वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 71 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 71
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
एकसप्ततितमः सर्गः (71)
(अतिकाय का भयंकर युद्ध और लक्ष्मण के द्वारा उसका वध)
स्वबलं व्यथितं दृष्ट्वा तुमुलं लोमहर्षणम्।
भ्रातूंश्च निहतान् दृष्ट्वा शक्रतुल्यपराक्रमान्॥१॥
पितृव्यौ चापि संदृश्य समरे संनिपातितौ।
युद्धोन्मत्तं च मत्तं च भ्रातरौ राक्षसोत्तमौ॥२॥
चुकोप च महातेजा ब्रह्मदत्तवरो युधि।
अतिकायोऽद्रिसंकाशो देवदानवदर्पहा॥३॥
अतिकाय ने देखा, शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देने वाली मेरी भयंकर सेना व्यथित हो उठी है, इन्द्र के तुल्य पराक्रमी मेरे भाइयों का संहार हो गया है तथा मेरे चाचा—दोनों भाई युद्धोन्मत्त (महोदर) और मत्त (महापार्श्व) भी समराङ्गण में मार गिराये गये हैं, तब उस महातेजस्वी निशाचर को बड़ा क्रोध हुआ। उसे ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त हो चुका था। अतिकाय पर्वत के समान विशालकाय तथा देवता और दानवों के दर्प का दलन करने वाला था॥ १-३॥
स भास्करसहस्रस्य संघातमिव भास्वरम्।
रथमारुह्य शक्रारिरभिदुद्राव वानरान्॥४॥
वह इन्द्र का शत्रु था। उसने सहस्रों सूर्यो के समूह की भाँति देदीप्यमान तेजस्वी रथ पर आरूढ़ होकर वानरों पर धावा किया॥४॥
स विस्फार्य तदा चापं किरीटी मृष्टकुण्डलः।
नाम संश्रावयामास ननाद च महास्वनम्॥५॥
उसके मस्तक पर किरीट और कानों में शुद्ध सुवर्ण के बने हुए कुण्डल झलमला रहे थे। उसने धनुष की टङ्कार करके अपना नाम सुनाया और बड़े जोर से गर्जना की॥५॥
तेन सिंहप्रणादेन नामविश्रावणेन च।
ज्याशब्देन च भीमेन त्रासयामास वानरान्॥६॥
उस सिंहनाद से, अपने नाम की घोषणा से और प्रत्यञ्चा की भयानक टङ्कार से उसने वानरों को भयभीत कर दिया॥६॥
ते दृष्ट्वा देहमाहात्म्यं कुम्भकर्णोऽयमुत्थितः।
भयार्ता वानराः सर्वे संश्रयन्ते परस्परम्॥७॥
उसके शरीर की विशालता देखकर वे वानर ऐसा मानने लगे कि यह कुम्भकर्ण ही फिर उठकर खड़ा हो गया। यह सोचकर सब वानर भय से पीड़ित हो एक-दूसरे का सहारा लेने लगे॥७॥
ते तस्य रूपमालोक्य यथा विष्णोस्त्रिविक्रमे।
भयाद् वानरयोधास्ते विद्रवन्ति ततस्ततः॥८॥
त्रिविक्रम-अवतार के समय बढ़े हुए भगवान् विष्णु के विराट रूप की भाँति उसका शरीर देखकर वे वानर-सैनिक भय के मारे इधर-उधर भागने लगे॥८॥
तेऽतिकायं समासाद्य वानरा मूढचेतसः।
शरण्यं शरणं जग्मुर्लक्ष्मणाग्रजमाहवे॥९॥
अतिकाय के निकट जाते ही वानरों के चित्त पर मोह छा गया। वे युद्धस्थल में लक्ष्मण के बड़े भाई शरणागतवत्सल भगवान् श्रीराम की शरण में गये॥९॥
ततोऽतिकायं काकुत्स्थो रथस्थं पर्वतोपमम्।
ददर्श धन्विनं दूराद् गर्जन्तं कालमेघवत्॥१०॥
रथ पर बैठे हुए पर्वताकार अतिकाय को श्रीरामचन्द्रजी ने भी देखा। वह हाथ में धनुष लिये कुछ दूरपर प्रलयकाल के मेघ की भाँति गर्जना कर रहा था॥ १०॥
स तं दृष्ट्वा महाकायं राघवस्तु सुविस्मितः।
वानरान् सान्त्वयित्वा च विभीषणमुवाच ह॥११॥
उस महाकाय निशाचर को देखकर श्रीरामचन्द्रजी को भी बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने वानरों को सान्त्वना देकर विभीषण से पूछा- ॥११॥
कोऽसौ पर्वतसंकाशो धनुष्मान् हरिलोचनः।
युक्ते हयसहस्रेण विशाले स्यन्दने स्थितः॥१२॥
‘विभीषण! हजार घोड़ों से जुते हुए विशाल रथ पर बैठा हुआ वह पर्वताकार निशाचर कौन है ? उसके हाथ में धनुष है और आँखें सिंह के समान तेजस्विनी दिखायी देती हैं॥ १२॥
य एष निशितैः शूलैः सुतीक्ष्णैः प्रासतोमरैः।
अर्चिष्मद्भिर्वृतो भाति भूतैरिव महेश्वरः॥१३॥
‘यह भूतों से घिरे हुए भूतनाथ महादेवजी के समान तीखे शूल तथा अत्यन्त तेज धारवाले तेजस्वी प्रासों और तोमरों से घिरकर अद्भुत शोभा पा रहा है॥ १३॥
कालजिह्वाप्रकाशाभिर्य एषोऽभिविराजते।
आवृतो रथशक्तीभिर्विद्युद्भिरिव तोयदः॥१४॥
‘इतना ही नहीं, कालकी जिह्वा के समान प्रकाशित होने वाली रथशक्तियों से घिरा हुआ यह वीर निशाचर विद्युन्मालाओं से आवृत मेघ के समान प्रकाशित हो रहा है॥ १४॥
धनूंषि चास्य सज्जानि हेमपृष्ठानि सर्वशः।
शोभयन्ति रथश्रेष्ठं शक्रचापमिवाम्बरम्॥१५॥
