कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा॥ रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥2॥
श्रीगणेशायनमः | Shri Ganeshay Namah
श्रीजानकीवल्लभो विजयते | Shri JanakiVallabho Vijayte
श्रीरामचरितमानस | Shri RamCharitManas
तृतीय सोपान | Descent Third
श्री अरण्यकाण्ड | Shri Aranya-Kand
चौपाई :
कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥2॥
भावार्थ:
श्री रामजी ने अपना धर्म (भागवत धर्म) कहकर उसे समझाया। अपने चरणों में प्रेम देखकर वह उनके मन को भाया। तदनन्तर श्री रघुनाथजी के चरणकमलों में सिर नवाकर वह अपनी गति (गंधर्व का स्वरूप) पाकर आकाश में चला गया॥2॥
English :
IAST :
Meaning :