हनुमान साठिका या हनुमद् बंदीमोचन हिंदी अर्थ सहित (तुलसीदासजी विरचित)
हनुमान साठिका या हनुमद् बंदीमोचन हिंदी अर्थ सहित
साठिका परिचय: हनुमान जी के भक्तों के लिए हनुमान साठिका (साठ पदों का संकलन) या हनुमद् बंदीमोचन का अपना महत्व है। यह गोस्वामी तुलसीदास जी की दैवीय लेखनी से सृजित है एवं यथा नाम बंदीमोचन अर्थात भय, किसी अज्ञात बंधन अथवा कारावास से मुक्त होने का बहुत ही सिद्ध पाठ है।
हनुमान चालीसा की तरह अगर आप हनुमान साठिका का पाठ करतें हैं तो आप पर सदा हनुमान जी की कृपा बनी रहेगी। हनुमान साठिका का पाठ करने वाले हनुमान भक्त सदा भय से बचे रहतें हैं एवं इस हनुमान साठिका का पाठ करने से आपका जीवन सदा सुखमय रहेगा।
हनुमान-साठिका हनुमद्-बन्दीमोचन के पाठ का आनंद लें;
॥दोहा॥
बीर बखानौं पवनसुत,जनत सकल जहान ।
धन्य-धन्य अंजनि-तनय , संकर, हर, हनुमान्॥
वीर पवनकुमार की कीर्ति का वर्णन करता हूँ जिसको सारा संसार जानता है। हे आंजनेय ! हे भगवान शंकर के अवतार हनुमानजी ! आप धन्य हैं, धन्य हैं ।
जय जय जय हनुमान अडंगी । महावीर विक्रम बजरंगी ॥
जय कपीश जय पवन कुमारा । जय जगबन्दन सील अगारा ॥
जय आदित्य अमर अबिकारी । अरि मरदन जय-जय गिरधारी ॥
अंजनि उदर जन्म तुम लीन्हा । जय-जयकार देवतन कीन्हा ॥
हे हनुमानजी ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो । आपकी गति अबाध है । कोई आपका मार्ग नहीं रोक सकता । हे वज्र के समान कठोर अंगों वाले महावीर ! आपकी जय हो, जय हो । हे कपियों के राजा ! आपकी जय हो । हे पवनपुत्र ! आपकी जय हो । हे सारे संसार के वंदनीय ! हे गुणों के भंडार ! आपकी जय हो । हे कर्तव्य- प्रवीण , हे देवता , हे अविकारी ! आपकी जय हो । हे शत्रुओं का नाश करने वाले ! आपकी जय हो। हे द्रोणाचल को उठाने वाले ! आपकी जय हो । आपने माता अंजनी के गर्भ से जन्म लिया । तब देवताओं ने जय- जयकार की ।।१।।
बाजे दुन्दुभि गगन गम्भीरा । सुर मन हर्ष असुर मन पीरा ॥
कपि के डर गढ़ लंक सकानी । छूटे बंध देवतन जानी ॥
ऋषि समूह निकट चलि आये । पवन तनय के पद सिर नाये ॥
बार-बार अस्तुति करि नाना । निर्मल नाम धरा हनुमाना ॥
आकाश में नगाड़े बजे, देवता मन में हर्षित हुए, असुरों के मन में पीड़ा हुई। आपके डर से लंका के किले में रहने वाले भयभीत हो गये । आपने देवताओं को कारागार से छुड़ाया। यह सब जानते हैं। ऋषियों के समूह आपके पास आय और हे पवनकुमार ! आपके चरणों में सिर नवाये और बहुत प्रकार से बार-बार स्तुति की और आपका पावन नाम ‘ हनुमान् ‘ रखा गया ॥२॥
सकल ऋषिन मिलि अस मत ठाना । दीन्ह बताय लाल फल खाना ॥
सुनत बचन कपि मन हर्षाना । रवि रथ उदय लाल फल जाना ॥
रथ समेत कपि कीन्ह अहारा । सूर्य बिना भए अति अंधियारा ॥
विनय तुम्हार करै अकुलाना । तब कपीस की अस्तुति ठाना ॥
सब ऋषियों ने सर्वसम्मति से आपको लाल फल खाने की प्रेरणा दी जिसे सुनकर आप बहुत हर्षित हुए और सूर्य को लाल फल समझ कर रथ समेत पकड़ लिया। आपने सूर्य को रथ सहित मुँह में रख लिया। तब अत्यन्त भय छा गया और हाहाकार मच गया। सूर्य के बिना सब देवता और मुनि व्याकुल होकर आपकी स्तुति करने लगे॥३॥
