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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 70 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 70

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
सप्ततितमः सर्गः (70)

(हनुमान जी के द्वारा देवान्तक और त्रिशिरा का, नील के द्वारा महोदर का तथा ऋषभ के द्वारा महापार्श्व का वध)

नरान्तकं हतं दृष्ट्वा चुक्रुशुर्नैर्ऋतर्षभाः।
देवान्तकस्त्रिमूर्धा च पौलस्त्यश्च महोदरः॥१॥

नरान्तक को मारा गया देख देवान्तक, पुलस्त्यकुलनन्दन त्रिशिरा और महोदर—ये श्रेष्ठ राक्षस हाहाकार करने लगे॥१॥

आरूढो मेघसंकाशं वारणेन्द्रं महोदरः।
वालिपुत्रं महावीर्यमभिदुद्राव वेगवान्॥२॥

महोदर ने मेघ के समान गजराज पर बैठकर महापराक्रमी अङ्गद के ऊपर बड़े वेग से धावा किया॥ २॥

भ्रातृव्यसनसंतप्तस्तदा देवान्तको बली।
आदाय परिघं घोरमदं समभिद्रवत्॥३॥

भाई के मारे जाने से संतप्त हुए बलवान् देवान्तक ने भयानक परिघ हाथ में लेकर अङ्गद पर आक्रमण किया॥३॥

रथमादित्यसंकाशं युक्तं परमवाजिभिः।
आस्थाय त्रिशिरा वीरो वालिपुत्रमथाभ्यगात्॥४॥

इस प्रकार वीर त्रिशिरा उत्तम घोड़ों से जुते हुए सूर्यतुल्य तेजस्वी रथ पर बैठकर वालिकुमार का सामना करने के लिये आया॥४॥

स त्रिभिर्देवदर्पनै राक्षसेन्ट्रैरभिद्रुतः।
वृक्षमुत्पाटयामास महाविटपमङ्गदः॥५॥
देवान्तकाय तं वीरश्चिक्षेप सहसाङ्गदः।
महावृक्षं महाशाखं शक्रो दीप्तामिवाशनिम्॥६॥

देवताओं का दर्प दलन करने वाले उन तीनों निशाचरपतियों के आक्रमण करने पर वीर अङ्गद ने विशाल शाखाओं से युक्त एक वृक्ष को उखाड़ लिया और जैसे इन्द्र प्रज्वलित वज्र का प्रहार करते हैं, उसी प्रकार उन वालिकुमार ने बड़ी-बड़ी शाखाओं से युक्त उस महान् वृक्ष को सहसा देवान्तक पर दे मारा॥ ५-६॥

त्रिशिरास्तं प्रचिच्छेद शरैराशीविषोपमैः ।
स वृक्षं कृत्तमालोक्य उत्पपात तदाङ्गदः॥७॥
स ववर्ष ततो वृक्षान् शिलाश्च कपिकुञ्जरः।
तान् प्रचिच्छेद संक्रुद्धस्त्रिशिरा निशितैः शरैः॥८॥

परंतु त्रिशिरा ने विषधर सर्पो के समान भयंकर बाण मारकर उस वृक्ष के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। वृक्ष को खण्डित हुआ देख कपिकुञ्जर अङ्गद तत्काल आकाश में उछले और त्रिशिरा पर वृक्षों तथा शिलाओं की वर्षा करने लगे; किंतु क्रोध से भरे हुए त्रिशिरा ने पैने बाणों द्वारा उनको भी काट गिराया। ७-८॥

परिघाग्रेण तान् वृक्षान् बभञ्ज स महोदरः।
त्रिशिराश्चाङ्गदं वीरमभिदुद्राव सायकैः॥९॥

महोदर ने अपने परिघ के अग्रभाग से उन वृक्षों को तोड़-फोड़ डाला। तत्पश्चात् सायकों की वर्षा करते हुए त्रिशिरा ने वीर अङ्गद पर धावा किया॥९॥

गजेन समभिद्रुत्य वालिपुत्रं महोदरः।
जघानोरसि संक्रुद्धस्तोमरैर्वज्रसंनिभैः॥१०॥

साथ ही कुपित हुए महोदर ने हाथी के द्वारा आक्रमण करके वालिकुमार की छाती में वज्रतुल्य तोमरों का प्रहार किया॥१०॥

