वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 69 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 69
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
एकोनसप्ततितमः सर्गः (69)
(रावण के पुत्रों और भाइयों का युद्ध के लिये जाना और नरान्तकका अङ्गद के द्वारा वध)
एवं विलपमानस्य रावणस्य दुरात्मनः।
श्रुत्वा शोकाभिभूतस्य त्रिशिरा वाक्यमब्रवीत्॥१॥
दुरात्मा रावण जब शोक से पीड़ित हो इस प्रकार विलाप करने लगा, तब त्रिशिरा ने कहा- ॥१॥
एवमेव महावीर्यो हतो नस्तातमध्यमः।
न तु सत्पुरुषा राजन् विलपन्ति यथा भवान्॥२॥
‘राजन्! इसमें संदेह नहीं कि हमारे मझले चाचा, जो इस समय युद्ध में मारे गये हैं, ऐसे ही महान् पराक्रमी थे; परंतु आप जिस प्रकार रोते-कलपते हैं, उस तरह श्रेष्ठ पुरुष किसी के लिये विलाप नहीं करते हैं॥२॥
नूनं त्रिभुवनस्यापि पर्याप्तस्त्वमसि प्रभो।
स कस्मात् प्राकृत इव शोचस्यात्मानमीदृशम्॥
‘प्रभो! निश्चय आप अकेले ही तीनों लोकों से भी लोहा लेने में समर्थ हैं; फिर इस तरह साधारण पुरुष की भाँति क्यों अपने-आपको शोक में डाल रहे हैं? ॥३॥
ब्रह्मदत्तास्ति ते शक्तिः कवचं सायको धनुः।
सहस्रखरसंयुक्तो रथो मेघसमस्वनः॥४॥
‘आपके पास ब्रह्माजी की दी हुई शक्ति, कवच, धनुष तथा बाण हैं; साथ ही मेघ-गर्जना के समान शब्द करने वाला रथ भी है, जिसमें एक हजार गदहे जोते जाते हैं॥४॥
त्वयासकृद्धि शस्त्रेण विशस्ता देवदानवाः।
स सर्वायुधसम्पन्नो राघवं शास्तुमर्हसि॥५॥
‘आपने एक ही शस्त्र से देवताओं और दानवों को अनेक बार पछाड़ा है, अतः सब प्रकार के अस्त्रशस्त्रों से सुसज्जित होने पर आप राम को भी दण्ड दे सकते हैं॥५॥
कामं तिष्ठ महाराज निर्गमिष्याम्यहं रणे।
उद्धरिष्यामि ते शत्रून् गरुडः पन्नगानिव॥६॥
‘अथवा महाराज! आपकी इच्छा हो तो यहीं रहें। मैं स्वयं युद्ध के लिये जाऊँगा और जैसे गरुड़ सो का संहार करते हैं, उसी तरह मैं आपके शत्रुओं को जड़ से उखाड़ फेंकूँगा॥६॥
शम्बरो देवराजेन नरको विष्णुना यथा।
तथाद्य शयिता रामो मया युधि निपातितः॥७॥
‘जैसे इन्द्र ने शम्बरासुर को और भगवान् विष्णु ने नरकासुर को मार गिराया था, उसी प्रकार युद्धस्थल में आज मेरे द्वारा मारे जाकर राम सदा के लिये सो जायँगे’॥७॥
* यहाँ जिस नरकासुर का नाम आया है, वह विप्रचित्ति नामक दानव के द्वारा सिंहिका के गर्भ से उत्पन्न हुए वातापि आदि सात पुत्रों में से एक था। उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-वातापि, नमुचि, इल्वल, सृमर, अन्धक, नरक और कालनाभ। भगवान् श्रीकृष्ण ने द्वापर में जिस भूमिपुत्र नरकासुर का वध किया था, वह यहाँ उल्लिखित नरकासुर से भिन्न था। त्रिशिरा और रावण के समय में तो उसका जन्म ही नहीं हुआ था।
श्रुत्वा त्रिशिरसो वाक्यं रावणो राक्षसाधिपः।
पुनर्जातमिवात्मानं मन्यते कालचोदितः॥८॥
त्रिशिरा की यह बात सुनकर राक्षसराज रावण को इतना संतोष हुआ कि वह अपना नया जन्म हुआ-सा मानने लगा। काल से प्रेरित होकर ही उसकी ऐसी बुद्धि हो गयी॥८॥
श्रुत्वा त्रिशिरसो वाक्यं देवान्तकनरान्तकौ।
अतिकायश्च तेजस्वी बभूवुर्युद्धहर्षिताः॥९॥
त्रिशिरा का उपर्युक्त कथन सुनकर देवान्तक, नरान्तक और तेजस्वी अतिकाय—ये तीनों युद्ध के लिये उत्साहित हो गये॥९॥
ततोऽहमहमित्येवं गर्जन्तो नैर्ऋतर्षभाः।
रावणस्य सुता वीराः शक्रतुल्यपराक्रमाः॥१०॥
‘मैं युद्ध के लिये जाऊँगा, मैं जाऊँगा’ ऐसा कहते और गर्जते हुए वे तीनों श्रेष्ठ निशाचर युद्ध के लिये तैयार हो गये। रावण के वे वीर पुत्र इन्द्र के समान पराक्रमी थे॥
अन्तरिक्षगताः सर्वे सर्वे मायाविशारदाः।