‘जिनके पृष्ठभाग में सोने मढ़े हुए हैं, ऐसे अनेकानेक सुसज्जित धनुष उसके श्रेष्ठ रथ की सब ओर से उसी तरह शोभा बढ़ा रहे हैं, जैसे इन्द्रधनुष आकाश को सुशोभित करता है॥ १५॥
य एष रक्षःशार्दूलो रणभूमिं विराजयन्।
अभ्येति रथिनां श्रेष्ठो रथेनादित्यवर्चसा॥१६॥
‘यह राक्षसों में सिंह के समान पराक्रमी और रथियों में श्रेष्ठ वीर अपने सूर्यतुल्य तेजस्वी रथ के द्वारा रणभूमि की शोभा बढ़ाता हुआ मेरे सामने आ रहा है। १६॥
ध्वजशृङ्गप्रतिष्ठेन राहुणाभिविराजते।
सूर्यरश्मिप्रभैर्बाणैर्दिशो दश विराजयन्॥१७॥
‘इसके ध्वज के शिखर पर पताका में राहु का चिह्न अङ्कित है, जिससे रथ की बड़ी शोभा हो रही है। यह सूर्य की किरणों के समान चमकीले बाणों से दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रहा है॥ १७॥
त्रिनतं मेघनिर्हादं हेमपृष्ठमलंकृतम्।
शतक्रतुधनुःप्रख्यं धनुश्चास्य विराजते॥१८॥
‘इसके धनुष का पृष्ठभाग सोने से मढ़ा हुआ तथा पुष्प आदि से अलंकृत है। वह आदि, मध्य और अन्ततीन स्थानों में झुका हुआ है। उसकी प्रत्यञ्चा से मेघों की गर्जना के समान टंकार-ध्वनि प्रकट होती है। इस निशाचर का धनुष इन्द्र-धनुष के समान शोभा पाता है।
सध्वजः सपताकश्च सानुकर्षो महारथः।
चतुःसादिसमायुक्तो मेघस्तनितनिःस्वनः॥१९॥
‘इसका विशाल रथ ध्वजा, पताका और अनुकर्ष (रथ के नीचे लगे हुए आधारभूत काष्ठ)-से युक्त, चार सारथियों से नियन्त्रित और मेघ की गर्जना के समान घर्घराहट पैदा करने वाला है॥ १९॥
विंशतिर्दश चाष्टौ च तूणास्य रथमास्थिताः।
कार्मुकाणि च भीमानि ज्याश्च काञ्चनपिङ्गलाः॥२०॥
‘इसके रथ पर बीस तरकस, दस भयंकर धनुष और आठ सुनहरे एवं पिङ्गलवर्ण की प्रत्यञ्चाएँ रखी हुई हैं ॥ २० ॥
द्वौ च खड्गौ च पार्श्वस्थौ प्रदीप्तौ पार्श्वशोभितौ।
चतुर्हस्तत्सरुयुतौ व्यक्तहस्तदशायतौ॥२१॥
‘दोनों बगल में दो चमकीली तलवारें शोभा पा रही हैं, जिनकी मूंठे चार हाथ की और लंबाई दस हाथ की है॥ २१॥
रक्तकण्ठगुणो धीरो महापर्वतसंनिभः।
कालः कालमहावक्त्रो मेघस्थ इव भास्करः॥२२॥
‘गले में लाल रंग की माला धारण किये महान् पर्वत के समान आकारवाला यह धीर-वीर निशाचर काले रंग का दिखायी देता है। इसका विशाल मुख काल के मुख के समान भयंकर है तथा यह मेघों की ओट में स्थित हुए सूर् यके समान प्रकाशित होता है। २२॥
काञ्चनाङ्गदनद्धाभ्यां भुजाभ्यामेष शोभते।
शृङ्गाभ्यामिव तुङ्गाभ्यां हिमवान् पर्वतोत्तमः॥२३॥
‘इसकी बाँहों में सोने के बाजूबंद बँधे हुए हैं। उन भुजाओं के द्वारा यह विशालकाय निशाचर दो ऊँचे शिखरों से युक्त गिरिराज हिमालय के समान शोभा पाता है॥ २३॥
कुण्डलाभ्यामुभाभ्यां च भाति वक्त्रं सुभीषणम्।
पुनर्वस्वन्तरगतं परिपूर्णो निशाकरः॥२४॥
‘इसका अत्यन्त भीषण मुखमण्डल दोनों कुण्डलों से मण्डित हो पुनर्वसु नामक दो नक्षत्रों के बीच स्थित हुए परिपूर्ण चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा है॥२४॥
आचक्ष्व मे महाबाहो त्वमेनं राक्षसोत्तमम्।
यं दृष्ट्वा वानराः सर्वे भयार्ता विद्रुता दिशः॥२५॥
‘महाबाहो! तुम मुझे इस श्रेष्ठ राक्षस का परिचय दो, जिसे देखते ही सब वानर भयभीत हो सम्पूर्ण दिशाओं की ओर भाग चले हैं ॥२५॥
स पृष्टो राजपुत्रेण रामेणामिततेजसा।
आचचक्षे महातेजा राघवाय विभीषणः॥२६॥
अमित तेजस्वी राजकुमार श्रीराम के इस प्रकार पूछने पर महातेजस्वी विभीषण ने रघुनाथजी से इस प्रकार कहा— ॥२६॥
दशग्रीवो महातेजा राजा वैश्रवणानुजः।
भीमकर्मा महात्मा हि रावणो राक्षसेश्वरः॥२७॥
तस्यासीद् वीर्यवान् पुत्रो रावणप्रतिमो बले।
वृद्धसेवी श्रुतिधरः सर्वास्त्रविदुषां वरः॥ २८॥
‘भगवन्! जो कुबेर का छोटा भाई, महातेजस्वी, महाकाय, भयानक कर्म करने वाला तथा राक्षसों का स्वामी दशमुख राजा रावण है, उसके एक बड़ा पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुआ, जो बल में रावण के ही समान है। वह वृद्ध पुरुषों का सेवन करने वाला, वेदशास्त्रों का ज्ञाता तथा सम्पूर्ण अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ है। २७-२८॥
अश्वपृष्ठे नागपृष्ठे खड्गे धनुषि कर्षणे।
भेदे सान्त्वे च दाने च नये मन्त्रे च सम्मतः॥२९॥
