महोदरः॥१॥
अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाले विशालकाय एवं बलवान् राक्षस कुम्भकर्ण का यह वचन सुनकर महोदर ने कहा- ॥१॥
कुम्भकर्ण कुले जातो धृष्टः प्राकृतदर्शनः।
अवलिप्तो न शक्नोषि कृत्यं सर्वत्र वेदितुम्॥२॥
‘कुम्भकर्ण! तुम उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; परंतु तुम्हारी दृष्टि (बुद्धि) निम्नश्रेणी के लोगों के समान है। तुम ढीठ और घमंडी हो, इसलिये सभी विषयों में क्या कर्तव्य है—इस बात को नहीं जान सकते॥२॥
नहि राजा न जानीते कुम्भकर्ण नयानयौ।
त्वं तु कैशोरकाद् धृष्टः केवलं वक्तुमिच्छसि॥३॥
‘कुम्भकर्ण! हमारे महाराज नीति और अनीति को नहीं जानते हैं, ऐसी बात नहीं है। तुम केवल अपने बचपन के कारण धृष्टतापूर्वक इस तरह की बातें कहना चाहते हो॥३॥
स्थानं वृद्धिं च हानिं च देशकालविधानवित्।
आत्मनश्च परेषां च बुध्यते राक्षसर्षभः॥४॥
‘राक्षसशिरोमणि रावण देश-काल के लिये उचित कर्तव्य को जानते हैं और अपने तथा शत्रुपक्ष के स्थान, वृद्धि एवं क्षय को अच्छी तरह समझते हैं। ४॥
यत् त्वशक्यं बलवता वक्तुं प्राकृतबुद्धिना।
अनुपासितवृद्धेन कः कुर्यात् तादृशं बुधः॥५॥
‘जिसने वृद्ध पुरुषों की उपासना या सत्संग नहीं किया है और जिसकी बुद्धि गँवारों के समान है, ऐसा बलवान् पुरुष भी जिस कर्म को नहीं कर सकता— जिसे अनुचित समझता है, वैसे कर्म को कोई बुद्धिमान् पुरुष कैसे कर सकता है ? ॥ ५ ॥
यांस्तु धर्मार्थकामांस्त्वं ब्रवीषि पृथगाश्रयान्।
अवबोद्धं स्वभावेन नहि लक्षणमस्ति तान्॥६॥
‘जिन अर्थ, धर्म और काम को तुम पृथक्-पृथक् आश्रयवाले बता रहे हो, उन्हें ठीक-ठीक समझने की तुम्हारे भीतर शक्ति ही नहीं है॥६॥
कर्म चैव हि सर्वेषां कारणानां प्रयोजनम्।
श्रेयः पापीयसां चात्र फलं भवति कर्मणाम्॥७॥
‘सुख के साधनभूत जो त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ एवं काम) हैं, उन सबका एकमात्र कर्म ही प्रयोजक है (क्योंकि जो कर्मानुष्ठान से रहित है, उसका धर्म, अर्थ अथवा काम–कोई भी पुरुषार्थ सफल नहीं होता)। इसी तरह एक पुरुष के प्रयत्न से सिद्ध होने वाले सभी शुभाशुभ व्यापारों का फल यहाँ एक ही कर्ता को प्राप्त होता है (इस प्रकार जब परस्पर विरुद्ध होने पर भी धर्म और काम का अनुष्ठान एक ही पुरुष के द्वारा होता देखा जाता है, तब तुम्हारा यह कहना कि केवल धर्म का ही अनुष्ठान करना चाहिये, धर्मविरोधी काम का नहीं, कैसे संगत हो सकता है ?) ॥७॥
निःश्रेयसफलावेव धर्मार्थावितरावपि।
अधर्मानर्थयोः प्राप्तं फलं च प्रत्यवायिकम्॥८॥
‘निष्कामभाव से किये गये धर्म (जप, ध्यान आदि) और अर्थ (धनसाध्य यज्ञ, दान आदि)-ये चित्तशुद्धि के द्वारा यद्यपि निःश्रेयस (मोक्ष)-रूप फल की प्राप्ति कराने वाले हैं तथापि कामना-विशेष से स्वर्ग एवं अभ्युदय आदि अन्य फलों की भी प्राप्ति कराते हैं। पूर्वोक्त जपादिरूप या क्रियामय नित्यधर्म का लोप होने पर अधर्म और अनर्थ प्राप्त होते हैं और उनके रहते हुए प्रत्यवायजनित फल भोगना पड़ता है (परंतु काम्य-कर्म न करने से प्रत्यवाय नहीं होता, यह धर्म और अर्थ की अपेक्षा काम की विशेषता है)॥ ८॥
