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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 65 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 65

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
पञ्चषष्टितमः सर्गः (65)

कुम्भकर्ण की रणयात्रा

 

स तथोक्तस्तु निर्भय॑ कुम्भकर्णो महोदरम्।
अब्रवीद् राक्षसश्रेष्ठं भ्रातरं रावणं ततः॥१॥

महोदर के ऐसा कहने पर कुम्भकर्ण ने उसे डाँटा और अपने भाई राक्षसशिरोमणि रावण से कहा— ॥

सोऽहं तव भयं घोरं वधात् तस्य दुरात्मनः।
रामस्याद्य प्रमार्जामि निर्वैरो हि सुखी भव॥२॥

‘राजन्! आज मैं उस दुरात्मा राम का वध करके तुम्हारे घोर भय को दूर कर दूंगा। तुम वैरभाव से मुक्त होकर सुखी हो जाओ॥२॥

गर्जन्ति न वृथा शूरा निर्जला इव तोयदाः।
पश्य सम्पद्यमानं तु गर्जितं युधि कर्मणा॥३॥

‘शूरवीर जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। तुम देखना, अब युद्धस्थल में मैं अपने पराक्रम के द्वारा ही गर्जना करूँगा॥३॥

न मर्षयन्ति चात्मानं सम्भावयितुमात्मना।
अदर्शयित्वा शूरास्तु कर्म कुर्वन्ति दुष्करम्॥४॥

‘शूरवीरों को अपने ही मुँह से अपनी तारीफ करना सहन नहीं होता। वे वाणी के द्वारा प्रदर्शन न करके चुपचाप दुष्कर पराक्रम प्रकट करते हैं॥ ४॥

विक्लवानां ह्यबुद्धीनां राज्ञां पण्डितमानिनाम्।
रोचते त्वदचो नित्यं कथ्यमानं महोदर॥५॥

‘महोदर! जो भीरु, मूर्ख और झूठे ही अपने को पण्डित मानने वाले होंगे, उन्हीं राजाओं को तुम्हारे द्वारा कही जाने वाली ये चिकनी-चुपड़ी बातें सदा अच्छी लगेंगी॥५॥

युद्धे कापुरुषैर्नित्यं भवद्भिः प्रियवादिभिः।
राजानमनुगच्छद्भिः सर्वं कृत्यं विनाशितम्॥६॥

‘युद्ध में कायरता दिखाने वाले तुम-जैसे चापलूसों ने ही सदा राजा की हाँ-में-हाँ मिलाकर सारा काम चौपट किया है॥६॥

राजशेषा कृता लङ्का क्षीणः कोशो बलं हतम्।
राजानमिममासाद्य सुहृच्चिह्नममित्रकम्॥७॥

‘अब तो लङ्का में केवल राजा शेष रह गये हैं। खजाना खाली हो गया और सेना मार डाली गयी। इस राजा को पाकर तुमलोगों ने मित्र के रूप में शत्रु का काम किया है॥७॥

एष निर्याम्यहं युद्धमुद्यतः शत्रुनिर्जये।
दुर्नयं भवतामद्य समीकर्तुं महाहवे॥८॥

‘यह देखो, अब मैं शत्रु को जीतने के लिये उद्यत होकर समरभूमि में जा रहा हूँ। तुमलोगों ने अपनी खोटी नीति के कारण जो विषम परिस्थिति उत्पन्न कर दी है, उसका आज महासमर में समीकरण करना है —इस विषम संकट को सर्वदा के लिये टाल देना है’॥ ८॥

एवमुक्तवतो वाक्यं कुम्भकर्णस्य धीमतः।
प्रत्युवाच ततो वाक्यं प्रहसन् राक्षसाधिपः॥९॥

बुद्धिमान् कुम्भकर्ण ने जब ऐसी वीरोचित बात कही, तब राक्षसराज रावण ने हँसते हुए उत्तर दिया – ॥९॥

महोदरोऽयं रामात् तु परित्रस्तो न संशयः।
न हि रोचयते तात युद्धं युद्धविशारद॥१०॥

‘युद्धविशारद तात! यह महोदर श्रीराम से बहुत डर गया है, इसमें संशय नहीं है। इसीलिये यह युद्ध को पसंद नहीं करता है॥ १० ॥

कश्चिन्मे त्वत्समो नास्ति सौहृदेन बलेन च।
गच्छ शत्रुवधाय त्वं कुम्भकर्ण जयाय च॥११॥

