वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 7 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 7
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
सप्तमः सर्गः (7)
(राक्षसों का रावण और इन्द्रजित् के बल-पराक्रम का वर्णन करते हुए उसे राम पर विजय पाने का विश्वास दिलाना)
इत्युक्ता राक्षसेन्द्रेण राक्षसास्ते महाबलाः।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे रावणं राक्षसेश्वरम्॥१॥
द्विषत्पक्षमविज्ञाय नीतिबाह्यास्त्वबुद्धयः।
राक्षसों को न तो नीति का ज्ञान था और न वे शत्रुपक्ष के बलाबल को ही समझते थे। वे बलवान् तो बहुत थे; किंतु नीति की दृष्टि से महामूर्ख थे। इसलिये जब राक्षसराज रावण ने उनसे पूर्वोक्त बातें कहीं, तब वे सब-के-सब हाथ जोड़कर उससे बोले- ॥ १ १/२॥
राजन् परिघशक्त्यृष्टिशूलपट्टिशकुन्तलम्॥२॥
सुमहन्नो बलं कस्माद् विषादं भजते भवान्।
‘राजन्! हमारे पास परिघ, शक्ति, ऋष्टि, शूल, पट्टिश और भालों से लैस बहुत बड़ी सेना मौजूद है; फिर आप विषाद क्यों करते हैं॥२ १/२॥
त्वया भोगवतीं गत्वा निर्जिताः पन्नगा युधि॥
कैलासशिखरावासी यक्षैर्बहुभिरावृतः।
सुमहत्कदनं कृत्वा वश्यस्ते धनदः कृतः॥४॥
‘आपने तो भोगवतीपुरी में जाकर नागों को भी युद्ध में परास्त कर दिया था। बहुसंख्यक यक्षों से घिरे हुए कैलासशिखर के निवासी कुबेर को भी युद्ध में भारी मार-काट मचाकर वश में कर लिया था। ३-४॥
स महेश्वरसख्येन श्लाघमानस्त्वया विभो।
निर्जितः समरे रोषाल्लोकपालो महाबलः॥५॥
‘प्रभो! महाबली लोकपाल कुबेर महादेवजी के साथ मित्रता होने के कारण आपके साथ बड़ी स्पर्धा रखते थे; परंतु आपने समराङ्गण में रोषपूर्वक उन्हें हरा दिया॥५॥
विनिपात्य च यक्षौघान् विक्षोभ्य विनिगृह्य च।
त्वया कैलासशिखराद् विमानमिदमाहृतम्॥६॥
‘यक्षों की सेना को विचलित करके बंदी बना लिया और कितनों को धराशायी करके कैलासशिखर से आप उनका यह विमान छीन लाये थे॥६॥
मयेन दानवेन्द्रेण त्वद्भयात् सख्यमिच्छता।
दुहिता तव भार्यार्थे दत्ता राक्षसपुङ्गव॥७॥
‘राक्षसशिरोमणे! दानवराज मय ने आपसे भयभीत होकर ही आपको अपना मित्र बना लेने की इच्छा की और इसी उद्देश्य से आपको धर्मपत्नी के रूप में अपनी पुत्री समर्पित कर दी॥७॥
दानवेन्द्रो महाबाहो वीर्योत्सिक्तो दुरासदः।
विगृह्य वशमानीतः कुम्भीनस्याः सुखावहः॥८॥
‘महाबाहो! अपने पराक्रम का घमंड रखने वाले दुर्जय दानवराज मधु को भी, जो आपकी बहिन कुम्भीनसी को सुख देने वाला उसका पति है, आपने युद्ध छेड़कर वश में कर लिया॥८॥
निर्जितास्ते महाबाहो नागा गत्वा रसातलम्।
वासुकिस्तक्षकः शङ्को जटी च वशमाहृताः॥९॥
‘विशालबाहु वीर! आपने रसातल पर चढ़ाई करके वासुकि, तक्षक, शङ्ख और जटी आदि नागों को युद्ध में जीता और अपने अधीन कर लिया॥९॥
अक्षया बलवन्तश्च शूरा लब्धवराः पुनः।
त्वया संवत्सरं युद्ध्वा समरे दानवा विभो॥१०॥
स्वबलं समुपाश्रित्य नीता वशमरिंदम।
मायाश्चाधिगतास्तत्र बढ्यो वै राक्षसाधिप॥११॥
‘प्रभो! शत्रुदमन राक्षसराज! दानवलोग बड़े ही बलवान्, किसी से नष्ट न होने वाले, शूरवीर तथा वर पाकर अद्भुत शक्ति से सम्पन्न हो गये थे; परंतु आपने समराङ्गण में एक वर्षतक युद्ध करके अपने ही बल के भरोसे उन सबको अपने अधीन कर लिया और वहाँ उनसे बहुत-सी मायाएँ भी प्राप्त कीं॥ १०-११॥
शूराश्च बलवन्तश्च वरुणस्य सुता रणे।
निर्जितास्ते महाभाग चतुर्विधबलानुगाः॥१२॥
‘महाभाग! आपने वरुण के शूरवीर और बलवान् पुत्रों को भी उनकी चतुरंगिणी सेनासहित युद्ध में परास्त कर दिया था॥ १२॥
मृत्युदण्डमहाग्राहं शाल्मलीद्रुममण्डितम्।
कालपाशमहावीचिं यमकिंकरपन्नगम्॥१३॥
महाज्वरेण दुर्धर्षं यमलोकमहार्णवम्।
अवगाह्य त्वया राजन् यमस्य बलसागरम्॥१४॥
