वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 66 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 66
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
षट्षष्टितमः सर्गः (66)
कुम्भकर्ण के भय से भागे हुए वानरों का अङ्गद द्वारा प्रोत्साहन और आवाहन, कुम्भकर्ण द्वारा वानरों का संहार
स लवयित्वा प्राकारं गिरिकूटोपमो महान्।
निर्ययौ नगरात् तूर्णं कुम्भकर्णो महाबलः॥१॥
महाबली कुम्भकर्ण पर्वत-शिखर के समान ऊँचा और विशालकाय था। वह परकोटा लाँघकर बड़ी तेजी के साथ नगर से बाहर निकला॥१॥
ननाद च महानादं समुद्रमभिनादयन्।
विजयन्निव निर्घातान् विधमन्निव पर्वतान्॥२॥
बाहर आकर पर्वतों को कँपाता और समुद्र को जाता हुआ-सा वह उच्चस्वर से गम्भीर नाद करने लगा। उसकी वह गर्जना बिजली की कड़क को भी मात कर रही थी॥
तमवध्यं मघवता यमेन वरुणेन वा।
प्रेक्ष्य भीमाक्षमायान्तं वानरा विप्रदुद्रुवुः॥३॥
इन्द्र, यम अथवा वरुण के द्वारा भी उसका वध होना असम्भव था। उस भयानक नेत्रवाले निशाचर को आते देख सभी वानर भाग खड़े हुए।३॥
तांस्तु विप्रद्रुतान् दृष्ट्वा राजपुत्रोऽङ्गदोऽब्रवीत्।
नलं नीलं गवाक्षं च कुमुदं च महाबलम्॥४॥
उन सबको भागते देख राजकुमार अङ्गद ने नल, नील, गवाक्ष और महाबली कुमुद को सम्बोधित करके कहा- ॥४॥
आत्मनस्तानि विस्मृत्य वीर्याण्यभिजनानि च।
क्व गच्छत भयत्रस्ताः प्राकृता हरयो यथा॥५॥
‘वानर वीरो! अपने उत्तम कुलों और उन अलौकिक पराक्रमों को भुलाकर साधारण बंदरों की भाँति भयभीत हो तुम कहाँ भागे जा रहे हो? ॥ ५ ॥
साधु सौम्या निवर्तध्वं किं प्राणान् परिरक्षथ।
नालं युद्धाय वै रक्षो महतीयं विभीषिका॥६॥
‘सौम्य स्वभाववाले बहादुरो! अच्छा होगा कि तुम लौट आओ। क्यों जान बचाने के फेर में पड़े हो? यह राक्षस हमारे साथ युद्ध करने की शक्ति नहीं रखता। यह तो इसकी बड़ी भारी विभीषिका है-इसने माया से विशाल रूप धारण करके तुम्हें डराने के लिये व्यर्थ घटाटोप फैला रखा है॥६॥
महतीमुत्थितामेनां राक्षसानां विभीषिकाम्।
विक्रमाद् विधमिष्यामो निवर्तध्वं प्लवङ्गमाः॥७॥
‘अपने सामने उठी हुई राक्षसों की इस बड़ी भारी विभीषिका को हम अपने पराक्रम से नष्ट कर देंगे। अतः वानरवीरो! लौट आओ’ ॥ ७॥
कृच्छ्रेण तु समाश्वस्य संगम्य च ततस्ततः।
वृक्षान् गृहीत्वा हरयः सम्प्रतस्थू रणाजिरे॥८॥
तब वानरों ने बड़ी कठिनाई से धैर्य धारण किया और जहाँ-तहाँ से एकत्र हो हाथों में वृक्ष लेकर वे रणभूमि की ओर चले॥८॥
ते निवर्त्य तु संरब्धाः कुम्भकर्णं वनौकसः।
निजघ्नुः परमक्रुद्धाः समदा इव कुञ्जराः॥९॥