सर्वे त्रिदशदर्पघ्नाः सर्वे समरदुर्मदाः॥११॥
वे सब-के-सब आकाश में विचरण करने वाले, मायाविशारद, रणदुर्मद तथा देवताओं का भी दर्प दलन करने वाले थे॥ ११॥
सर्वे सुबलसम्पन्नाः सर्वे विस्तीर्णकीर्तयः।
सर्वे समरमासाद्य न श्रूयन्ते स्म निर्जिताः॥१२॥
देवैरपि सगन्धर्वैः सकिंनरमहोरगैः।
सर्वेऽस्त्रविदुषो वीराः सर्वे युद्धविशारदाः।
सर्वे प्रवरविज्ञानाः सर्वे लब्धवरास्तथा॥१३॥
वे सभी उत्तम बल से सम्पन्न थे। उन सबकी कीर्ति तीनों लोकों में फैली हुई थी और समरभूमि में आने पर गन्धर्वो, किन्नरों तथा बड़े-बड़े नागोंसहित देवताओं से भी कभी उन सबकी पराजय नहीं सुनी गयी थी। वे सभी अस्त्रवेत्ता, सभी वीर और सभी युद्ध की कला में निपुण थे। उन सबको शस्त्रों और शास्त्रों का उत्तम ज्ञान प्राप्त था और सबने तपस्या के द्वारा वरदान प्राप्त किया था॥ १२-१३॥
स तैस्तथा भास्करतुल्यवर्चसैः सुतैर्वृतः शत्रुबलश्रियार्दनैः।
रराज राजा मघवान् यथामरै तो महादानवदर्पनाशनैः॥१४॥
सूर्य के समान तेजस्वी तथा शत्रुओं की सेना और सम्पत्ति को रौंद डालने वाले उन पुत्रों से घिरा हुआ राक्षसों का राजा रावण बड़े-बड़े दानवों का दर्प चूर्ण करने वाले देवताओं से घिरे हुए इन्द्र की भाँति शोभा पा रहा था।
स पुत्रान् सम्परिष्वज्य भूषयित्वा च भूषणैः।
आशीर्भिश्च प्रशस्ताभिः प्रेषयामास वै रणे॥१५॥
उसने अपने पुत्रों को हृदय से लगाकर नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया और उत्तम आशीर्वाद देकर रणभूमि में भेजा ॥ १५ ॥
युद्धोन्मत्तं च मत्तं च भ्रातरौ चापि रावणः।
रक्षणार्थं कुमाराणां प्रेषयामास संयुगे॥१६॥
रावण ने अपने दोनों भाई युद्धोन्मत्त (महापार्श्व) और मत्त (महोदर)-को भी युद्ध में कुमारों की रक्षा के लिये भेजा॥१६॥
तेऽभिवाद्य महात्मानं रावणं लोकरावणम्।
कृत्वा प्रदक्षिणं चैव महाकायाः प्रतस्थिरे॥१७॥
वे सभी महाकाय राक्षस समस्त लोकों को रुलाने वाले महामना रावण को प्रणाम और उसकी परिक्रमा करके युद्ध के लिये प्रस्थित हुए॥ १७ ॥
सर्वोषधीभिर्गन्धैश्च समालभ्य महाबलाः।
निर्जग्मुर्नैर्ऋतश्रेष्ठाः षडेते युद्धकाक्षिणः॥१८॥
त्रिशिराश्चातिकायश्च देवान्तकनरान्तकौ।
महोदरमहापाश्वौं निर्जग्मुः कालचोदिताः॥१९॥
सब प्रकार की ओषधियों तथा गन्धों का स्पर्श करके युद्ध की अभिलाषा रखने वाले त्रिशिरा, अतिकाय, देवान्तक, नरान्तक, महोदर और महापार्श्व—ये छः महाबली श्रेष्ठ निशाचर काल से प्रेरित हो युद्ध के लिये पुरी से बाहर निकले ॥ १९॥
ततः सुदर्शनं नागं नीलजीमूतसंनिभम्।
ऐरावतकुले जातमारुरोह महोदरः॥२०॥
उस समय महोदर ऐरावत के कुल में उत्पन्न हुए काले मेघ के समान रंगवाले ‘सुदर्शन’ नामक हाथी पर सवार हुआ॥२०॥
सर्वायुधसमायुक्तस्तूणीभिश्चाप्यलंकृतः।
रराज गजमास्थाय सवितेवास्तमूर्धनि॥२१॥
समस्त आयुधों से सम्पन्न और तूणीरों से अलंकृत महोदर उस हाथी की पीठ पर बैठकर अस्ताचल के शिखर पर विराजमान सूर्यदेव के समान शोभा पा रहा था॥ २१॥
हयोत्तमसमायुक्तं सर्वायुधसमाकुलम्।
आरुरोह रथश्रेष्ठं त्रिशिरा रावणात्मजः॥२२॥
रावणकुमार त्रिशिरा एक उत्तम रथ पर आरूढ़ हुआ, जिसमें सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र रखे गये थे और उत्तम घोड़े जुते हुए थे॥ २२ ॥
त्रिशिरा रथमास्थाय विरराज धनुर्धरः।
सविधुदुल्कः सज्वालः सेन्द्रचाप इवाम्बुदः॥२३॥
उस रथ में बैठकर धनुष धारण किये त्रिशिरा विद्युत् , उल्का, ज्वाला और इन्द्रधनुष से युक्त मेघ के समान शोभा पाने लगा॥ २३॥
त्रिभिः किरीटैस्त्रिशिराः शुशुभे स रथोत्तमे।
हिमवानिव शैलेन्द्रस्त्रिभिः काञ्चनपर्वतैः॥ २४॥