‘कुम्भकर्ण! मेरे आत्मीयजनों में सौहार्द और बल की दृष्टि से कोई भी तुम्हारी समानता करने वाला नहीं है। तुम शत्रुओं का वध करने और विजय पाने लिये युद्धभूमि में जाओ॥ ११॥ ।

शयानः शत्रुनाशार्थं भवान् सम्बोधितो मया।
अयं हि कालः सुमहान् राक्षसानामरिंदम॥१२॥

‘शत्रुदमन वीर! तुम सो रहे थे। तुम्हारे द्वारा शत्रुओं का नाश कराने के लिये ही मैंने तुम्हें जगाया है। राक्षसों की युद्धयात्रा के लिये यह सबसे उत्तम समय है॥ १२॥

संगच्छ शूलमादाय पाशहस्त इवान्तकः।
वानरान् राजपुत्रौ च भक्षयादित्यतेजसौ॥१३॥

‘तुम पाशधारी यमराज की भाँति शूल लेकर जाओ और सूर्य के समान तेजस्वी उन दोनों राजकुमारों तथा वानरों को मारकर खा जाओ॥ १३॥

समालोक्य तु ते रूपं विद्रविष्यन्ति वानराः।
रामलक्ष्मणयोश्चापि हृदये प्रस्फुटिष्यतः॥१४॥

‘वानर तुम्हारा रूप देखते ही भाग जायँगे तथा राम और लक्ष्मण के हृदय भी विदीर्ण हो जायँगे’ ॥ १४ ॥

एवमुक्त्वा महातेजाः कुम्भकर्णं महाबलम्।
पुनर्जातमिवात्मानं मेने राक्षसपुङ्गवः॥१५॥

महाबली कुम्भकर्ण से ऐसा कहकर महातेजस्वी राक्षसराज रावण ने अपना पुनः नया जन्म हुआ-सा माना॥

कुम्भकर्णबलाभिज्ञो जानंस्तस्य पराक्रमम्।
बभूव मुदितो राजा शशाङ्क इव निर्मलः॥१६॥

राजा रावण कुम्भकर्ण के बल को अच्छी तरह जानता था, उसके पराक्रम से भी पूर्ण परिचित था; इसलिये वह निर्मल चन्द्रमा के समान परम आह्लाद से भर गया॥१६॥

इत्येवमुक्तः संहृष्टो निर्जगाम महाबलः।
राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा योद्धुमुद्युक्तवांस्तदा ॥१७॥

रावण के ऐसा कहने पर महाबली कुम्भकर्ण बहुत प्रसन्न हुआ। वह राजा रावण की बात सुनकर उस समय युद्ध के लिये उद्यत हो गया और लङ्कापुरी से  बाहर निकला॥ १७॥

आददे निशितं शूलं वेगाच्छत्रुनिबर्हणः।
सर्वं कालायसं दीप्तं तप्तकाञ्चनभूषणम्॥१८॥

शत्रुओं का संहार करने वाले उस वीर ने बड़े वेग से तीखा शूल हाथ में लिया, जो सब-का-सब काले लोहे का बना हुआ, चमकीला और तपाये हुए सुवर्ण से विभूषित था॥ १८ ॥

इन्द्राशनिसमप्रख्यं वज्रप्रतिमगौरवम्।
देवदानवगन्धर्वयक्षपन्नगसूदनम्॥१९॥

उसकी कान्ति इन्द्र के अशनि के समान थी। वह वज्रके समान भारी था तथा देवताओं, दानवों, गन्धों , यक्षों और नागों का संहार करनेवाला था। १९॥

रक्तमाल्यमहादामं स्वतश्चोद्गतपावकम्।
आदाय विपुलं शूलं शत्रुशोणितरञ्जितम्॥२०॥
कुम्भकर्णो महातेजा रावणं वाक्यमब्रवीत्।
गमिष्याम्यहमेकाकी तिष्ठत्विह बलं मम॥२१॥

उसमें लाल फूलों की बहुत बड़ी माला लटक रही थी और उससे आग की चिनगारियाँ झड़ रही थीं। शत्रुओं के रक्तसे रँगे हुए उस विशाल शूल को हाथ में लेकर महातेजस्वी कुम्भकर्ण रावण से बोला—’मैं अकेला ही युद्ध के लिये जाऊँगा। अपनी यह सारी सेना यहीं रहे ॥ २०-२१॥