प्रांशुभिर्गिरिशृङ्गैश्च शिलाभिश्च महाबलाः।
पादपैः पुष्पिताग्रैश्च हन्यमानो न कम्पते॥१०॥
लौटने पर वे महाबली वानर मतवाले हाथियों की भाँति अत्यन्त क्रोध और रोष से भर गये और कुम्भकर्ण के ऊपर ऊँचे-ऊँचे पर्वतीय-शिखरों, शिलाओं तथा खिले हुए वृक्षों से प्रहार करने लगे। उनकी मार खाकर भी कुम्भकर्ण विचलित नहीं होता था॥९-१०॥
तस्य गात्रेषु पतिता भिद्यन्ते बहवः शिलाः।
पादपाः पुष्पिताग्राश्च भग्नाः पेतुर्महीतले॥११॥
उसके अङ्गों पर गिरी हुई बहुतेरी शिलाएँ चूर-चूर हो जाती थीं और वे खिले हुए वृक्ष भी उसके शरीर से टकराते ही टूक-टूक होकर पृथ्वी पर गिर पड़ते थे। ११॥
सोऽपि सैन्यानि संक्रुद्धौ वानराणां महौजसाम्।
ममन्थ परमायत्तो वनान्यग्निरिवोत्थितः॥१२॥
उधर क्रोध से भरा हुआ कुम्भकर्ण भी अत्यन्त सावधान हो महाबली वानरों की सेनाओं को उसी प्रकार रौंदने लगा, जैसे बढ़ा हुआ दावानल बड़े-बड़े जंगलों को जलाकर भस्म कर देता है॥ १२॥
लोहितार्दास्तु बहवः शेरते वानरर्षभाः।
निरस्ताः पतिता भूमौ ताम्रपुष्पा इव द्रुमाः॥१३॥
बहुत-से श्रेष्ठ वानर खून से लथपथ हो धरती पर सो गये। जिन्हें उठाकर उसने ऊपर फेंक दिया, वे लाल फूलों से लदे हुए वृक्षों की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े।
लङ्घयन्तः प्रधावन्तो वानरा नावलोकयन्।
केचित् समुद्रे पतिताः केचिद् गगनमास्थिताः॥१४॥
वानर ऊँची-नीची भूमि को लाँघते हुए जोर-जोर से भागने लगे। वे आगे-पीछे और अगल-बगल में कहीं भी दृष्टि नहीं डालते थे। कोई समुद्र में गिर पड़े और कोई आकाश में ही उड़ते रह गये॥ १४॥
वध्यमानास्तु ते वीरा राक्षसेन च लीलया।
सागरं येन ते तीर्णाः पथा तेनैव दुद्रुवुः॥१५॥
उस राक्षस ने खेल-खेल में ही जिन्हें मारा, वे वीर वानर जिस मार्ग से समुद्र पार करके लङ्का में आये थे, उसी मार्ग से भागने लगे॥ १५ ॥
ते स्थलानि तदा निम्नं विवर्णवदना भयात्।
ऋक्षा वृक्षान् समारूढाः केचित् पर्वतमाश्रिताः॥१६॥
भय के मारे वानरों के मुख की कान्ति फीकी पड़ गयी। वे नीची जगह देख-देखकर भागने और छिपने लगे। कितने ही रीछ वृक्षों पर जा चढ़े और कितनों ने पर्वतों की शरण ली॥ १६॥
ममज्जुरर्णवे केचिद् गुहाः केचित् समाश्रिताः।
निपेतुः केचिदपरे केचिन्नैवावतस्थिरे।
केचिद् भूमौ निपतिताः केचित् सुप्ता मृता इव॥१७॥
कितने ही वानर और भालू समुद्र में डूब गये। कितनों ने पर्वतों की गुफाओं का आश्रय लिया। कोई गिरे, कोई एक स्थान पर खड़े न रह सके, इसलिये भागे। कुछ धराशायी हो गये और कोई-कोई मुर्दो के समान साँस रोककर पड़ गये॥ १७॥
तान् समीक्ष्याङ्गदो भग्नान् वानरानिदमब्रवीत्।