उस उत्तम रथ में सवार हो तीन किरीटों से युक्त त्रिशिरा तीन सुवर्णमय शिखरों से युक्त गिरिराज हिमालय के समान शोभा पा रहा था॥ २४ ॥
अतिकायोऽतितेजस्वी राक्षसेन्द्रसुतस्तदा।
आरुरोह रथश्रेष्ठं श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम्॥२५॥
राक्षसराज रावण का अत्यन्त तेजस्वी पुत्र अतिकाय समस्त धनुर्धारियों में श्रेष्ठ था। वह भी उस समय एक उत्तम रथ पर आरूढ़ हुआ॥ २५ ॥
सुचक्राक्षं सुसंयुक्तं स्वनुकर्षं सुकूबरम्।
तूणीबाणासनैर्दीप्तं प्रासासिपरिघाकुलम्॥२६॥
उस रथ के पहिये और धुरे बहुत सुन्दर थे। उसमें उत्तम घोड़े जुते हुए थे तथा उसके अनुकर्ष और कूबर भी सुदृढ़ थे। तूणीर, बाण और धनुष के कारण वह रथ उद्दीप्त हो रहा था। प्रास, खड्ग और परिघों से वह भरा हुआ था॥ २६॥
१. रथ के धुरेपर कूबर के आधाररूप से स्थापित काष्ठविशेष को अनुकर्ष कहते हैं।
२. कूबर उस काष्ठ को कहते हैं, जिसपर जुआ रखा जाता है। गाडी के हरसों को भी प्राचीनकाल में कूबर कहा जाता था।
स काञ्चनविचित्रेण किरीटेन विराजता।
भूषणैश्च बभौ मेरुः प्रभाभिरिव भासयन्॥२७॥
वह सुवर्णनिर्मित विचित्र एवं दीप्तिशाली किरीट तथा अन्य आभूषणों से विभूषित हो अपनी प्रभा से प्रकाश का विस्तार करते हुए मेरुपर्वत के समान सुशोभित होता था॥ २७॥
स रराज रथे तस्मिन् राजसूनुर्महाबलः।
वृतो नैर्ऋतशार्दूलैर्वज्रपाणिरिवामरैः॥२८॥
उस रथपर श्रेष्ठ निशाचरों से घिरकर बैठा हुआ वह महाबली राक्षस राजकुमार देवताओं से घिरे हुए वज्रपाणि इन्द्र के समान शोभा पाता था॥ २८॥
हयमुच्चैःश्रवःप्रख्यं श्वेतं कनकभूषणम्।
मनोजवं महाकायमारुरोह नरान्तकः॥२९॥
नरान्तक उच्चैःश्रवा के समान श्वेत वर्णवाले एक सुवर्णभूषित विशालकाय और मन के समान वेगशाली अश्व पर आरूढ़ हुआ॥ २९॥
गृहीत्वा प्रासमुल्काभं विरराज नरान्तकः।
शक्तिमादाय तेजस्वी गुहः शिखिगतो यथा॥३०॥
उल्का के समान दीप्तिमान् प्रास हाथ में लेकर तेजस्वी नरान्तक शक्ति लिये मोर पर बैठे हुए तेजःपुञ्ज से सम्पन्न कुमार कार्तिकेय के समान सुशोभित हो रहा था॥३०॥
देवान्तकः समादाय परिघं हेमभूषणम्।
परिगृह्य गिरिं दोर्थ्यां वपुर्विष्णोर्विडम्बयन्॥३१॥
देवान्तक स्वर्णभूषित परिघ लेकर समुद्रमन्थन के समय दोनों हाथों से मन्दराचल उठाये हुए भगवान्विष्णु के स्वरूपका अनुकरण-सा कर रहा था॥ ३१॥
महापावो महातेजा गदामादाय वीर्यवान्।
विरराज गदापाणिः कुबेर इव संयुगे॥३२॥
महातेजस्वी और पराक्रमी महापार्श्व हाथ में गदा लेकर युद्धस्थलमें गदाधारी कुबेर के समान शोभा पाने लगा॥
ते प्रतस्थुर्महात्मानोऽमरावत्याः सुरा इव।
तान् गजैश्च तुरङ्गैश्च रथैश्चाम्बुदनिःस्वनैः॥३३॥
अनूत्पेतुर्महात्मानो राक्षसाः प्रवरायुधाः।
अमरावतीपुरी से निकलने वाले देवताओं के समान वे सभी महाकाय निशाचर लङ्कापुरी से चले। उनके पीछे श्रेष्ठ आयुध धारण किये विशालकाय राक्षस हाथी, घोड़ों तथा मेघ की गर्जना के समान घर्घराहट पैदा करने वाले रथों पर सवार हो युद्ध के लिये निकले॥ ३३ १/२॥
ते विरेजुर्महात्मानः कुमाराः सूर्यवर्चसः॥३४॥
किरीटिनः श्रिया जुष्टा ग्रहा दीप्ता इवाम्बरे।
वे सूर्यतुल्य तेजस्वी, महामनस्वी राक्षस राजकुमार मस्तक पर किरीट धारण करके उत्तम शोभा-सम्पत्ति से सेवित हो आकाश में प्रकाशित होने वाले ग्रहों के समान सुशोभित हो रहे थे॥३४ १/२॥
प्रगृहीता बभौ तेषां शस्त्राणामवलिः सिता॥३५॥
शरदभ्रप्रतीकाशा हंसावलिरिवाम्बरे।
उनके द्वारा धारण की हुई अस्त्र-शस्त्रों की श्वेत पंक्ति आकाश में शरद्ऋतु के बादलों की भाँति उज्ज्वल कान्ति से युक्त हंसों की श्रेणी के समान शोभा पा रही थी॥ ३५ १/२॥
मरणं वापि निश्चित्य शत्रूणां वा पराजयम्॥३६॥