‘हाथी-घोड़ों की सवारी करने, तलवार चलाने, धनुष पर बाणों का संधान करने, प्रत्यञ्चा खींचने, लक्ष्य बेधने, साम और दान का प्रयोग करने तथा न्याययुक्त बर्ताव एवं मन्त्रणा देने में वह सबके द्वारा सम्मानित है॥ २९॥
यस्य बाहुं समाश्रित्य लङ्का भवति निर्भया।
तनयं धान्यमालिन्या अतिकायमिमं विदुः॥३०॥
‘उसी के बाहुबल का आश्रय लेकर लङ्कापुरी सदा निर्भय रहती आयी है। वही यह वीर निशाचर है। यह रावणकी दूसरी पत्नी धान्यमालिनी का पुत्र है। इसे लोग अतिकाय के नाम से जानते हैं॥३०॥
एतेनाराधितो ब्रह्मा तपसा भावितात्मना।
अस्त्राणि चाप्यवाप्तानि रिपवश्च पराजिताः॥३१॥
‘तपस्या से विशुद्ध अन्तःकरण वाले इस अतिकाय ने दीर्घकाल तक ब्रह्माजी की आराधना की थी। इसने ब्रह्माजी से अनेक दिव्यास्त्र प्राप्त किये हैं और उनके द्वारा बहुत-से शत्रुओं को पराजित किया है॥३१॥
सुरासुरैरवध्यत्वं दत्तमस्मै स्वयंभुवा।
एतच्च कवचं दिव्यं रथश्च रविभास्वरः॥३२॥
‘ब्रह्माजी ने इसे देवताओं और असुरों से न मारे जाने का वरदान दिया है। ये दिव्य कवच और सूर्य के समान तेजस्वी रथ भी उन्हीं के दिये हुए हैं।॥ ३२ ॥
एतेन शतशो देवा दानवाश्च पराजिताः।
रक्षितानि च रक्षांसि यक्षाश्चापि निषूदिताः॥३३॥
‘इसने देवता और दानवों को सैकड़ों बार पराजित किया है, राक्षसों की रक्षा की है और यक्षों को मार भगाया है॥३३॥
वज्रं विष्टम्भितं येन बाणैरिन्द्रस्य धीमता।
पाशः सलिलराजस्य युद्धे प्रतिहतस्तथा॥३४॥
‘इस बुद्धिमान् राक्षस ने अपने बाणों द्वारा इन्द्र के वज्र को भी कुण्ठित कर दिया है तथा युद्ध में जल के स्वामी वरुण के पाश को भी सफल नहीं होने दिया है॥
एषोऽतिकायो बलवान् राक्षसानामथर्षभः।
स रावणसुतो धीमान् देवदानवदर्पहा॥३५॥
‘राक्षसों में श्रेष्ठ यह बुद्धिमान् रावणकुमार अतिकाय बड़ा बलवान् तथा देवताओं और दानवों के दर्प को भी दलन करने वाला है॥ ३५ ॥
तदस्मिन् क्रियतां यत्नः क्षिप्रं पुरुषपुङ्गव।
पु ततोऽतिकायो बलवान् प्रविश्य हरिवाहिनीम्।
विस्फारयामास धनुर्ननाद च पुनः पुनः॥ ३७॥
विभीषण और भगवान् श्रीराम में इस प्रकार बातें हो ही रही थीं कि बलवान् अतिकाय वानरों की सेना में घुस आया और बारम्बार गर्जना करता हुआ अपने धनुष पर टंकार देने लगा॥ ३७॥
तं भीमवपुषं दृष्ट्वा रथस्थं रथिनां वरम्।
अभिपेतुर्महात्मानः प्रधाना ये वनौकसः॥ ३८॥
कुमुदो दिविदो मैन्दो नीलः शरभ एव च।
पादपैर्गिरिशृङ्गैश्च युगपत् समभिद्रवन्॥३९॥
रथियों में श्रेष्ठ और भयंकर शरीरवाले उस राक्षस को रथ पर बैठकर आते देख कुमुद, द्विविद, मैन्द, नील और शरभ आदि जो प्रधान-प्रधान महामनस्वी वानर थे, वे वृक्ष तथा पर्वतशिखर धारण किये एक साथ ही उस पर टूट पड़े॥ ३८-३९॥
तेषां वृक्षांश्च शैलांश्च शरैः कनकभूषणैः।
अतिकायो महातेजाश्चिच्छेदास्त्रविदां वरः॥४०॥
परंतु अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी अतिकाय ने अपने सुवर्णभूषित बाणों से वानरों के चलाये हुए वृक्षों और पर्वत-शिखरों को काट गिराया॥ ४०॥
तांश्चैव सर्वान् स हरीन् शरैः सर्वायसैबली।
विव्याधाभिमुखान् संख्ये भीमकायो निशाचरः॥४१॥
साथ ही उस बलवान् और भीमकाय निशाचर ने युद्धस्थल में सामने आये हुए उन समस्त वानरों को लोहे के बाणों से बांध डाला॥ ४१॥
तेऽर्दिता बाणवर्षेण भिन्नगात्राः पराजिताः।
न शेकुरतिकायस्य प्रतिकर्तुं महाहवे॥४२॥
उसकी बाणवर्षा से आहत हो सबके शरीर क्षतविक्षत हो गये। सबने हार मान ली और कोई भी उस महासमर में अतिकाय का सामना करने में समर्थ न हो सके॥४२॥
तत् सैन्यं हरिवीराणां त्रासयामास राक्षसः।
मृगयूथमिव क्रुद्धो हरियौवनदर्पितः॥४३॥
जैसे जवानी के जोश से भरा हुआ कुपित सिंह मृगों के झुण्ड को भयभीत कर देता है, उसी प्रकार वह राक्षस वानरवीरों की उस सेना को त्रास देने लगा। ४३॥
स राक्षसेन्द्रो हरियूथमध्ये नायुध्यमानं निजघान कंचित्।
उत्पत्य रामं स धनुःकलापी सगर्वितं वाक्यमिदं बभाषे॥४४॥
वानरों के झुण्ड में विचरते हुए राक्षसराज अतिकाय ने किसी भी ऐसे योद्धा को नहीं मारा, जो उसके साथ युद्ध न कर रहा हो। धनुष और तरकस धारण किये वह निशाचर उछलकर श्रीराम के पास आ गया तथा बड़े गर्व से इस प्रकार बोला— ॥४४॥
रथे स्थितोऽहं शरचापपाणिर्न प्राकृतं कंचन योधयामि।
यस्यास्ति शक्तिर्व्यवसाययुक्तो ददातु मे शीघ्रमिहाद्य युद्धम्॥४५॥