अवतिष्ठत युध्यामो निवर्तध्वं प्लवंगमाः॥१८॥
उन वानरों को भागते देख अङ्गद ने इस प्रकार कहा —’वानरवीरो! ठहरो, लौट आओ। हम सब मिलकर युद्ध करेंगे॥ १८॥
भग्नानां वो न पश्यामि परिक्रम्य महीमिमाम्।
स्थानं सर्वे निवर्तध्वं किं प्राणान् परिरक्षथ॥१९॥
‘यदि तुम भाग गये तो सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके भी कहीं तुम्हें ठहरने के लिये स्थान मिल सके, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता (सुग्रीव की आज्ञा के बिना कहीं भी जाने पर तुम जीवित नहीं बच सकोगे)। इसलिये सब लोग लौट आओ। क्यों अपने ही प्राण बचाने की फिक्र में पड़े हो? ॥ १९॥
निरायुधानां क्रमतामसङ्गगतिपौरुषाः।
दारा झुपहसिष्यन्ति स वै घातः सुजीवताम्॥२०॥
‘तुम्हारे वेग और पराक्रम को कोई रोकने वाला नहीं है। यदि तुम हथियार डालकर भाग जाओगे तो तुम्हारी स्त्रियाँ ही तुमलोगों का उपहास करेंगी और वह उपहास जीवित रहने पर भी तुम्हारे लिये मृत्यु के समान दुःखदायी होगा॥ २०॥
कुलेषु जाताः सर्वेऽस्मिन् विस्तीर्णेषु महत्सु च।
क्व गच्छत भयत्रस्ताः प्राकृता हरयो यथा।
अनार्याः खलु यद्भीतास्त्यक्त्वा वीर्यं प्रधावत॥२१॥
‘तुम सब लोग महान् और बहुत दूर तक फैले हुए श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुए हो। फिर साधारण वानरों की भाँति भयभीत होकर कहाँ भागे जा रहे हो ? यदि तुम पराक्रम छोड़कर भय के कारण भागते हो तो निश्चय ही अनार्य समझे जाओगे॥२१॥
विकत्थनानि वो यानि भवद्भिर्जनसंसदि।
तानि वः क्व नु यातानि सोदग्राणि हितानि च॥२२॥
‘तुम जन-समुदाय में बैठकर जो डींग हाँका करते थे कि हम बड़े प्रचण्ड वीर हैं और स्वामी के हितैषी हैं, तुम्हारी वे सब बातें आज कहाँ चली गयीं? ॥२२॥
भीरोः प्रवादाः श्रूयन्ते यस्तु जीवति धिक्कृतः।
मार्गः सत्पुरुषैर्जुष्टः सेव्यतां त्यज्यतां भयम्॥२३॥
‘जो सत्पुरुषों द्वारा धिकृत होकर भी जीवन धारण करता है, उसके उस जीवन को धिक्कार है, इस तरह के निन्दात्मक वचन कायरों को सदा सुनने पड़ते हैं। इसलिये तुमलोग भय छोड़ो और सत्पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग का आश्रय लो॥ २३॥
शयामहे वा निहताः पृथिव्यामल्पजीविताः।
प्राप्नुयामो ब्रह्मलोकं दुष्प्रापं च कुयोधिभिः॥२४॥
‘यदि हमलोग अल्पजीवी हों और शत्रु के द्वारा मारे जाकर रणभूमि में सो जायँ तो हमें उस ब्रह्मलोक की प्राप्ति होगी, जो कुयोगियों के लिये परम दुर्लभ है॥ २४॥
अवाप्नुयामः कीर्तिं वा निहत्वा शत्रुमाहवे।
निहता वीरलोकस्य भोक्ष्यामो वसु वानराः॥२५॥