इति कृत्वा मतिं वीराः संजग्मुः संयुगार्थिनः।
आज या तो हम शत्रुओं को परास्त कर देंगे, या स्वयं ही मृत्यु की गोद में सदा के लिये सो जायेंगे ऐसा निश्चय करके वे वीर राक्षस युद्ध के लिये आगे बढ़े॥
जगर्जुश्च प्रणेदुश्च चिक्षिपुश्चापि सायकान्॥
३७॥ जगृहुश्च महात्मानो निर्यान्तो युद्धदुर्मदाः।
वे युद्धदुर्मद महामनस्वी निशाचर गर्जते, सिंहनाद करते, बाण हाथ में लेते और उन्हें शत्रुओं पर छोड़ देते थे॥
क्ष्वेडितास्फोटितानां वै संचचालेव मेदिनी॥ ३८॥
रक्षसां सिंहनादैश्च संस्फोटितमिवाम्बरम्।
उन राक्षसों के गर्जने, ताल ठोंकने और सिंहनाद करने से पृथ्वी कम्पित-सी होने लगी और आकाश फटने-सा लगा॥ ३८ १/२॥
तेऽभिनिष्क्रम्य मुदिता राक्षसेन्द्रा महाबलाः॥
ददृशुर्वानरानीकं समुद्यतशिलानगम्।
उन महाबली राक्षसशिरोमणि वीरों ने प्रसन्नतापूर्वक नगर की सीमा से बाहर निकलकर देखा, वानरों की सेना पर्वत-शिखर और बड़े-बड़े वृक्ष उठाये युद्ध के लिये तैयार खड़ी है॥ ३९ १/२ ॥
हरयोऽपि महात्मानो ददृशू राक्षसं बलम्॥४०॥
हस्त्यश्वरथसम्बाधं किङ्किणीशतनादितम्।
नीलजीमूतसंकाशं समुद्यतमहायुधम्॥४१॥
महामना वानरों ने भी राक्षससेना पर दृष्टिपात किया। वह हाथी, घोड़े और रथों से भरी थी, सैकड़ों-हजारों घुघुरुओं की रुनझुन से निनादित थी, काले मेघों की घटा-जैसी दिखायी देती थी और हाथों में बड़े-बड़े आयुध लिये हुए थी॥ ४०-४१॥
दीप्तानलरविप्रख्यैर्नैर्ऋतैः सर्वतो वृतम्।
तद् दृष्ट्वा बलमायातं लब्धलक्षाः प्लवङ्गमाः॥४२॥
समुद्यतमहाशैलाः सम्प्रणेदुर्मुहुर्मुहुः।
अमृष्यमाणा रक्षांसि प्रतिनर्दन्त वानराः॥४३॥
प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी राक्षसों ने उसे सब ओर से घेर रखा था। निशाचरों की उस सेना को आती देख वानर प्रहार करने का अवसर पाकर महान् पर्वतशिखर उठाये बारंबार गर्जना करने लगे। वे राक्षसों का सिंहनाद सहन न करने के कारण बदले में जोर-जोर से दहाड़ने लगे थे॥ ४२-४३॥
ततः समुत्कृष्टरवं निशम्य रक्षोगणा वानरयूथपानाम्।
अमृष्यमाणाः परहर्षमुग्रं महाबला भीमतरं प्रणेदुः॥४४॥
वानरयूथपतियों का वह उच्च स्वर से किया हुआ गर्जन-तर्जन सुनकर भयंकर एवं महान् बल से सम्पन्न राक्षसगण शत्रुओं का हर्ष सहन न कर सके; अतः स्वयं भी अत्यन्त भीषण सिंहनाद करने लगे॥४४॥
ते राक्षसबलं घोरं प्रविश्य हरियूथपाः।
विचेरुरुद्यतैः शैलैर्नगाः शिखरिणो यथा॥४५॥
तब वानर-यूथपति राक्षसों की उस भयंकर सेना में घुस गये और शैलशृङ्ग उठाये शिखरों वाले पर्वतों की भाँति वहाँ विचरण करने लगे॥ ४५ ॥
केचिदाकाशमाविश्य केचिदुर्व्या प्लवङ्गमाः।
रक्षःसैन्येषु संक्रुद्धाः केचिद् द्रुमशिलायुधाः॥४६॥
द्रुमांश्च विपुलस्कन्धान् गृह्य वानरपुङ्गवाः।
वृक्षों और शिलाओं को आयुध के रूप में धारण किये वानर योद्धा राक्षस सैनिकों पर अत्यन्त कुपित हो आकाश में उड़-उड़कर विचरने लगे। कितने ही वानरशिरोमणि वीर मोटी-मोटी शाखाओं-वाले वृक्षों को हाथ में लेकर पृथ्वी पर विचरण करने लगे। ४६ १/२॥
तद् युद्धमभवद् घोरं रक्षोवानरसंकुलम्॥४७॥
ते पादपशिलाशैलैश्चक्रुर्वृष्टिमनूपमाम्।
बाणौघैर्वार्यमाणाश्च हरयो भीमविक्रमाः॥४८॥
उस समय राक्षसों और वानरों के उस युद्ध ने बड़ा भयंकर रूप धारण किया। राक्षसों ने बाणसमूहों की वर्षा द्वारा जब वानरों को आगे बढ़ने से रोका, उस समय वे भयंकर पराक्रमी वानर उन-पर वृक्षों, शिलाओं तथा शैल-शिखरों की अनुपम वृष्टि करने लगे॥ ४७-४८॥
सिंहनादान् विनेदुश्च रणे राक्षसवानराः।
शिलाभिश्चूर्णयामासुर्यातुधानान् प्लवङ्गमाः॥४९॥
निर्जनुः संयुगे क्रुद्धाः कवचाभरणावृतान्।