सकल लोक वृतान्त सुनावा । चतुरानन तब रवि उगिलावा ॥
कहा बहोरि सुनहु बलसीला । रामचन्द्र करिहैं बहु लीला ॥
तब तुम उन्हकर करेहू सहाई । अबहिं बसहु कानन में जाई ॥
असकहि विधि निजलोक सिधारा । मिले सखा संग पवन कुमारा ॥
सारे संसार की दशा सुनकर ब्रह्माजी ने सूर्य को मुक्त करने के लिए आपको मनाया। तब आपसे विनती की , हे महावीर ! सुनिये । श्री रामचंद्र जी महान लीला करेंगे तब आपा उनकी सहायता करियेगा । अभी तो आप वन में जाकर रहिये । यह कहकर ब्रह्माजी अपने लोक को चले गए
और हे पवनकुमार । आप अपने सखाओं में मिल गए॥४॥
खेलैं खेल महा तरु तोरैं । ढेर करैं बहु पर्वत फोरैं ॥
जेहि गिरि चरण देहि कपि धाई । गिरि समेत पातालहिं जाई ॥
कपि सुग्रीव बालि की त्रासा । निरखति रहे राम मगु आसा ॥
मिले राम तहं पवन कुमारा । अति आनन्द सप्रेम दुलारा ॥
खेल-खेल में आपने बड़े – बड़े वृक्ष तोड़ डाले और पर्वतों को फोड़ – फोड़ कर मार्ग बनाया । हे हनुमानजी ! जिस पर्वत पर आपने चरण रखे वह प्रकाशमान होकर रसातल में चला गया। सुग्रीवजी बाली से डरे हुए थे । श्रीरामचन्द्र की प्रतीक्षा करते हुए निर्भय रहते थे । हे पवनकुमार ! आपने लाकर उन्हें श्रीरामचन्द्र जी से मिला दिया। और हे पवनदेव ! आपको इसमें बहुत आनन्द हुआ॥५॥
मनि मुंदरी रघुपति सों पाई । सीता खोज चले सिरु नाई ॥
सतयोजन जलनिधि विस्तारा । अगम अपार देवतन हारा ॥
जिमि सर गोखुर सरिस कपीसा । लांघि गये कपि कहि जगदीशा ॥
सीता चरण सीस तिन्ह नाये । अजर अमर के आसिस पाये ॥
हे हनुमानजी ! श्री राघवेंद्र से आपको मणि जड़ित अंगूठी मिली जिसे लेकर आप श्रीसीताजी की खोज करने चले। हे हनुमानजी ! सौ योजन का विशाल , अथाह , समुद्र जिसे देवता और मुनि भी पार नहीं कर सकते थे , उसे आपने ‘जय श्रीराम ‘ कहकर बिना थके हुए सहज हीं गऊ के खुर के समान लाँघ लिया । और सीताजी के पास पहुँचकर उनके चरणकमल में सिर नवाया जिस पर सीताजी से आपने अजर अमर होने का आशीर्वाद पाया ॥६॥
रहे दनुज उपवन रखवारी । एक से एक महाभट भारी ॥
तिन्हैं मारि पुनि कहेउ कपीसा । दहेउ लंक कोप्यो भुज बीसा ॥
सिया बोध दै पुनि फिर आये । रामचन्द्र के पद सिर नाये।
मेरु उपारि आप छिन माहीं । बांधे सेतु निमिष इक मांहीं ॥
एक-से-एक भयंकर योद्धा , राक्षस वाटिका की रखवाली करते थे। उन्हें आपने मारा, उपवन को नष्ट किया , लंका को जलाया जिससे रावण भयभीत होकर काँप गया। आपने सीताजी को धीरज दिया औत लौट कर श्रीरामचन्द्र के चरणों में सिर नवाया । बड़े – बड़े पर्वतों को लाकर आपने पलभर में समुद्र पर पुल बँधाया ॥७॥
लछमन शक्ति लागी उर जबहीं । राम बुलाय कहा पुनि तबहीं ॥
भवन समेत सुषेन लै आये । तुरत सजीवन को पुनि धाये ॥
मग महं कालनेमि कहं मारा । अमित सुभट निसिचर संहारा ॥
आनि संजीवन गिरि समेता । धरि दीन्हों जहं कृपा निकेता ॥
जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तब श्रीरामचंद्र ने बहुत विलाप किया। आप सुषेन वैद्य को भवन समेत ही उठा लाए आप बड़े वेग से संजीवनी बूटी लेने गए। रास्ते में कालनेमि को मारा और असंख्य योद्धा- निशाचरों को नष्ट किया। आपने पर्वत सहित संजीवनी को लाकर करुणानिधान श्रीरामचंद्र के पास रख दिया ॥८॥
फनपति केर सोक हरि लीन्हा । वर्षि सुमन सुर जय जय कीन्हा ॥
अहिरावण हरि अनुज समेता । लै गयो तहां पाताल निकेता ॥
जहां रहे देवि अस्थाना । दीन चहै बलि काढ़ि कृपाना ॥
पवनतनय प्रभु कीन गुहारी । कटक समेत निसाचर मारी ॥
आपने लक्ष्मण जी के संकट को दूर कर दिया। देवताओं ने पुष्प-वर्षा करके जय-जयकार की। अहिरावण श्रीराम-लक्ष्मण को पाताल में ले गया । वहाँ देवीजी के स्थान पर उनकी बलि देने के लिए तलवार निकाल ली। उसी समय हे हनुमानजी ! आपने वहाँ पहुँच कर उस राक्षस को ललकारा और उसे सेना समेत मार डाला॥९॥
रीछ कीसपति सबै बहोरी । राम लषन कीने यक ठोरी ॥
सब देवतन की बन्दि छुड़ाये । सो कीरति मुनि नारद गाये ॥
अछयकुमार दनुज बलवाना । कालकेतु कहं सब जग जाना ॥
कुम्भकरण रावण का भाई । ताहि निपात कीन्ह कपिराई ॥
जहाँ जामवंत और सुग्रीव थे, वहाँ आप श्रीरामलक्ष्मण को लौटा लाए। आपने सब देवताओं को बंधन से छुड़ा दिया। नारद मुनि ने आपका यशगान किया अक्षयकुमार राक्षस बहुत बलवान था। जिसे स्वामी केतु कहते यह सब संसार जानता है। रावण का भाई कुम्भकरण था । हे हनुमान जी ! इन सबका आपने विनाश किया॥१०॥
मेघनाद पर शक्ति मारा । पवन तनय तब सो बरियारा ॥
रहा तनय नारान्तक जाना । पल में हते ताहि हनुमाना ॥
जहं लगि भान दनुज कर पावा । पवन तनय सब मारि नसावा।
जय मारुत सुत जय अनुकूला । नाम कृसानु सोक सम तूला ॥
आपने युद्ध में मेघनाद को पछाड़ा । हे पवनकुमार! आपके समान कौन बलवान है ? मूल नक्षत्र में जन्म लेनेवाले नारान्तक – नामक रावण के पुत्र को हे हनुमानजी ! आपने क्षण भर में परास्त कर दइया । जहाँ – जहाँ आपने राक्षसों को पाया, हे शिव अवतार ! आपने उन्हें मारकर ढकेल दिया । हे पवनपुत्र ! आपकी जय हो । आप सेवकों के कार्य-सिद्ध में सहायक हुए । उनके शोक रूपी रूई को जलाने में आपका नाम अग्नि के समान है ॥११॥
जहं जीवन के संकट होई । रवि तम सम सो संकट खोई ॥
बन्दि परै सुमिरै हनुमाना । संकट कटै धरै जो ध्याना ॥
जाको बांध बामपद दीन्हा । मारुत सुत व्याकुल बहु कीन्हा ॥
सो भुजबल का कीन कृपाला । अच्छत तुम्हें मोर यह हाला ॥
जिसके जीवन में कोई संकट हो, आप उसे वैसे ही दूर कर देते हैं जैसे अँधेरे को सूर्य । हे हनुमानजी ! बंदी होने पर जो आपका स्मरण करता है उसकी रक्षा करने के लिये आप गदा और चक्र लेकर चल पड़ते हैं। यमराज को भी ऊपर दिशा में फेंक देते हैं और मृत्यु को भी बाँधकर उनकी बुरी दशा करते हैं । हे कृपासागर ! आपकी वह शारीरिक शक्ति कहाँ गयी जो आपके रहते मेरी यह दशा हो रही है ॥१२॥
आरत हरन नाम हनुमाना । सादर सुरपति कीन बखाना ॥
संकट रहै न एक रती को । ध्यान धरै हनुमान जती को ॥
धावहु देखि दीनता मोरी । कहौं पवनसुत जुगकर जोरी ॥
कपिपति बेगि अनुग्रह करहु । आतुर आइ दुसै दुख हरहु ॥