देवान्तकश्च संक्रुद्धः परिघेण तदाङ्गदम्।
उपगम्याभिहत्याशु व्यपचक्राम वेगवान्॥११॥

इसी प्रकार देवान्तक भी अङ्गद के निकट आ अत्यन्त क्रोधपूर्वक परिघ के द्वारा उन्हें चोट पहुँचाकर तुरंत वेगपूर्वक वहाँ से दूर हट गया॥ ११ ॥

स त्रिभिर्नैर्ऋतश्रेष्ठैर्युगपत् समभिद्रुतः।
न विव्यथे महातेजा वालिपुत्रः प्रतापवान्॥१२॥

उन तीनों प्रमुख निशाचरों ने एक साथ ही धावा किया था, तो भी महातेजस्वी और प्रतापी वालिकुमार अङ्गद के मन में तनिक भी व्यथा नहीं हुई॥ १२॥

स वेगवान् महावेगं कृत्वा परमदुर्जयः।
तलेन समभिद्रुत्य जघानास्य महागजम्॥१३॥

वे अत्यन्त दुर्जय और बड़े वेगशाली थे। उन्होंने महान् वेग प्रकट करके महोदर के महान् गजराजपर आक्रमण किया और उसके मस्तक पर जोर से थप्पड़ मारा ॥ १३॥

तस्य तेन प्रहारेण नागराजस्य संयुगे।
पेततुर्नयने तस्य विननाश स कुञ्जरः॥१४॥

युद्धस्थल में उनके उस प्रहार से गजराज की दोनों आँखें निकलकर पृथ्वी पर गिर गयीं और वह तत्काल मर गया॥१४॥

विषाणं चास्य निष्कृष्य वालिपुत्रो महाबलः।
देवान्तकमभिद्रुत्य ताडयामास संयुगे॥१५॥

फिर महाबली वालिकुमार ने उस हाथी का एक दाँत उखाड़ लिया और युद्धस्थल में दौड़कर उसी के द्वारा देवान्तक पर चोट की॥ १५ ॥

स विह्वलस्तु तेजस्वी वातोद्धृत इव द्रुमः।
लाक्षारससवर्णं च सुस्राव रुधिरं महत्॥१६॥

तेजस्वी देवान्तक उस प्रहार से व्याकुल हो गया और वायु के हिलाये हुए वृक्ष की भाँति काँपने लगा। उसके शरीर से महावर के समान रंगवाला रक्त का महान् प्रवाह बह चला ॥१६॥

अथाश्वास्य महातेजाः कृच्छ्राद् देवान्तको बली।
आविध्य परिघं वेगादाजघान तदाङ्गदम्॥१७॥

तत्पश्चात् महातेजस्वी बलवान् देवान्तक ने बड़ी कठिनाई से अपने को सँभालकर परिघ उठाया और उसे वेगपूर्वक घुमाकर अङ्गद पर दे मारा॥ १७ ॥

परिघाभिहतश्चापि वानरेन्द्रात्मजस्तदा।
जानुभ्यां पतितो भूमौ पुनरेवोत्पपात ह॥१८॥

उस परिघ की चोट खाकर वानर राजकुमार अङ्गद ने भूमि पर घुटने टेक दिये। फिर तुरंत ही उठकर वे ऊपर की ओर उछले॥१८॥

तमुत्पतन्तं त्रिशिरास्त्रिभिर्बाणैरजिह्मगैः।
घोरैर्हरिपतेः पुत्रं ललाटेऽभिजघान ह॥१९॥

उछलते समय त्रिशिरा ने तीन सीधे जाने वाले भयंकर बाणों द्वारा वानर राजकुमार के ललाट में गहरी चोट पहुँचायी॥

ततोऽङ्गदं परिक्षिप्तं त्रिभिर्नैर्ऋतपुङ्गवैः।
हनूमानथ विज्ञाय नीलश्चापि प्रतस्थतुः॥२०॥

तदनन्तर अङ्गद को तीन प्रमुख निशाचरों से घिरा हुआ जान हनुमान् और नील भी उनकी सहायता के लिये अग्रसर हुए॥ २०॥

ततश्चिक्षेप शैलाग्रं नीलस्त्रिशिरसे तदा।
तद् रावणसुतो धीमान् बिभेद निशितैः शरैः॥२१॥

उस समय नील ने त्रिशिरा पर एक पर्वत-शिखर चलाया; किंतु उस बुद्धिमान् रावणपुत्र ने तीखे बाण मारकर उसे तोड़-फोड़ डाला॥२१॥