राक्षस और वानर दोनों ही वहाँ रणक्षेत्र में सिंहों के समान दहाड़ रहे थे। कुपित हुए वानरों ने कवचों और आभूषणों से विभूषित बहुतेरे राक्षसों को युद्धस्थल में शिलाओं की मार से कुचल दिया—मार डाला॥ ४९ १/२॥
केचिद् रथगतान् वीरान् गजवाजिगतानपि॥५०॥
निर्जनुः सहसाऽऽप्लुत्य यातुधानान् प्लवङ्गमाः।
कितने ही वानर रथ, हाथी और घोड़े पर बैठे हुए वीर राक्षसों को भी सहसा उछलकर मार डालते थे॥
शैलशृङ्गान्विताङ्गास्ते मुष्टिभिर्वान्तलोचनाः॥५१॥
चेलुः पेतुश्च नेदुश्च तत्र राक्षसपुङ्गवाः।
वहाँ प्रधान-प्रधान राक्षसों के शरीर पर्वत-शिखरों से आच्छादित हो गये थे। वानरों के मुक्कों की मार खाकर कितनों की आँखें बाहर निकल आयी थीं। वे निशाचर भागते, गिरते-पड़ते और चीत्कार करते थे॥ ५१ १/२॥
राक्षसाश्च शरैस्तीक्ष्णैर्बिभिदुः कपिकुञ्जरान्॥५२॥
शूलमुद्गरखड्गैश्च जप्नुः प्रासैश्च शक्तिभिः।
राक्षसों ने भी पैने बाणों से कितने ही वानरशिरोमणियों को विदीर्ण कर दिया था तथा शूलों, मुद्गरों, खड्गों, प्रासों और शक्तियों से बहुतों को मार गिराया था॥
अन्योन्यं पातयामासुः परस्परजयैषिणः॥५३॥
रिपुशोणितदिग्धाङ्गास्तत्र वानरराक्षसाः।
शत्रुओं के रक्त जिनके शरीरों में लिपटे हुए थे, वे वानर और राक्षस वहाँ परस्पर विजय पाने की इच्छा से एक-दूसरे को धराशायी कर रहे थे॥ ५३ १/२ ॥
ततः शैलैश्च खड्गैश्च विसृष्टैर्हरिराक्षसैः॥५४॥
मुहूर्तेनावृता भूमिरभवच्छोणितोक्षिता।
थोड़ी ही देर में वह युद्धभूमि वानरों और राक्षसों द्वारा चलाये गये पर्वत-शिखरों तथा तलवारों से आच्छादित हो रक्त के प्रवाह से सिंच उठी॥५४ १/२ ॥
विकीर्णैः पर्वताकारै रक्षोभिरभिमर्दितैः।
आसीद् वसुमती पूर्णा तदा युद्धमदान्वितैः॥५५॥
युद्ध के मद से उन्मत्त हुए पर्वताकार राक्षस जो शिलाओं की मार से कुचल दिये गये थे, सब ओर बिखरे पड़े थे। उनसे वहाँ की सारी भूमि पट गयी थी॥ ५५॥
आक्षिप्ताः क्षिप्यमाणाश्च भग्नशैलाश्च वानराः।
पुनरङ्गैस्तदा चक्रुरासन्ना युद्धमद्भुतम्॥५६॥
राक्षसों ने जिनके युद्ध के साधनभूत शैल-शिखरों को तोड़-फोड़ डाला था, वे वानर उनके प्रहारों से विचलित किये जाने पर उन राक्षसों के अत्यन्त निकट जा अपने हाथ-पैर आदि अङ्गों द्वारा ही अद्भुत युद्ध करने लगे॥५६॥
वानरान् वानरैरेव जघ्नुस्ते नैर्ऋतर्षभाः।
राक्षसान् राक्षसैरेव जनुस्ते वानरा अपि॥५७॥
राक्षसों के प्रधान-प्रधान वीर वानरों को पकड़कर उन्हें दूसरे वानरों पर पटक देते थे। इसी प्रकार वानर भी राक्षसों से ही राक्षसोंको मार रहे थे॥ ५७॥
आक्षिप्य च शिलाः शैलाञ्जनुस्ते राक्षसास्तदा।
तेषां चाच्छिद्य शस्त्राणि जजू रक्षांसि वानराः॥५८॥
उस समय राक्षस अपने शत्रुओं के हाथ से शिलाओं और शैल-शिखरों को छीनकर उन्हीं से उन पर प्रहार करने लगे तथा वानर भी राक्षसों के हथियार छीनकर उन्हीं के द्वारा उनका वध करने लगे॥५८॥
निर्जनुः शैलशृङ्गैश्च बिभिदुश्च परस्परम्।
सिंहनादान् विनेदुश्च रणे राक्षसवानराः॥५९॥
इस तरह राक्षस और वानर दोनों ही दलों के योद्धा एक-दूसरे को पर्वत-शिखर से मारने, अस्त्र-शस्त्रों से विदीर्ण करने तथा रणभूमि में सिंहों के समान दहाड़ने लगे॥ ५९॥
छिन्नवर्मतनुत्राणा राक्षसा वानरैर्हताः।
रुधिरं प्रसृतास्तत्र रससारमिव द्रुमाः॥६०॥
राक्षसों की शरीर-रक्षा के साधनभूत कवच आदि छिन्न-भिन्न हो गये। वानरों की मार खाकर वे अपने शरीर से उसी प्रकार रक्त बहाने लगे, जैसे वृक्ष अपने तनों से गोंद बहाया करते हैं॥६०॥
रथेन च रथं चापि वारणेनापि वारणम्।
हयेन च हयं केचिन्निर्जनुर्वानरा रणे॥६१॥
कितने ही वानर रणभूमि में रथ से रथ को, हाथी से हाथी को और घोड़े से घोड़े को मार गिराते थे॥ ६१॥