ऐहलौकिकपारक्यं कर्म पुंभिर्निषेव्यते।
कर्माण्यपि तु कल्याणि लभते काममास्थितः॥
‘जीवों को धर्म और अधर्म के फल इस लोक और परलोक में भी भोगने पड़ते हैं। परंतु जो कामनाविशेष के उद्देश्य से यत्नपूर्वक कर्मों का अनुष्ठान करता है, उसे यहाँ भी उसके सुख-मनोरथ की प्राप्ति हो जाती है। धर्म आदि के फल की भाँति उसके लिये कालान्तर या लोकान्तर की अपेक्षा नहीं होती है (इस तरह काम धर्म और अर्थ से विलक्षण सिद्ध होता है)॥९॥
तत्र क्लृप्तमिदं राज्ञा हृदि कार्यं मतं च नः।
शत्रौ हि साहसं यत् तत् किमिवात्रापनीयते॥१०॥
‘यहाँ राजा के लिये कामरूपी पुरुषार्थ का सेवन उचित है ही* ऐसा ही राक्षसराज ने अपने हृदय में निश्चित किया है और यही हम मन्त्रियों की भी सम्मति है। शत्रु के प्रति साहसपूर्ण कार्य करना कौन सी अनीति है (अतः इन्होंने जो कुछ किया है, उचित ही किया है) ॥१०॥
* यहाँ महोदर ने रावण की चापलूसी करने के लिये ‘कामवाद’ की स्थापना या प्रशंसा की है। यह आदर्श मत नहीं है। वास्तव में धर्म, अर्थ और काम में धर्म ही प्रधान है; अतः उसी के सेवन से प्राणिमात्र का कल्याण हो सकता है।
एकस्यैवाभियाने तु हेतुर्यः प्राहृतस्त्वया।
तत्राप्यनुपपन्नं ते वक्ष्यामि यदसाधु च॥११॥
‘तुमने युद्ध के लिये अकेले अपने ही प्रस्थान करने के विषय में जो हेतु दिया है (अपने महान् बल के द्वारा शत्रु को परास्त कर देने की जो घोषणा की है) उसमें भी जो असंगत एवं अनुचित बात कही गयी है, उसे मैं तुम्हारे सामने रखता हूँ॥ ११॥
येन पूर्वं जनस्थाने बहवोऽतिबला हताः।
राक्षसा राघवं तं त्वं कथमेको जयिष्यसि॥१२॥
‘जिन्होंने पहले जनस्थान में बहुत-से अत्यन्त बलशाली राक्षसों को मार डाला था, उन्हीं रघुवंशी वीर श्रीराम को तुम अकेले ही कैसे परास्त करोगे?॥ १२॥
ये पूर्वं निर्जितास्तेन जनस्थाने महौजसः।
राक्षसांस्तान् पुरे सर्वान् भीतानद्य न पश्यसि॥१३॥
‘जनस्थान में श्रीराम ने पहले जिन महान् बलशाली निशाचरों को मार भगाया था, वे आज भी इस लङ्कापुरी में विद्यमान हैं और उनका वह भय अबतक दूर नहीं हुआ है। क्या तुम उन राक्षसों को नहीं देखते हो? ॥ १३॥
तं सिंहमिव संक्रुद्धं रामं दशरथात्मजम्।
सर्प सुप्तमहो बुद्ध्वा प्रबोधयितुमिच्छसि॥१४॥
‘दशरथकुमार श्रीराम अत्यन्त कुपित हुए सिंह के समान पराक्रमी एवं भयंकर हैं, क्या तुम उनसे भिड़ने का साहस करते हो? क्या जान-बूझकर सोये हुए सर्प को जगाना चाहते हो? तुम्हारी मूर्खता पर आश्चर्य होता है !॥ १४॥
ज्वलन्तं तेजसा नित्यं क्रोधेन च दुरासदम्।
कस्तं मृत्युमिवासह्यमासादयितुमर्हति॥१५॥
‘श्रीराम सदा ही अपने तेज से देदीप्यमान हैं। वे क्रोध करने पर अत्यन्त दुर्जय और मृत्यु के समान असह्य हो उठते हैं। भला कौन योद्धा उनका सामना कर सकता है ? ॥ १५ ॥
संशयस्थमिदं सर्वं शत्रोः प्रतिसमासने।
एकस्य गमनं तात नहि मे रोचते भृशम्॥१६॥
‘हमारी यह सारी सेना भी यदि उस अजेय शत्रु का सामना करने के लिये खड़ी हो तो उसका जीवन भी संशय में पड़ सकता है। अतः तात! युद्ध के लिये तुम्हारा अकेले जाना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता है॥ १६॥