‘मैं धनुष और बाण लेकर रथ पर बैठा हूँ। किसी साधारण प्राणी से युद्ध करने का मेरा विचार नहीं है। जिसके अंदर शक्ति हो, साहस और उत्साह हो, वह शीघ्र यहाँ आकर मुझे युद्ध का अवसर दे’॥ ४५ ॥
तत् तस्य वाक्यं ब्रुवतो निशम्य चुकोप सौमित्रिरमित्रहन्ता।
अमृष्यमाणश्च समुत्पपात जग्राह चापं च ततः स्मयित्वा॥४६॥
उसके ये अहंकारपूर्ण वचन सुनकर शत्रुहन्ता सुमित्राकुमार लक्ष्मण को बड़ा क्रोध हुआ। उसकी बातों को सहन न कर सकने के कारण वे आगे बढ़ आये और किंचित् मुसकराकर उन्होंने अपना धनुष उठाया॥
क्रुद्धः सौमित्रिरुत्पत्य तूणादाक्षिप्य सायकम्।
पुरस्तादतिकायस्य विचकर्ष महद्धनुः॥४७॥
कुपित हुए लक्ष्मण उछलकर आगे आये और तरकस से बाण खींचकर अतिकाय के सामने आ अपने विशाल धनुष को खींचने लगे॥४७॥
पूरयन् स महीं सर्वामाकाशं सागरं दिशः।
ज्याशब्दो लक्ष्मणस्योग्रस्त्रासयन् रजनीचरान्॥४८॥
लक्ष्मण के धनुष की प्रत्यञ्चा का वह शब्द बड़ा भयंकर था। वह सारी पृथ्वी, आकाश, समुद्र तथा सम्पूर्ण दिशाओं में गूंज उठा और निशाचरों को त्रास देने लगा॥
सौमित्रेश्चापनि?षं श्रुत्वा प्रतिभयं तदा।
विसिस्मिये महातेजा राक्षसेन्द्रात्मजो बली॥४९॥
सुमित्राकुमार के धनुष की वह भयानक टंकार सुनकर उस समय महातेजस्वी बलवान् राक्षसराजकुमार अतिकाय को बड़ा विस्मय हुआ॥ ४९॥
तदातिकायः कुपितो दृष्ट्वा लक्ष्मणमुत्थितम्।
आदाय निशितं बाणमिदं वचनमब्रवीत्॥५०॥
लक्ष्मण को अपना सामना करने के लिये उठा देख अतिकाय रोष से भर गया और तीखा बाण हाथ में लेकर इस प्रकार बोला— ॥५०॥
बालस्त्वमसि सौमित्रे विक्रमेष्वविचक्षणः।
गच्छ किं कालसंकाशं मां योधयितुमिच्छसि॥५१॥
‘सुमित्राकुमार! तुम अभी बालक हो। पराक्रम करने में कुशल नहीं हो, अतः लौट जाओ। मैं तुम्हारे लिये काल के समान हूँ। मुझसे जूझने की इच्छा क्यों करते हो? ॥ ५१॥
नहि मद्बाहुसृष्टानां बाणानां हिमवानपि।
सोढुमुत्सहते वेगमन्तरिक्षमथो मही॥५२॥
‘मेरे हाथ से छूटे हुए बाणों का वेग गिरिराज हिमालय भी नहीं सह सकता। पृथ्वी और आकाश भी उसे नहीं सहन कर सकते॥५२॥
सुखप्रसुप्तं कालाग्निं विबोधयितुमिच्छसि।
न्यस्य चापं निवर्तस्व प्राणान्न जहि मद्गतः॥५३॥
‘तुम सुख से सोयी (शान्त) हुई प्रलयाग्नि को क्यों जगाना (प्रज्वलित करना) चाहते हो? धनुष को यहीं छोड़कर लौट जाओ। मुझसे भिड़कर अपने प्राणों का परित्याग न करो॥ ५३॥
अथवा त्वं प्रतिस्तब्धो न निवर्तितुमिच्छसि।
तिष्ठ प्राणान् परित्यज्य गमिष्यसि यमक्षयम्॥५४॥
‘अथवा तुम बड़े अहंकारी हो, इसीलिये लौटना नहीं चाहते। अच्छा, खड़े रहो। अभी अपने प्राणों से हाथ धोकर यमलोक की यात्रा करोगे॥ ५४॥
पश्य मे निशितान् बाणान् रिपुदर्पनिषूदनान्।
ईश्वरायुधसंकाशांस्तप्तकाञ्चनभूषणान्॥५५॥
‘शत्रुओं का दर्प चूर्ण करने वाले मेरे इन तीखे बाणों को, जो तपे हुए सुवर्ण से भूषित हैं, देखो; ये भगवान् शंकर के त्रिशूल की समानता करते हैं॥ ५५ ॥
एष ते सर्पसंकाशो बाणः पास्यति शोणितम्।
मृगराज इव क्रुद्धो नागराजस्य शोणितम्।
इत्येवमुक्त्वा संक्रुद्धः शरं धनुषि संदधे॥५६॥
‘जैसे कुपित हुआ सिंह गजराज का खून पीता है, उसी प्रकार यह सर्प के समान भयंकर बाण तुम्हारे रक्त का पान करेगा।’ ऐसा कहकर अतिकाय ने अत्यन्त कुपित हो अपने धनुष पर बाण का संधान किया॥५६॥
श्रुत्वातिकायस्य वचः सरोषं सगर्वितं संयति राजपुत्रः।
स संचुकोपातिबलो मनस्वी उवाच वाक्यं च ततो महार्थम्॥५७॥
युद्धस्थल में अतिकायके रोष और गर्व से भरे हुए इस वचन को सुनकर अत्यन्त बलशाली एवं मनस्वी राजकुमार लक्ष्मण को बड़ा क्रोध हुआ। वे यह महान् अर्थ से युक्त वचन बोले- ॥५७॥
न वाक्यमात्रेण भवान् प्रधानो न कत्थनात् सत्पुरुषा भवन्ति।
मयि स्थिते धन्विनि बाणपाणौ निदर्शयस्वात्मबलं दुरात्मन्॥५८॥
‘दुरात्मन्! केवल बातें बनाने से तू बड़ा नहीं हो सकता। सिर्फ डींग हाँकने से कोई श्रेष्ठ पुरुष नहीं होते। मैं हाथ में धनुष और बाण लेकर तेरे सामने खड़ा हूँ। तू अपना सारा बल मुझे दिखा॥ ५८॥
कर्मणा सूचयात्मानं न विकस्थितुमर्हसि।
पौरुषेण तु यो युक्तः स तु शूर इति स्मृतः॥५९॥
‘पराक्रम के द्वारा अपनी वीरता का परिचय दे। झूठी शेखी बघारना तेरे लिये उचित नहीं है। शूर वही माना गया है, जिसमें पुरुषार्थ हो॥ ५९॥