अद्य तान् क्षुधितः क्रुद्धो भक्षयिष्यामि वानरान्।
कुम्भकर्णवचः श्रुत्वा रावणो वाक्यमब्रवीत्॥२२॥

‘आज मैं भूखा हूँ और मेरा क्रोध भी बढ़ा हुआ है। इसलिये समस्त वानरों को भक्षण कर जाऊँगा।’ कुम्भकर्ण की यह बात सुनकर रावण बोला— ॥२२॥

सैन्यैः परिवृतो गच्छ शूलमुद्गरपाणिभिः।
वानरा हि महात्मानः शूराः सुव्यवसायिनः॥२३॥
एकाकिनं प्रमत्तं वा नयेयुर्दशनैः क्षयम्।
तस्मात् परमदुर्धर्षः सैन्यैः परिवृतो व्रज।
रक्षसामहितं सर्वं शत्रुपक्षं निषूदय॥२४॥

‘कुम्भकर्ण! तुम हाथों में शूल और मुद्गर धारण करने वाले सैनिकों से घिरे रहकर युद्ध के लिये यात्रा करो, क्योंकि महामनस्वी वानर बड़े वीर और अत्यन्त उद्योगी हैं। वे तुम्हें अकेला या असावधान देख दाँतों से काट-काटकर नष्ट कर डालेंगे; इसलिये सेना से घिरकर सब ओर से सुरक्षित हो यहाँ से जाओ। उस दशा में तुम्हें परास्त करना शत्रुओं के लिये बहुत कठिन होगा। तुम राक्षसों का अहित करने वाले समस्त शत्रुदल का संहार करो’ ॥ २३-२४॥

अथासनात् समुत्पत्य स्रजं मणिकृतान्तराम्।
आबबन्ध महातेजाः कुम्भकर्णस्य रावणः॥२५॥

यों कहकर महातेजस्वी रावण अपने आसन से उठा और एक सोने की माला, जिसके बीच-बीच में मणियाँ पिरोयी हुई थीं, लेकर उसने कुम्भकर्ण के गले में पहना दी॥ २५॥

अङ्गदान्यङ्गलीवेष्टान् वराण्याभरणानि च।
हारं च शशिसंकाशमाबबन्ध महात्मनः॥२६॥

बाजूबंद, अंगूठियाँ, अच्छे-अच्छे आभूषण और चन्द्रमा के समान चमकीला हार-इन सबको उसने महाकाय कुम्भकर्ण के अङ्गों में पहनाया॥२६॥

दिव्यानि च सुगन्धीनि माल्यदामानि रावणः।
गात्रेषु सज्जयामास श्रोत्रयोश्चास्य कुण्डले॥२७॥

उतना ही नहीं, रावण ने उसके विभिन्न अङ्गों में दिव्य सुगन्धित फूलों की मालाएँ भी बंधवा दी और दोनों कानों में कुण्डल पहना दिये॥२७॥

काञ्चनाङ्गदकेयूरनिष्काभरणभूषितः।
कुम्भकर्णो बृहत्कर्णः सुहुतोऽग्निरिवाबभौ ॥२८॥

सोने के अङ्गद, केयूर और पदक आदि आभूषणों से भूषित तथा घड़े के समान विशाल कानों वाला कुम्भकर्ण घी की उत्तम आहुति पाकर प्रज्वलित हुई अग्नि के समान प्रकाशित हो उठा॥ २८॥

श्रोणीसूत्रेण महता मेचकेन व्यराजत।
अमृतोत्पादने नद्धो भुजङ्गेनेव मन्दरः॥२९॥

उसके कटिप्रदेश में काले रंग की एक विशाल करधनी थी, जिससे वह अमृत की उत्पत्ति के लिये किये गये समुद्रमन्थन के समय नागराज वासुकि से लिपटे हुए मन्दराचल के समान शोभा पाता था॥ २९॥

स काञ्चनं भारसहं निवातं विद्युत्प्रभं दीप्तमिवात्मभासा।
आबध्यमानः कवचं रराज संध्याभ्रसंवीत इवाद्रिराजः॥३०॥

तदनन्तर कुम्भकर्ण की छाती में एक सोने का कवच बाँधा गया, जो भारी-से-भारी आघात सहन करने में समर्थ, अस्त्र-शस्त्रों से अभेद्य तथा अपनी प्रभा से विद्युत् के समान देदीप्यमान था। उसे धारण करके कुम्भकर्ण संध्याकाल के लाल बादलों से संयुक्त गिरिराज अस्ताचल के समान सुशोभित हो रहा था। ३०॥