तद्बाणशतनिर्भिन्नं विदारितशिलातलम्।
सविस्फुलिङ्गं सज्वालं निपपात गिरेः शिरः॥२२॥

उसके सैकड़ों बाणों से विदीर्ण होकर उसकी एक-एक शिला बिखर गयी और वह पर्वत-शिखर आग की चिनगारियों तथा ज्वाला के साथ पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ २२॥

स विजृम्भितमालोक्य हर्षाद् देवान्तको बली।
परिघेणाभिदुद्राव मारुतात्मजमाहवे॥२३॥

अपने भाई का पराक्रम बढ़ता देख बलवान् देवान्तक को बड़ा हर्ष हुआ और उसने परिघ लेकर युद्धस्थल में हनुमान जी पर धावा किया॥ २३॥

तमापतन्तमुत्पत्य हनूमान् कपिकुञ्जरः।
आजघान तदा मूनि वज्रकल्पेन मुष्टिना ॥ २४॥

उसे आते देख कपिकुञ्जर हनुमान् जी ने उछलकर अपने वज्र-सरीखे मुक्के से उसके सिर पर मारा ॥ २४॥

शिरसि प्राहरद् वीरस्तदा वायुसुतो बली।
नादेनाकम्पयच्चैव राक्षसान् स महाकपिः॥ २५ ॥

बलवान् वायुकुमार महाकपि हनुमान जी ने उस समय देवान्तक के मस्तक पर प्रहार किया और अपनी भीषण गर्जना से राक्षसों को कम्पित कर दिया॥ २५ ॥

स मुष्टिनिष्पिष्टविभिन्नमूर्धा निर्वान्तदन्ताक्षिविलम्बिजिह्वः।
देवान्तको राक्षसराजसूनुर्गतासुरुवा॒ सहसा पपात॥२६॥

उनके मुष्टि-प्रहार से देवान्तक का मस्तक फट गया और पिस उठा। दाँत, आँखें और लंबी जीभ बाहर निकल आयीं तथा वह राक्षस राजकुमार प्राणशून्य होकर सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा॥२६॥

तस्मिन् हते राक्षसयोधमुख्ये महाबले संयति देवशत्रौ।
क्रुद्धस्त्रिशीर्षा निशितास्त्रमुग्रं ववर्ष नीलोरसि बाणवर्षम्॥२७॥

राक्षस-योद्धाओं में प्रधान महाबली देवद्रोही देवान्तक के युद्ध में मारे जाने पर त्रिशिरा को बड़ा क्रोध हुआ और उसने नील की छाती पर पैने बाणों की भयंकर वर्षा आरम्भ कर दी॥ २७॥

महोदरस्तु संक्रुद्धः कुञ्जरं पर्वतोपमम्।
भूयः समधिरुह्याशु मन्दरं रश्मिवानिव॥२८॥

तदनन्तर अत्यन्त क्रोध से भरा हुआ महोदर पुनः शीघ्र ही एक पर्वताकार हाथी पर सवार हुआ, मानो सूर्यदेव मन्दराचल पर आरूढ़ हुए हों॥ २८॥

ततो बाणमयं वर्षं नीलस्योपर्यपातयत्।
गिरौ वर्षं तडिच्चक्रचापवानिव तोयदः॥ २९॥

हाथी पर चढ़कर उसने नील के ऊपर बाणों की विकट वर्षा की, मानो इन्द्रधनुष एवं विद्युन्मण्डल से युक्त मेघ किसी पर्वत पर जल की वर्षा कर रहा हो॥

ततः शरौत्रैरभिवृष्यमाणो विभिन्नगात्रः कपिसैन्यपालः।
नीलो बभूवाथ विसृष्टगात्रो विष्टम्भितस्तेन महाबलेन॥३०॥

बाण-समूहों की निरन्तर वर्षा होने से वानरसेनापति नील के सारे अङ्ग क्षत-विक्षत हो गये। उनका शरीर शिथिल हो गया। इस प्रकार महाबली महोदर ने उन्हें मूर्च्छित करके उनके बल-विक्रम को कुण्ठित कर दिया॥

ततस्तु नीलः प्रतिलब्धसंज्ञः शैलं समुत्पाट्य सवृक्षखण्डम्।
ततः समुत्पत्य महोग्रवेगो महोदरं तेन जघान मूर्ध्नि॥३१॥