सर्वायुधसमायुक्तो धन्वी त्वं रथमास्थितः।
शरैर्वा यदि वाप्यस्त्रैर्दर्शयस्व पराक्रमम्॥६०॥
‘तेरे पास सब तरहके हथियार मौजूद हैं। तू धनुष लेकर रथ पर बैठा हुआ है; अतः बाणों अथवा अन्य अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा पहले अपना पराक्रम दिखा ले॥६०॥
ततः शिरस्ते निशितैः पातयिष्याम्यहं शरैः।
मारुतः कालसम्पक्वं वृन्तात् तालफलं यथा॥६१॥
‘उसके बाद मैं अपने तीखे बाणों से तेरा मस्तक उसी तरह काट गिराऊँगा, जैसे वायु कालक्रम से पके हुए ताड़ के फल को उसके वृन्त (बौंडी)-से नीचे गिरा देती है॥ ६१॥
अद्य ते मामका बाणास्तप्तकाञ्चनभूषणाः।
पास्यन्ति रुधिरं गात्राद् बाणशल्यान्तरोत्थितम्॥६२॥
‘आज तपे हुए सुवर्ण से विभूषित मेरे बाण अपनी नोंक-द्वारा किये गये छिद्र से निकले हुए तेरे शरीर के रक्त का पान करेंगे॥ ६२॥
बालोऽयमिति विज्ञाय न चावज्ञातुमर्हसि।
बालो वा यदि वा वृद्धो मृत्युं जानीहि संयुगे॥६३॥
‘तू मुझे बालक जानकर मेरी अवहेलना न कर। मैं बालक होऊँ अथवा वृद्ध, संग्राम में तो तू मुझे अपना काल ही समझ ले॥ ६३॥
बालेन विष्णुना लोकास्त्रयः क्रान्तास्त्रिविक्रमैः।
लक्ष्मणस्य वचः श्रुत्वा हेतुमत् परमार्थवत्।
अतिकायः प्रचुक्रोध बाणं चोत्तममाददे॥६४॥
‘वामनरूपधारी भगवान् विष्णु देखने में बालक ही थे; किंतु अपने तीन ही पगों से उन्होंने समूची त्रिलोकी नाप ली थी।’ लक्ष्मण की वह परम सत्य और युक्तियुक्त बात सुनकर अतिकाय के क्रोध की सीमा न रही। उसने एक उत्तम बाण अपने हाथ में ले लिया॥ ६४॥
ततो विद्याधरा भूता देवा दैत्या महर्षयः।
गुह्यकाश्च महात्मानस्तद् युद्धं द्रष्टुमागमन्॥६५॥
तदनन्तर विद्याधर, भूत, देवता, दैत्य, महर्षि तथा महामना गुह्यकगण उस युद्ध को देखने के लिये आये॥
ततोऽतिकायः कुपितश्चापमारोप्य सायकम्।
लक्ष्मणाय प्रचिक्षेप संक्षिपन्निव चाम्बरम्॥६६॥
उस समय अतिकाय ने कुपित हो धनुष पर वह उत्तम बाण चढ़ाया और आकाश को अपना ग्रास बनाते हुए-से उसे लक्ष्मण पर चला दिया॥६६॥
तमापतन्तं निशितं शरमाशीविषोपमम्।
अर्धचन्द्रेण चिच्छेद लक्ष्मणः परवीरहा॥६७॥
किंतु शत्रुवीरों का संहार करने वाले लक्ष्मण ने एक अर्धचन्द्राकार बाण के द्वारा अपनी ओर आते हुए उसविषधर सर्प के तुल्य भयंकर एवं तीखे बाण को काट डाला॥६७॥
तं निकृत्तं शरं दृष्ट्वा कृत्तभोगमिवोरगम्।
अतिकायो भृशं क्रुद्धः पञ्च बाणान् समादधे॥६८॥
जैसे सर्प का फन कट जाय, उसी प्रकार उस बाणको खण्डित हुआ देख अत्यन्त कुपित हुए अतिकाय ने पाँच बाणों को धनुष पर रखा॥ ६८॥
तान् शरान् सम्प्रचिक्षेप लक्ष्मणाय निशाचरः।
तानप्राप्तान् शितैर्बाणैश्चिच्छेद भरतानुजः॥६९॥
फिर उस निशाचर ने लक्ष्मण पर ही वे पाँचों बाण चला दिये। वे बाण उनके समीप अभी आने भी नहीं पाये थे कि लक्ष्मण ने तीखे सायकों से उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥ ६९॥
स तान् छित्त्वा शितैर्बाणैर्लक्ष्मणः परवीरहा।
आददे निशितं बाणं ज्वलन्तमिव तेजसा॥७०॥
शत्रुवीरों का संहार करने वाले लक्ष्मण ने अपने पैने सायकों से उन बाणों का खण्डन करने के पश्चात् एक तेज बाण हाथ में लिया, जो अपने तेज से प्रज्वलित-सा हो रहा था॥ ७० ॥
तमादाय धनुःश्रेष्ठे योजयामास लक्ष्मणः।
विचकर्ष च वेगेन विससर्ज च सायकम्॥७१॥
उसे लेकर लक्ष्मण ने अपने श्रेष्ठ धनुष पर रखा, उसकी प्रत्यञ्चा को खींचा और बड़े वेग से वह सायक अतिकाय पर छोड़ दिया। ७१॥
पूर्णायतविसृष्टेन शरेण नतपर्वणा।
ललाटे राक्षसश्रेष्ठमाजघान स वीर्यवान्॥७२॥
धनुष को पूर्णरूप से खींचकर छोड़े गये तथा झुकी हुई गाँठवाले उस बाण के द्वारा पराक्रमी लक्ष्मण ने राक्षसश्रेष्ठ अतिकाय के ललाट में गहरा आघात किया॥
स ललाटे शरो मग्नस्तस्य भीमस्य रक्षसः।
ददृशे शोणितेनाक्तः पन्नगेन्द्र इवाचले॥७३॥
वह बाण उस भयानक राक्षस के ललाट में धंस गया और रक्त से भीगकर पर्वत से सटे हुए किसी नागराज के समान दिखायी देने लगा॥७३॥
राक्षसः प्रचकम्पेऽथ लक्ष्मणेषु प्रपीडितः।
रुद्रबाणहतं घोरं यथा त्रिपुरगोपुरम्॥७४॥
चिन्तयामास चाश्वास्य विमृश्य च महाबलः।