क्षुरप्रैरर्धचन्द्रैश्च भल्लैश्च निशितैः शरैः।
राक्षसा वानरेन्द्राणां बिभिदुः पादपान् शिलाः॥६२॥
वानर-यूथपतियों के चलाये हुए वृक्षों और शिलाओं को निशाचर योद्धा तीखे क्षुरप्र, अर्धचन्द्र और भल्ल नामक बाणों से तोड़-फोड़ डालते थे। ६२॥
विकीर्णाः पर्वतास्तैश्च द्रुमच्छिन्नैश्च संयुगे।
हतैश्च कपिरक्षोभिर्दुर्गमा वसुधाभवत्॥६३॥
टूट-फूटकर गिरे हुए पर्वतों, कटे हुए वृक्षों तथा राक्षसों और वानरों की लाशों से पट जाने के कारण उस भूमि में चलना-फिरना कठिन हो गया॥ ६३॥
ते वानरा गर्वितहृष्टचेष्टाः संग्राममासाद्य भयं विमुच्य।
युद्धं स्म सर्वे सह राक्षसैस्ते नानायुधाश्चक्रुरदीनसत्त्वाः॥६४॥
वानरों की सारी चेष्टाएँ गर्व से भरी हुई तथा हर्ष और उत्साह से युक्त थीं। उनके हृदय में दीनता नहीं थी तथा उन्होंने राक्षसों के ही नाना प्रकार के आयुध छीनकर हस्तगत कर लिये थे, अतः वे सब संग्राम में पहुंचकर राक्षसों के साथ भय छोड़कर युद्ध कर रहे थे॥६४ ॥
तस्मिन् प्रवृत्ते तुमुले विमर्दै प्रहृष्यमाणेषु वलीमुखेषु।
निपात्यमानेषु च राक्षसेषु महर्षयो देवगणाश्च नेदुः॥६५॥
इस प्रकार जब भयंकर मारकाट मची हुई थी, वानर प्रसन्न थे और राक्षसों की लाशें गिर रही थीं, उस समय महर्षि तथा देवगण हर्षनाद करने लगे। ६५॥
ततो हयं मारुततुल्यवेगमारुह्य शक्तिं निशितां प्रगृह्य।
नरान्तको वानरसैन्यमुग्रं महार्णवं मीन इवाविवेश॥६६॥
तदनन्तर वायु के समान तीव्र वेगवाले घोड़े पर सवार हो हाथ में तीखी शक्ति लिये नरान्तक वानरों की भयंकर सेना में उसी तरह घुसा, जैसे कोई मत्स्य महासागर में प्रवेश कर रहा हो॥६६॥
स वानरान् सप्त शतानि वीरः प्रासेन दीप्तेन विनिर्बिभेद।
एकः क्षणेनेन्द्ररिपुर्महात्मा जघान सैन्यं हरिपुङ्गवानाम्॥६७॥
उस महाकाय इन्द्रद्रोही वीर निशाचर ने चमचमाते हुए भाले से अकेले ही सात सौ वानरों को चीर डाला और क्षणभर में वानर-यूथपतियों की एक बहुत बड़ी सेना का संहार कर डाला॥ ६७॥
ददृशुश्च महात्मानं हयपृष्ठप्रतिष्ठितम्।
चरन्तं हरिसैन्येषु विद्याधरमहर्षयः॥६८॥
घोड़े की पीठ पर बैठे हुए उस महामनस्वी वीर को विद्याधरों और महर्षियों ने वानरों की सेना में विचरते देखा॥
स तस्य ददृशे मार्गो मांसशोणितकर्दमः।
पतितैः पर्वताकारैर्वानरैरभिसंवृतः॥६९॥
वह जिस मार्ग से निकल जाता, वही धराशायी हुए पर्वताकार वानरों से ढका दिखायी देता था और वहाँ रक्त एवं मांस की कीच मच जाती थी॥ ६९॥
यावद् विक्रमितुं बुद्धिं चक्रुः प्लवगपुङ्गवाः।
तावदेतानतिक्रम्य निर्बिभेद नरान्तकः॥७०॥
वानरों के प्रधान-प्रधान वीर जबतक पराक्रम करने का विचार करते, तबतक ही नरान्तक इन सबको लाँघकर भाले की मार से घायल कर देता था। ७०॥
ज्वलन्तं प्रासमुद्यम्य संग्रामाग्रे नरान्तकः।
ददाह हरिसैन्यानि वनानीव विभावसुः॥७१॥
जैसे दावानल सूखे जंगलों को जलाता है, उसी प्रकार प्रज्वलित प्रास लिये नरान्तक युद्ध के मुहाने पर वानर-सेनाओं को दग्ध करने लगा। ७१॥
यावदुत्पाटयामासुर्वृक्षान् शैलान् वनौकसः।
तावत् प्रासहताः पेतुर्वज्रकृत्ता इवाचलाः॥७२॥
वानरलोग जबतक वृक्ष और पर्वत-शिखरों को उखाड़ते, तबतक ही उसके भाले की चोट खाकर वज्र के मारे हुए पर्वत की भाँति ढह जाते थे॥७२॥
दिक्षु सर्वासु बलवान् विचचार नरान्तकः।
प्रमृद्नन् सर्वतो युद्धे प्रावृट्काले यथानिलः॥७३॥
जैसे वर्षाकाल में प्रचण्ड वायु सब ओर वृक्षों को तोड़ती-उखाड़ती हुई विचरती है, उसी प्रकार बलवान् नरान्तक रणभूमि में वानरों को रौंदता हुआ सम्पूर्ण दिशाओं में विचरने लगा॥७३॥
न शेकुर्धावितुं वीरा न स्थातुं स्पन्दितुं भयात्।