‘वानरो! यदि युद्ध में हमने शत्रु को मार गिराया तो हमें उत्तम कीर्ति मिलेगी और यदि स्वयं ही मारे गये तो हम वीरलोक के वैभव का उपभोग करेंगे॥ २५॥
न कुम्भकर्णः काकुत्स्थं दृष्ट्वा जीवन् गमिष्यति।
दीप्यमानमिवासाद्य पतङ्गो ज्वलनं यथा॥२६॥
श्रीरघुनाथजी के सामने जानेपर कुम्भकर्ण जीवित नहीं लौट सकेगा; ठीक उसी तरह, जैसे प्रज्वलित अग्नि के पास पहुँचकर पतङ्ग भस्म हुए बिना नहीं रह सकता॥ २६॥
पलायनेन चोद्दिष्टाः प्राणान् रक्षामहे वयम्।
एकेन बहवो भग्ना यशो नाशं गमिष्यति॥२७॥
‘यदि हमलोग प्रख्यात वीर होकर भी भागकर अपने प्राण बचायेंगे और अधिक संख्या में होकर भी एक योद्धा का सामना नहीं कर सकेंगे तो हमारा यश मिट्टी में मिल जायगा’ ॥ २७॥
एवं ब्रुवाणं तं शूरमङ्गदं कनकाङ्गदम्।
द्रवमाणास्ततो वाक्यमूचुः शूरविगर्हितम्॥ २८॥
सोने का बाजूबंद धारण करने वाले शूरवीर अङ्गद जब ऐसा कह रहे थे, उस समय उन भागते हुए वानरों ने उन्हें ऐसा उत्तर दिया, जिसकी शौर्य-सम्पन्न योद्धा सदा निन्दा करते हैं॥२८॥
कृतं नः कदनं घोरं कुम्भकर्णेन रक्षसा।
न स्थानकालो गच्छामो दयितं जीवितं हि नः॥२९॥
वे बोले—’राक्षस कुम्भकर्ण ने हमारा घोर संहार मचा रखा है; अतः यह ठहरने का समय नहीं है। हम जा रहे हैं; क्योंकि हमें अपनी जान प्यारी है’ ॥ २९॥
एतावदुक्त्वा वचनं सर्वे ते भेजिरे दिशः।
भीमं भीमाक्षमायान्तं दृष्ट्वा वानरयूथपाः॥३०॥
इतनी बात कहकर भयानक नेत्रवाले भीषण कुम्भकर्ण को आते देख उन सब वानर-यूथपतियों ने विभिन्न दिशाओं की शरण ली॥ ३०॥
द्रवमाणास्तु ते वीरा अङ्गदेन बलीमुखाः।
सान्त्वनैश्चानुमानैश्च ततः सर्वे निवर्तिताः॥३१॥
तब उन भागते हुए सभी वीर वानरों को अङ्गद ने सान्त्वना और आदर-सम्मान के द्वारा लौटाया॥ ३१॥
प्रहर्षमुपनीताश्च वालिपुत्रेण धीमता।
आज्ञाप्रतीक्षास्तस्थुश्च सर्वे वानरयूथपाः॥३२॥
बुद्धिमान् वालिपुत्र ने उन सबको प्रसन्न कर लिया। वे सब वानरयूथपति सुग्रीव की आज्ञा की प्रतीक्षा करते हुए खड़े हो गये॥ ३२॥
ऋषभशरभमैन्दधूम्रनीलाः कुमुदसुषेणगवाक्षरम्भताराः।
द्विविदपनसवायुपुत्रमुख्यास्त्वरिततराभिमुखं रणं प्रयाताः॥३३॥
तदनन्तर ऋषभ, शरभ, मैन्द, धूम्र, नील, कुमुद, सुषेण, गवाक्ष, रम्भ, तार, द्विविद, पनस और वायुपुत्र हनुमान् आदि श्रेष्ठ वानर-वीर तुरंत हीकुम्भकर्ण का सामना करने के लिये रणक्षेत्र की ओर बढ़े॥ ३३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे षट्षष्टितमः सर्गः॥६६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में छाछठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६६॥
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