लक्ष्मण के बाण से अत्यन्त पीड़ित हो वह राक्षस काँप उठा। ठीक उसी तरह, जैसे भगवान् रुद्र के बाणों से आहत हो त्रिपुर का भयंकर गोपुर हिल उठा था। फिर थोड़ी ही देर में सँभलकर महाबली अतिकाय बड़ी चिन्ता में पड़ गया और कुछ सोचविचारकर बोला— ॥७४ १/२॥
साधु बाणनिपातेन श्लाघनीयोऽसि मे रिपुः॥७५॥
विधायैवं विदार्यास्यं नियम्य च महाभुजौ।
स रथोपस्थमास्थाय रथेन प्रचचार ह॥७६॥
‘शाबाश! इस प्रकार अमोघ बाण का प्रयोग करने के कारण तुम मेरे स्पृहणीय शत्रु हो।’ मुँह फैलाकर ऐसा कहने के पश्चात् अतिकाय अपनी दोनों विशाल भुजाओं को काबू में करके रथ के पिछले भाग में बैठकर उस रथ के द्वारा ही आगे बढ़ा।७५-७६॥
एवं त्रीन् पञ्च सप्तेति सायकान् राक्षसर्षभः।
आददे संदधे चापि विचकर्षोत्ससर्ज च॥७७॥
उस राक्षसशिरोमणि वीर ने क्रमशः एक, तीन, पाँच और सात सायकों को लेकर उन्हें धनुष पर चढ़ाया और वेगपूर्वक खींचकर चला दिया॥ ७७॥
ते बाणाः कालसंकाशा राक्षसेन्द्रधनुश्च्युताः।
हेमपुङ्खा रविप्रख्याश्चक्रुर्दीप्तमिवाम्बरम्॥७८॥
उस राक्षसराज के धनुष से छूटे हुए उन सुवर्णभूषित, सूर्यतुल्य तेजस्वी तथा काल के समान भयंकर बाणों ने आकाश को प्रकाश से पूर्ण-सा कर दिया॥ ७८॥
ततस्तान् राक्षसोत्सृष्टान् शरौघान् राघवानुजः।
असम्भ्रान्तः प्रचिच्छेद निशितैर्बहुभिः शरैः॥७९॥
परंतु रघुनाथजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने बिना किसी घबराहट के उस निशाचर द्वारा चलाये हुए उन बाणसमूहों को तेज धारवाले बहुसंख्यक सायकों द्वारा काट गिराया॥ ७९ ॥
तान् शरान् युधि सम्प्रेक्ष्य निकृत्तान् रावणात्मजः।
चुकोप त्रिदशेन्द्रारिर्जग्राह निशितं शरम्॥८०॥
उन बाणों को कटा हुआ देख इन्द्रद्रोही रावणकुमार को बड़ा क्रोध हुआ और उसने एक तीखा बाण हाथ में लिया॥ ८०॥
स संधाय महातेजास्तं बाणं सहसोत्सृजत्।
तेन सौमित्रिमायान्तमाजघान स्तनान्तरे॥८१॥
उसे धनुष पर रखकर उस महातेजस्वी वीर ने सहसा छोड़ दिया और उसके द्वारा सामने आते हुए सुमित्राकुमार की छाती में आघात किया॥ ८१॥
अतिकायेन सौमित्रिस्ताडितो युधि वक्षसि।
सुस्राव रुधिरं तीव्र मदं मत्त इव द्विपः॥८२॥
अतिकाय के उस बाण की चोट खाकर सुमित्राकुमार युद्धस्थल में अपने वक्षःस्थल से तीव्रगति से रक्त बहाने लगे, मानो कोई मतवाला हाथी मस्तक से मद की वर्षा कर रहा हो॥ ८२॥
स चकार तदात्मानं विशल्यं सहसा विभुः।
जग्राह च शरं तीक्ष्णमस्त्रेणापि समाददे॥८३॥
फिर सामर्थ्यशाली लक्ष्मण ने सहसा अपनी छाती से उस बाण को निकाल दिया और एक तीखा सायक हाथ में लेकर उसे दिव्यास्त्र से संयोजित किया॥ ८३॥
आग्नेयेन तदास्त्रेण योजयामास सायकम्।
स जज्वाल तदा बाणो धनुष्यस्य महात्मनः॥८४॥
उस समय अपने उस सायक को उन्होंने आग्नेयास्त्र से अभिमन्त्रित किया। अभिमन्त्रित होते ही महात्मा लक्ष्मण के धनुष पर रखा हुआ वह बाण तत्काल प्रज्वलित हो उठा॥ ८४॥
अतिकायोऽतितेजस्वी रौद्रमस्त्रं समाददे।
तेन बाणं भुजङ्गाभं हेमपुङ्खमयोजयत्॥ ८५॥
उधर अत्यन्त तेजस्वी अतिकाय ने भी रौद्रास्त्र को एक सुवर्णमय पंखवाले सर्पाकार बाण पर समायोजित किया॥ ८५॥
तदस्त्रं ज्वलितं घोरं लक्ष्मणः शरमाहितम्।
अतिकायाय चिक्षेप कालदण्डमिवान्तकः॥८६॥
इतने ही में लक्ष्मण ने दिव्यास्त्र की शक्ति से सम्पन्न उस प्रज्वलित एवं भयंकर बाण को अतिकाय के ऊपर चलाया, मानो यमराज ने अपने कालदण्ड का प्रयोग किया हो॥८६॥
आग्नेयास्त्राभिसंयुक्तं दृष्ट्वा बाणं निशाचरः।
उत्ससर्ज तदा बाणं रौद्रं सूर्यास्त्रयोजितम्॥८७॥
आग्नेयास्त्र से अभिमन्त्रित हुए उस बाण को अपनी ओर आते देख निशाचर अतिकाय ने तत्काल ही अपने भयंकर बाण को सूर्यास्त्र से अभिमन्त्रित करके चलाया॥ ८७॥
तावुभावम्बरे बाणावन्योन्यमभिजघ्नतुः।
तेजसा सम्प्रदीप्तायौ क्रुद्धाविव भुजङ्गमौ॥ ८८॥
तावन्योन्यं विनिर्दह्य पेततुः पृथिवीतले॥८९॥
उन दोनों सायकों के अग्रभाग तेज से प्रज्वलित हो रहे थे। आकाश में पहुँचकर वे दोनों कुपित हुए दो सर्पो की भाँति आपस में टकरा गये और एक-दूसरे को दग्ध करके पृथ्वी पर गिर पड़े॥ ८८-८९॥
निरर्चिषौ भस्मकृतौ न भ्राजेते शरोत्तमौ।
तावुभौ दीप्यमानौ स्म न भ्राजेते महीतले॥९०॥
वे दोनों ही बाण उत्तम कोटि के थे और अपनी दीप्ति से प्रकाशित हो रहे थे, तथापि एक-दूसरे के तेज से भस्म होकर अपना-अपना तेज खो बैठे। इसलिये भूतल पर निष्प्रभ होने के कारण उनकी शोभा नहीं हो रही थी॥