जयश्च विपुलः प्राप्तो मृत्युश्च प्रतिषेधितः।
सुयुद्धेन च ते सर्वे लोकस्तत्र सुतोषिताः॥१५॥
‘राजन्! मृत्यु का दण्ड ही जिसमें महान् ग्राह के समान है, जो यम-यातना-सम्बन्धी शाल्मलि आदि वृक्षों से मण्डित है, कालपाशरूपी उत्ताल तरङ्गे जिसकी शोभा बढ़ाती हैं, यमदूतरूपी सर्प जिसमें निवास करते हैं तथा जो महान् ज्वर के कारण दुर्जय है, उस यमलोकरूपी महासागर में प्रवेश करके आपनेयमराज की सागर-जैसी सेना को मथ डाला, मृत्यु को रोक दिया और महान् विजय प्राप्त की। यही नहीं, युद्ध की उत्तम कला से आपने वहाँ के सब लोगों को पूर्ण संतुष्ट कर दिया था॥ १३–१५॥
क्षत्रियैर्बहुभिवीरैः शक्रतुल्यपराक्रमैः।
आसीद् वसुमती पूर्णा महद्भिरिव पादपैः॥१६॥
‘पहले यह पृथ्वी विशाल वृक्षों की भाँति इन्द्रतुल्य पराक्रमी बहुसंख्यक क्षत्रिय वीरों से भरी हुई थी।१६॥
तेषां वीर्यगुणोत्साहैर्न समो राघवो रणे।
प्रसह्य ते त्वया राजन् हताः समरदुर्जयाः॥१७॥
‘उन वीरों में जो पराक्रम, गुण और उत्साह थे, उनकी दृष्टि से राम रणभूमि में उनके समान कदापि नहीं है; राजन्! जब आपने उन समरदुर्जय वीरों को भी बलपूर्वक मार डाला, तब रामपर विजय पाना आपके लिये कौन बड़ी बात है ? ॥ १७॥
तिष्ठ वा किं महाराज श्रमेण तव वानरान्।
अयमेको महाबाहुरिन्द्रजित् क्षपयिष्यति॥१८॥
‘अथवा महाराज! आप चुपचाप यहीं बैठे रहें। आपको परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है। अकेले ये महाबाहु इन्द्रजित् ही सब वानरों का संहार कर डालेंगे॥ १८॥
अनेन च महाराज माहेश्वरमनुत्तमम्।
इष्ट्वा यज्ञं वरो लब्धो लोके परमदुर्लभः॥१९॥
‘महाराज! इन्होंने परम उत्तम माहेश्वर यज्ञ का अनुष्ठान करके वह वर प्राप्त किया है, जो संसार में दूसरे के लिये अत्यन्त दुर्लभ है॥ १९॥
शक्तितोमरमीनं च विनिकीर्णान्त्रशैवलम्।
गजकच्छपसम्बाधमश्वमण्डूकसंकुलम्॥२०॥
रुद्रादित्यमहाग्राहं मरुद्धसुमहोरगम्।
रथाश्वगजतोयौघं पदातिपुलिनं महत्॥ २१॥
अनेन हि समासाद्य देवानां बलसागरम्।
गृहीतो दैवतपतिर्लङ्कां चापि प्रवेशितः॥२२॥
‘देवताओं की सेना समुद्र के समान थी। शक्ति और तोमर ही उसमें मत्स्य थे। निकालकर फेंकी हुई आँतें सेवार का काम देती थीं। हाथी ही उस सैन्य-सागर में कछुओं के समान भरे थे। घोड़े मेढकों के समान उसमें सब ओर व्याप्त थे। रुद्रगण और आदित्यगण उस सेनारूपी समुद्र के बड़े-बड़े ग्राह थे। मरुद्गण और वसुगण वहाँ के विशाल नाग थे। रथ, हाथी और घोड़े जलराशि के समान थे और पैदल सैनिक उसके विशाल तट थे; परंतु इस इन्द्रजित् ने देवताओं के उस सैन्य-समुद्र में घुसकर देवराज इन्द्र को कैद कर लिया और उन्हें लङ्कापुरी में लाकर बंद कर दिया॥ २०– २२॥
पितामहनियोगाच्च मुक्तः शम्बरवृत्रहा।
गतस्त्रिविष्टपं राजन् सर्वदेवनमस्कृतः॥२३॥
‘राजन्! फिर ब्रह्माजी के कहने से इन्होंने शम्बर और वृत्रासुर को मारने वाले सर्वदेववन्दित इन्द्र को मुक्त किया। तब वे स्वर्गलोक में गये॥ २३॥
तमेव त्वं महाराज विसृजेन्द्रजितं सुतम्।
यावद् वानरसेनां तां सरामां नयति क्षयम्॥२४॥
‘अतः महाराज! इस काम के लिये आप राजकुमार इन्द्रजित् को ही भेजिये, जिससे ये रामसहित वानरसेना का यहाँ आने से पहले ही संहार कर डालें। २४॥
राजन्नापदयुक्तेयमागता प्राकृताज्जनात्।
हृदि नैव त्वया कार्या त्वं वधिष्यसि राघवम्॥२५॥
‘राजन् ! साधारण नर और वानरों से प्राप्त हुई इस आपत्ति के विषय में चिन्ता करना आपके लिये उचित नहीं है। आपको तो अपने हृदय में इसे स्थान ही नहीं देना चाहिये। आप अवश्य ही राम का वध कर डालेंगे’।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे सप्तमः सर्गः॥७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७॥
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