हीनार्थस्तु समृद्धार्थं को रिपुं प्राकृतं यथा।
निश्चितं जीवितत्यागे वशमानेतुमिच्छति॥१७॥
‘जो सहायकों से सम्पन्न और प्राणों की बाजी लगाकर शत्रुओं का संहार करने के लिये निश्चित विचार रखने वाला हो, ऐसे शत्रु को अत्यन्त साधारण मानकर कौन असहाय योद्धा वश में लाने की इच्छा कर सकता है ?॥
यस्य नास्ति मनुष्येषु सदृशो राक्षसोत्तम।
कथमाशंससे योद्धं तुल्येनेन्द्रविवस्वतोः॥१८॥
‘राक्षसशिरोमणे! मनुष्यों में जिनकी समता करने वाला दूसरा कोई नहीं है तथा जो इन्द्र और सूर्य के समान तेजस्वी हैं, उन श्रीराम के साथ युद्ध करने का हौसला तुम्हें कैसे हो रहा है ?’ ॥ १८ ॥
एवमुक्त्वा तु संरब्धं कुम्भकर्णं महोदरः।
उवाच रक्षसां मध्ये रावणं लोकरावणम्॥१९॥
रोष के आवेश से युक्त कुम्भकर्ण से ऐसा कहकर महोदर ने समस्त राक्षसों के बीच में बैठे हुए लोकों को रुलाने वाले रावण से कहा- ॥ १९ ॥
लब्ध्वा पुरस्ताद् वैदेहीं किमर्थं त्वं विलम्बसे।
यदीच्छसि तदा सीता वशगा ते भविष्यति॥२०॥
‘महाराज! आप विदेहकुमारी को अपने सामने पाकर भी किसलिये विलम्ब कर रहे हैं? आप जब चाहें तभी सीता आपके वश में हो जायगी॥ २० ॥
दृष्टः कश्चिदुपायो मे सीतोपस्थानकारकः।
रुचितश्चेत् स्वया बुद्धया राक्षसेन्द्र ततः शृणु॥२१॥
‘राक्षसराज! मुझे एक ऐसा उपाय सूझा है, जो सीता को आपकी सेवा में उपस्थित करके ही रहेगा। आप उसे सुनिये। सुनकर अपनी बुद्धि से उस पर विचार कीजिये और ठीक ऊँचे तो उसे काम में लाइये॥ २१॥
अहं दिजिह्वः संह्रादी कुम्भकर्णो वितर्दनः।
पञ्च रामवधायैते निर्यान्तीत्यवघोषय॥२२॥
‘आप नगर में यह घोषित करा दें कि महोदर, द्विजिह्व, संह्रादी, कुम्भकर्ण और वितर्दन—ये पाँच राक्षस राम का वध करने के लिये जा रहे हैं।॥ २२ ॥
ततो गत्वा वयं युद्धं दास्यामस्तस्य यत्नतः।
जेष्यामो यदि ते शत्रून् नोपायैः कार्यमस्ति नः॥२३॥
‘हमलोग रणभूमि में जाकर प्रयत्नपूर्वक श्रीराम के साथ युद्ध करेंगे। यदि आपके शत्रुओं पर हम विजय पा गये तो हमारे लिये सीता को वश में करने के निमित्त दूसरे किसी उपाय की आवश्यकता ही नहीं रह जायगी॥ २३॥
अथ जीवति नः शत्रुर्वयं च कृतसंयुगाः।
ततः समभिपत्स्यामो मनसा यत् समीक्षितम्॥२४॥
‘यदि हमारा शत्रु अजेय होने के कारण जीवित ही रह गया और हम भी युद्ध करते-करते मारे नहीं गये तो हम उस उपाय को काम में लायेंगे, जिसे हमने मन से सोचकर निश्चित किया है॥ २४ ॥
वयं युद्धादिहैष्यामो रुधिरेण समुक्षिताः।
विदार्य स्वतनुं बाणै रामनामाङ्कितैः शरैः॥ २५॥
भक्षितो राघवोऽस्माभिर्लक्ष्मणश्चेति वादिनः।
ततः पादौ ग्रहीष्यामस्त्वं नः कामं प्रपूरय॥२६॥
राम नाम से अङ्कित बाणों द्वारा अपने शरीर को घायल कराकर खून से लथपथ हो हम यह कहते हुए युद्धभूमि से यहाँ लौटेंगे कि हमने राम और लक्ष्मण को खा लिया है। उस समय हम आपके पैर पकड़कर यह भी कहेंगे कि हमने शत्रु को मारा है। इसलिये आप हमारी इच्छा पूरी कीजिये॥ २५-२६॥
ततोऽवघोषय पुरे गजस्कन्धेन पार्थिव।
हतो रामः सह भ्रात्रा ससैन्य इति सर्वतः॥२७॥