उत्पतन्तं स्थितं यान्तं सर्वान् विव्याध वीर्यवान्॥७४॥
वानर-वीर भयके मारे न तो भाग पाते थे, न खड़े रह पाते थे और न उनसे दूसरी ही कोई चेष्टा करते बनती थी। पराक्रमी नरान्तक उछलते हुए, पड़े हुए और जाते हुए सभी वानरों पर भाले की चोट कर देता था॥ ७४॥
एकेनान्तककल्पेन प्रासेनादित्यतेजसा।
भग्नानि हरिसैन्यानि निपेतुर्धरणीतले॥७५॥
उसका प्रास (भाला) अपनी प्रभा से सूर्य के समान उद्दीप्त हो रहा था और यमराज के समान भयंकर जान पड़ता था। उस एक ही भाले की मार से घायल होकर झुंड-के-झुंड वानर धरती पर सो गये॥ ७५ ॥
वज्रनिष्पेषसदृशं प्रासस्याभिनिपातनम्।
न शेकुर्वानराः सोढुं ते विनेदुर्महास्वनम्॥७६॥
वज्र के आघात को भी मात करने वाले उस प्रास के दारुण प्रहार को वानर नहीं सह सके। वे जोर-जोर से चीत्कार करने लगे॥७६॥
पततां हरिवीराणां रूपाणि प्रचकाशिरे।
वज्रभिन्नाग्रकूटानां शैलानां पततामिव॥७७॥
वहाँ गिरते हुए वानर-वीरों के रूप उन पर्वतों के समान दिखायी देते थे, जो वज्र के आघात से शिखरों के विदीर्ण हो जाने से धराशायी हो रहे हों। ७७॥
ये तु पूर्वं महात्मानः कुम्भकर्णेन पातिताः।
ते स्वस्था वानरश्रेष्ठाः सुग्रीवमुपतस्थिरे॥७८॥
पहले कुम्भकर्ण ने जिन्हें रणभूमि में गिरा दिया था, वे महामनस्वी श्रेष्ठ वानर उस समय स्वस्थ होसुग्रीव की सेवा में उपस्थित हुए। ७८ ॥
प्रेक्षमाणः स सुग्रीवो ददृशे हरिवाहिनीम्।
नरान्तकभयत्रस्तां विद्रवन्तीं यतस्ततः॥७९॥
सुग्रीव ने जब सब ओर दृष्टिपात किया, तब देखा कि वानरों की सेना नरान्तक से भयभीत होकर इधर-उधर भाग रही है॥७९॥
विद्रुतां वाहिनीं दृष्ट्वा स ददर्श नरान्तकम्।
गृहीतप्रासमायान्तं हयपृष्ठप्रतिष्ठितम्॥८०॥
सेना को भागती देख उन्होंने नरान्तक पर भी दृष्टि डाली, जो घोड़े की पीठ पर बैठकर हाथ में भाला लिये आ रहा था॥ ८०॥
दृष्ट्वोवाच महातेजाः सुग्रीवो वानराधिपः।
कुमारमङ्गदं वीरं शक्रतुल्यपराक्रमम्॥८१॥
उसे देखकर महातेजस्वी वानरराज सुग्रीव ने इन्द्रतुल्य पराक्रमी वीर कुमार अङ्गद से कहा- ॥ ८१॥
गच्छैनं राक्षसं वीरं योऽसौ तुरगमास्थितः।
क्षोभयन्तं हरिबलं क्षिप्रं प्राणैर्वियोजय॥८२॥
‘बेटा! वह जो घोड़े पर बैठा हुआ वानर-सेना में हलचल मचा रहा है, उस वीर राक्षस का सामना करने के लिये जाओ और उसके प्राणों का शीघ्र ही अन्त कर दो’॥
स भर्तुर्वचनं श्रुत्वा निष्पपाताङ्गदस्तदा।
अनीकान्मेघसंकाशादंशुमानिव वीर्यवान्॥८३॥
स्वामी की यह आज्ञा सुनकर पराक्रमी अङ्गद उस समय मेघों की घटा के समान प्रतीत होने वाली वानरसेना से उसी तरह निकले, जैसे सूर्यदेव बादलों के ओट से प्रकट हो रहे हों॥ ८३॥
शैलसंघातसंकाशो हरीणामुत्तमोऽङ्गदः।
रराजाङ्गदसंनद्धः सधातुरिव पर्वतः॥८४॥
वानरों में श्रेष्ठ अङ्गद शैल-समूह के समान विशालकाय थे। वे अपनी बाँहों में बाजूबंद धारण किये हुए थे, इसलिये सुवर्ण आदि धातुओं से युक्त पर्वत के समान शोभा पाते थे॥ ८४ ॥
निरायुधो महातेजाः केवलं नखदंष्ट्रवान्।
नरान्तकमभिक्रम्य वालिपुत्रोऽब्रवीद् वचः॥८५॥
वालिपुत्र अङ्गद महातेजस्वी थे। उनके पास कोई हथियार नहीं था। केवल नख और दाढ़ ही उनके अस्त्र-शस्त्र थे। वे नरान्तक के पास पहुँचकर इस प्रकार बोले- ॥ ८५॥
तिष्ठ किं प्राकृतैरेभिर्हरिभिस्त्वं करिष्यसि।
अस्मिन् वज्रसमस्पर्श प्रासंक्षिप्र ममोरसि॥८६॥
‘ओ निशाचर! ठहर जा। इन साधारण बंदरों को मारकर तू क्या करेगा? तेरे भाले की चोट वज्र के समान असह्य है; किंतु जरा इसे मेरी इस छाती पर तो मार’ ॥ ८६॥
अङ्गदस्य वचः श्रुत्वा प्रचुक्रोध नरान्तकः।
संदश्य दशनैरोष्ठं निःश्वस्य च भुजंगवत्।