सर्वाभरणसर्वाङ्गः शूलपाणिः स राक्षसः।
त्रिविक्रमकृतोत्साहो नारायण इवाबभौ॥३१॥

सारे अङ्गों में सभी आवश्यक आभूषण धारण करके हाथों में शूल लिये वह राक्षस कुम्भकर्ण जब आगे बढ़ा, उस समय त्रिलोकी को नापने के लिये तीन डग बढ़ाने को उत्साहित हुए भगवान् नारायण (वामन)-के समान जान पड़ा॥३१॥

भ्रातरं सम्परिष्वज्य कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्।
प्रणम्य शिरसा तस्मै प्रतस्थे स महाबलः॥ ३२॥

भाई को हृदय से लगाकर उसकी परिक्रमा करके उस महाबली वीर ने उसे मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। तत्पश्चात् वह युद्ध के लिये चला ॥ ३२॥

तमाशीर्भिः प्रशस्ताभिः प्रेषयामास रावणः।
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषैः सैन्यैश्चापि वरायुधैः॥ ३३॥

उस समय रावण ने उत्तम आशीर्वाद देकर श्रेष्ठ आयुधों से सुसज्जित सेनाओं के साथ उसे युद्ध के लिये विदा किया। यात्रा के समय उसने शङ्ख और दुन्दुभि आदि बाजे भी बजवाये॥ ३३॥

तं गजैश्च तुरंगैश्च स्यन्दनैश्चाम्बुदस्वनैः।
अनुजग्मुर्महात्मानो रथिनो रथिनां वरम्॥३४॥

हाथी, घोड़े और मेघों की गर्जना के समान घर्घराहट पैदा करने वाले रथों पर सवार हो अनेकानेक महामनस्वी रथी वीर रथियों में श्रेष्ठ कुम्भकर्ण के साथ गये॥ ३४॥

सपैंरुष्टैः खरैश्चैव सिंहद्विपमृगद्विजैः।
अनुजग्मुश्च तं घोरं कुम्भकर्ण महाबलम्॥३५॥

कितने ही राक्षस साँप, ऊँट,गधे, सिंह, हाथी, मृग और पक्षियों पर सवार हो-होकर उस भयंकर महाबली कुम्भकर्ण के पीछे-पीछे गये॥ ३५ ॥

स पुष्पवर्षैरवकीर्यमाणो धृतातपत्रः शितशूलपाणिः।
मदोत्कटः शोणितगन्धमत्तो विनिर्ययौ दानवदेवशत्रुः॥ ३६॥

उस समय उसके ऊपर फूलों की वर्षा हो रही थी। सिरपर श्वेत छत्र तना हुआ था और उसने हाथ में तीखा त्रिशूल ले रखा था। इस प्रकार देवताओं और दानवों का शत्रु तथा रक्त की गन्ध से मतवाला कुम्भकर्ण, जो स्वाभाविक मद से भी उन्मत्त हो रहा था, युद्ध के लिये निकला॥ ३६॥

पदातयश्च बहवो महानादा महाबलाः।
अन्वयू राक्षसा भीमा भीमाक्षाः शस्त्रपाणयः॥३७॥

उसके साथ बहुत-से पैदल राक्षस भी गये, जो बड़े बलवान्, जोर-जोर से गर्जना करने वाले, भीषण नेत्रधारी और भयानक रूप वाले थे। उन सबके हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र थे॥ ३७॥

रक्ताक्षाः सुबहुव्यामा नीलाञ्जनचयोपमाः।
शूलानुद्यम्य खड्गांश्च निशितांश्च परश्वधान्॥३८॥
भिन्दिपालांश्च परिघान् गदाश्च मुसलानि च।
तालस्कन्धांश्च विपुलान् क्षेपणीयान् दुरासदान्॥३९॥

उनके नेत्र रोष से लाल हो रहे थे। वे सभी कई व्याम* ऊँचे और काले कोयले के ढेर की भाँति काले थे। उन्होंने अपने हाथों में शूल, तलवार, तीखी धारवाले फरसे, भिन्दिपाल, परिघ, गदा, मूसल, बड़े-बड़े ताड़ के वृक्षों के तने और जिन्हें कोई काट न सके, ऐसी गुलेलें ले रखी थीं॥ ३८-३९॥
* लंबाई का एक नाप। दोनों भुजाओं को दोनों ओर फैलाने पर एक हाथ की उँगलियों के सिरे से दूसरे हाथ की उँगलियों के सिरेतक जितनी दूरी होती है, उसे ‘व्याम’ कहते हैं।