तत्पश्चात् होश में आने पर नील ने वृक्ष-समूहों से युक्त एक शैल-शिखर को उखाड़ लिया। उनका वेग बड़ा भयंकर था। उन्होंने उछलकर उस वृक्ष को महोदर के मस्तक पर दे मारा॥३१॥

ततः स शैलाभिनिपातभग्नो महोदरस्तेन महाद्विपेन।
व्यामोहितो भूमितले गतासुः पपात वज्राभिहतो यथाद्रिः॥३२॥

उस पर्वत-शिखर के आघात से महोदर उस महान् गजराज के साथ ही चूर-चूर हो गया और मूर्च्छित एवं प्राणशून्य हो वज्र के मारे हुए पर्वत की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ ३२॥

पितृव्यं निहतं दृष्ट्वा त्रिशिराश्चापमाददे।
हनूमन्तं च संक्रुद्धो विव्याध निशितैः शरैः॥३३॥

पिता के भाई को मारा गया देख त्रिशिरा के क्रोध की सीमा न रही। उसने धनुष हाथ में ले लिया और हनुमान जी को पैने बाणों से बींधना आरम्भ किया। ३३॥

स वायुसूनुः कुपितश्चिक्षेप शिखरं गिरेः।
त्रिशिरास्तच्छरैस्तीक्ष्णैर्बिभेद बहुधा बली॥ ३४॥

तब पवनकुमार ने कुपित होकर उस राक्षस के ऊपर पर्वत का शिखर चलाया, परंतु बलवान् त्रिशिरा ने अपने तीखे सायकों से उसके कई टुकड़े कर डाले॥

तद् व्यर्थं शिखरं दृष्ट्वा द्रुमवर्षं तदा कपिः।
विससर्ज रणे तस्मिन् रावणस्य सुतं प्रति॥ ३५॥

उस पर्वतशिखर के प्रहार को व्यर्थ हुआ देख कपिवर हनुमान् ने उस रणभूमि में रावणपुत्र त्रिशिरा के ऊपर वृक्षों की वर्षा आरम्भ की॥ ३५॥

तमापतन्तमाकाशे द्रुमवर्षं प्रतापवान्।
त्रिशिरा निशितैर्बाणैश्चिच्छेद च ननाद च॥३६॥

किंतु प्रतापी त्रिशिरा ने आकाश में होने वाली वृक्षों की उस वृष्टि को अपने पैने बाणों से छिन्न-भिन्न कर दिया और बड़े जोर से गर्जना की॥ ३६॥

हनूमांस्तु समुत्पत्य हयं त्रिशिरसस्तदा।
विददार नखैः क्रुद्धो नागेन्द्रं मृगराडिव॥३७॥

तब हनुमान जी कूदकर त्रिशिरा के पास जा पहुँचे और जैसे कुपित सिंह गजराज को अपने पंजों से चीर डालता है, उसी प्रकार रोष से भरे हुए उन पवनकुमार ने त्रिशिरा के घोड़े को अपने नखों से विदीर्ण कर डाला॥ ३७॥

अथ शक्तिं समासाद्य कालरात्रिमिवान्तकः।
चिक्षेपानिलपुत्राय त्रिशिरा रावणात्मजः॥३८॥

यह देख रावणकुमार त्रिशिराने शक्ति हाथ में ली, मानो यमराज ने कालरात्रि को साथ ले लिया हो, वह शक्ति लेकर उसने पवनकुमार हनुमान् पर चलायी॥ ३८॥

दिवः क्षिप्तामिवोल्कां तां शक्तिं क्षिप्तामसङ्गताम्।
गृहीत्वा हरिशार्दूलो बभञ्ज च ननाद च॥३९॥

जैसे आकाश से उल्कापात हुआ हो, उसी प्रकार वह शक्ति, जिसकी गति कहीं कुण्ठित नहीं होती थी, चली; परंतु वानरश्रेष्ठ हनुमान जी ने उसे अपने शरीर में लगने से पहले ही हाथ से पकड़ लिया और तोड़ डाला, तोड़ने के बाद उन्होंने भयंकर गर्जना की॥३९॥

तां दृष्ट्वा घोरसंकाशां शक्तिं भग्नां हनूमता।
प्रहृष्टा वानरगणा विनेदुर्जलदा यथा॥४०॥