हे हनुमानजी ! आपका नाम संकटमोचन है। श्री सरस्वती जी और देवराज इंद्र ऐसा वर्णन करते हैं कि जो व्यकि ब्रह्मचारी हनुमानजी आपका ध्यान धरता है उसका एक रत्ती के बराबर भे संकट नहीं रह सकता। आप मेरी दीनता देखकर अति तीव्र गति से आइये और मेरे बंधनों को काट दीजिए। मैं हाथ जोड़कर विनती करता हूँ। हे हनुमानजी ! शीघ्र कृपा कीजिये। मुझ दा का दुःख दूर करने के लिए आप उतावले होकर आइये ॥१३॥
राम सपथ मैं तुमहिं सुनाया । जवन गुहार लाग सिय जाया ॥
यश तुम्हार सकल जग जाना । भव बन्धन भंजन हनुमाना ॥
यह बन्धन कर केतिक बाता । नाम तुम्हार जगत सुखदाता ॥
करौ कृपा जय जय जग स्वामी । बार अनेक नमामि नमामी ॥
हे शिव अवतार ! यदि आप मेरी पुकार सुनकर न आओ तो मैं आपको श्रीराम की शपथ देता हूं । आप्का यश सारा संसार जानता है हे हनुमानजी, आप संसार में बार-बार जन्म लेने के भय को भी दूर कर देते हैं फिर मेरा यह बंधन कितना सा है ? आपका जगत् – सुखदाता नाम है । हे जग के स्वामी ! आपकी जय हो । आप कृपा कीजिये। मैं अनेक बार आपको नमस्कार करता हूँ॥१४॥
भौमवार कर होम विधाना । धूप दीप नैवेद्य सुजाना ॥
मंगल दायक को लौ लावे । सुन नर मुनि वांछित फल पावे ॥
जयति जयति जय जय जग स्वामी । समरथ पुरुष सुअन्तरजामी ॥
अंजनि तनय नाम हनुमाना । सो तुलसी के प्राण समाना ॥
जो कोई मंगलवार को विधिपूर्वक हवन करे , धूप – दीप-नैवद्य समर्पित करे और मंगलकारक श्रीहनुमानजी में लगन लगावे , वह चाहे देवता हो या मनुष्य हो या मुनि हो , तुरंत ही उसका फल पायेगी । हे जगत् के स्वामी !आपकी जय हो, जय हो, जय हो, जय हो ! हे हनुमानजी ! आप समर्थविश्वात्मा, मन की बात जानने वाले, ‘ आंजनेय आपका नाम है । आप तुलसी के कृपा-निधान हैं ॥१५॥
॥दोहा॥
जय कपीस सुग्रीव तुम, जय अंगद हनुमान ॥
राम लषन सीता सहित, सदा करो कल्याण ॥
बन्दौं हनुमत नाम यह, भौमवार परमान ॥
ध्यान धरै नर निश्चय, पावै पद कल्याण ॥
जो नित पढ़ै यह साठिका, तुलसी कहैं बिचारि ।
रहै न संकट ताहि को, साक्षी हैं त्रिपुरारि ॥
सुग्रीवजी की जय, अंगदजी की जय , हनुमानजी की जय, श्रीराम लक्ष्मणजी, सीताजी सहित सदा कल्याण कीजिये । मंगलवार को प्रमाण मानकर हनुमान जी का यह पाठ जो भी करता है, मनुष्य निश्चय कर ध्यान करे तो कल्याणकारी परमपद प्राप्त करता है। तुलसीदास की यह घोषणा है कि जो इस हनुमान साठिका को नित्य पढ़ेगा वह कभी संकट में नहीं पड़ेगा। श्री शिवजी साक्षी हैं। .
॥सवैया॥
आरत बन पुकारत हौं कपिनाथ सुनो विनती मम भारी ।
अंगद औ नल-नील महाबलि देव सदा बल की बलिहारी ॥
जाम्बवन्त् सुग्रीव पवन-सुत दिबिद मयंद महा भटभारी ।
दुःख दोष हरो तुलसी जन-को श्री द्वादश बीरन की बलिहारी ॥
(श्री तुलसीदासजी कहते हैं ) हे हनुमानजी ! मैं भारी विपत्ति में पड़कर आपको पुकार रहा हूँ। आप मेरी विनय सुनिये । अंगद , नल , नील , महादेव , राजा बलि, भगवान राम ( देव ) बलराम ,शूरवीर , जाम्वान् , सुग्रीव , पवनपुत्र हनुमान , द्विद और मयन्द – इन बारह वीरों की मैं बलिहारी (न्यौछावर) हूँ , भक्त के दुःख और दोष को दूर कीजिये।