चित्रकूट स्तुति
चित्रकूट-स्तुति
राग बसन्त
२३
सब सोच-बिमोचन चित्रकूट। कलिहरन,करन कल्यान बूट ॥ १ ॥
सुचि अवनि सुहावनि आलबाल। कानन बिचित्र,बारी बिसाल ॥ २ ॥
मन्दाकिनि-मालिनि सदा सीञ्च। बर बारि,बिषम नर-नारि नीच ॥ ३ ॥
साखा सुसृङ्ग,भूरुह-सुपात। निरझर मधुबर,मृदु मलय बात ॥ ४ ॥
सुक,पिक,मधुकर,मुनिबर बिहारु। साधन प्रसून फल चारि चारु ॥ ५ ॥
भव-घोरघाम-हर सुखद छाँह। थप्यो थिर प्रभाव जानकी-नाह ॥ ६ ॥
साधक-सुपथिक बडे भाग पाइ। पावत अनेक अभिमत अघाइ ॥ ७ ॥
रस एक,रहित-गुन-करम-काल। सिय राम लखन पालक कृपाल ॥ ८ ॥
तुलसी जो राम पद चहिय प्रेम। सेइय गिरि करि निरुपाधि नेम ॥ ९ ॥
राग कान्हरा
२४
अब चित चेति चित्रकूटहि चलु।
कोपित कलि, लोपित मङ्गल मगु, बिलसत बढ़त मोह-माया-मलु ॥ १ ॥
भूमि बिलोकु राम-पद-अङ्कित, बन बिलोकु रघुबर-बिहारथलु।
सैल-सृङ्ग भवभङ्ग-हेतु लखु, दलन कपट-पाखण्ड-दम्भ-डलु ॥ २ ॥
जहँ जनमे जग-जनक जगपति, बिधि-हरि परिहरि प्रपञ्च छलु।
सकृत प्रबेस करत जेहि आस्रम, बिगत-बिषाद भये पारथ नलु ॥ ३ ॥
न करु बिलम्ब बिचारु चारुमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु।
मन्त्र सो जाइ जपहि, जो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु ॥ ४ ॥
रामनाम-जप जाग करत नित, मज्जत पय पावन पीवत जलु।
करिहैं राम भावतौ मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु ॥ ५ ॥
कामदमनि कामता,कलपतरु सो जुग-जुग जागत जगतीतलु।
तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतीति प्रीति एकै बलु ॥ ६ ॥