हनुमान जी ने वह भयानक शक्ति तोड़ दी, यह देख वानरवृन्द अत्यन्त हर्ष से उल्लसित हो मेघों के समान गम्भीर गर्जना करने लगे॥ ४०॥

ततः खड्गं समुद्यम्य त्रिशिरा राक्षसोत्तमः।
निचखान तदा खड्गं वानरेन्द्रस्य वक्षसि॥४१॥

तब राक्षसशिरोमणि त्रिशिरा ने तलवार उठायी और कपिश्रेष्ठ हनुमान जी की छाती पर उसकी भरपूर चोट की॥४१॥

खड्गप्रहाराभिहतो हनूमान् मारुतात्मजः।
आजघान त्रिमूर्धानं तलेनोरसि वीर्यवान्॥४२॥

तलवार की चोट से घायल हो पराक्रमी पवनकुमार हनुमान् ने त्रिशिरा की छाती में एक तमाचा जड़ दिया।

स तलाभिहतस्तेन स्रस्तहस्तायुधो भुवि।
निपपात महातेजास्त्रिशिरास्त्यक्तचेतनः॥४३॥

उनका थप्पड़ लगते ही महातेजस्वी त्रिशिरा अपनी चेतना खो बैठा। उसके हाथ से हथियार खिसक गया और वह स्वयं भी पृथ्वी पर गिर पड़ा॥४३॥

स तस्य पततः खड्गं तमाच्छिद्य महाकपिः।
ननाद गिरिसंकाशस्त्रासयन् सर्वराक्षसान्॥४४॥

गिरते समय उस राक्षस के खड्ग को छीनकर पर्वताकार महाकपि हनुमान जी सब राक्षसों को भयभीत करते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे। ४४॥

अमृष्यमाणस्तं घोषमुत्पपात निशाचरः।
उत्पत्य च हनूमन्तं ताडयामास मुष्टिना॥४५॥

उनकी वह गर्जना उस निशाचर से सही नहीं गयी, अतः वह सहसा उछलकर खड़ा हो गया। उठते ही उसने हनुमान् जी को एक मुक्का मारा।। ४५॥

तेन मुष्टिप्रहारेण संचुकोप महाकपिः।
कुपितश्च निजग्राह किरीटे राक्षसर्षभम्॥४६॥

उसके मुक्के की चोट खाकर महाकपि हनुमान् जी को बड़ा क्रोध हुआ। कुपित होने पर उन्होंने उस राक्षस का मुकुटमण्डित मस्तक पकड़ लिया॥ ४६॥

स तस्य शीर्षाण्यसिना शितेन किरीटजुष्टानि सकुण्डलानि।
क्रुद्धः प्रचिच्छेद सुतोऽनिलस्य त्वष्टः सुतस्येव शिरांसि शक्रः॥४७॥

फिर तो जैसे पूर्वकाल में इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के तीनों मस्तकों को वज्र से काट गिराया था, उसी प्रकार कुपित हुए पवनपुत्र हनुमान् ने रावणपुत्र त्रिशिरा के किरीट और कुण्डलोंसहित तीनों मस्तकों को तीखी तलवार से काट डाला॥ ४७॥

तान्यायतामाण्यगसंनिभानि प्रदीप्तवैश्वानरलोचनानि।
पेतुः शिरांसीन्द्ररिपोः पृथिव्यां ज्योतींषि मुक्तानि यथार्कमार्गात्॥४८॥

उन मस्तकों की सभी इन्द्रियाँ विशाल थीं। उनकी आँखें प्रज्वलित अग्नि के समान उद्दीप्त हो रही थीं। उस इन्द्रद्रोही त्रिशिरा के वे तीनों सिर उसी प्रकार पृथ्वी पर गिरे, जैसे आकाश से तारे टूटकर गिरते हैं। ४८॥

तस्मिन् हते देवरिपौ त्रिशीर्षे हनूमता शक्रपराक्रमेण।
नेदुः प्लवंगाः प्रचचाल भूमी रक्षांस्यथो दुद्रुविरे समन्तात्॥४९॥

देवद्रोही त्रिशिरा जब इन्द्रतुल्य पराक्रमी हनुमान् जी के हाथ से मारा गया, तब समस्त वानर हर्षनाद करने लगे, धरती काँपने लगी तथा राक्षस चारों दिशाओं की ओर भाग चले॥ ४९ ॥