ततोऽतिकायः संक्रुद्धस्त्वाष्ट्रमैषीकमुत्सृजत्।
ततश्चिच्छेद सौमित्रिरस्त्रमैन्द्रेण वीर्यवान्॥९१॥
तदनन्तर अतिकाय ने अत्यन्त कुपित हो त्वष्टा देवता के मन्त्र से अभिमन्त्रित करके एक सींक का बाण छोड़ा; परंतु पराक्रमी लक्ष्मण ने उस अस्त्र को ऐन्द्रास्त्र से काट दिया॥९१॥
ऐषीकं निहतं दृष्ट्वा कुमारो रावणात्मजः।
याम्येनास्त्रेण संक्रुद्धो योजयामास सायकम्॥९२॥
ततस्तदस्त्रं चिक्षेप लक्ष्मणाय निशाचरः।
वायव्येन तदस्त्रेण निजघान स लक्ष्मणः॥९३॥
सींक के बाण को नष्ट हुआ देख रावणपुत्र कुमार अतिकाय के क्रोध की सीमा न रही। उस राक्षस ने एक सायक को याम्यास्त्र से अभिमन्त्रित किया और उसे लक्ष्मण को लक्ष्य करके चला दिया; परंतु लक्ष्मण ने वायव्यास्त्र द्वारा उसको भी नष्ट कर दिया॥ ९२-९३॥
अथैनं शरधाराभिर्धाराभिरिव तोयदः।
अभ्यवर्षत संक्रुद्धो लक्ष्मणो रावणात्मजम्॥९४॥
तत्पश्चात् जैसे मेघ जल की धारा बरसाता है, उसी प्रकार अत्यन्त कुपित हुए लक्ष्मण ने रावणकुमार अतिकाय पर बाणधारा की वर्षा आरम्भ कर दी॥ ९४॥
तेऽतिकायं समासाद्य कवचे वज्रभूषिते।
भग्नाग्रशल्याः सहसा पेतुर्बाणा महीतले॥९५॥
अतिकाय ने एक दिव्य कवच बाँध रखा था, जिसमें हीरे जड़े हुए थे। लक्ष्मण के बाण अतिकाय तक पहुँचकर उसके कवच से टकराते और नोक टूट जाने के कारण सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ते थे॥ ९५॥
तान्मोघानभिसम्प्रेक्ष्य लक्ष्मणः परवीरहा।
अभ्यवर्षत बाणानां सहस्रेण महायशाः॥९६॥
उन बाणों को असफल हुआ देख शत्रुवीरों का संहार करने वाले महायशस्वी लक्ष्मण ने पुनः सहस्रों बाणों की वर्षा की॥९६॥
स वृष्यमाणो बाणौधैरतिकायो महाबलः।
अवध्यकवचः संख्ये राक्षसो नैव विव्यथे॥९७॥
महाबली अतिकायका कवच अभेद्य था, इसलिये युद्धस्थल में बाण-समूहों की वर्षा होने पर भी वह राक्षस व्यथित नहीं होता था॥ ९७॥
शरं चाशीविषाकारं लक्ष्मणाय व्यपासृजत्।
स तेन विद्धः सौमित्रिर्मर्मदेशे शरेण ह॥९८॥
उसने लक्ष्मण पर विषधर सर्प के समान भयंकर बाण चलाया। उस बाण से सुमित्राकुमार के मर्मस्थल में चोट पहुँची। ९८ ॥
मुहूर्तमानं निःसंज्ञो ह्यभवच्छत्रुतापनः।
ततः संज्ञामुपालभ्य चतुर्भिः सायकोत्तमैः॥९९॥
निजघान हयान् संख्ये सारथिं च महाबलः।
ध्वजस्योन्मथनं कृत्वा शरररिंदमः॥१००॥
अतः शत्रुओं को संताप देने वाले लक्ष्मण दो घड़ी तक अचेत अवस्था में पड़े रहे। फिर होश में आने पर उन महाबली शत्रुदमन वीर ने बाणों की वर्षा से शत्रु के रथ की ध्वजा को नष्ट कर दिया और चार उत्तम सायकों से रणभूमि में उसके घोड़ों तथा सारथि को भी यमलोक पहुँचा दिया॥९९-१०० ॥
असम्भ्रान्तः स सौमित्रिस्तान् शरानभिलक्षितान्।
मुमोच लक्ष्मणो बाणान् वधार्थं तस्य रक्षसः॥१०१॥
न शशाक रुजं कर्तुं युधि तस्य नरोत्तमः।
तत्पश्चात् सम्भ्रमरहित नरश्रेष्ठ सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने उस राक्षस के वध के लिये जाँचे-बूझे हुए बहुत-से अमोघ बाण छोड़े, तथापि वे समराङ्गण में उस निशाचर के शरीर को वेध न सके॥ १०१ १/२ ॥
अथैनमभ्युपागम्य वायुर्वाक्यमुवाच ह॥१०२॥
ब्रह्मदत्तवरो ह्येष अवध्यकवचावृतः।
ब्राह्मणास्त्रेण भिन्ध्येनमेष वध्यो हि नान्यथा।
अवध्य एष ह्यन्येषामस्त्राणां कवची बली॥१०३॥
तदनन्तर वायुदेवता ने उनके पास आकर कहा —’सुमित्रानन्दन! इस राक्षस को ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त हुआ है। यह अभेद्यकवच से ढका हुआ है। अतः इसको ब्रह्मास्त्र से विदीर्ण कर डालो; अन्यथा यह नहीं मारा जा सकेगा। यह कवचधारी बलवान् निशाचर अन्य अस्त्रों के लिये अवध्य है॥ १०२-१०३॥
ततस्तु वायोर्वचनं निशम्य सौमित्रिरिन्द्रप्रतिमानवीर्यः।
समादधे बाणमथोग्रवेगं तद्ब्राह्ममस्त्रं सहसा नियुज्य॥१०४॥
लक्ष्मण इन्द्र के समान पराक्रमी थे। उन्होंने वायुदेवता का उपर्युक्त वचन सुनकर एक भयंकर वेगवाले बाण को सहसा ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित करके धनुष पर रखा॥ १०४॥
तस्मिन् वरास्त्रे तु नियुज्यमाने
ब्रह्मदत्तवरो ह्येष अवध्यकवचावृतः।
ब्राह्मणास्त्रेण भिन्ध्येनमेष वध्यो हि नान्यथा।