अथान्यद्रपुरादाय दारुणं घोरदर्शनम्।
निष्पपात महातेजाः कुम्भकर्णो महाबलः॥४०॥

तदनन्तर महातेजस्वी महाबली कुम्भकर्ण ने बड़ा उग्र रूप धारण किया, जिसे देखने पर भय मालूम होता था। ऐसा रूप धारण करके वह युद्ध के लिये चल पड़ा॥ ४०॥

धनुःशतपरीणाहः स षट्शतसमुच्छ्रितः।
रौद्रः शकटचक्राक्षो महापर्वतसंनिभः॥४१॥

उस समय वह छः सौ धनुष के बराबर विस्तृत और सौ धनुष के बराबर ऊँचा हो गया। उसकी आँखें दो गाड़ी के पहियों के समान जान पड़ती थीं। वह विशाल पर्वत के समान भयंकर दिखायी देता था। ४१॥

संनिपत्य च रक्षांसि दग्धशैलोपमो महान्।
कुम्भकर्णो महावकत्रः प्रहसन्निदमब्रवीत्॥४२॥

पहले तो उसने राक्षस-सेना की व्यूह-रचना की। फिर दावानल से दग्ध हुए पर्वत के समान महाकाय कुम्भकर्ण अपना विशाल मुख फैलाकर अट्टहास करता हुआ इस प्रकार बोला— ॥ ४२ ॥

अद्य वानरमुख्यानां तानि यूथानि भागशः।
निर्दहिष्यामि संक्रुद्धः पतङ्गानिव पावकः॥४३॥

‘राक्षसो! जैसे आग पतंगों को जलाती है, उसी प्रकार मैं भी कुपित होकर आज प्रधान-प्रधान वानरों के एक-एक झुंड को भस्म कर डालूँगा॥४३॥

नापराध्यन्ति मे कामं वानरा वनचारिणः।
जातिरस्मद्विधानां सा पुरोद्यानविभूषणम्॥४४॥

‘यों तो वन में विचरने वाले बेचारे वानर स्वेच्छा से मेरा कोई अपराध नहीं कर रहे हैं; अतः वे वध के योग्य नहीं हैं। वानरों की जाति तो हम-जैसे लोगों के नगरोद्यान का आभूषण है॥४४॥

पुररोधस्य मूलं तु राघवः सहलक्ष्मणः।
हते तस्मिन् हतं सर्वं तं वधिष्यामि संयुगे॥४५॥

‘वास्तव में लङ्कापुरी पर घेरा डालने के प्रधान कारण हैं लक्ष्मणसहित राम। अतः सबसे पहले मैं उन्हीं को युद्ध में मारूँगा। उनके मारे जाने पर सारी वानर-सेना स्वतः मरी हुई-सी हो जायगी’॥ ४५ ॥

एवं तस्य ब्रुवाणस्य कुम्भकर्णस्य राक्षसाः।
नादं चक्रुर्महाघोरं कम्पयन्त इवार्णवम्॥४६॥

कुम्भकर्ण के ऐसा कहने पर राक्षसों ने समुद्र को कम्पित-सा करते हुए बड़ी भयानक गर्जना की। ४६॥

तस्य निष्पततस्तूर्णं कुम्भकर्णस्य धीमतः।
बभूवुर्घोररूपाणि निमित्तानि समन्ततः॥४७॥

बुद्धिमान् राक्षस कुम्भकर्ण के रणभूमि की ओर पैर बढ़ाते ही चारों ओर घोर अपशकुन होने लगे॥४७॥

उल्काशनियुता मेघा बभूवुर्गर्दभारुणाः।
ससागरवना चैव वसुधा समकम्पत॥४८॥

गदहों के समान भूरे रंगवाले बादल घिर आये। साथ ही उल्कापात हुआ और बिजलियाँ गिरी। समुद्र और वनोंसहित सारी पृथ्वी काँपने लगी॥४८॥