हतं त्रिशिरसं दृष्ट्वा तथैव च महोदरम्।
हतौ प्रेक्ष्य दुराधर्षों देवान्तकनरान्तकौ॥५०॥
चुकोप परमामर्षी मत्तो राक्षसपुङ्गवः।
जग्राहार्चिष्मतीं चापि गदां सर्वायसीं तदा ॥५१॥

त्रिशिरा तथा महोदर को मारा गया देख और दुर्जय वीर देवान्तक एवं नरान्तक को भी काल के गाल में गया हुआ जान अत्यन्त अमर्षशील राक्षसशिरोमणि मत्त (महापार्श्व) कुपित हो उठा। उसने एक तेजस्विनी गदा हाथ में ली, जो सम्पूर्णतः लोहे की बनी हुई थी॥

हेमपट्टपरिक्षिप्तां मांसशोणितफेनिलाम्।
विराजमानां विपुलां शत्रुशोणिततर्पिताम्॥५२॥

उसपर सोने का पत्र जड़ा हुआ था। युद्धस्थल में पहुँचने पर वह शत्रुओं के रक्त और मांस में सन जाती थी। उसका आकार विशाल था। वह सुन्दर शोभा से सम्पन्न तथा शत्रुओं के रक्त से तृप्त होने वाली थी॥ ५२॥

तेजसा सम्प्रदीप्तायां रक्तमाल्यविभूषिताम्।
ऐरावतमहापद्मसार्वभौमभयावहाम्॥५३॥

उसका अग्रभाग तेज से प्रज्वलित होता था। वह लाल रंगके फूलों से सजायी गयी थी तथा ऐरावत, पुण्डरीक और सार्वभौम नामक दिग्गजों को भी भयभीत करने वाली थी॥ ५३॥

गदामादाय संक्रुद्धो मत्तो राक्षसपुङ्गवः।
हरीन् समभिदुद्राव युगान्ताग्निरिव ज्वलन्॥५४॥

उस गदा को हाथ में लेकर क्रोध से भरा हुआ राक्षसशिरोमणि मत्त (महापार्श्व) प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित हो उठा और वानरों की ओर दौड़ा॥ ५४॥

अथर्षभः समुत्पत्य वानरो रावणानुजम्।
मत्तानीकमुपागम्य तस्थौ तस्याग्रतो बली॥५५॥

तब ऋषभ नामक बलवान् वानर उछलकर रावण के छोटे भाई मत्तानीक (महापार्श्व)-के पास आ पहुँचे और उसके सामने खड़े हो गये॥ ५५ ॥

तं पुरस्तात् स्थितं दृष्ट्वा वानरं पर्वतोपमम्।
आजघानोरसि क्रुद्धो गदया वज्रकल्पया॥५६॥

पर्वताकार वानरवीर ऋषभ को सामने खड़ा देख कुपित हुए महापार्श्व ने अपनी वज्रतुल्य गदा से उनकी छाती पर प्रहार किया॥५६॥

स तयाभिहतस्तेन गदया वानरर्षभः।
भिन्नवक्षाः समाधूतः सुस्राव रुधिरं बहु॥५७॥

उसकी उस गदा के आघात से वानरशिरोमणि ऋषभका वक्षःस्थल क्षत-विक्षत हो गया। वे काँप उठे और अधिक मात्रा में खन की धारा बहाने लगे। ५७॥

स सम्प्राप्य चिरात् संज्ञामृषभो वानरेश्वरः।
क्रुद्धो विस्फुरमाणौष्ठो महापार्श्वमुदैक्षत॥५८॥

बहुत देर के बाद होशमें आने पर वानरराज ऋषभ कुपित हो उठे और महापार्श्वकी ओर देखने लगे। उस समय उनके ओठ फड़क रहे थे। ५८॥

स वेगवान् वेगवदभ्युपेत्य तं राक्षसं वानरवीरमुख्यः।
संवर्त्य मुष्टिं सहसा जघान बाह्वन्तरे शैलनिकाशरूपः॥५९॥

वानरवीरों में प्रधान ऋषभ का रूप पर्वत के समान जान पड़ता था। वे बड़े वेगशाली थे। उन्होंने वेगपूर्वक उस राक्षस के पास पहुँचकर मुक्का ताना और सहसा उसकी छाती पर प्रहार किया॥ ५९॥

स कृत्तमूलः सहसेव वृक्षः क्षितौ पपात क्षतजोक्षिताङ्गः।
तां चास्य घोरां यमदण्डकल्पां गदां प्रगृह्याशु तदा ननाद॥६०॥