‘पृथ्वीनाथ! तब आप हाथी की पीठ पर किसी को बिठाकर सारे नगर में यह घोषणा करा दें कि भाई और सेना के सहित राम मारा गया॥२७॥
प्रीतो नाम ततो भूत्वा भृत्यानां त्वमरिंदम।
भोगांश्च परिवारांश्च कामान् वसु च दापय॥२८॥
ततो माल्यानि वासांसि वीराणामनुलेपनम्।
पेयं च बहु योधेभ्यः स्वयं च मुदितः पिब॥२९॥
‘शत्रुदमन! इतना ही नहीं, आप प्रसन्नता दिखाते हुए अपने वीर सेवकों को उनकी अभीष्ट वस्तुएँ, तरह-तरह की भोग-सामग्रियाँ, दास-दासी आदि, धनरत्न, आभूषण, वस्त्र और अनुलेपन दिलावें। अन्य योद्धाओं को भी बहुत-से उपहार दें तथा स्वयं भी खुशी मनाते हुए मद्यपान करें॥ २८-२९ ॥
ततोऽस्मिन् बहुलीभूते कौलीने सर्वतो गते।
भक्षितः ससुहृद् रामो राक्षसैरिति विश्रुते॥३०॥
प्रविश्याश्वास्य चापि त्वं सीतां रहसि सान्त्वयन्।
धनधान्यैश्च कामैश्च रत्नैश्चैनां प्रलोभय॥३१॥
‘तदनन्तर जब लोगों में सब ओर यह चर्चा फैल जाय कि राम अपने सुहृदोंसहित राक्षसों के आहार बन गये और सीता के कानों में भी यह बात पड़ जाय, तब आप सीता को समझाने के लिये एकान्त में उसके वासस्थान पर जायँ और तरह-तरह से धीरज बँधाकर उसे धन-धान्य, भाँति-भाँति के भोग और रत्न आदि का लोभ दिखावें॥
अनयोपधया राजन् भूयः शोकानुबन्धया।
अकामा त्वदशं सीता नष्टनाथा गमिष्यति॥३२॥
‘राजन्! इस प्रवञ्चना से अपने को अनाथ मानने वाली सीता का शोक और भी बढ़ जायगा और वह इच्छा न होने पर भी आपके अधीन हो जायगी॥ ३२॥
रमणीयं हि भर्तारं विनष्टमधिगम्य सा।
नैराश्यात् स्त्रीलघुत्वाच्च त्वदशं प्रतिपत्स्यते॥३३॥
‘अपने रमणीय पति को विनष्ट हुआ जान वह निराशा तथा नारी-सुलभ चपलता के कारण आपके वश में आ जायगी॥३३॥
सा पुरा सुखसंवृद्धा सुखार्हा दुःखकर्शिता।
त्वय्यधीनं सुखं ज्ञात्वा सर्वथैव गमिष्यति॥३४॥
‘वह पहले सुख में पली हुई है और सुख भोगने के योग्य है; परंतु इन दिनों दुःख से दुर्बल हो गयी है। ऐसी दशा में अब आपके ही अधीन अपना सुख समझकर सर्वथा आपकी सेवा में आ जायगी॥ ३४॥
एतत् सुनीतं मम दर्शनेन रामं हि दृष्ट्वैव भवेदनर्थः।
इहैव ते सेत्स्यति मोत्सुको भू महानयुद्धेन सुखस्य लाभः॥ ३५॥
‘मेरे देखने में यही सबसे सुन्दर नीति है। युद्ध में तो श्रीराम का दर्शन करते ही आपको अनर्थ (मृत्यु)-की प्राप्ति हो सकती है; अतः आप युद्धस्थल में जाने के लिये उत्सुक न हों, यहीं आपके अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि हो जायगी। बिना युद्ध के ही आपको सुख का महान् लाभ होगा।
अनष्टसैन्यो ह्यनवाप्तसंशयो रिपुं त्वयुद्धेन जयञ्जनाधिपः।
यशश्च पुण्यं च महान्महीपते श्रियं च कीर्तिं च चिरं समश्नुते॥३६॥
महाराज! जो राजा बिना युद्ध के ही शत्रु पर विजय पाता है, उसकी सेना नष्ट नहीं होती। उसका जीवन भी संशय में नहीं पड़ता, वह पवित्र एवं महान् यश पाता तथा दीर्घकालतक लक्ष्मी एवं उत्तम कीर्ति का उपभोग करता है’ ॥ ३६॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे चतुःषष्टितमः सर्गः॥६४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में चौंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६४॥
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