घोररूपाः शिवा नेदुः सज्वालकवलैर्मुखैः।
मण्डलान्यपसव्यानि बबन्धुश्च विहंगमाः॥४९॥

भयानक गीदड़ियाँ मुँह से आग उगलती हुई अमङ्गलसूचक बोली बोलने लगीं। पक्षी मण्डल बाँधकर उसकी दक्षिणावर्त परिक्रमा करने लगे। ४९॥

निष्पपात च गृध्रोऽस्य शूले वै पथि गच्छतः।
प्रास्फुरन्नयनं चास्य सव्यो बाहुरकम्पत॥५०॥

रास्ते में चलते समय कुम्भकर्ण के शूलपर गीध आ बैठा। उसकी बायीं आँख फड़कने लगी और बायीं भुजा कम्पित होने लगी॥५०॥

निष्पपात तदा चोल्का ज्वलन्ती भीमनिःस्वना।
आदित्यो निष्प्रभश्चासीन्न वाति च सुखोऽनिलः॥५१॥

फिर उसी समय जलती हुई उल्का भयंकर आवाज के साथ गिरी। सूर्य की प्रभा क्षीण हो गयी और हवा इतने वेग से चल रही थी कि सुखद नहीं जान पड़ती थी॥

अचिन्तयन् महोत्पातानुदितान् रोमहर्षणान्।
निर्ययौ कुम्भकर्णस्तु कृतान्तबलचोदितः॥५२॥

इस प्रकार रोंगटे खड़े कर देन वाले बहुत-से बड़े-बड़े उत्पात प्रकट हुए; किंतु उनकी कुछ भी परवा न करके काल की शक्ति से प्रेरित हुआ कुम्भकर्ण युद्ध के लिये निकल पड़ा॥५२॥

स लयित्वा प्राकारं पद्भ्यां पर्वतसंनिभः।
ददर्शाभ्रघनप्रख्यं वानरानीकमद्भुतम्॥५३॥

वह पर्वत के समान ऊँचा था। उसने लङ्का की चहारदीवारी को दोनों पैरों से लाँघकर देखा कि वानरों की अद्भुत सेना मेघों की घनीभूत घटा के समान छा रही है॥५३॥

ते दृष्ट्वा राक्षसश्रेष्ठं वानराः पर्वतोपमम्।
वायुनुन्ना इव घना ययुः सर्वा दिशस्तदा॥५४॥

उस पर्वताकार श्रेष्ठ राक्षस को देखते ही समस्त वानर हवा से उड़ाये गये बादलों के समान तत्काल सम्पूर्ण दिशाओं में भाग चले॥५४॥

तद् वानरानीकमतिप्रचण्डं दिशो द्रवद्भिन्नमिवाभ्रजालम्।
स कुम्भकर्णः समवेक्ष्य हर्षान्ननाद भूयो घनवद्धनाभः॥५५॥

छिन्न-भिन्न हुए बादलों के समूह की भाँति उस अतिशय प्रचण्ड वानर-वाहिनी को सम्पूर्ण दिशाओं में भागती देख मेघों के समान काला कुम्भकर्ण बड़े हर्ष के साथ सजल जलधर के सदृश गम्भीर स्वर में बारंबार गर्जना करने लगा॥ ५५॥

ते तस्य घोरं निनदं निशम्य यथा निनादं दिवि वारिदस्य।
पेतुर्धरण्यां बहवः प्लवङ्गा निकृत्तमूला इव शालवृक्षाः॥५६॥

आकाश में जैसी मेघों की गर्जना होती है, उसी के समान उस राक्षस का घोर सिंहनाद सुनकर बहुत-से वानर जड़ से कटे हुए सालवृक्षों के समान पृथ्वी पर गिर पड़े॥५६॥

विपुलपरिघवान् स कुम्भकर्णो रिपुनिधनाय विनिःसृतो महात्मा।
कपिगणभयमाददत् सुभीमं प्रभुरिव किंकरदण्डवान् युगान्ते॥५७॥

महाकाय कुम्भकर्ण ने शूल की ही भाँति अपने एक हाथ में विशाल परिघ भी ले रखा था। वह वानरसमूहों को अत्यन्त घोर भय प्रदान करता हुआ प्रलय काल में संहार के साधनभूत कालदण्डों से युक्त भगवान् कालरुद्र के समान शत्रुओं का विनाश करने के लिये पुरीसे बाहर निकला॥ ५७॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे पञ्चषष्टितमः सर्गः॥६५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में पैंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६५॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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