फिर तो महापार्श्व जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके सारे अङ्ग रक्त से नहा उठे। इधर ऋषभ उस निशाचर की यमदण्ड के समान भयंकर गदा को शीघ्र ही हाथ में लेकर जोर-जोर से गर्जना करने लगे॥६०॥

मुहूर्तमासीत् स गतासुकल्पः प्रत्यागतात्मा सहसा सुरारिः।
उत्पत्य संध्याभ्रसमानवर्णस्तं वारिराजात्मजमाजघान॥६१॥

देवद्रोही महापार्श्व दो घड़ी तक मुर्दे की भाँति पड़ा रहा। फिर होश में आने पर वह सहसा उछलकर खड़ा हो गया। उसका रक्तरञ्जित शरीर संध्याकाल के बादलों के समान लाल दिखायी देता था। उसने वरुणपुत्र ऋषभको गहरी चोट पहुँचायी॥ ६१॥

स मूर्च्छितो भूमितले पपात मुहूर्तमुत्पत्य पुनः ससंज्ञः।
तामेव तस्याद्रिवराद्रिकल्पां गदां समाविध्य जघान संख्ये॥६२॥

उस चोट से ऋषभ मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। दो घड़ी के बाद होश में आने पर वे पुनः उछलकर सामने आ गये और उन्होंने युद्धस्थल में महापार्श्व की उसी गदा को, जो किसी पर्वतराज की चट्टान के समान जान पड़ती थी, घुमाकर उस निशाचर पर दे मारा ॥ ६२॥

सा तस्य रौद्रा समुपेत्य देहं रौद्रस्य देवाध्वरविप्रशत्रोः।
बिभेद वक्षः क्षतजं च भूरि सुस्राव धात्वम्भ इवाद्रिराजः॥६३॥

उसकी उस भयंकर गदा ने देवता, यज्ञ और ब्राह्मण से शत्रुता रखने वाले उस रौद्र-राक्षस के शरीर पर चोट करके उसके वक्षःस्थल को विदीर्ण कर दिया। फिर तो जैसे पर्वतराज हिमालय गेरु आदि धातुओं से मिला हुआ जल बहाता है, उसी प्रकार वह भी अधिक मात्रा में रक्त बहाने लगा।

अभिदुद्राव वेगेन गदां तस्य महात्मनः।
तां गृहीत्वा गदां भीमामाविध्य च पुनः पुनः॥६४॥
मत्तानीकं महात्मा स जघान रणमूर्धनि।

उस समय उस राक्षस ने महामना ऋषभ के हाथ से अपनी गदा लेने के लिये उन पर धावा किया; किंतु ऋषभ ने उस भयानक गदा को हाथ में लेकर बारंबार घुमाया और बड़े वेग से महापार्श्व पर आक्रमण किया। इस तरह उन महामनस्वी वानर-वीर ने युद्ध के मुहाने पर उस निशाचर की जीवन-लीला समाप्त कर दी थी॥ ६४ १/२॥

स स्वया गदया भग्नो विशीर्णदशनेक्षणः॥
निपपात तदा मत्तो वज्राहत इवाचलः।

अपनी ही गदा की चोट खाकर महापार्श्व के दाँत टूट गये और आँखें फूट गयीं। वह वज्र के मारे हुए पर्वत-शिखर की भाँति तत्काल धराशायी हो गया। ६५ १/२॥

विशीर्णनयने भूमौ गतसत्त्वे गतायुषि।
पतिते राक्षसे तस्मिन् विद्रुतं राक्षसं बलम्॥६६॥

जिसकी आँखें नष्ट और चेतना विलुप्त हो गयी थी, वह राक्षस महापार्श्व जब गतायु होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, तब राक्षसों की सेना सब ओर भाग चली॥ ६६॥

तस्मिन् हते भ्रातरि रावणस्य तन्नैर्ऋतानां बलमर्णवाभम्।
त्यक्तायुधं केवलजीविता दुद्राव भिन्नार्णवसंनिकाशम्॥६७॥

रावण के भाई महापार्श्व का वध हो जाने पर राक्षसों की वह समुद्र के समान विशाल सेना हथियार फेंककर केवल जान बचाने के लिये सब ओर भागने लगी, मानो महासागर फूटकर सब ओर बहने लगा हो॥६७॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे सप्ततितमः सर्गः॥७०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में सत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७०॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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