अभिगम्याङ्गदं क्रुद्धो वालिपुत्रं नरान्तकः॥८७॥
अङ्गद की यह बात सुनकर नरान्तक को बड़ा क्रोध हुआ। वह कुपित हो, दाँतों से ओठ दबा सर्प की भाँति लंबी साँस ले, वालिपुत्र अङ्गद के पास आकर खड़ा हो गया॥८७॥
स प्रासमाविध्य तदाङ्गदाय समुज्ज्वलन्तं सहसोत्ससर्ज।
स वालिपुत्रोरसि वज्रकल्पे बभूव भग्नो न्यपतच्च भूमौ॥ ८८॥
उसने उस चमकते हुए भाले को घुमाकर सहसा उसे अङ्गदपर दे मारा। वालिपुत्र अङ्गद का वक्षःस्थल वज्र के समान कठोर था। नरान्तक का भाला उस पर टकराकर टूट गया और जमीन पर जा पड़ा॥८८॥
तं प्रासमालोक्य तदा विभग्नं सुपर्णकृत्तोरगभोगकल्पम्।
तलं समुद्यम्य स वालिपुत्रस्तुरंगमस्याभिजघान मूर्ध्नि॥८९॥
उस भाले को गरुड़ के द्वारा खण्डित किये गये सर्प के शरीर की भाँति टूक-टूक होकर पड़ा देख वालिपुत्र अङ्गद ने हथेली ऊँची करके नरान्तक के घोड़े के मस्तक पर बड़े जोर से थप्पड़ मारा ॥ ८९ ॥
निमग्नपादः स्फुटिताक्षितारो निष्क्रान्तजिह्वोऽचलसंनिकाशः।
स तस्य वाजी निपपात भूमौ तलप्रहारेण विकीर्णमूर्धा ॥९०॥
उस प्रहार से घोड़े का सिर फट गया, पैर नीचेको धंस गये, आँखें फूट गयीं और जीभ बाहर निकल आयी। वह पर्वताकार अश्व प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।
नरान्तकः क्रोधवशं जगाम हतं तुरंगं पतितं समीक्ष्य।
स मुष्टिमुद्यम्य महाप्रभावो जघान शीर्षे युधि वालिपुत्रम्॥९१॥
घोड़े को मरकर पृथ्वी पर पड़ा देख नरान्तक के क्रोध की सीमा न रही। उस महाप्रभावशाली निशाचर ने युद्धस्थल में मुक्का तानकर वालिकुमार के मस्तक पर मारा॥
अथाङ्गदो मुष्टिविशीर्णमूर्धा सुस्राव तीव्र रुधिरं भृशोष्णम्।
मुहुर्विजज्वाल मुमोह चापि संज्ञां समासाद्य विसिस्मिये च॥९२॥
मुक्के की मार से अङ्गद का सिर फूट गया। उससे वेगपूर्वक गर्म-गर्म रक्त की धारा बहने लगी। उनके माथे में बड़ी जलन हुई। वे मूर्च्छित हो गये और थोड़ी देर में जब होश हुआ, तब उस राक्षस की शक्ति देखकर आश्चर्यचकित हो उठे॥ ९२॥
अथाङ्गदो मृत्युसमानवेगं संवर्त्य मुष्टिं गिरिशृङ्गकल्पम्।
निपातयामास तदा महात्मा नरान्तकस्योरसि वालिपुत्रः॥९३॥
फिर अङ्गदने पर्वत-शिखर के समान अपना मुक्का ताना, जिसका वेग मृत्यु के समान था। फिर उन महात्मा वालिकुमार ने उससे नरान्तक की छाती में प्रहार किया।
स मुष्टिनिर्भिन्ननिमग्नवक्षा ज्वाला वमन् शोणितदिग्धगात्रः।
नरान्तको भूमितले पपात यथाचलो वज्रनिपातभग्नः॥९४॥
मुक्के के आघात से नरान्तक का हृदय विदीर्ण हो गया। वह मुँह से आग की ज्वाला-सी उगलने लगा। उसके सारे अङ्ग लहूलुहान हो गये और वह वज्र के मारे हुए पर्वत की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ ९४ ॥
तदान्तरिक्षे त्रिदशोत्तमानां वनौकसां चैव महाप्रणादः।
बभूव तस्मिन् निहतेऽग्रयवीर्ये नरान्तके वालिसुतेन संख्ये॥ ९५॥
वालिकुमार के द्वारा युद्धस्थल में उत्तम पराक्रमी नरान्तक के मारे जाने पर उस समय आकाश में देवताओं ने और भूतल पर वानरों ने बड़े जोर से हर्षनाद किया॥९५॥
अथाङ्गदो राममनःप्रहर्षणं सुदुष्करं तं कृतवान् हि विक्रमम्।
विसिस्मिये सोऽप्यथ भीमकर्मा पुनश्च युद्धे स बभूव हर्षितः॥ ९६॥
अङ्गद ने श्रीरामचन्द्रजी के मन को अत्यन्त हर्ष प्रदान करने वाला वह परम दुष्कर पराक्रम किया था। उससे श्रीरामचन्द्रजी को भी बड़ा विस्मय हुआ। तत्पश्चात् भीषण कर्म करने वाले अङ्गद पुनः युद्ध के लिये हर्ष और उत्साह से भर गये॥९६॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे एकोनसप्ततितमः सर्गः॥६९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में उनहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।६९॥