अवध्य एष ह्यन्येषामस्त्राणां कवची बली॥ १०३॥
तदनन्तर वायुदेवता ने उनके पास आकर कहा —’सुमित्रानन्दन! इस राक्षस को ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त हुआ है। यह अभेद्यकवच से ढका हुआ है। अतः इसको ब्रह्मास्त्र से विदीर्ण कर डालो; अन्यथा यह नहीं मारा जा सकेगा। यह कवचधारी बलवान् निशाचर अन्य अस्त्रों के लिये अवध्य है॥ १०२-१०३॥
ततस्तु वायोर्वचनं निशम्य सौमित्रिरिन्द्रप्रतिमानवीर्यः।
समादधे बाणमथोग्रवेगं तद्ब्राह्ममस्त्रं सहसा नियुज्य॥१०४॥
लक्ष्मण इन्द्र के समान पराक्रमी थे। उन्होंने वायुदेवता का उपर्युक्त वचन सुनकर एक भयंकर वेगवाले बाण को सहसा ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित करके धनुष पर रखा॥ १०४॥
तस्मिन् वरास्त्रे तु नियुज्यमाने सुपर्णवज्रोत्तमचित्रपुङ्ख तदातिकायः समरे ददर्श॥१०७॥
लक्ष्मण के चलाये हुए उस बाण का वेग बहुत बढ़ा हुआ था। उसके पंख गरुड़ के समान थे और उनमें हीरे जड़े हुए थे; इसलिये उनकी विचित्र शोभा होती थी। अतिकाय ने समराङ्गण में उस बाण को उस समय वायु के समान भयंकर वेग से अपनी ओर आते देखा। १०७॥
तं प्रेक्षमाणः सहसातिकायो जघान बाणैर्निशितैरनेकैः।
स सायकस्तस्य सुपर्णवेगस्तथातिवेगेन जगाम पार्श्वम्॥१०८॥
उसे देखकर अतिकाय ने सहसा उसके ऊपर बहुत-से पैने बाण चलाये तो भी वह गरुड़ के समान वेगशाली सायक बड़े वेग से उसके पास जा पहुंचा।
तमागतं प्रेक्ष्य तदातिकायो बाणं प्रदीप्तान्तककालकल्पम्।
जघान शक्त्यृष्टिगदाकुठारैः शूलैः शरैश्चाप्यविपन्नचेष्टः॥१०९॥
प्रलयङ्कर काल के समान प्रज्वलित हुए उस बाण को अत्यन्त निकट आया देखकर भी अतिकाय की युद्धविषयक चेष्टा नष्ट नहीं हुई। उसने शक्ति, ऋष्टि, गदा, कुठार, शूल तथा बाणों द्वारा उसे नष्ट करने का प्रयत्न किया॥१०९॥
तान्यायुधान्यद्भुतविग्रहाणि मोघानि कृत्वा स शरोऽग्निदीप्तः।
प्रगृह्य तस्यैव किरीटजुष्टं तदातिकायस्य शिरो जहार॥११०॥
परंतु अग्नि के समान प्रज्वलित हुए उस बाण ने उन अद्भुत अस्त्रों को व्यर्थ करके अतिकाय के मुकुटमण्डित मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। ११०॥
तच्छिरः सशिरस्त्राणं लक्ष्मणेषुप्रमर्दितम्।।
पपात सहसा भूमौ शृङ्गं हिमवतो यथा॥१११॥
लक्ष्मण के बाण से कटा हुआ राक्षस का वह शिरस्त्राणसहित मस्तक हिमालय के शिखर की भाँति सहसा पृथ्वी पर जा पड़ा॥ १११॥
तं भूमौ पतितं दृष्ट्वा विक्षिप्ताम्बरभूषणम्।
बभूवुर्व्यथिताः सर्वे हतशेषा निशाचराः॥११२॥
उसके वस्त्र और आभूषण सब ओर बिखर गये। उसे धरती पर पड़ा देख मरने से बचे हुए समस्त निशाचर व्यथित हो उठे॥ ११२॥
ते विषण्णमुखा दीनाः प्रहारजनितश्रमाः।
विनेदुरुच्चैर्बहवः सहसा विस्वरैः स्वरैः॥११३॥
उनके मुख पर विषाद छा गया। उन पर जो मार पड़ी थी, उससे थक जाने के कारण वे और भी दुःखी हो गये थे। अतः वे बहुसंख्यक राक्षस सहसा विकृत स्वर में जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगे॥ ११३ ॥
ततस्तत्परितं याता निरपेक्षा निशाचराः।
पुरीमभिमुखा भीता द्रवन्तो नायके हते॥११४॥
सेनानायक के मारे जाने पर निशाचरों का युद्ध विषयक उत्साह नष्ट हो गया, अतः वे भयभीत हो तुरंत ही लङ्कापुरी की ओर भाग चले॥ ११४ ॥
प्रहर्षयुक्ता बहवस्तु वानराः प्रफुल्लपद्मप्रतिमाननास्तदा।
अपूजयल्लक्ष्मणमिष्टभागिनं हते रिपौ भीमबले दुरासदे॥११५॥
इधर उस भयंकर बलशाली दुर्जय शत्रु के मारे जाने पर बहुसंख्यक वानर हर्ष और उत्साह से भर गये। उनके मुख प्रफुल्ल कमलों के समान खिल उठे और वे अभीष्ट विजय के भागी वीरवर लक्ष्मण की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥ ११५ ॥
अतिबलमतिकायमभ्रकल्पं युधि विनिपात्य स लक्ष्मणः प्रहृष्टः।
त्वरितमथ तदा स रामपाक् कपिनिवहैश्च सुपूजितो जगाम॥११६॥
युद्धस्थल में अत्यन्त बलशाली और मेघ के समान विशाल अतिकाय को धराशायी करके लक्ष्मण बड़े प्रसन्न हुए। वे उस समय वानर-समूहों से सम्मानित हो तुरंत ही श्रीरामचन्द्रजी के पास गये॥ ११६ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे एकसप्ततितमः सर्गः॥७१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में इकहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।७१॥